क्या प्रकृति समताकारी शिक्षण के लिए सही जगह हो सकती है? (In Hindi)

By युवान एविस (Yuvan Aves)onDec. 20, 2023in Environment and Ecology

विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख  (Specially Written for Vikalp Sangam)

बिहू और प्रतीका गुप्ता द्वारा अंग्रेजी से अनुवादित

(Kya Prakriti Samtakari Shikshan Ke Liye Sahi Jagah Ho Sakti Hai?)

सभी चित्र लेखक द्वारा लिए गए हैं

यह देखने में आया है कि प्रकृति आधारित शिक्षण परम्परागत कक्षा शिक्षण की तुलना में कहीं ज़्यादा कारगर है। और यह हाशियाकृत और वंचित तबके के बच्चों और पर्यावरणीय दबाव और जीवन की चुनौतियों का सामान्य से अधिक सामना कर रहे युवाओं के लिए खासतौर से महत्वपूर्ण है। क्या प्रकृति शिक्षा एक ऐसा प्रमुख कारक हो सकती है जो भारत की शिक्षा पद्धति में सभी के लिए बराबर मौके बनाए? 

पिछली बरसात में, तालाबन्दी के दौरान मैंने ऐबेकस मोंटेसरी स्कूल के बच्चों के साथ तटवर्ती नमभूमि (वेटलैण्ड) पर कुछ सत्र किए थे। बरसात ने उस वक्त उस जगह की कुदरती रंगत ही बदल दी थी और वहाँ एक नया-सा जीवन पनप रहा था। हमने प्राथमिक कक्षा (4 से 6 साल की उम्र) के बच्चों के साथ ‘चेन्नई के मेंढक’ विषय पर सत्र किए थे। उस समय हर रात उस शहर में मेंढकों की टर्र-टर्र गूँजती रहती थी। हमने मेरे घर के पास वाले छोटे पोखर से ली गई तस्वीरों में सँकरे मुँह वाले मेंढक (Microhyla ornata) का जीवनचक्र देखा – अंडे से लेकर टेडपॉल निकलने तक, और फिर टेडपॉल के बड़े होने तक। हमने शहरों में पाए जाने वाले कॉमन मेंढकों और उनकी आवाज़ों को पहचानना सीखा। मैंने बच्चों को यह भी बताया कि भेक (टोड) और मेंढकों की उनके पारिस्थितिक तन्त्र में क्या भूमिका है, और वे पर्यावरण परिवर्तन के प्रति कितने संवेदनशील होते हैं क्योंकि वे अपनी त्वचा के माध्यम से साँस लेते हैं। अन्त में हमने चरण-दर-चरण भारतीय टोड को काग़ज़ पर उकेरना सीखा। बच्चों को पास की ही दलदली ज़मीन को देखने जाना था और वहाँ जाकर उनको भेक और मेंढकों की कम-से-कम 5 प्रजातियाँ खोजना था। रातों में उनकी आवाज़ें सुननी थी और यह पता लगाना था कि कौन-सी प्रजाति के भेक और मेंढक उनके आस-पड़ोस में अधिक पाए जाते हैं। और यह भी पता करना था कि बारिश के पहले और बाद उनके टर्राने की आवाज़ में कैसा बदलाव आता है। 

कई दिनों बाद मेरी दोस्त और प्राथमिक शिक्षिका सुधा ने मुझे बताया कि इन सत्र का बच्चों पर किस तरह असर पड़ा है। बच्चे इन प्राणियों को लेकर काफ़ी जिज्ञासु हो गए हैं और बारिश की शामें उन्होंने अपने घर के आसपास से आने वाली आवाज़ों को पहचानने में बितायी हैं। एक बच्ची तो एक टोड एक गत्ते के डिब्बे में अपने घर ले आई, उसने उसका नाम रखा, अपना दोस्त कहा और अपने माता-पिता को चौंका दिया। खासतौर पर सुधा ने मुझे विशिष्टा के बारे में बताया जो कि पहले पढ़ने और लिखने को लेकर ज़्यादा उत्सुक नहीं थी। पर मेंढकों ने उसे भाषा सीखने के लिए नया मकसद दिया। उसने अपने माता-पिता को बोला कि उसे मेंढकों के बारे में पढ़कर बताएँ, और उसे पढ़ने और समझने में मदद करें, नए शब्द बताएँ और वाक्यों में उसका इस्तेमाल भी। उसकी इस रुचि को उसके स्कूल के शिक्षकों ने भी बढ़ावा दिया। मैंने कुछ महीनों बाद उसको मेंढकों के जीवन चक्र के बारे में बड़े ही प्रवाह से पढ़ते देखा जो कि एक 5 साल के बच्चे के लिए दुर्लभ है।

विशिष्टा का उदाहरण प्रासंगिक है, पर मैंने इसे काफ़ी बच्चों में अलग-अलग रूपों में देखा है। मेरे दोस्त का बेटा मितुल काफ़ी ऊर्जा से भरा, कभी न थकने वाला और बागबानी का शौक़ीन बच्चा है। अभी वो सिर्फ़ 6 साल का है पर जब वो अपने घर की बालकनी में टमाटर, भिण्डी और सूरजमुखी उगाता है तो उसके लगाए पौधे मेरे लगाए पौधों से ज़्यादा बेहतर उगते हैं। पेड़-पत्तों में छिपी हुई मकड़ियों और पृष्ठभूमि के रंग-रूप से मेल खाने (छलावरण) वाले जीवों को ढूँढ लेने में वो माहिर है। आकार और रंग-रूपों को समझ लेना उसकी जन्मजात खूबी है। उसे खुद से दुनिया को समझना पसन्द है बजाय इसके कि कोई और उसे बताए। इसलिए उसे स्कूल में रट्टे मारना बिल्कुल पसन्द नहीं है। इस वजह से शिक्षक हमेशा शिकायत करते हैं कि उसके पढ़ने-लिखने के हुनर में कोई सुधार नहीं हो रहा है – जिन तरीकों से वे पढ़ा रहे हैं बेशक उनसे सुधार होगा भी नहीं। मैंने उसे समय-समय पर अलग-अलग सुंदर पिक्चर बुक्स और बच्चों की कहानियों वाली किताबें दीं जो कि उसके आस-पास की प्रकृति के प्रति उसका ध्यान आकर्षित करतीं हों, जैसे Saahi’s Quest, Big Rain, Shero to the Rescue और ऐसी ही कुछ और किताबें भी दीं। जब उसे समझ आया कि भाषा (या पढ़ने) के कारण उसका जुड़ाव उसके आस-पास के जीव-जन्तुओं, झीलों और उसके घर के पास वाली दलदली ज़मीन से और भी गहरा हो सकता है तो पढ़ने में उसकी रुचि और क्षमता लगातार बढ़ती चली गई।

अपने घर के समुद्र तट को एक समृद्ध जीवंत सीखने का स्थान बनाते हुए – उरूर कुप्पम में प्रशिक्षुता कार्यक्रम

हमारी टीम पिछले 6 महीने से उरूर और ओलकोट कुप्पम में मछुआरा समुदाय के बच्चों के लिए एक प्रशिक्षु कार्यक्रम चला रही है। यह दोनों चेन्नई के बेसेंट नगर में तटीय बस्तियाँ हैं। अलग-अलग सामाजिक आर्थिक पृठभूमि से आए बच्चों में यह अन्तर देखने को मिलता है कि वे कैसे बड़े हो रहे हैं, और उनकी कौन-सी क्षमताएँ तेज़ी से और कौन-सी क्षमताएँ धीमी गति से परिपक्व हो रही हैं। ज़ाहिर तौर पर उरूर और ओलकोट के बच्चे अपनी छोटी उम्र के हिसाब से सामाजिक और भावनात्मक रूप से कहीं ज़्यादा परिपक्व हैं। ये बच्चे मोल-भाव कर लेते हैं, परिष्कृत भाषा में बात करते हैं, और रुपये-पैसों का रख-रखाव और प्रबन्धन भी कर लेते हैं। यह क्षमता उनमें इसलिए है क्योंकि शहरी मध्यम वर्गीय बच्चों की तुलना में उन्हें कम उम्र में ही ये अनुभव मिले और उन्होंने बचपन में ही जीवन की चुनौतियों का सामना किया है। वे परिस्थिति, लहजा और मौन संकेतों के प्रति संवेदनशील होते हुए कई तरह के लोगों के साथ घुल-मिल सकते हैं और बातचीत कर सकते हैं। मैंने देखा है कि यह क्षमताएँ किसी निजी स्कूल के शहरी बच्चे में बहुत आगे जाकर किशोरावस्था में विकसित होती हैं। हमारे प्रशिक्षु कार्यक्रम का उदेश्य यह था कि किसी कक्षा कक्ष से परे उनके घर के पास वाले तटीय क्षेत्र – एलिओट समुद्र तट और अदयर मुहाने – के साथ-साथ चेन्नई के अन्य जैव-विविधतापूर्ण इलाके बच्चों के लिए बहुविषयी सीखने की जगह बन सकें। शहरी समाज में मछुआरा समुदाय ऐतिहासिक रूप से हाशियाकृत है। सामाजिक-आर्थिक मुश्किलात बच्चों के स्वस्थ विकास पर गहरा प्रभाव डालती हैं। लेकिन इस कार्यक्रम के ज़रिये मुझे यह सीखने को मिला कि कैसे प्रकृति-आधारित शिक्षण बराबरी के मौके बनाने में एक बड़ा कारक हो सकता है। हमने इन अध्ययन और गतिविधियों को उनके घर के पास वाले समुद्र तट पर किया, हमारे द्वारा बनाई हुई एक द्विभाषी फील्ड गाइड इस अध्ययन का आधार थी जिसमे चेन्नई के तटीय इलाके में आम तौर पर पाए जाने वाले 160 तरह के जीव-जन्तुओं के बारे में जानकारी थी। इसके अलावा हमने अगल-अलग जगहों, जैसे कि वेदनथंगल पक्षी विहार (बर्ड सेंचुरी) और कोट्टुरपुरम अर्बन फॉरेस्ट में जाकर कई सत्र किए, जिससे कि बच्चों में स्वभाविक तरह से भाषा और वैज्ञानिक तर्क-वितर्क करने की क्षमता विकसित हो सके। कक्षा-कक्ष के अन्दर यह क्षमता असहज तरीकों, जैसे दबावपूर्ण या जबरन, परीक्षाओं और दण्ड वगैरह, के माध्यम से लाने का प्रयास किया जाता है। इन सत्रों के दौरान मैंने देखा है कि न सिर्फ़ उनकी अकादमिक क्षमता बेहतर हुई, बल्कि उनकी मज़ेदारी और जिज्ञासा भी इसके माध्यम से बढ़ी है।

च्चों के साथ वेदनथंगल की यात्रा के दौरान

इन वास्तविक और प्राकृतिक जगहों के अलावा और कौन-सी दूसरी जगह हो सकती है जो इंसानों को खोज-बीन के माध्यम से सीखने के मौके दे? ‘खोज-बीन करते हुए सीखना सम्भवत: इंसानों के सीखने की एक अन्तर्निहित प्रक्रिया है, जैसा कि एक प्रजाति के रूप में बहुत लम्बे समय तक, करीब 20 लाख सालों तक इंसान शिकारी रहा है। पैरों को घूमना चाहिए, आँखों को भटकना चाहिए, दिमाग को पूछना चाहिए, बात-चीत करनी चाहिए, आश्चर्य करना चाहिए, हाथों को आगे बढ़ना चाहिए, काम करना चाहिए, उठाई-धरी करना चाहिए, कानों को सुनकर विचार करना चाहिए, नाक को सूंघना और गन्ध का पीछा करना चाहिए, आत्मा को अपना विस्तार करना चाहिए – इस तरह से सीखने और सीखने के इन ज़रियों के होने की यही सार्थकता है। 

इस बात की ओर भारत में बहुत कम ध्यान और ज़ोर दिया गया है कि बच्चों की चौतरफा बेहतरी (या विकास) और यहाँ तक की उनके संज्ञानात्मक विकास और अकादमिक दक्षताओं को बढ़ाने के लिए प्रकृति आधारित शिक्षण (प्राकृतिक दुनिया तक पहुँच) अनिवार्य है। मनोवैज्ञानिक गेल मेलसन ने अध्ययन कर के बताया कि किस तरह लोगों का मनुष्य के अलावा दूसरी प्रजातियों के प्राणियों से सम्पर्क उनके सामाजिक-भावनात्मक विकास के लिए अनिवार्य है; और तन्त्रिका वैज्ञानिक एंड्रयू हूबर्मेन तो यहाँ तक कहते हैं कि अन्य प्रजातियों के साथ जुड़ाव और उनकी देखभाल से मस्तिष्क में प्रेम और करुणा के अहसास सम्बन्धी तन्त्रिका-तार, ऑक्सीटोसिन परिपथ, जोड़ते हैं। अन्य देशों में ऐसे कई मामले देखने में आएँ हैं जहाँ वंचित तबके के या सुविधाहीन बच्चे सिर्फ़ प्रकृति का सानिध्य मिलने और उसके साथ काम करने के मौक़े मिलने के कारण सम्पन्न बच्चों के समान या उनसे बेहतर अकादमिक प्रदर्शन कर पाए। प्राकृतिक दुनिया बहुत ही आश्चर्यजनक रूप से और अनपेक्षित तरीकों से बच्चों के जीवन में एक शक्तिशाली समताकारी बल के रूप में काम कर सकती है। यह एक साथ कई तरह से काम करती है और बच्चे के जीवन और विकास के कई आयामों पर प्रभाव डालती है।

लेखक के अपार्टमेंट के पास बच्चों के लिए -अर्बन विल्डरनेस वोक़

इस बात को पहचनना इस धारणा को मान्यता देना है कि बच्चों के विकास में प्रकृति से सम्पर्क एक बुनियादी ज़रूरत है। और इसकी कमी को एक स्वास्थ्य और शैक्षणिक संकट की तरह से देखा जाना चाहिए। मेरी दोस्त और एक प्रसिद्ध भारतीय प्रकृति शिक्षक वेणा कपूर इस बात की शिकायत करती हैं कि नियम-कानूनों की वजह से प्राकृतिक जगहों पर या तो प्रवेश पूर्णत: निषेध है, या पहुँच नहीं है और यदि है तो असुविधाजनक है। अभी हाल में ही उन्होंने मुझे बताया कि बैंगलोर जैसे शहरों में ऐसे बहुत से पार्क हैं जो सुबह 10 बजे बन्द हो जाते हैं और शाम को 4 के बाद खुलते हैं, जिससे ये जगहें बच्चों और स्कूल शिक्षकों के लिए सीखने की जगह के तौर पर उनुपलब्ध ही रह जाती हैं। वो इस बात पर भी ज़ोर देती हैं कि ये जगहें उन औरतों के लिए भी उनुपलब्ध ही रही आती हैं जिन्हें दिन के सिर्फ़ इसी समय फ़ुर्सत मिलती है और इस कारण उन्हें इन जगहों का मज़ा ही नहीं मिल पाता है। कोई भी अध्ययन इस मामले में कुछ नहीं बताता कि प्रकृति के बीच गुज़ारा गया समय किस तरह खास मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है। और ऐसी स्थिति को, जिसमें एक बड़ी तादाद में वंचित समुदाय के लोग, विशेषकर महिलायें, बच्चे और हाशियकृत लोग, इन जगहों तक पहुँच ही नहीं पा रहे हैं, एक मानसिक स्वास्थ्य संकट की तरह भी देखे जाने की ज़रूरत है। 

कभी-कभी यह समझना मुश्किल हो जाता है कि औपनिवेशिक इतिहास से चली आ रही इस मुख्य धारा की शिक्षा प्रणाली को लेकर एकदम बुनियाद से पुनर्विचार क्यों नहीं किया जाता? और तो और, अब तो यह व्यापारिक-राजनीति शासन द्वारा चलाई जा रही है। इस तरह की प्रणाली मानवीय एवं पारिस्थितिक मूल्यों पर आधारित नहीं है, और यह किसी का भी भला नहीं कर सकती। यह सिर्फ़ अच्छे नम्बर लाने वाले, आज्ञाकारी कर्मचारी और सिर झुकाकर काम करने वाले लोग बना सकती है। हम अन्दाज़ा भी नहीं लगा सकते कि किस तरह इस प्रणाली ने अपनी मज़बूत जड़ें जमा ली हैं और यह समस्या आज के हमारे पारिस्थितिकीय संकट के साथ गुथी हुई है। मार्लिन नेल्सन की कविता से ली गई पंक्तियों में, ‘भविष्यहीनता के एकदम मुहाने पर खड़ा करने में’ इस प्रणाली की बड़ी भूमिका है। 

आइए इस दिशा में हुए कुछ और अध्ययनों की बात करते हैं। मैंने यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं- 

मनोवैज्ञानिक नेंसी एम वेल्स का काम इस ही मुद्दे के इर्द-गिर्द है कि प्रकृति के साथ सम्पर्क किस तरह निम्न-आय वर्ग के बच्चों की मदद करता है। उनके अध्ययन का दायरा यह दिखाने से लेकर कि किस तरह स्कूल के बगीचे बच्चों के विज्ञान का ज्ञान और सामान्य स्वास्थ्य बेहतर करते हैं यह दिखाने तक है कि किस तरह वंचित तबके के लोग तनाव और प्रतिकूल स्थितियों से निपटने के लिए प्रकृति का आसरा लेते हैं। वे कहती हैं कि प्रकृति के सघन सम्पर्क में रहने वाले और उसके साथ गहरा अनुभव रखने वाले बच्चे जीवन के अवसाद से बचे रहते हैं। प्रकृति का सम्पर्क उनके लिए काफ़ी बड़ी राहत है जो ज़्यादा जोखिम में हैं। एन्ड्रिया फ़ेबर टेलर के अध्ययन बताते हैं कि जन आवास कॉलोनी (पब्लिक हाउसिंग कॉलोनी) में रहने वाले बच्चों, जिनकी आर्थिक-सामाजिक परिथितियाँ कमज़ोर होती हैं, उनकी विकास सम्बन्धी ज़रूरतें पूरी नहीं हो पाती या दबी रह जाती हैं। विकास सम्बन्धी ज़रूरतें वे विशिष्ट परिस्थितियों/ उद्दीपन/अनुभव होते हैं जो उस खास उम्र किसी बच्चे को मिलना चाहिए जिस उम्र में वे जीवविज्ञानिक रूप से इनके प्रति संवेदनशील होते हैं। टेलर बतातीं हैं कि पेड़ों और हरियाली के साथ सम्पर्क और उनके बीच समय गुज़ारने से आमदनी, ग़रीबी और नस्ल सम्बन्धी अन्तरों को ख़त्म करने में मदद मिलती है, और ऐसा करना कठिन परिस्थितियों में भी बच्चों की विकास सम्बन्धी ज़रूरतों को पूरा करने में मदद करता है। 

प्राकृतिक संसार और मनुष्येतर प्रजाति (मनुष्य के अलावा अन्य प्रजातियों) से सम्पर्क की बच्चों की इस परम व्यवहारिक ज़रूरत को मैंने अपने काम के शुरुआती दिनों में ही समझना शुरू कर दिया था। 18-19 साल की उम्र में मैंने केएफआई पाठशाला के माध्यम से तमिलनाडु के चेंगलपेड ज़िले में वलीपुरम, आनूर और पी. वी. कालातुर गाँव के सरकारी स्कूलों के लिए विज्ञान कार्यशालाएँ की थीं। मैंने पाया था कि बहुत से मामलों में स्कूल का पाठ्यक्रम इन ग्रामीण बच्चों के परिवेश, अनुभवों और वास्तविकताओं से एकदम विपरीत और काल्पनिक है। स्कूल छोड़ने (ड्रॉप आउट) की दर काफ़ी ज़्यादा थी और इसलिए गरीबी और जाति बँटवारे के मामले देखने को मिलते थे। कक्षा 5 और 8 के बच्चों के लिए इन साप्ताहिक कार्यशालाओं के माध्यम से मेरा रुझान यह था कि मैं उनके पाठ्यक्रम के सबक को उनके गाँव के आस-पास की जैव-विविधता के साथ सार्थक रूप से जोड़ सकूँ। 2 साल तक चले हमारे इस कार्यक्रम में आस-पास के इलाकों में परिभ्रमण, बातचीत करना, अवलोकन करना और उनका प्रस्तुतीकरण शामिल था, प्रस्तुतिकरण में हमने स्थानीय जैव-विविधता के फोटोग्राफ़ इस्तेमाल किए और पाठ्यक्रम और परिवेश को जोड़ती हुई कलाकारी और गतिविधि पर्चे उपयोग किए। हमने देखा कि विज्ञान के बारे में बच्चों की स्वाभाविक जिज्ञासा तब काफ़ी बढ़ गई जब यह उनके अपने परिवेश से, आश्चर्य जगाने और रोज़मर्रा के जीवन के रहस्यों से जुड़ गया था। यह महज एक विषय भर नहीं रह गया था जिसकी साल के अन्त में परीक्षा होनी थी। स्कूलों के शिक्षकों ने हमें बताया कि बच्चे परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन कर रहे थे, और पहले इस विषय में रुचि न लेने वाले बच्चे हमारी कार्यशालाओं के इतर भी इसमें गहरी दिलचस्पी लेने लगे थे।

जैसा कि रिचर्ड लौव, डेविड सोबेल, गिन्नी युरिच और इन जैसे अन्य पश्चिमी शिक्षाविदों ने पाया है, मैं भी अपने काम के माध्यम से यह जान रहा हूँ कि प्रकृति-आधारित शिक्षा केवल पर्यावरण की रक्षा करने और युवाओं में प्रबन्धन और संरक्षण के मूल्यों को बनाने के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि प्रकृति बचपन और किशोरावस्था के दौरान बच्चों को वह सुरक्षा और पोषण प्रदान करने के लिए अत्यन्त आवश्यक जिस तरह की सुरक्षा एवं पोषण और कोई नहीं दे सकता, और इस तरह से कि हम पारिस्थितिक प्राणियों से बिलकुल अलग-थलग नहीं है। चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों और हाशिए पर रहने वाले समूहों के लिए प्रकृति और भी अधिक आवश्यक है क्योंकि इसमें ठीक करने, पीड़ा को दूर करने और घुटन से बाहर निकालने की शक्ति होती है। डेविड ओर के कथन को अपने शब्दों में कहूँ तो ‘यदि शिक्षा को अलग-अलग संज्ञानात्मक क्षमताओं और विविध सामाजिक पृष्ठभूमि के विभिन्न शिक्षार्थियों को शामिल करने वाली होना चाहिए, और वर्तमान समय के हिसाब से प्रासंगिक होना चाहिए तो सभी शिक्षा को प्रकृति आधारित शिक्षा होने की ज़रूरत है’। 

‘क्या प्रकृति का अनुभव सीखने को बढ़ावा देता है? (Do experiences in nature promote learning?)’ यह शीर्षक है व्यापक तौर पर किए गए उन वैज्ञानिक अध्ययनों में से एक अध्ययन का जो इस बात की पड़ताल करते हैं कि क्या स्कूल/कॉलेज शिक्षा के मुख्य हिस्से के रूप में प्रकृति का सम्पर्क मिलना युवाओं के जीवन में गहरा बदलाव लाती है? यह अध्ययन रिपोर्ट मिंग कुओ, माइकल बार्न्स और कैथरीन जॉर्डन द्वारा लिखी गई है और फ्रण्टियर्स इन साइकोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित हुई है। उनका यह अध्ययन दुनिया भर में प्रकृति, कल्याण और सीखने वाले इंसान से जुड़े सवालों पर किए गए लगभग सौ अध्ययनों और प्रयोगों पर आधारित था। यह अध्ययन बताता है कि कैसे प्रकृति-आधारित शिक्षा पारम्परिक कक्षा शिक्षा को आठ अलग-अलग तरीकों से मात देती है, ये तरीके दो श्रेणी में बाँटे गए हैं – एक, यह शिक्षार्थी को कैसे प्रभावित करती है; और दूसरा, यह सीखने के सन्दर्भ (या विषय) को कैसे प्रभावित करती है।

यह अध्ययन कहता है कि प्रकृति के साथ सम्पर्क सीखने वाले को बेहतर एकाग्रचित्त होने, तनाव मुक्त रहने, बेहतर स्व-अनुशासन में रहने में, अधिक प्रतिबद्ध होने या जुड़ने में और शारीरिक रूप से अधिक सक्रिय व तन्दुरुस्त रहने में मदद करता है। इसके अलावा यह सीखने के सन्दर्भ (विषय) को शान्त, सामाजिक सन्दर्भ की तरह कहीं अधिक सुरक्षित और स्थिर, और सामाजिक सन्दर्भ की तरह प्रतिस्पर्धात्मक होने की बजाय सहयोगात्मक बनाता है। साथ ही यह सीखने के सन्दर्भ (विषय) में स्वायत्तता और रचनात्मकता बनाने में मदद करता है। 

इस अध्ययन में यह बात स्पष्ट की गई है कि प्रकृति-आधारित-शिक्षा में ‘प्रकृति’ का अर्थ प्राकृतिक स्थान में वनस्पति, चट्टानों, झरनों आदि के साथ मुक्त क्रीड़ा से लेकर स्कूलों में प्रकृति-आधारित पाठ्यक्रम, जंगल या नैसर्गिक स्थानों के रोमांच, स्कूल के बगीचों और जानवरों की सहायता से सीखने तक सब कुछ है। जैसा कि लेखक महत्वपूर्ण रूप से समझाते हैं – “न केवल प्रकृति-आधारित शिक्षा वंचित वर्ग के विद्यार्थियों के लिए बेहतर काम कर सकती है बल्कि यह पढ़ाई में अनिच्छुक विद्यार्थियों में रुचि भी बढ़ाती है, ग्रेड (या प्रदर्शन) में सुधार करती है, और “जोखिम में रहने वाले” विद्यार्थियों की (पढ़ाई से) मन उचटाने वाले घटनाओं और ड्रॉपआउट को कम करती है। प्रकृति-आधारित शिक्षा कई बार नस्ल और आय-सम्बन्धी खाई को भी पाट सकती है। इसके अलावा, ऐसे किस्से प्रचुर मात्रा में हैं जिनमें आम तौर पर पारम्परिक कक्षा में संघर्ष करने वाले विद्यार्थियों में प्राकृतिक परिवेश में नेतृत्व उभरा है। यदि प्रकृति समभाव रखती है, जो निम्न प्रदर्शन वाले विद्यार्थियों को सफल होने और यहाँ तक ​​​​कि प्रखर होने आगे निकलने का भी मौक़ा देती है, तो इस क्षमता का प्रमुखता से दस्तावेजीकरण करने की आवश्यकता है।

एक अत्यधिक अस्थिर परिवार में एक मुश्किल भरे बचपन के अपने अनुभव से और पिछले एक दशक से सैंकड़ों बच्चों के साथ एक प्रकृति-शिक्षक के रूप में काम के अनुभव से मैं कहना चाहूँगा कि सम्भवत: युवाओं के लिए एक सीखने के स्थान के रूप में आस-पास प्रकृति होने और बहु-प्रजाति के साथ सम्पर्क होने का मुख्य महत्व गहन आध्यात्मिक आवश्यकता है। पेड़ों, पक्षियों, साँपों, ततैया और कवक के साथ या उनके बीच बड़े होने से हमारी खुद की पहचान बनती है, व्यक्तित्व का विस्तार होता है और अन्य प्राणियों, विभिन्न जीवन-तरीकों, और सम्पूर्ण परिदृश्यों को शामिल करने का नज़रिया विकसित होता है। मानव मानस का ऐसा ‘विस्तार’ उसके सबसे प्रारम्भिक काल यानी बचपन के दौरान होना चाहिए। मस्तिष्क पर आधुनिक समाज के प्रभाव पड़ जाने के बाद प्रकृति से परिचय उतना परिवर्तनकारी साबित नहीं होता है। प्रकृति में निहित होकर सीखना, नए-नए सम्बन्धों की खोज करता है, यह संस्थाओं के बीच की सरहदों को समाप्त करता है। यह एक ऐसा स्थान है जहाँ एक, दूसरा बन जाता है और दूसरा, पहला बन जाता है। क्या यह विश्व शान्ति के लिए आवश्यक नहीं है? बच्चों के जीवन पर जो प्रभाव पड़ते हैं उससे जनित उनके अनुभव शेष जीवमण्डल के साथ मानव समाज के भविष्य को भी गहराई से निर्धारित करते हैं। और हम यह भी समझ रहे हैं कि पारिस्थितिक दुनिया या प्रणाली में गुथी हुई शिक्षा हमारी प्रजातियों में समानता के कई आयामों में योगदान देने वाला कारक हो सकती है।

References –

Pointers to Teachers

यह कहानी अंग्रेजी से अनुवादित है.

लेखक से संपर्क करें (Contact the author).

Also read The Field of Learning by the same author

Story Tags: , , , ,

Leave a Reply

Loading...