विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)
फोटो क्रेडिट- चिन्मय फुटाणे और बाबा मायाराम
“ बचपन से ही मेरी कृषि में रुचि थी। कृषि में ही मैंने पढ़ाई की। लेकिन उससे ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ। वर्ष 1983-84 से हरी खाद व दलहनी फसलों से रासायनिक-मुक्त खेती की शुरूआत की, जिससे धीरे-धीरे जमीन सुधरने लगी, उर्वर होने लगी। फिर एक दिन जापान के मशहूर कृषि वैज्ञानिक फुकूओका की किताब एक तिनके से क्रांति हाथ लगी और मेरी जीवन की दिशा ही बदल गई। मैं प्राकृतिक खेती की ओर मुड़ गया और अब मेरा पूरा परिवार इसे आगे बढ़ा रहा है।“ यह महाराष्ट्र के रवाला गांव के बसंत फुटाणे थे।
हाल ही में मुझे अमरावती जिले के रवाला गांव में बसंत फुटाणे और करूणा बहन की प्राकृतिक खेती को देखने का मौका मिला। यह गांव वरूड तालुका में स्थित है। बसंत फुटाणे, रवाला गांव से कुछ दूर शेदुरजनाघाट के रहनेवाले हैं। गांधी, जयप्रकाश और बिनोबा से प्रभावित हैं। आगे बढ़ने से पहले विदर्भ के इस इलाके में बारे में जान लेना उचित होगा।
महाराष्ट्र के इस इलाके की औसत वार्षिक वर्षा 700-800 मिमी है, जो कम- ज्यादा होती रहती है। अकाल और सूखे के दौर भी आते हैं, तब पानी का संकट और बढ़ जाता है। गर्मी बहुत ज्यादा होती है, अधिकतम तापमान 46 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तक पहुंच जाता है।
इस इलाके को भूजल सर्वेंक्षण और विकास एजेंसी ( GSDA) ने डार्क जोन घोषित किया है। यहां कुएं व बोरवेल पर रोक है। पर इसके बावजूद यहां का अधिकांश भूजल संतरे की खेती के लिए इस्तेमाल हो रहा है। संतरे की रासायनिक खेती, जिसमें अपेक्षाकृत ज्यादा पानी लगता है, जिसने इस संकट को और बढ़ाया है। इसके मद्देनजर बसंत फुटाणे ने प्राकृतिक खेती की राह पकड़ी।
हाल ही में जब मैं 8 अगस्त को उनके खेत पहुंचा तो देखा कि यहां खेत ही नहीं, पूरी प्रकृति अपने अनूठे अंदाज में खेल रही है। मिट्टी का घर, आम के बड़े-बड़े पेड़, संतरे का बगीचा, नींबू, अमरूद इत्यादि। और गाय-बैल, लंगूर, हरा-भरा वातावरण, बांस के घने झुरमुट, अपरिचित पक्षियों का गान। बहुत ही सुंदर मनोहारी दृश्य, और अनूठा एहसास। वहां मौजूद थे बसंत फुटाणे के दोनों बेटे- चिन्मय व विनय और उनकी पोती पणती।
सबसे पहले हमने अम्बाड़ी के फूल की सूखी पंखुड़ियों से बना शरबत पिया। थोड़ी देर बातचीत की। विनय फुटाणे के साथ खेत का एक चक्कर लगाया। वे बताते जा रहे थे कि यह गोबर गैस है, इसी से रसोई बनती और गैस बत्ती जलती थी। बिजली तो यहां वर्ष 2003 में आई।
कुछ दूर चले और आम के बगीचे में पहुंच गए। उन्होंने बताया कि हमारे पास आम के 350 पेड़ हैं। इसमें कई देसी किस्में हैं, जो हमने खुद सलेक्शन पद्धति के द्वारा विकसित की हैं। आम में पर- परागीकरण के माध्यम से नई किस्में भी तैयार होती रहती हैं। इनमें से जो बढ़िया हैं, उन्हें चुनना होता है।
यहां बिना बीजवाला और असम से लाया बड़ा नींबू भी देखा। आम और अमरूद के पेड़ से फल तोड़कर चखे। घूमते-घामते हम बांस के झुरमुटों के बीच पहुंचे, तब शाम के 4 बजे होंगे। धूप खिली थी पर बांसों के बीच अंधेरा सा था। मुझे कैमरे से फोटो लेने में फ्लैश का इस्तेमाल करने पड़ा। यहां एक छोटा तालाब था। पशुओं के लिए चारा लगा था।
इसके अलावा, संतरा के 500 पेड़ हैं। आंवला, रीठा, बेर, भिलावा, महुआ, दक्खन इमली, इमली, तेंदू, अगस्त, अमलतास, मुनगा, कचनार, चीकू, अमरूद, जामुन, सीताफल, करौंदा, पपीता, बेल, कैथ, इमली, रोहन, नींबू, नीम इत्यादि के फलदार व छायादार पेड़ हैं।
प्राकृतिक खेती के किसान बसंत फुटाणे ने बताया कि “वर्ष 1983 में खेती की शुरूआत की। हमारे परिवार की 30 एकड़ जमीन है, इसमें आधी जमीन कुओं के पानी से सिंचित है। इसमें एक 6 एकड़ के टुकड़े की जमीन सूखी व बंजर थी।”
वे आगे बताते हैं कि “जब हमने विषमुक्त और प्रकृति के साथ बिना छेड़छाड़ वाली प्राकृतिक खेती की शुरूआत की, उस समय रासायनिक खाद की कीमतें बढ़ रही थी। इससे खेती में व्यापारियों और कंपनियों की लूट बढ़ रही थी। विदर्भ के खेतों की मिट्टी की उर्वरता घट रही थी, भूजल का संकट गहराता जा रहा था, भोजन व पानी जहरीला हो रहा था, किसानों की स्थिति बिगड़ रही थी।”
उन्होंने बताया कि “इस सबके मद्देनजर हमने वृक्ष खेती की शुरूआत की और मिट्टी व पानी के संरक्षण व प्रबंधन पर जोर दिया। प्राकृतिक खेती में बिना जुताई, बिना रासायनिक खाद, बिना कीट-नाशी के खेती की जाती है। मिट्टी प्रबंधन के लिए हरी खाद, जैविक पदार्थ, कंटूर बंडिंग, कंटूर बुआई, केंचुआ खाद का इस्तेमाल किया।
वे आगे कहते हैं कि “मिट्टी के स्वास्थ्य से सभी सजीवों का स्वास्थ्य जुड़ा है। मिट्टी से वनस्पति तथा उससे अन्य प्राणी पोषण पाते हैं। जमीन की ऊपरी सतह ही उपजाऊ होती है। केंचुए से लेकर सभी छोटे, सूक्ष्म जीव जंतु जमीन में निवास करते हैं। जमीन का स्वास्थ्य बनाए रखने में उन भू-जीवों की विशिष्ट भूमिका होती है।”
इसी प्रकार, वनस्पति के अवशेष (बायोमास) भू-जीवों का भोजन है। फसल के अवशेषों को खेतों में जलाने की बजाय अगर उन्हें जमीन को खाद या आच्छादन के रूप में लौटाए जाएं तो धीरे-धीरे जमीन सुधरती जाती है। कंटूर बंडिंग से मिट्टी तथा बारिश के पानी का प्रभावी ढंग से संवर्धन किया जा सकता है। कंटूर बोआई से भूमि में नमी बनी रहती है, जिससे फसल को फायदा होता है। इसके अलावा, दलहनी फसलों को बोया- जैसे अरहर, मूंग, बरबटी, चना, मटर और मूंगफली इत्यादि। इससे खेतों को नत्रजन मिलती है, बाहरी निवेशों की जरूरत नहीं पड़ती।
वृक्षों की जल संवर्धन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। वृक्षों के कारण ही बारिश की सीधी मार जमीन पर नहीं पड़ती। कुछ बारिश की बूंदें पत्तियों पर ही ठहर जाती हैं। हवा के हल्के झोकों के साथ बूंदें धीरे-धीरे नीचे जाकर भूजल में तब्दील हो जाती हैं। वृक्षों के नीचे केंचुए सक्रिय होते हैं, वे जमीन को हवादार व पोला बनाते हैं। इस कारण वर्षा जल अधिक मात्रा में भूजल में परिवर्तित होता है। पेड़ों खुद भी पानीदार होते हैं। इस तरह हमने मिट्टी व पानी का प्रबंधन किया।
यहां पानी का तालाब है, हरे-भरे पेड़ हैं। जहां पानी और पेड़ होते हैं, वहां पक्षी होते हैं, और पेड़ों पर उनका बसेरा होता है। यहां कई तरह के रंग-बिरंगे पक्षी हैं, जो खेती में सहायक हैं। वे परागीकरण में मदद तो करते ही हैं, कीट नियंत्रण करते हैं, खरपतवार नियंत्रण करते हैं। पूरे भूदृश्य को सुंदर व जीवंत बनाते हैं। जैव विविधता व पर्यावरण का संरक्षण व संवर्धन करते हैं। यहां गोरैया, तोता, बसंता, भारद्वाज जैसे कई पक्षी देखे जा सकते हैं।
बसंत फुटाणे कहते हैं कि “ आम ऐसा फलदार पेड़ हैं, जिससे पूर्ण आहार मिलता है। चाहे सूखा हो या अकाल, पेड़ों से फल मिलते ही हैं। उनकी जड़ें गहरी होती हैं जो धरती की गहरी परतों से पोषक तत्व और नमी लेती हैं। हमने अनाज कम व फलदार पेड़ ज्यादा लगाए हैं, जिससे हमारे परिवार की भोजन की जरूरतें पूरी हो सकें। फिर हमारी शुष्क जलवायु वाली जमीन वृक्ष खेती के लिए उपयुक्त हैं।”
वे कहते हैं “ यह हमारा अगली पीढ़यों के लिए उपहार है। यह जीती-जागती सुंदर प्रकृति है, जो फलती-फूलती और सदाबहार है। इससे ताजी हवा, पत्ती, फूल, फल, छाया, ईंधन, चारा, रेशा, और जड़ी-बूटियां इत्यादि सभी मिलती हैं। पेड़ भूख के साथी होते हैं और सालों तक साथ देते हैं।”
युवा किसान कार्यकर्ता चिन्मय फुटाणे कहते हैं कि “ अब हमारी खेती पूरी तरह आत्मनिर्भर है। इस साल 3 लाख रु. के आम, 2.5 लाख रु. के संतरा और 1.5 लाख रु. के बांसों की बिक्री हो गई है। आम का बाजार तो स्थानीय है, कई उपभोक्ता खेत से ही आम ले जाते हैं। अचार भी स्थानीय लोग खरीद लेते हैं। यानी आम से ही सालाना 3 लाख की आय हो जाती है, जिसमें से आधी लगभग बचत हो जाती है। इसके अलावा करीब 50 हजार रूपए की अरहर की दाल भी बिक गई है।
वे आगे बताते हैं कि “अब हमें भोजन की जरूरतों के लिए कुछ भी बाजार से खरीदने की जरूरत नही हैं, सिर्फ कभी-कभार सब्जी को छोड़कर। हम धान, ज्वार, मूंग, उड़द, गेहूं, चना, अलसी, तिल भी बोते हैं, जिससे हमारी साल भर की भोजन की जरूरत भी पूरी हो जाती हैं। बैंगन, टमाटर, गाजर, मूली, प्याज जैसी मौसमी सब्जियां भी लगाते हैं, जिससे सब्जियां के लिए पूरी तरह बाजार पर निर्भरता नहीं रहती। महुआ, चिरौंजी, भिलावा, कौठ ( कबीट), सीताफल, ताड़, काजू, कटहल, चीकू, सहजन, अगस्ती, कचनार और इमली आदि पेड़ों से हमें पोषणयुक्त फल मिलते हैं, जो कि आहार के हिस्सा हैं। इसके साथ ही 33 मवेशी हैं। गायों से दूध, छाछ और दही मिलता है। बैल खेतों को जोतने के काम आते हैं।“
चिन्मय कहते हैं कि “ हमने अनाज कम व फलदार पेड़ ज्यादा लगाए हैं, जिससे हमारे परिवार की भोजन की जरूरतें पूरी हो सकें। फिर हमारी शुष्क जलवायु वाली जमीन साथ में हम गर्मियों की छुट्टियों में युवाओं व किसानों के खेती शिविर लगाते हैं। परंपरागत देसी बीजों के संरक्षण के लिए नागपुर में हर साल बीजोत्सव का आयोजन होता है। इस आयोजन के हम भी हिस्सा हैं। वरूड तालुका में जल संवर्धन के काम में सहयोग करते हैं। रवाला गांव की महिलाओं के शराबमुक्ति आंदोलन में मदद करते हैं।“
वे आगे कहते हैं कि किसान की सबसे बड़ी चुनौती बाजार में अपनी फसल को बेचना है। इसलिए हमने हाल ही में किसान उत्पादक कंपनी बनाई है, जो किसानों से उनके जैव उत्पाद खरीदेगी और बाजार में बेचेगी, जिससे इस समस्या का हल होगा। इससे अन्य किसान भी प्राकृतिक जैविक खेती की ओर मुड़ेंगे।
कुल मिलाकर, यह प्राकृतिक खेती, एक टिकाऊ जीवन पद्धति है, जो प्रकृति के सहभाग के साथ होती है। यह प्रकृति को बिना नुकसान पहुंचाए की जाती है। यह आत्मनिर्भर खेती है। इससे अनाज, सब्जी, फल, फूल, रेशे, हरी पत्तीदार सब्जियां मिलती हैं। ईंधन के लिए लकड़ियां मिलती हैं, पशुओं के लिए चारा मिलता है। परंपरागत देसी बीजों का संरक्षण व संवर्धन हो रहा है। विषमुक्त खाद्य व पोषकयुक्त व स्वादिष्ट भोजन मिलता है। मिट्टी-पानी का संरक्षण हो रहा है। टिकाऊ आजीविका मिल रही है। पशुपालन हो रहा है, पशुपालन और खेती एक दूसरे के पूरक हैं। यह खेती में मशीनीकरण के समय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब पशुओं की खेती में उपयोगिता कम हो गई है। जलवायु बदलाव के दौर में यह प्रासंगिक हो गई है, जब मौसम की, बारिश की अनिश्चितता है, इसमें प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता है। विविधता वाली खेती होने से अगर एक फसल कमजोर हो जाती है, या बर्बाद हो जाती है, तो दूसरी से मदद मिल जाती है। अंत में, यह कहा जा सकता है कि यह पूरी तरह पर्यावरण-स्नेही और पर्यावरण रक्षक और स्वावलंबी खेती है, जो अनुकरणीय है।