आदिवासियों की उम्मीद थे देबजीत सारंगी (in Hindi)

PostedonMay. 22, 2021in Food and Water

विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)

देबजीत सारंगी; फोटो Twitter

हाल में देबजीत सारंगी का कोरोना से निधन हो गया। वे कोरोना से जंग हार गए। 15 मई को उनका निधन हो गया। ओडिशा के रायगड़ा जिले में कौंध आदिवासियों के बीच काम करते थे.

मैं अपनी पहली मुनिगुड़ा यात्रा को याद कर रहा हूं, जब मैं सामाजिक कार्यकर्ता व पत्रकार अमिताभ पात्रा के साथ वहां गया था. यह वर्ष 2015 का साल था।

हम बरगढ़ से सुबह ट्रेन से चले और दोपहर वहां पहुंचे थे. लंबी नियमगिरी पहाड़ की श्रृंखला और आसमान में बादलों के गाले- सफेद गाले, धान के हरे-भरे खेत, छोटे नदी नाले और जंगल. सुंदर गांव बहुत ही मनमोहक भू दृश्य.

हम दोपहर को वहां पहुंचे थे। छोटा सा रेलवे स्टेशन मुनिगुडा। जंगल के बीच में. वहां हमारा इंतजार प्रदीप पात्रा कर रहे थे। प्रदीप पात्रा जी से मैं पहले से परिचित था।

देबजीत सारंगी जी लिविंग फार्मस नामक संस्था के माध्यम से इस इलाके में कृषि, पोषण, जंगलों का संरक्षण, शिक्षा व स्वशासन जैसे मुद्दों पर आदिवासियों के बीच काम कर रहे थे।

कुछ देर बाद हमें प्रदीप पात्रा ग्रीन कॉलेज की एक बैठक में ले गए जिसमें गांव के आदिवासी युवक-युवतियां परंपरागत व कुछ आधुनिक ज्ञान से कौशल सीख रहे थे। उन्हें सिखानेवाले कोई और नहीं, गांव के कार्यकर्ता व बुजुर्ग किसान थे। वहां युवाओं को जैव कीटनाशक कैसे बनाते हैं, इसकी तकनीक सिखाई जा रही थी। इन युवाओं को खेती-किसानी व पारंपरिक कौशलों से जोड़ना था।

शाम के समय हम कुन्दुगुड़ा गांव गए, जहां हम आदि नाम के युवा से मिले। उसने अपने खेत में करीब 70 प्रकार की फसलें लगाई थीं। उसने हमें अपना खेत घुमाया और हरेक फसल के बारे में बताया।

दूसरे दिन हम एक और गांव गए, उस गांव का नाम था केरंडीगुड़ा। उस गांव के पास ही विश्व प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक देबलदेव खेतों में देसी धान का संरक्षण व संवर्धन कर रहे हैं. करीब से हजार से ज्यादा देसी धान की किस्मों का। केरंडीगुड़ा में लोकनाथ जी मिले, उन्होंने भी अपने खेत में मिश्रित फसलें लगाई थी।

यह कौंध आदिवासियों का इलाका है और यहीं पर नियमगिरी के पहाड़ को बचाने के लिए आदिवासियों ने लड़ाई लड़ी थी और जीती थी। नाथ में नथनी पहने आदिवासी महिलाओं की छवियां अखबारों की सुर्खियां बनी थीं।

बाद में फिर मुनिगुड़ा जाना हुआ। इस बार हम विकल्प संगम के खाद्य संगम के सिलसिले में गए थे। इस बार यहां देबजीत सारंगी व देबलदेव जी को विस्तार से जानने व सुनने का मौका मिला। आदिवासियों के पौष्टिक अनाजों का स्वाद भी चखा। यह वर्ष 2016 का साल था।

देबजीत सारंगी, बहुत ही विनम्र, सहज, जिज्ञासु, खुले व उदार मन के व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी बात शुरू करते हुए कहा था कि मैं आदिवासी से सीख रहा हूं, सीखता रहता हूं, सिखाता नहीं हूं। इससे मैं प्रभावित हुआ था।

उन्होंने जंगल से मिलनेवाले गैर कृषि खाद्यों के बारे में बताया था।  वहां एक आदिवासी ने कहा था कि हमारा आधा पेट जंगल से और आधा पेट खेती से भरता है। सुबह की भोजन की थाली खेत से और शाम की भोजन की थाली जंगल से आती है।

वे आदिवासियों की अच्छी परंपराओं, परंपरागत ज्ञान पर आधारित उनकी आजीविकाओं को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे थे। चाहे वह कृषि आधारित हो, जंगल आधारित हो, किचिन गार्डन या वन अधिकार कानून के तहत् जमीन के अधिकार की बात हो, स्वशासन की बात हो। इऩ सबके सहयोग से बदलाव की कोशिश कर रहे थे।

सरकारी नीतियों में आदिवासियों के इन मूल्यों व परंपरागत ज्ञान को जगह नहीं मिल पाती है। और योजनाएं ऊपर से थोपी जाती हैं। इस दूरी को ही देबजीत जी व उनकी संस्था पाटने की कोशिश कर रही है।

स्थानीय स्तर पर, समुदाय आधारित, पारंपरिक ज्ञान के साथ कैसे आदिवासियों का जीवन बेहतर हो सकता है, इसकी कोशिश लगातार की जा रही थी।  उनके जाने से यह प्रक्रिया प्रभावित होगी ही। आदिवासियों का एक हितैषी, दोस्त, हमदर्द व दीर्घकालीन सोच से काम करनेवाले देबजीत जी चले गए। लेकिन ओडिशा की धरती ऐसे लोगों को पैदा करती रहेगी, सामाजिक कामों के बदलाव की यह बाती जलती रहेगी, ऐसी उम्मीद है।

Watch an interview of Debjeet Sarangi, by Rosa Luxemberg Stiftung: Threats to the indigenous mode of living in India

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