तालाबंदी में जंगल से आती है भोजन की थाली (in Hindi)

By बाबा मायारामonJul. 23, 2020in Environment and Ecology

विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)

सभी फोटो- मंगरूराम कश्यप

“हमारे यहां जंगल में झाड़ पेड़ कम हो रहे हैं। न अच्छी छांव मिलती, न पहले जैसे पंछी आते हैं। जंगल से कंद, फल, फूल और पत्ते भी पहले जैसे नहीं मिलते। बारिश भी पहले जैसे नहीं होती। इसलिए हम जंगल में पेड़ लगाने और फिर से हरियाली बढ़ाने का काम कर रहे हैं।” यह जैतगिरी गांव की मीनवती बाकड़े थीं।

छत्तीसगढ़ में बस्तर जिले के बकावण्ड प्रखंड में है जैतगिरी गांव। इस गांव में मां दन्तेश्वरी बिटाल महिला स्वसहायता समूह है, जिसकी अध्यक्ष हैं मीनवती बाकड़े। इस महिला समूह ने देसी प्रजाति के पेड़-पौधों की नर्सरी तैयार की है, जिन्हें वे उनके गांव में, गांव की खाली पड़ी जमीन पर, खेतों में, जंगल में लगाते हैं। आसपास के गांवों में बांटते हैं और पड़ोसी राज्यों को भी देते हैं।

बस्तर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। यहां का हरा-भरा जंगल, पहाड़, झरने, नदियां मोहती हैं। साल, सागौन और बांस का जंगल प्रसिद्ध है। यहां पानी की प्रचुरता है, वर्षा भी अच्छी होती है। यहां के साप्ताहिक हाट, उनकी जीवनशैली, रहन सहन और बस्तरिया आदिवासियों के नृत्य गीत लुभाते हैं। रंग बिरंगी संस्कृति खींचती है। लेकिन अब बस्तर के जंगल भी कम होते जा रहे हैं, आदिवासियों ने इसका एहसास कर जंगलों की विरासत को सहेजना शुरू कर दिया है।

हाल ही में, मैं हरियाली की इस पहल को देखने के लिए गया था। मीनवती के साथ गांव की मेंगवती चंद्राकर, पदमा कौशिक, राधामनी कश्यप, सेवती बाकड़े, सावित्री ठाकुर, हीरामनी वैष्णव, कमला, निलमनी भी आ गईं। वे मुझे नर्सरी दिखाने ले गईं। वहां सिवना, बहेड़ा. सियारी (माहुल), जामुन, भिलवां, पेंगु, कोसम जैसे करीब 50 देसी प्रजाति की पौध रोपणी थी। इन पौधों में पानी डालने से लेकर उनकी निंदाई गुड़ाई तक सभी काम महिलाएं करती हैं। वे उत्साहित होकर उनकी पहचान, उपयोग और औषधि गुणों के बारे में बता रही थीं।

वे बताती हैं कि जंगल ही हमारा जीवन है। अगर जंगल नहीं रहेगा तो आदिवासी कैसे रहेगा, इसलिए जंगल को बचाना और उसकी हरियाली को बढ़ाना जरूरी है। इन फलदार पेड़ों से गांव की भूख खत्म होगी और जंगल भी हरा-भरा होगा। बाऱिश होगी तो खेतों में फसलें भी अच्छी पकेंगी। यह काम पिछले 5 वर्षों से किया जा रहा है। जैतगिरी अकेला गांव नहीं है नर्सरी करने वाला, बल्कि ऐसी नर्सरी संधकरमरी (बकावण्ड प्रखंड), कंकालगुर (दरभा प्रखंड) और कंगोली गांव (जगदलपुर प्रखंड) में भी है। जैतगिरी की नर्सरी (पौध रोपणी) महिला समूह द्वारा तैयार की जा रही है, अन्य नर्सरी में महिला पुरूष दोनों मिलकर काम करते हैं। जैतगिरी ग्राम की महिलाओं से प्रेरित होकर अन्य गांव की महिलाएं भी नर्सरी के काम में आगे आई हैं। इसके साथ पेड़ों की पहचान, गुणधर्मों की पहचान और उनसे जुडे पारंपरिक ज्ञान का भी आदान प्रदान किया जा रहा है। 

संधकरमरी में बीजों का संकलन
संधकरमरी में बीजों का संकलन

वे आगे बताती हैं कि जंगल से उनका जीवन जुड़ा हुआ है। सुबह जागने से लेकर रात्रि सोने तक जंगल की कई चीजों को उपयोग में लाते हैं। जैसे प्रातः दातौन, खाना पकाने के लिए जलाऊ लकड़ी, कंद-मूल, वनोपज, छाती (मशरूम), सब्जी में कई प्रकार की हरी भाजियां मिलती हैं। थाली के रूप में सियारी या साल के पत्तों से बनी पतली (प्लेट) का उपयोग करते हैं। इसके अलावा, कई प्रकार के कंद मिलते हैं। जैसे- पीता कंद, सोरन्दा कंद, तरगरिया कंद, पीट कंद, टुन्डरी कंद, कुलिया कंद, दुपन कंद, बुरकी कंद, डोगर कंद, सींध कंद इत्यादि। हरी पत्तीदार भाजियों में पेंगु भाजी, भेलवां भाजी, कोंयजारी भाजी, कोलियारी भाजी, कोकटी भाजी, बोदई भाजी। मशरूम को यहां छाती कहते हैं जिसमें डेंगुर छाती, केन्दु छाती, दाबरी छाती, बात छाती, कुटियारी छाती, पतर छाती, जाम छाती, मजुर डुण्डा, हल्दुलिया छाती आदि।  झाडू के रूप में फूल बाड़न, काटा बाड़न, जिटका बाड़न, दाब बाड़न, सींध बाड़न आदि। वनोपज में चिरौंजी, आंवला, हर्रा, बहेड़ा, तेंदूपत्ता, साल, आम, जामुन, तेंदू आदि। इन सबको घरेलू उपयोग के साथ साथ बाजार में भी बेचा जाता है, जिससे थोड़ी आमदनी भी हो जाती है।

हरियाली बढ़ाने की यह पहल लीफ (लीगल एंड एनवायरमेंटल एक्शन फाउंडेशन) संस्था ने की है। अर्जुन सिंह नाग, इसके संस्थापक हैं, जो स्वयं आदिवासी हैं। लीफ संस्था ने ही महिला समूहों के माध्यम से इस काम को किया है। अर्जुन सिंह नाग कहते हैं कि पेड़-पौधे हर दृष्टि से उपयोगी हैं। आदिवासियों के जीवन में जंगल का बड़ा महत्व है। उनके खान-पान, उनके देवी देवता, उनकी आदिवासी संस्कृति सभी जंगल से जुड़ी है। इसलिए हमने जंगल को बचाने और हरियाली बढ़ाने का यह काम शुरू किया है। इससे हरियाली बढ़ेगी, ताजी हवा मिलेगी, पानी का संचय होगा, भूजल बढ़ेगा, सदाबहार नदियां व झरने होंगे, जैव विविधता और पर्यावरण बचेगा। मिट्टी का कटाव रूकेगा, पेड़ों पर पक्षी आएंगे, वे कीट नियंत्रण करेंगे। आदिवासियो के भोजन में पोषक तत्व होंगे, गांव के लोगों को खाने को कई चीजें मिलेंगी, भुखमरी मिटेगी, उनका स्वास्थ्य ठीक होगा। इन फलों व वनोपज की बिक्री से आमदनी बढ़ेगी। और आदिवासी संस्कृति व आदिवासियत बचेगी।

लीफ संस्था के सहयोग से गांवों में वनविहीन, बिगड़े वन एवं देवस्थल क्षेत्रों में अनेक प्रजातियों के पौधों का रोपण किया है, जिनकी ग्राम पंचायतों के सहयोग से सुरक्षा की जा रही है। विशेषकर, ग्राम संधकरमरी के मावली कोट, ग्राम आंवराभाटा के सौतपुर के खोड़िया भैरम, ग्राम जैतगिरी के धवड़ावीर, और ग्राम बदलावण्ड में माई दंतेश्वरी देवस्थल परिसर के वनक्षेत्रों में पौधारोपण किया गया है। इन पौधों में देसी प्रजाति एवं जड़ी बूटी औषधिपूर्ण पौधों का रोपण किया गया, जो अब जंगल के रूप में हरा-भरा हो गया है।

इमली बीज निकालती महिलाएं
इमली बीज निकालती महिलाएं

पेशे से वकील अर्जुन सिंह नाग बताते हैं कि पेड़ लगाने की तैयारी गर्मी के मौसम से शुरू हो जाती है। बीजों को एकत्र करना, उनकी साफ-सफाई करना, उनका रख-ऱखाव करना और नर्सरी में पौधे तैयार करना और फिर उन्हें लगाना। बीजों का रोपण का समय, उनकी भंडारण की पद्धति, अंकुरण की तकनीक, बीजों को मिट्टी के साथ मिलाकर बोना, जड़ों की छंटाई और निंदाई गुड़ाई इत्यादि सभी काम महिलाओं को पता हैं।

बीज संकलन के काम में गांव के लड़के, लड़कियां व चरवाहों को जोड़ा जाता है, उनके अलग-अलग समूह बनाए जाते हैं, गांव के बुजुर्ग गांव में पेड़ों की प्रजातियों के बारे में बैठक करते हैं।  वे जंगल से बीज एकत्र कर लाते हैं। इनमें फलदार पेड़, घास, लता और कांटेदार पौधे, जड़ी-बूटी, वन खाद्य जैसे कंद-मूल, हरी पत्तीदार भाजियां शामिल हैं। इन रोपणियों में से पौधे बड़ी सावधानी से निकालते हैं और प्लास्टिक बैग समेत एक जगह से दूसरे जगह ले जाते हैं, यह काम सूखे दिनों में अप्रैल के मध्य में होता है। मानसून के पहले उन स्थानों पर पौधे पहुंचाए जाते हैं, जहां इनका रोपण करना है।

वे आगे बताते हैं कि वनसंरक्षण का काम 15 गांवों में किया जा रहा है। गांवों में हरियाली बढ़ाने के काम की शुरूआत वर्ष 2004 से हुई थी,  वर्ष 2013 से राजिम (छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में) स्थित प्रेरक संस्था के सहयोग से इस काम में तेजी आई है। जंगल की संस्कृति बचाने का प्रयास किया जा रहा है। अगर हमें आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा व खाद्य संस्कृति को बचाना है तो खेती व जंगल का गैर खेती खाद्य (जंगली खाद्य) बचाना और उसका संवर्धन करना जरूरी है।

कंगोली नर्सरी में पौधों की देखभाल
कंगोली नर्सरी में पौधों की देखभाल

नाग जी ने बताया कि हमारी नर्सरी से करीब एक लाख पौधे पड़ोसी राज्य तेलंगाना और आंध्रप्रदेश को भेजे गए थे। यह वर्ष 2017 की बात है। वहां के वनविभाग ने इसकी मांग की थी। वहां के वन विभाग के अधिकारी यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि इन पौधों की अंकुरण क्षमता बहुत उम्दा किस्म की थी। बाद में तेलंगाना वनविभाग ने लीफ संस्था से जुड़े आदिवासी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने के लिए आमंत्रित किया जिससे आदिवासियों में आत्मविश्वास आया और इस काम में तेजी आई।

आदिवासियों की परंपरा में हमेशा से ही जंगल बचाना रहा है। इसे यहां की परंपराओं से समझा जा सकता है। बस्तर के वनों में देसी प्रजाति के मौसमी फल व वन खाद्य प्रचुर मात्रा में मिलते हैं जिन्हें ग्रामवासी संग्रहण करते हैं। चाहे कृषि उपज हो या वनोपज, जब तक पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं हो जाते तब तक इन्हें ग्रहण नहीं किया जाता। इन फसलों को परिपक्व होने की स्थिति में प्रत्येक गांव में ग्राम देवी देवता को सबसे पहले अर्पण करते हैं फिर खुद ग्रहण करते हैं।

इसी तरह वनोपज में विशेषकर बस्तर के जंगल में कई प्रजातियों के देशी आम अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। लेकिन इन आमों को बस्तर के आदिवासी तब तक नहीं खाते जब तक कि ये परिपक्व नहीं हो जाते। आम को खाने के पूर्व ग्राम देवी देवता को पारंपरिक रूप से अर्पण किया जाता है, उसके बाद ही लोग खाते हैं। यह त्यौहार प्रतिवर्ष मध्य अप्रैल से मई माह के पहले हफ्ते के बीच मनाया जाता है। इस परंपरा को सख्ती से पालन किया जाता है।

अगर कोई गांव आम त्यौहार का उल्लंघन करता है और उस तिथि से पहले आम त्यौहार मनाता है तो उस गांवों के लोगों से पानी तक ग्रहण नहीं किया जाता। इस परंपरा में आम पूरी तरह परिपक्व हो जाता है, तब उसकी गुठली से नया पौधा उगाते हैं ताकि वह पेड़ बनकर आने वाली पीढ़ी को फल व अन्य लाभ दे सके। इस तरह, वन संरक्षण एवं संवर्धन के आदिवासियों के अपने पारंपरिक तरीके हैं।

इसके बाद हम संधकरमरी गांव की नर्सरी पहुंचे। यह गांव जंगल बचाने में अग्रणी रहा है। यहां करीब 600 एकड़ जंगल को बचाया है। यह कमाल किया है यहां के दामोदर कश्यप ने, वह गांव के 35 साल तक निर्विरोध सरपंच भी रह चुके हैं। दामोदर कश्यप ने ही संधकरमरी गांव में 10 एकड़ जमीन नर्सरी के लिए दी है और लीफ संस्था का कार्यालय बनाने के लिए जमीन दान में दी है। संधकरमरी गांव के लोगों ने जंगल को बचाने के लिए ठेंगापाली पद्धति को अपनाया है।

क्या है ठेंगापाली पद्धति इसके जवाब में दामोदर कश्यप बताते हैं कि  इसमें ठेंगा यानी एक खास तरह का बांस से निर्मित डंडा होता है। पाली यानी बारी। इसलिए इसे ठेंगापाली पद्धति कहा गया। इस डंडे पर गांववाले झंडे की तरह कपड़ा लपेट देते हैं। ग्रामदेवी के मंदिर में रख इसकी पूजा-अर्चना की जाती है। उस दिन से इस ठेंगा को लेकर लोग जंगल की रखवाली करते हैं।

जंगल की रखवाली करने के लिए सुबह निकलते हैं और शाम को लौटते हैं। शाम को यह ठेंगा (डंडा) पड़ोसी के घर रख दिया जाता है। पड़ोसी और उसके बाजू वाले दो घर के लोग इसे लेकर दूसरे दिन रखवाली करने जाते हैं। इस तरह यह सिलसिला जारी रहता है। बरसों से यह क्रम चल रहा है। पहले एक दिन में गांव के 10-12 लोग जंगल की रखवाली करते थे। बाद में एक दिन में 3-3 लोग रखवाली करने के लिए तय किया गया। इस तरह दामोदर कश्यप ने उनके गांव के आसपास 6 सौ एकड़ जंगल बचाया है।

इसके अलावा, लीफ संस्था ने सब्जी बाड़ी (किचिन गार्डन) का भी अच्छा काम किया है। ग्राम स्तरीय विकास में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने एवं उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर करने के उद्देश्य से 10 गांवों में महिला समूहों का गठन किया गया है। उनकी आर्थिक और स्वास्थ्य की स्थिति को बेहतर करने के लिए सब्जी बाड़ी का काम किया जा रहा है। और इसका प्रशिक्षण भी दिया गया है।  इसके तहत् अलग से पानी की जरूरत नहीं है बल्कि घरेलू बर्तन वगैरह धोने के बेकार पानी से सब्जी बाड़ी की सिंचाई की जा सकती है। यह सब्जी बाड़ी पूरी तरह जैविक तरीके से की जा रही है, यानी बिना रासायनिक खाद के। ग्राम ककालगुर के केवराफूल महिला स्वसहायता समूह, सूरजफूल महिला स्वसहायता समहू समेत 10 महिला समूहों ने इसमें अच्छी सफलता हासिल की है। आज उनकी सब्जी बाड़ी से घर के लिए ताजी सब्जियां मिल रही हैं और अतिरिक्त होने पर बाजार में भी बेची जा रही हैं, जिससे कुछ आमदनी भी हो रही है।

पर्यावरणविद् व लीफ संस्था से जुड़े मधु रामनाथ कहते हैं कि नर्सरी का काम बहुत उपयोगी है। जलवायु बदलाव के दौर में इसकी प्रासंगिकता बढ़ गई है। ऐसे समय जब बारिश की अनिश्चितता बढ़ गई है, जंगलों की विरासत को बचाना जरूरी है। जहां जंगल हैं वहीं आदिवासी हैं और जहां आदिवासी हैं वहीं जंगल है। जलवायु बदलाव के दौर में पारम्परिक ज्ञान से जंगल और आदिवासी दोनों बच सकते हैं, पर्यावरण व जैव विविधता भी बच सकती है। यह सब हम बीजों के आदान प्रदान से, और एक दूसरे से सीख सकते हैं। 

मधु रामनाथ कहते हैं कि नर्सरी का अनूठा काम बस्तर में किया जा रहा है। बीज संकलन सही समय व सुरक्षित तरीके से करना जरुरी है। यह समझना जरूरी है कि कुछ बीजों की अंकुऱण क्षमता कम समय की होती है, और कुछ बीज ज्यादा समय तक रहते हैं। सबको एकत्र करने की जरूरत नहीं है। इससे अच्छा तो यह है कि उन बीजों को पेड़ों के नीचे ही छोड़ देना चाहिए जिससे वे अंकुरित हो सकें। इस तरह वृक्षों के बारे में जानकारी एकत्र कर ही बीज संकलन किया जाए, यह काम लीफ संस्था अच्छे से कर रही है, उन्हें जंगल के पेड़ों के बारे में अच्छी जानकारी है। यह एक तरह से जंगलों को आदिवासियों की आजीविका से जोड़ना है।

जंगली मशरूम बाजार में बिकता है
जंगली मशरूम बाजार में बिकता है

कोविड-19 की तालाबंदी के दौरान जब हाट-बाजार और दुकानें बंद थी, तब जंगल के वन खाद्य, कंद और हरी भाजियां भोजन का हिस्सा बनीं। लीफ संस्था से जुड़े मंगरूराम कश्यप बताते हैं कि तालाबंदी के दौरान कई तरह की हरी पत्तीदार भाजियां जैसे कोंयजारी भाजी, बेलुआं भाजी, कोलियारी भाजी, बोदई भाजी, पेंगु भाजी, कोकटी भाजी आदि जंगल से मिलीं। इसके साथ ही सोरंदाकंद, पीताकंद, टुंडरीकंद, पीटकंद, नागरकंद, तरगरियाकंद, कुलियाकंद, बुरकीकंद, सीकापेंदी कंद, डोंगरकंद, दपनकंद, सिंधकंद, कावराकंद आदि भी खूब खाया। इसके अलावा, बोड़ा या फुटू (मशरूम) की सब्जी भी जंगल से मिली। दो प्रकार का होता है,  जात बोड़ा (मशरूम) पहली बारिश में निकलता है, जबकि लाकड़ी बोड़ा ज्यादा बारिश होने पर निकलता है। तालाबंदी के समय जात बोड़ा (मशरूम) खूब मिला और इसे बेचा भी। इसकी कीमत प्रति किलो 1000 रूपए थी। मशरूम केन्दु छाती (मशरूम), डेंगुर छाती, पत्तर छाती, मजुरडुंडा भी बहुत मिला। इसके साथ बस्तर में चापडा (लाल रंग की चींटी) की सब्जी भी खाई गई। इसकी चटनी बनाकर खाई जाती है। सुखाकर भी खाते हैं। यानी तालाबंदी के दौरान जंगल ने आदिवासियों को बड़ा सहारा दिया। भोजन दिया।

जंगल का खान पान है मशरूम
जंगल का खान पान है मशरूम

वनोपज के रूप में महुआ, चार, इमली, सालबीज का संग्रहण किया। तेंदूपत्ता संग्रहण का संग्रहण किया गया, जिससे आमदनी हुई।     

कुल मिलाकर, यह पहल बहुत उपयोगी व सार्थक है। तालाबंदी के दौरान वन खाद्य भोजन का हिस्सा बने, वनोपज से कमाई हुई। जंगल व पेड़ लगाने का फौरी लाभ हुआ। साथ ही, इससे आसपास का जंगल हरा भरा हुआ है, भूजल स्तर बढ़ा है।  जंगल है तो आदिवासी हैं, जंगल से कई तरह के पोषक वन खाद्य मिल रहे हैं। हरी पत्तीदार सब्जियां मिल रही हैं। साल बीज, तेंदूपत्ता, महुआ, आम, शहद, चिरौंजी जैसी वनोपज मिल रही हैं। उनकी आजीविका सुनिश्चित हुई है। महिला सशक्तीकरण का यह अच्छा उदाहरण है। यह जंगल की सुरक्षा की समुदाय की परंपरा है, उसे पुनर्जीवित किया है, आदिवासी संस्कृति में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ाया है। जंगल को लगाया है और कटने से बचाया है। बांस की बेजा कटाई पर रोक लगाई है। जैव विविधता और पर्यावरण का संरक्षण भी हुआ है। आदिवासी युवाओं को इससे जोड़ा है, जंगलों की समृद्ध विरासत को सहेजा है।    

ककालगुर में वन प्रबंधन की बैठक
ककालगुर में वन प्रबंधन की बैठक

लेखक से संपर्क करें

Story Tags: , , , , , , ,

Leave a Reply

Loading...
रजनीश दुबे जबलपुर July 23, 2020 at 3:02 pm

आदिवासी समाज व संस्कृति को तथाकथित विकास से बचाने की जरूरत है।
जंगल व आदिवासी एक दूसरे के पूरक हैं,यदि इनका संवर्धन संरक्षण करना है तो किसी तीसरे का प्रवेश रोकना होगा।
आदिवासी समाज संस्कृति के लिए बाबा मायाराम जी के प्रयास सराहनीय है। जमीन से जुड़े हुए हैं इसलिए यथार्थ लेखन की परंपरा को जीवित रखने का काम कर रहे हैं।
रजनीश दुबे जबलपुर
9425037064