महिला किसानों की पहाड़ी खेती (in Hindi)

By बाबा मायाराम onAug. 13, 2019in Environment and Ecology

विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)

दक्षिणी नागालैंड का एक छोटा गांव है चिजामी। हम ग्राम महिला समिति के कार्यालय में हैं। दोपहर का समय है। गोल घेरे में कुर्सियों डाले बैठे हैं। यहां बीज बैंक है, जिसमें कई तरह के रंग-बिरंगे देसी बीज हैं। छोटी-छोटी टोकरियों में सुघड़ता से सजे हैं। मक्का, ज्वार, कांग, तुअर और कई तरह की सब्जियों के बीज हैं। तोरई, लौकी, लहसुन भी हैं। बातचीत चल रही है। देसी बीज और खानपान की नागा समाज की संस्कृति के बारे में महिलाएं बता रही हैं। उनकी आवाज आत्मविश्वास से भरी हैं और आंखों में उम्मीद की चमक है।

चिजामी देसी बीज में महिला किसानों के साथ मीटिंग; फोटो: अर्पिता लुल्ला

फेक जिले में है चिजामी। करीब 600 घरों वाले इस गांव की आबादी 3000 के आसपास है। यह गांव पहाड़ और जंगल के बीच में है। यहां कुंवारी नदी है। वैसे तो यह गांव आम गांवों की तरह है। छोटी गलियां हैं, पहाड़ी पर लकड़ी के घर हैं, काम की धीमी रफ्तार है, पर यहां महिलाओं की मेहनत से इसे खास बना दिया है। इसी सब से यह दूसरे गांवों के लिए प्रेरणा बन गया है। यहां महिला मुद्दों पर काम करनेवाली संस्था नार्थ ईस्ट नेटवर्क (एनईएन) है। इसी संस्था के कामों के बारे में जानने के लिए मैं यहां पहुंचा था। इस दौरे में कल्पवृक्ष पुणे के मिलिन्द वाणी और अर्पिता भी थे।

मध्यप्रदेश से कोलकाता, वहां से दीमापुर। वहां से कोहिमा और कोहिमा से चिजामी गांव। यह पूरा लम्बा सफर था। कोहिमा से चिजामी का सफर हमने  करीब 4 घंटे में तय किया था। दोनों के बीच की दूरी 88 किलोमीटर थी। मौसम साफ था। आकाश में बादलों के गाले छितरे हुए थे। घुमावदार ऊंची-नीची सड़क, खाईयां, तीखे ढलानवाली पहाड़ियां,  हरे-भरे पेड़ पौधे थे। सीढ़ीदार खेत, नदियां, झरने, लोहे के पुल और चटक रंगों की रंगीन पोशाकों में नागा स्त्री पुरूष। यह बहुत खूबसूरत इलाका था, मनोरम भूदृश्य थे। ऊंची-नीची पर्वत शृंखलाएं वनों से आच्छादित है। बादल उड़ रहे थे, धुंध से भरी हुई पहाड़ियां पर, मानो सच में आंखों में बसा लेने वाले दृश्य, मैं देखता तो देखता ही रह जाता। यह सब देखकर मन प्रफुल्लित हो गया। रात में बारिश हुई थी, इसलिए सड़क गीली थीं। मौसम में ठंडक थी।

थोड़ी देर में हम एनईएन (NEN) के चिजामी कार्यालय में पहुंच गए। यह कार्यालय पहाड़ी पर स्थित था। एनईएन से जुड़े कार्यकर्ता स्टीफन और अकोले ने हमें संस्था का संक्षिप्त परिचय दिया। वह इस प्रकार है- एनईएन ( नार्थ ईस्ट नेटवर्क), महिला संगठन है, नार्थ ईस्ट क्षेत्र में काम करता है। यह संस्था 1995 से कार्यरत है। ये तीन राज्यों – असम, मेघालय और नागालैंड में कार्यरत है। महिला स्वास्थ्य ( प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकार), आजीविका, सुशासन, प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन, मानव अधिकार और शांति के मुद्दों पर काम करती है। एनईएन ने स्थानीय समुदायों को जैव विविधता संरक्षण, टिकाऊ खेती और खाद्य संप्रभुता पर जागरूक किया है।

आगे बढ़ने से पहले नागालैंड के बारे में थोड़ा जानना उचित होगा। देश के पूर्वोतर राज्यों में से एक है नागालैंड। इसकी राजधानी कोहिमा है। यहां 12 जिले हैं। यहां की आबादी करीब 19.81 लाख, (2011 की जनगणना के मुताबिक) है। इसके पश्चिम में असम, उत्तर में अरूणाचल प्रदेश और दक्षिण में मणिपुर और पूर्व में म्यांमार है। यहां नागाओं की कई जनजातियां रहती हैं।  

यहां का अधिकांश हिस्सा पहाड़ियों से घिरा और जंगल से आच्छादित है। मुख्यतः चीड़ का जंगल है। जहां जैव विविधता का भंडार है। पहले यह जंगल घने थे, अब विरल हो गए हैं। कृषि ही मुख्य आजीविका है। यहां परंपरागत खेती का समृद्ध इतिहास है। अलग-अलग पारिस्थितिकीय तंत्र और कृषि जलवायु क्षेत्र के अनुसार कृषि पद्धतियां विकसित हुई हैं। परंपरागत किसानों ने वैसी ही कृषि पद्धति को अपनाया है, जो यहां की मिट्टी-पानी के अनुकूल हो। यहां खेती की जो परंपरागत पद्धति विकसित हुई है, वह पारिस्थितिकीय तंत्र के मुताबिक हुई हैं और उसी से लोगों की भोजन, ईंधन और घरेलू जरूरत पूरी होती रही हैं।

यहां  झूम खेती होती है। अंग्रेजी में इसे शिफ्टिंग कल्टीवेशन कहा जाता है। इसमें छोटी-छोटी झाड़ियां काटकर उन्हें खेत में जला दिया जाता है और उसकी राख में बीज बिखेर दिए जाते हैं। जब बारिश होती है तो वह बीज अंकुरित हो जाते हैं। झूम यानी सामूहिक काम। इसमें लोग मिलकर काम करते हैं और उपज का समान बंटवारा करते हैं। पिछले कई दशकों से झूम खेती नागाओं की भोजन की जरूरत पूरी करती है। पहाड़ों की पारिस्थितिकीय तंत्र व पर्यावरण का भी संरक्षण करती रही है।

महिला किसान खेत में काम करते हुए; फोटो: एन एन

यहां के किसान झूम खेती में करीब 60 तरह के अनाज किस्में उगाते हैं, जिनमें अनाज, दाल और सब्जियां शामिल हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में आबादी बढ़ने के कारण नागालैंड में झूम खेती में बदलाव आया है। पहले 15-20 सालों में झूम खेती में जगह (जमीन) बदली जाती थी, अब 9 साल में बदल ली जाती है। इस बीच मिट्टी की उर्वरक शक्ति कम हो जाती है, उपज भी कम हो जाती है और जंगल की जैव-विविधता में कमी आ जाती है। 9 साल की अवधि में भूमि की उर्वरता और जैव-विविधता फिर वापस आ जाती है। इसके अलावा, बड़े पेड़ों को पूरा नहीं काटते हैं। वृक्षारोपण भी करते हैं।

यहां बदलाव की कहानी 90 के दशक में शुरू हुई, जब यहां वर्ष  डा. मोनिशा बहल आईं। वह महिला स्वास्थ्य पर काम करती थीं। डां. मोनिशा बहल और रश्मि गोस्वामी इस संस्था की संस्थापक सदस्य भी हैं। नार्थ ईस्ट नेटवर्क की शुरूआत 1995 में हुई। मोनिशा बहल यहां महिला स्वास्थ्य पर एक कार्यशाला में आईं थी और एक कार्यशाला में सेनो से मिली थीं, जो स्थानीय हैं। सेनो, सुमी गांव में एक स्कूल शिक्षिका थीं। बाद में दोनों ने ग्रामीणों के साथ मिलकर आजीविका और पर्यावरण संरक्षण पर काम किया, जो सबके लिए उदाहरण बन गया।

यह वह समय था जब जलवायु बदलाव, अनियमित वर्षा और बढ़ते तापमान के कारण खेती में कई समस्याएं आ रही थीं। पौष्टिक अनाजों की खेती कम हो रही थी और औद्यानिकी, नकदी फसलों की ओर किसान मुड़ रहे थे। लेकिन यह खेती यहां की जलवायु, मिट्टी व पानी के लिए अनुकूल नहीं थी। और इसमें छोटे व हाशिये किसान पिछड़ रहे थे। महिलाएं पिछड़ रही थीं। क्योंकि यह खेती बाजार आधारित थी। लोगों का खान-पान बदल रहा था। जीवनशैली बदल रही थी और लोग नागा समाज की संस्कृति से दूर होते जा रहे थे।

झूम खेती, जो परंपरागत खेती थी जो कम बारिश में भी होती थी, विविध थी और उससे खाद्य सुरक्षा भी होती थी।  झूम खेती के बिना विविध तरह की सब्जियां और पौष्टिक अनाजों की खेती के बारे में सोचा नहीं जा सकता। पहले लोग झूम के खेतों में जाते थे तो ऐसी कई तरह की सब्जियां व अनाज व फलियां एकत्र कर लेते थे। और गांव में लाते थे और पड़ोसी व खेल सदस्यों में बांट लेते थे। खेती सिर्फ एक फसल नहीं, जीने का तरीका था। सदियों से आजीविका व भोजन प्राप्त करने का साधन रहा है। जीवन दर्शन था पर इसमें कमी आ रही थी।

इस सबसे महिलाओं को परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। महिलाओं को कमतर समझने वाली सोच इनकी परेशानियों को नहीं देखती। एनईएन ने शुरू से ही महिला मुद्दे और उनके अधिकारों पर जोर दिया था। संस्था को ऐसा लगा कि खाद्य सुरक्षा, जैव विविधता व पर्यावरण संरक्षण के लिए तत्काल कुछ करने की जरूरत है।

उन्होंने गांव में लोगों से बात की, बुजुर्गों से पौष्टिक अनाजों की खेती के बारे में जाना और उन्हें लगा कि इसका हल नागाओं की परंपरागत खेती में है। जिसकी प्रेरणा उन्हें तेलंगाना राज्य में पौष्टिक अनाजों पर काम करने वाली संस्था डेक्कन डेवलपमेंट सोसायटी (डीडीएस) से मिली। दिल्ली में एक कार्यशाला के दौरान डीडीएस के सदस्यों से एनईएन के कार्यकर्ताओं की मुलाकात हुई। यह वर्ष 2009 की बात है। उनकी पौष्टिक अनाजों की सफलता की कहानी सुनी। इससे वे बहुत प्रभावित हुए और नागालैंड में इसी तरह की खेती की सोच बनी। इसके लिए यहां से तेलंगाना किसानों की एक टीम भी गई। वहां के किसानों से खेती के बारे में जाना और सीखा। इसके बाद नागालैंड में पौष्टिक अनाजों की वापसी की कोशिशें शुरू हुईं। इस पूरी पहल में महिलाओं की भूमिका प्रमुख रही।

वे बुआई से लेकर कटाई तक इसमें काम करती हैं। खेतों में पत्ते व झाड़ियां काटने और जलाने में भी शामिल रहती हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक परंपरागत ज्ञान चला आ रहा है। बीज भंडारण, झूम खेती, जैव विविधता इत्यादि। लेकिन महिलाएं खेती से जुड़े निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हैं। कौनसी जमीन इस साल खेती के लिए चयन करना है, झूम खेती कहां करनी है। वे अधिकांश मामलों में जमीन की मालिक नहीं है। चाहे वह जमीन समुदाय की ही क्यों न हो। इन दोनों मुद्दों को जोड़कर एनईएन ने काम किया। पौष्टिक अनाजों की परंपरागत खेती में महिलाओं की भूमिका को चिन्हित किया। और इस पूरी प्रक्रिया में महिलाओं को शामिल किया।

देसी बीजों का भंडारण; फोटो: अर्पिता लुल्ला

चिजामी की आदिके (56 वर्ष) बताती हैं कि वे उनके खेत में 87 किस्में उगाती हैं। सुबह 8 बजे खेत जाती हैं और शाम 4 बजे लौटती हैं। उनके खेत में मक्का, ज्वार, तुअर, छोटी-बड़ी सेमी, बैंगन, मिर्ची, अदरक, करेला, कद्दू, केला, टमाटर इत्यादि हैं। वे बचपन से ही खेती का काम कर रही हैं। उन्होंने बताया कि गांव के बीज बैंक में कई प्रकार के देसी बीज हैं। हम इनका दस्तावेजीकरण कर रहे हैं। जिससे आनेवाली पीढ़ी को बीजों और उनकी जानकारी, परंपरागत ज्ञान से अवगत कराया जा सके। इसके लिए एनईएन के साथ मिलकर प्रतिवर्ष जैव विविधता मेला भी आयोजित करते हैं। लोग पहले तो पौष्टिक अनाजों की खेती छोड़ने लगे थे लेकिन अब फिर से इस खेती को कर रहे हैं। इसका महत्व अब समझने लगे हैं।

एनईएन पौष्टिक अनाजों की खेती को बढ़ावा देने के लिए कई तरह के प्रयास करती है। जैविक खेती की प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन करती है। जैविक खेती को दिखाने के लिए किसानों की टीम भेजती है। महिला किसानों की वीडियो फिल्म बनाती है। युवा और बच्चे जिनकी खेती में रूचि कम हो रही है, उन्हें प्राकृतिक परिवेश, जंगल, जमीन, जैव विविधता और पर्यावरण से परिचय कराती है। इसके लिए प्रतिवर्ष समर फार्म स्कूल कैंप लगाए जाते हैं, जिसमें ग्रामीण और शहरी युवा दोनों आते हैं। इसमें खेती की पद्धतियां, परंपरागत ज्ञान, विषय विशेषज्ञों से साक्षात्कार आदि के माध्यम से जानकारियों का आदान प्रदान किया जाता है।

एनईएन ने गांव से लेकर जिले तक किसानों में पौष्टिक अनाजों की खेती को प्रोत्साहित किया। पौष्टिक अनाजों में जलवायु के अनुकूल उपज देने की क्षमता है। मिश्रित फसलें होने के कारण अगर एक फसल नहीं हुई तो उसकी पूर्ति दूसरी से हो जाती है। वे सूखारोधी भी हैं। और पोषण, स्वास्थ्य और समुदाय से जुड़े हैं। पौष्टिक अनाज, ऐसे खाद्य हैं जिन्हें लंबे समय तक भंडारण कर रखा जा सकता है। इनके औषधीय उपयोग भी हैं। अगर झूम खेती के साथ हम मक्के के साथ फली वाले पौधे लगाते हैं , तो नत्रजन मिलती है। जो मिट्टी को उर्वर बनाती है। बड़े पौधे भी नत्रजन प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

एनईएन की पहल से धीरे-धीरे यहां बदलाव आने लगा। पुरूषों के समान महिलाओं को भी मजदूरी मिलने लगी। 2014 में गांव परिषद ने यह प्रस्ताव पारित किया कि महिलाओं को भी कृषि मजदूरी में पुरूषों के समान मजदूरी मिलेगी। इसके अलावा गांव परिषद में भी दो महिला  सदस्य बनीं। एनईएन की कार्यकर्ता सेनो को केन्द्र सरकार के महिला और बाल विकास मंत्रालय ने स्त्री शक्ति पुरस्कार से सम्मानित किया।

महिला किसान फसल के साथ; फोटो: एन एन

लेकिन पौष्टिक अनाजों की खेती में कुछ समस्याओं भी आ रही हैं। पक्षियों की एक बड़ी समस्या है,वे झुंड में आते हैं और फसलों के दाने खा जाते हैं। दूसरी समस्या है पौष्टिक अनाजों में छिलके निकालने की। इन अनाजों का आकार छोटा होता है और ऊपरी सतह (छिलका) बारीक, इसे पहले महिलाएं खुद स्थानीय तरीकों से निकालती थीं, जिसमें ज्यादा समय और मेहनत दोनों लगती थी। इन दोनों समस्याओं का आंशिक रूप से हल निकाला गया है। एक तो पक्षियों की समस्या का हल यह निकाला गया है कि सामूहिक रूप से खेती की जाएगी, जिससे पक्षी एक ही खेत में न आ पाएं और मिलकर उन्हें भगाया जा सके। और छिलका निकालने की भी मशीन आ गई है। लेकिन फिर भी यह समस्या का पूरा समाधान नहीं है। इस दिशा में और काम करने की जरूरत है।

कुल मिलाकर, इस पूरे काम से कुछ बातें कही जा सकती हैं। गांव में पिछले एक दशक से एक सामाजिक-आर्थिक बदलाव आया है। पौष्टिक अनाजों की परंपरागत खेती की वापिसी हुई है। पौष्टिक अनाजों की खेती से पोषण स्तर सुधरा है। देसी बीज जो लुप्त हो रहे थे, उनके संरक्षण का काम हुआ है। बारिश के पानी से परंपरागतें फसलें हो रही हैं, जो कम पानी में पक जाती हैं। बारिश के पानी संजोने के लिए छत के पानी का एकत्रीकरण (रूफवाटर हार्वेस्टिंग) का काम भी किया है।

जलवायु बदलाव के दौर में और विशेषकर पहाड़ी इलाकों में परंपरागत खेती की पुनः वापिसी आजीविका को सुरक्षित करने, लोगों की खानपान की संस्कृति को बचाने का तरीका है। जीवन जीने का तरीका है और इस काम से पूरी कृषि संस्कृति की वापिसी हुई है। स्वास्थ्य व्यवस्था, पर्यावरण सुधार, खाद्य सुरक्षा, महिला अधिकार, सिलाई, कढ़ाई बुनाई और बांस के बर्तन बनाने का अनूठा काम हुआ है। नागा पोशाकों की विशेष हथकरघे पर बुनकरी का काम किया जा रहा है जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हुई हैं। यानी साधारण महिलाओं ने असाधारण काम किया है। यह एक आदर्श गांव बन गया है, जो दूसरों के लिए प्रेरणा बन गया है। कोहिमा और पड़ोसी गांवों के युवा इंटर्नशिप करने के लिए आते हैं, जैविक खेती,पर्यावरण व जैव विविधता संरक्षण के काम सीख रहे हैं।

इस पूरे काम में महिलाओं की प्रमुख भूमिका रही है। यानी महिला सशक्तीकरण का यह बहुत अच्छा उदाहरण है।  जलवायु बदलाव के दौर में यह किसानों की समस्याओं का भी समाधान है, जो बहुत ही महत्वपूर्ण और सार्थक कदम है। यहां एक मूक क्रांति हुई है जिसकी कीर्ति देश-दुनिया में फैली है। यहां की महिला किसानों से सीखने की जरूरत है, वे खेती भी करती हैं, कपड़े भी बुनती हैं, मिल-जुल कर काम करती हैं, गीत भी गाती हैं, नृत्य भी करती हैं,और खुशहाल हैं और उन्हें रासायनिक खेती के संकटों से भी नहीं जूझना पड़ता।    

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रजनीश दुबे September 16, 2020 at 7:25 am

आदिवासी समुदाय की जीवन शैली प्रकृति से मिलकर ही रहती है और वह अपने भरण पोषण के लिए प्राकृतिक तौर तरीके वाली खेती को ही अपनाता है।
तथाकथित विकासवादी व्यवस्था ने भौतिक विकास को ही विकास का लक्ष्य मानते हुए योजनाएं बनाई फलस्वरूप भौतिक विकास में प्रकृति का विनाश होगा गया।
बाबा मायाराम जी ने जो आंखों देखा हाल लिखा है वह आदिवासियों की उस मूल भावना का ही परिचायक है। झूम खेती को आज के विकासवादी लोग गलत मानते हैं उनका मानना है आग लगाना प्रकृति के विरुद्ध है परंतु यदि इस बात को समझा जाए तो यह भूमि की उर्वरता को बनाए रखने की एक व्यवस्था है।
एकल फसल खेती की विचारधारा पर चलकर हमने अपने परंपरागत बीजों को नष्ट कर दिया और अधिक उत्पादन लेने के प्रयास में गुणवत्ता भी मिटा दी या कम कर दी।
मायाराम जी ऐसी पुरातन व्यवस्थाओं को हमारे सामने लाकर यह संदेश देना चाह रहे हैं की प्रकृति सर्वोत्तम है और उसके अनुरूप ही चलकर हम पर्यावरण या मानव स्वास्थ्य को सुरक्षित रख सकते हैं।

Rakesh Kumar Sinha August 19, 2019 at 9:22 am

मायाराम जी का लेख बहुत अच्छा लगा। आज के अन्धे विकास के मुकाबले भारत के पास स्वराज ही एकमात्र विकल्प है। भारत का स्वराज केवल कृषक स्वराज के आधार पर ही खड़ा हो सकता है और इसके लिए देश के अलग अलग हिस्सों में बचे बिखरे पारम्परिक ज्ञान को समेटना बहुत जरूरी है। आपका प्रयास स्वराज के लिए बहुत सार्थक है। आशा है इसे लगातार चलाते, बढ़ाते रहेंगे।