मुनिगुड़ा, घने जंगल और पहाड़ के बीच ओड़िशा का एक छोटा सा रेलवे स्टेशन। उन्तीस सितंबर की दोपहर मैं यहां लंबी ट्रेन यात्रा कर पहुंचा। मेरी ट्रेन की खिड़की पर पूरा नियमगिरी आ गया। किसी चलचित्र की तरह दौड़ते भागते छोटे-छोटे नदी नाले, पेड़-पौधे, हरे-भरे खेत, काम करते किसान गाय, बैल, बकरियां, सुंदर गांव और बहुत ही मनमोहक पहाड़ियां।
लेकिन मैं यहां प्रकृति की सैर करने नहीं गया था, हालांकि इसका मौका मिले तो अच्छा होगा। कुछ समय पहले नियमगिरी के आदिवासियों का आंदोलन चर्चा में रहा था, नाक में नथनी वाली महिलाओं की छवियां अखबारों में छपी थीं। इस यात्रा का उद्देश्य फिलहाल यह नहीं है। इस बार आदिवासियों की खेती और उनके जंगल के खानपान के बारे में दिलचस्पी है।
जंगल और पहाड़ ऐसे स्थान हैं, जो हमें अपने सौंदर्य से हमेशा आकर्षित करते हैं। जब हम अपने तनाव भरे जीवन से छुट्टी पाना चाहते हैं, हम इनकी ओर रुख करते हैं। ये जीती-जागती प्रकृति की नियामतें हैं।
उनकी छटा निराली है। पेड़ों के तरह तरह के रंग रूप, छोटे-मोटे तने, टहनियां, रंग-बिरंगी पत्तियां, फल, फूल हमारी धरती पर अलग ही छटा बिखेरते हैं।
जंगल आदमी समेत कई जीव-जंतुओं को पालता पोसता है। ताजा हवा, कंद-मूल, फल, घनी छाया, ईंधन, चारा, और इमारती लकड़ी और जड़ी-बूटियों का खजाना है।
हमारे जंगल जनविहीन नहीं है, यहां गांव समाज है। और ज्यादातर जंगलों में आदिवासी निवास करते हैं। उनके खानपान में जंगल से प्राप्त गैर खेती भोजन का बड़ा हिस्सा होता है।
केरंडीगुड़ा का लोकनाथ नावरी कहता है कि जंगल हमारे बच्चों को भूख से बचाता है, इसलिए हम जंगल को बचाते है। वहां से हमें भाजी, कंद-मूल, फल-फूल और कई प्रकार के मशरूम मिलते हैं। जिन्हें या तो सीधे खाते हैं या हांडी में पकाकर खाते हैं।
इसका एक नमूना मुझे रेलवे स्टेशन पर ही मिल गया जब वहां महिलाएं टोकरी में सीताफल बेचते हुए मिलीं। वे सब जंगल से सीताफल लेकर आईं थीं और ट्रेन में बेचते थीं। एक ही सीताफल से मेरा नाश्ता हो गया।
विषमकटक के सहाड़ा गांव का कृष्णा कहता है कि जंगल हमारा माई-बाप है। वह हमें जीवन देता है। उससे हमारे पर्व-परभणी जुड़े हुए हैं। धरती माता को हम पूजते हैं। कंद, मूल, फल, मशरूम, बांस करील और कई प्रकार की हरी भाजी हमें जंगल से मिलती है।
आदिवासियों की जीवनशैली अमौद्रिक होती है। वे प्रकृति के ज्यादा करीब है। प्रकृति से उनका रिश्ता मां-बेटे का है। वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं, जितनी उन्हें जरूरत है। वे पेड़ पहाड़ को देवता के समान मानते हैं। उनकी जिंदगी प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है। ये फलदार पेड़ व कंद-मूल उनके भूख के साथी हैं।
लिविंग फार्म के एक अध्ययन के अनुसार भूख के दिनों में आदिवासियों के लिए यह भोजन महत्वपूर्ण हो जाता है। उन्हें 121 प्रकार की चीजें जंगल से मिलती हैं, जिनमें कंद-मूल, मशरूम, हरी भाजियां, फल, फूल और शहद आदि शामिल हैं। इनमें से कुछ खाद्य सामग्री साल भर मिलती है और कुछ मौसमी होती है।
आम, आंवला, बेल, कटहल, तेंदू, शहद, महुआ, सीताफल, जामुन, शहद मिलता है। कई तरह के मशरूम मिलते हैं। जावा, चकुंदा, जाहनी, कनकड़ा, सुनसुनिया की हरी भाजी मिलती है। पीता, काठा, भारा, गनी, केतान, कंभा, मीठा, मुंडी, पलेरिका, फाला, पिटाला, रानी, सेमली, साठ, सेदुल आदि कांदा (कंद) मिलते हैं।
यह भोजन पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इससे भूख और कुपोषण की समस्या दूर होती है। खासतौर से जब लोगों के पास रोजगार नहीं होता। हाथ में पैसा नहीं होता। खाद्य पदार्थों तक उनकी पहुंच नहीं होती। यह प्रकृति प्रदत्त भोजन सबको मुफ्त में और सहज ही उपलब्ध हो जाता है।
लेकिन पिछले कुछ समय से इस इलाके में कृत्रिम वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जा रहा है। यूकेलिप्टस, सागौन, बांस को भी लगाया जा रहा है।
कुन्दुगुडा का आदि कहता है यूकेलिप्टस वाले मेरे पास भी आए थे। यह कहकर भगा दिया कि तुम्हारे पेड़ की भाजी भी नहीं खा सकते, खेत में लगाने से क्या फायदा? वह कहता है यहां के एक पेपर मिल के कारण यूकेलिप्टस लगाने का लालच दिया जा रहा है।
देशी और परंपरागत खेती को बढ़ावा देने में लगी संस्था के कार्यकर्ता प्रदीप पात्रा कहते हैं कि जंगल कम होने का सीधा असर लोगों की खाद्य सुरक्षा पर पड़ता है। इसका प्रत्य़क्ष असर फल, फूल और पत्तों के अभाव में रूप में दिखाई देता है।
अप्रत्य़क्ष रूप से जलवायु बदलाव से फसलों पर और मवेशियों के लिए चारे-पानी के अभाव के रूप में दिखाई देता है। पर्यावरणीय असर दिखाई देते हैं। मिट्टी का कटाव होता है। खादय संप्रभुता तभी हो सकती है जब लोगों का अपने भोजन पर नियंत्रण हो।
आदिवासियों की भोजन सुरक्षा में जंगल और खेत-खलिहान से प्राप्त खाद्य पदार्थों को ही गैर खेती भोजन कहा जा सकता है। इनमें भी कई तरह के पौष्टिक पोषक तत्व हैं। यह सब न केवल भोजन की दृष्टि से बल्कि पर्यावरण और जैव- विविधता की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं।
समृद्ध और विविधतापूर्ण आदिवासी भोजन परंपरा बची रहे, पोषण संबंधी ज्ञान बचा रहे, परंपरागत चिकित्सा पद्धति बची रहे, पर्यावरण और जैव विविधता का संरक्षण हो, यह आज की जरूरत है। इस दृष्टि से जंगल, आदिवासियों की जीवन शैली, उनकी परंपरागत खेती किसानी और जंगल का खानपान बहुत महत्व का है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, उनसे संपर्क करें