याराना ए सरमोली (In Hindi)

By आँचल (Aanchal)onNov. 28, 2023in Environment and Ecology

विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)

(Yaarana-e-Sarmoli)

हिमल कलासूत्र उत्सव प्रकृति से दोस्ती और पक्षियों से पहचान की एक शानदार पहल रही.

पिछली बार आप कब ऐसी सैर पर गए जहां आप प्रकृति के रहवासियों को देखने और सुनने की कोशिश में थे? शहर में अब ये आवाजें कंक्रीट के जालों में दबती जा रही हैं. उत्तराखन्ड राज्य में हिमालय की गोद में बसे गाँव सरमोली में साल २०२३ का उत्सव ‘हिमल कलासूत्र’ प्रकृति से पहचान बढ़ाने की कोशिश की ओर एक कदम रहा. तकरीबन १५ दिन लम्बे चले इस उत्सव में कई तरह के कार्यक्रम हुए जैसे दौड़, पक्षी अवलोकन, तितली उत्सव और वन मेला. 
आहिस्ते चाल से, चुपचाप हाथों में दूरबीन और डायरी कलम लिए पेड़ों के झुरमुट से निकलते समूह को तलाश रहती किसी नए पक्षी के दिख जाने की. जो इस कला के उस्ताद थे, वो आवाज़ से जान जाते कि यह फलाना पक्षी है. गाँव के कई साथी जिनकी कई पक्षियों से अच्छी जान पहचान थी – वो झट से उन्हें उनके स्थानीय नामों से पुकारते. इस गाँव में पक्षियों से जुड़ी कई लोक कथाएँ भी काफी प्रचलित हैं.

पक्षी अवलोकन करते युवा (तस्वीर सौजन्य: अशीष कोठारी)
किताबों से मेल करते हुए (तस्वीर सौजन्य:आँचल)

सरमोली के आसपास के गाँवों के स्कूल से जो बच्चे इस उत्सव में भाग लेने आये, उन्हें स्थानीय कई पक्षी पता थे लेकिन फिर भी जब कोई नयी आवाज़ सुनते तो उसका पीछा करने से ख़ुद को रोक नहीं पाते थे. उत्सव के दौरान सभी के लिए दूरबीन और डायरी कलम की व्यवस्था थी. बारी बारी से तीन या चार जत्थे अपनी सैर के लिए निकल पड़ते, हर समूह के साथ एक या दो जानकार होते जो सभी साथियों को गाइड कर रहे होते. पेड़ों के झुरमुट और पहाड़ी रास्तों के बीच में रूक कर वो किताब में पक्षियों का चित्र देखते और फिर दूरबीन से उसे देखकर प्यार भरी आह भरते. 
अलग अलग टीम वापस आकर मैदान में लगे टेंट में बैठ जाती और सैर के दौरान देखी गयी सारी चिड़ियाओं को किताबों में ढूंढ कर नाम से पहचानती और उनकी आवाजें निकाल कर ज़हन में बिठाने की कोशिश करती. इसमें मौसमी पक्षियों को पहचानना भी एक कला है, कौन पलायान पक्षी या घास, ज़मीन या पानी का पक्षी है – इसकी भी चर्चा बीच बीच में होती रही.

सैर से वापस आने के बाद अपनी अपनी जगह बना कर चर्चा करते समूह (तस्वीर सौजन्य: आँचल)

एक सुंदर देवदार का पेड़ हर रोज़ की दिनचर्या का लैंडमार्क रहा. गाँव के अलग अलग होम स्टे में ठहरे सभी सहभागी हर सुबह वहीं इकठ्ठे होते. और पक्षी अवलोकन के माहिर अपने साथ अलग अलग समूह को अलग दिशाओं में ले जाते. सबको इत्तला हो जाती कि रास्तों से आहिस्ते निकलना है.. बीच में कहीं जंगल में बैठ माटी संगठन की बसंती दीदी फुसफुसाती आवाज़ में लोक कथाएँ भी सुनाती.

हिमल कलासूत्र 2023 में २२ से २५ मई से तीन दिवसीय पक्षी अवलोकन/बर्डिंग उत्सव का आयोजन उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ जिले की मुन्सियारी तहसील के सरमोली गांव में हुआ. देश के अलग-अलग हिस्सों से पर्यावरण पर काम करने वाले विविध लोगों को एक साथ लाने और युवा पीढ़ी को अपने क्षेत्र की जैव विविधता के लिए प्रोत्साहित करना त्यौहार का उद्देश्य रहा. गोरी नदी बेसिन, उत्तराखंड हिमालय के उत्तर पूर्वी कोने में स्थित है, अत्यधिक ऊंचाई वाले ढलानों व अन्य प्राकृतिक आवास-स्थल के कारण यहां पक्षी जीवन की विविधता मौजूद है. यह क्षेत्र, बर्डलाइफ़ इंटरनेशनल द्वारा एक महत्वपूर्ण पक्षी क्षेत्र के रूप में नामित है और लगभग 325 पक्षी प्रजातियाँ यहाँ मौजूद होने का अनुमान है; जो कि उत्तराखंड की लगभग आधी प्रजातियाँ और पूरे भारत की एक चौथाई है. 

मैदान के एक टेंट में प्रदर्शनी भी लगी थी, जिसमें हिमल कलासूत्र के पिछले सालों के आयोजन और उपलब्द्धियों का ज़िक्र था. फोटोग्राफी प्रदर्शनी के द्वारा छात्रों ने स्थानीय लोगों द्वारा और उनके लिए शुरू किए गए इस आंदोलन का इतिहास जाना.

प्रदर्शनी देखते स्कूल के छात्र (तस्वीर सौजन्य: अशीष कोठारी)

सरमोली-जैंती वन पंचायत के युवा हकदार दीपक पछाई बताते हैं, “जंगल का महत्त्व अलग, जंगल की पहचान अलग, जंगल में प्राकृतिक विविधता देखने को मिलती है. युवाओं को ये तो पता है कि पानी आ रहा है लेकिन स्त्रोत नहीं पता – जब सालों बाद कमी होने लगेगी तब महत्वता पता चलेगी. उन्हें आजकल फ़ोन से मतलब है, जंगल से नहीं.” जंगल से स्थानीय लोगों के जुड़ाव पर उन्होंने बताया, “पहले जब अन्य आजीविका का साधन नहीं था, तो जंगल से जुड़े थे. लेकिन लगभग पिछले दस साल में लकड़ी पर खाना बनाना और पशुपालन कम हुआ है.”
सरमोली-जैंती वन पंचायत की दो बार सरपंच रह चुकी और माटी संगठन की संस्थापक सदस्य मलिका विर्दी से इस बारे में बात हुई तो उन्होंने बताया कि यह बदलाव बहुत हाल का है, एलपीजी गैस अब आसानी से मिलने लगे हैं. कुछ साल पहले तक गैस पर सिर्फ चाय बनती थी पर जैसे जैसे लोगों की आमदनी बढ़ी और बाज़ार तक पहुँच आसान होने लगी तब से कुछ हद तक जंगल पर निर्भरता कम हुई है.

पक्षी की तस्वीर किताब में दिखाते अशीष कोठारी (तस्वीर सौजन्य: आँचल)

निश्चित तौर पर इस उत्सव से बच्चों और युवाओं में एक ललक तो शुरू हुई है, हमने दीपक से इस बारे में पूछा जो ख़ुद एक बर्ड वॉचर हैं तो उन्होंने बताया, “रूचि तो धीरे-धीरे बढ़ती है, हम भी जब छोटे थे तो सारे तितली-पक्षी को एक ही नाम से जानते थे पर अब जैसे जैसे जानने लग गए – रूचि बढ़ गयी है. एकदम से हर कोई आकर्षित नहीं हो पायेगा.”

संस्था की कोशिशों के बारे में पूछने पर दीपक कहते हैं, “बच्चों में थोड़ा बदलाव आया है, वो ख़ुद भी कोशिश करते हैं. उत्सुकता तो बढ़ी है, बच्चे मिलते हैं तो पूछते हैं भईया ये कौन सा पक्षी है , वो क्या है वहाँ? कई बार फोटो निकाल कर व्हाट्सएप पर भेजते हैं.”

इस बात से दीपक ख़ासतौर पर सहमति रखते हैं क्यूंकि पक्षी अवलोकन से उनका आकर्षण भी कुछ इसी तरह शुरू हुआ. वो बताते हैं धीरे धीरे बर्डिंग पैशन बन गया और इस से हमेशा ख़ुशी मिलती है. ‘सैटर ट्रगोपन’ को सामने से देखने का जूनून है जिसे अब तक देखा नहीं है. 

यह क्षेत्र प्रकृति और जैव विविधता से जुड़े लोक-कथाओं से भी समृद्ध है, छात्रों को बहुत सारी लोक कथाएँ सुनायी गयी, और तीन दिनों में लगभग 88 पक्षियों की लिस्ट तैयार हुई. इस यात्रा के बाद अपने अपने स्कूल वापस जाते हुए बच्चों और किशोरों ने बताया कि बर्डिंग करके नए-नए पक्षी देखना और हमेशा सीखने की चाह जारी रखेंगे.

पंचाचुली हिमालय (तस्वीर सौजन्य: अशीष कोठारी)

इस साल लगभग 45 लोगों की टीम इस कार्यशाला के लिए उपस्थित रही, जिसमें स्थानीय संगठनों के अलावा कल्पवृक्ष, पुणे, तितली ट्रस्ट, देहरादून और पल्लुयिर ट्रस्ट, चेन्नई के सदस्य भी शामिल रहे. सर्वोदय पब्लिक स्कूल, सरमोली, मुन्सियारी पब्लिक स्कूल के लगभग 134 छात्र, हिमालयन इंटरकॉलेज, चकोरी, अभिव्यक्ति स्कूल, बेरीनाथ और पर्यावरण केंद्र प्लानिंग एवं आर्किटेक्चर, अहमदाबाद ने तीन दिवसीय बर्डिंग कार्यशाला में भाग लिया. 

साल २००४ से मेसर कुंड की मरम्मत के इरादे से शुरू हुई यह प्रक्रिया आज कई अलग तरह के कार्यक्रम और उत्सव का माध्यम बन चुकी है. साल २००६ में पहला मेसर मेला हुआ था. शुरूआती सालों में सर्दियों के मौसम में कार्यक्रम होता था, लेकिन बाद में मई-जून के महीने में आयोजन होने लगा. धीरे धीरे बाकी के आयाम भी जुड़ते गए – खालिया-टॉप दौड़, मेसर वन-कौतिक (त्यौहार) और पक्षी अवलोकन. 

सरमोली तक की मेरी यात्रा पुणे से शुरू हुई. सह्याद्री से सजा पुणे. हालाँकि मैंने पुणे में भी हाल में बसना शुरू किया है, लेकिन सह्याद्री और हिमालय की तुलना मन में हमेशा चलती रहती. जिसका परिणाम शायद ये रहा कि इस यात्रा में हिमालय को ताकते रहना एक प्रमुख काम रहा. कल्पवृक्ष के अपने साथियों  के साथ शाम को देवदार के तनों के नीचे बैठ सामने अडिग खड़े हिमालय को ताकना अद्भुत रहा. और इस तरह समुद्र तल से २२०० मीटर की उंचाई पर स्थित मुन्सियारी और उसी तहसील का एक गाँव सरमोली किसी मीठी याद की तरह मन की दीवारों में बस गया. वापस आते हुए मलिका की एक बात ध्यान में आती रही, “यहाँ की महिलाएं जोखिम से आगे बढ़ी हैं, पितृसत्ता से जूझते हुए इसलिए यह संघर्ष निरंतर चलने वाला है, बाहर से आने वाले लोग इसे रूमानी समझ कर इसकी गंभीरता को कम कर देते हैं.”  इन तीन दिनों ने एक नौसिखिया को पक्षी प्रेम और गहराई से सीखने का शौक दे दिया था. प्रकृति की गहराई और उसकी विशालता को समझने की कोशिश इतनी ऊँचाई और घुमावदार रास्तों से उतरते हुए भी बरकरार रही. 

सरमोली में दिखे पक्षी (तस्वीर सौजन्य: अशीष कोठारी)

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