विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)
(Tamil Nadu Mein Adivasiyon Ke Liye Aspataal)
छायाकारः अशीष कोठारी/ बाबा मायाराम
इस अस्पताल में आदिवासियों का कम कीमत पर अच्छा इलाज किया जाता है।
तमिलनाडु के छोटे गांव में डॉ. दंपति ने एक ऐसा अस्पताल बनाया है, जो आदिवासियों द्वारा संचालित है। वे यहां न केवल स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं, बल्कि प्रबंधन का काम भी करते हैं। यहां सिर्फ बीमारी का इलाज ही नहीं किया जाता है, बल्कि उसकी रोकथाम पर विशेष जोर दिया जाता है। अच्छी सेहत के लिए अच्छा पोषण चाहिए, इसलिए जैविक खेती को बढ़ावा भी दिया जाता है।
सित्तिलिंगी, धर्मपुरी जिले में स्थित है। इस पूरी सित्तिलिंगी घाटी में मालावासी आदिवासी निवास करते हैं। उन्हें पहाड़ी लोग भी कहा जाता है। इसके साथ लम्बाड़ी और दलित भी हैं। यहां की मुख्य आजीविका खेती पर निर्भर है और यह खेती वर्षा आधारित है।
मैं यहां विकल्प संगम में शामिल होने गया था। संगम में पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था, पंचायती राज, ग्राम सशक्तीकरण इत्यादि मुद्दों पर चर्चा हुई। यह बैठक इस अस्पताल के परिसर में आयोजित थी। अगस्त के पहले हफ्ते (3 से 5 अगस्त) में यह बैठक थी। इस बैठक के दौरान मुझे ट्राइबल हेल्थ इनिशिएटिव ( संक्षिप्त में टी.एच.आई.) का काम देखने का मौका मिला।
इस पूरी पहल की शुरूआत करने वाले डॉ. रेगी बतलाते हैं कि करीब तीन दशक पहले यहां शिशु और मातृ मृत्यु दर अधिक थी। क्योंकि यहां से करीब 50 किलोमीटर दूर तक कोई अस्पताल नहीं था। यह इलाका बहुत ही दूरदराज में स्थित है और उस समय यहां आने-जाने के लिए अच्छी सड़क नहीं थीं।
वे आगे बताते हैं कि इस इलाके में साल 1993 के आसपास वे ( डॉ. रेगी) और उनकी पत्नी डॉ. ललिता आए। उन्होंने यहां एक छोटी क्लिनिक शुरू की। तीन साल बाद उन्होंने 10 बिस्तर का अस्पताल बनाया। साल 1996 में ट्राइबल हेल्थ एनिशिएटिव की शुरूआत की, जिसके माध्यम से आदिवासी लड़कियों और महिलाओं को स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण दिया गया, जिनकी इस पूरी पहल में महत्वपूर्ण भूमिका है।
यहां प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्यकर्ता बीमारी की जांच करती हैं, और सामान्य बीमारियों का इलाज करती हैं। इसके साथ ही ऑपरेशन थियेटर में सहयोग करती हैं। और मरीजों की देखभाल करती हैं। इसके अलावा, गांवों में जाकर प्रसव पूर्व जांच और स्वास्थ्य संबंधी जांच करती हैं।
इसी प्रकार, एक समूह महिला सहायिकाओं का है। इन महिलाओं का चयन समुदाय के द्वारा किया जाता है। इनमें से कई महिलाएं स्कूल भी नहीं गई हैं। यह सब गांवों में रहती हैं, और हर माह सित्तिलिंगी अस्पताल में आती हैं, जहां उन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है। मोटे तौर पर उनका काम गर्भवती महिलाओं और बच्चों की क्लिनिक में सहयोग करना है। इसके साथ गांव में पोषण, स्वच्छता, साफ-सफाई और साधारण बीमारियों के बारे में जानकारी देना है।
इनमें से कई स्वास्थ्य सहायिकाएं सामुदायिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जैसे जैविक खेती, हस्तशिल्प और समुदाय के विकास कार्यों में अगुआई करती हैं।
डॉ. रेगी बतलाते हैं कि वर्तमान में 35 बिस्तरों वाला अस्पताल है, जहां सर्जिकल, मेडिकल और प्रसूति संबंधी मरीजों को भर्ती किया जाता है। यहां करीब 5 जिलों से मरीज़ आते हैं, क्योंकि यहां न्यूनतम खर्च पर विशेषज्ञ सेवाएं प्रदान की जाती हैं। वर्तमान में हमारी टीम में 8 पूर्णकालिक डॉक्टर हैं, जिनमें 2 स्त्री रोग विशेषज्ञ भी शामिल हैं।
यहां आधुनिक ऑपरेशन थिएटर, चिकित्सा प्रयोगशाला, जेनेरिक दवाओं के साथ एक फार्मेसी, एक एक्सरे मशीन जैसी जरूरी सुविधाएं भी उपलब्ध हैं। पानी के लिए मोटर पंप व स्ट्रीट लाइटिंग के लिए सौर ऊर्जा का उपयोग किया जाता है। एम्बुलेंस की सुविधा भी उपलब्ध है।
डॉ. रेगी बतलाते हैं कि अस्पताल की एक टीम महीने में एक बार सभी 25 गांवों का दौरा करती है। स्वास्थ्य शिक्षा के साथ-साथ प्रसव पूर्व जांच और 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए क्लीनिक की सुविधा प्रदान की जाती है।
इसके अलावा, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की एक टीम सित्तिलिंगी घाटी के 14 स्कूलों में जाती है। वहां छात्रों को स्वास्थ्य शिक्षा प्रदान की जाती है।
इस पूरी पहल का बहुत अच्छा प्रभाव देखा गया है। माताओं और बच्चों की स्थिति में परिवर्तन आया है। प्रसव पूर्व जांच के लिए आने वाली महिलाओं की संख्या काफी बढ़ गई। कुपोषण में भी कमी आई है। शिशु मृत्यु दर भी काफी कम हो गई है। पिछले एक दशक से प्रसव के दौरान एक भी महिला की मृत्यु नहीं हुई है।
डॉ. रेगी बतलाते हैं कि गांवों की सामाजिक- आर्थिक स्थिति को समझने के लिए सित्तिलिंगी घाटी में पदयात्राएं की गईं। इस दौरान यह समझ आया कि स्वास्थ्य के काम के साथ शिक्षा, आजीविका, जैविक खेती और सामुदायिक जरूरतें भी शामिल होनी चाहिए। इसी के मद्देनजर अब जैविक खेती और हस्तशिल्प को भी जोड़ा गया है।
पदयात्राओं के दौरान पता चला कि किसान बाहरी कर्ज से जूझ रहे थे और उन्हें इसमें मदद की ज़रूरत थी। इस प्रकार, यह महसूस किया गया कि स्वास्थ्य के मुद्दे को समग्र रूप से देखने के लिए, इसके सामाजिक-आर्थिक निर्धारकों को ध्यान में रखना होगा और उनमें सुधार करना होगा। और यहीं से किसानों को उनकी पारंपरिक खेती की वापसी की सोच बनी, जो मिट्टी, पानी और स्थानीय पर्यावरण के संरक्षण के साथ-साथ किसानों को आत्मनिर्भर बनाएगी।
डॉ. रेगी ने बताया कि अब इस पहल में 30 गांवों में फैले 700 किसान जुड़ गए हैं, जिनके जैव उत्पाद प्रमाणित हैं। हालांकि प्रमाणीकरण की प्रक्रिया जटिल है, पर इसे करना जरूरी समझा गया। किसानी की मुख्य उपज बाजरा के साथ-साथ हल्दी और कपास जैसी नकदी फसलें हैं। सित्तिलिंगी वेली आर्गनिक फार्मर एसोसिएशन के बैनर तले काम किया जा रहा है।
एक सोसायटी के रूप में शुरू हुई कंपनी अब एक फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी है – जिनमें सभी आदिवासी हैं और एक कार्यकारी समिति भी बनी है। पिछले कुछ वर्षों में वे लगातार बढ़े हैं और उनका कारोबार भी बढ़ रहा है।
इसके साथ, न केवल बचत करने के लिए बल्कि किसानों द्वारा उत्पादित जैविक उत्पाद को प्रसंस्कृत करने के लिए आदिवासी महिलाओं के छोटे स्वयं सहायता समूह बनाए गए, ताकि उनकी आमदनी भी बढ़े। उन्हें 45 समूहों में संगठित किया गया है जो उद्यमशीलता गतिविधियां संलग्न हैं। इससे उन्हें स्वावलंबी बनने में मदद मिलती है।
इसी प्रकार, साल 2006 में, यहां हस्तशिल्प को बढ़ावा देने का प्रयास हुआ। सामुदायिक स्वास्थ्य, खेती आदि में लम्बाडी महिलाओं के साथ काम करते हुए, उनके पारंपरिक शिल्प के बारे में उनके साथ बातचीत शुरू की गई। लम्बाडी, समुदाय, जो कभी खानाबदोश थे, पिछली कुछ पीढ़ियों से यहां सुदूर स्थानों पर बसे हुए हैं।
परिणामस्वरूप, दो बुजुर्ग महिलाओं से, जिन्होंने बचपन में यह शिल्प सीखा था, लेकिन कभी इसे अपनाया नहीं था, अन्य 12 महिलाओं ने इसे सीखा और शिल्प को पुनर्जीवित किया। उन्होंने अपने उद्यम को पोरगई (लम्बाड़ी बोली में पोरगई का अर्थ गर्व) कहा।
पोरगई कलाकृतियों ने फैशन डिजाइनिंग स्कूलों के छात्रों को भी आकर्षित किया है। बैंगलोर, दिल्ली और मुंबई जैसी जगहों से कम से कम आधा दर्जन प्रशिक्षु आदिवासी महिलाओं के साथ काम कर रहे हैं, जो उन्हें डिजाइन में सुधार करने और उन्हें कढ़ाई के काम को बनाए रखने में मदद कर रहे हैं। इस पूरी पहल में डॉ. ललिता ने मदद की है। इससे कारीगर महिलाओं को स्वावलंबी बनने में मदद मिली है।
इसके साथ ही ग्रामसभा सशक्तीकरण, पानी का प्रबंधन, शिक्षा और पर्यावरण संरक्षण पर भी काम किया जा रहा है।
कुल मिलाकर, तीन दशक से चल रही पहल का सकारात्मक असर दिख रहा है। सुविधायुक्त अस्पताल, सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रम, जैविक खेती, जैव उत्पादों का प्रसंस्करण और हस्तशिल्प को बढ़ावा दिया जा रहा है। गरीब आदिवासियों का कम कीमत पर अच्छा इलाज किया जाता है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छा पोषण मिले, इसके लिए जैविक खेती के लिए किसानों के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। आमदनी बढ़ाने के लिए महिला स्वयं सहायता समूहों के साथ मिलकर काम किया जा रहा है।
यानी स्वास्थ्य को समग्रता में समझने की कोशिश की गई है। जिसमें अच्छा पोषण, स्वास्थ्य शिक्षा और आमदनी बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है, जिससे लोगों का जीवन स्तर सुधरे, और वे अच्छा स्वस्थ जीवन जी सकें। अगर हम इस दिशा में आगे बढ़े तो जैविक व प्राकृतिक खेती से न केवल हमें पौष्टिक भोजन मिलेगा, बल्कि अच्छे पर्यावरण की दिशा में भी आगे बढ़ेंगे। मिट्टी-पानी के संरक्षण के साथ आजीविका की सुरक्षा भी होगी और सेहत भी अच्छी होगी ही। इसी दिशा में यह पहल महत्वपूर्ण है, जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।