सतपुड़ा में किसानी से जुड़ा है मड़ई मेला (In Hindi)

By बाबा मायारामonDec. 21, 2022in Food and Water


विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)

(Satpuda Mein Kisani Se Juda Hai Madai Mela)

सभी फोटो- बाबा मायाराम

मध्यप्रदेश के सतपुड़ा अंचल का एक गांव है मटकुली। पिपरिया से मटकुली 20 किलोमीटर दूर स्थित है। यहां दीवाली के बाद दूज को मड़ई मेला लगा था। मैं इस मेले में गया था। बेंडा पहाड़ को पार करते समय बंदरों की एक टोली सड़क किनारे धूप सेंक रही थी। मटकुली पहुंचने से पहले ही हमें सजे-धजे स्त्री-पुरुष और बच्चे मिले, जो उनके गांवों से मीलों पैदल चलकर मड़ई पहुंच रहे थे।      

सतपुड़ा अंचल का यह इलाका होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम्) जिले के अंतर्गत आता है। अगर हम इस इलाके को भौगोलिक दृष्टि से देखें तो उत्तर दिशा से नर्मदा नदी गुजरती है, जबकि दक्षिण में सतपुड़ा की पर्वतमाला फैली हुई हैं। प्रसिद्ध पर्यटन स्थल पचमढ़ी भी यहीं है। मटकुली गांव के किनारे देनवा नदी बहती है, जो पचमढ़ी से निकलकर तवा नदी में मिलती है। तवा नदी पर बांध बना है। इसी नदी के किनारे 1857 के आसपास यहां के आदिवासियों ने अंग्रेजों से लोहा लिया था और जंगल बचाने की लड़ाई लड़ी थी।       

इस इलाके में अधिकांश गोंड और कोरकू आदिवासी हैं। इसके अलावा, अन्य जातियां भी हैं। आजादी के कुछ समय पहले यहां आदिवासी राजा हुआ करते थे। सतपुड़ा पहाड़ की जंगलपट्टी में आदिवासी रहते हैं, जबकि उत्तर में नर्मदा कछार में अन्य कृषक जातियां निवास करती हैं। मंडई सभी गांवों में होती है, पर आदिवासियों में इसका उत्साह देखने लायक होता है। 

मड़ई यानी मंडप होता है। मेला यानी मिलना, देखना, मेल-मिलाप करना। मेल-मिलाप का प्रयोजन कई प्रकार का होता है। धार्मिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक और लोककला के प्रचार-प्रसार इत्यादि। मेले में लोग घरेलू चीजें खरीदते हैं, पशु और साज-सज्जा के सामान भी बिकते हैं।      

मड़ई एक छोटे बाजार की तरह होती है। मटकुली में वैसे तो साप्ताहिक बाजार बुधवार को लगता है, पर मड़ई के कारण इस बार गुरूवार को लगा था। मड़ई का दिन निश्चित होता है पर इसे आगे-पीछे भी किया जा सकता है। मड़ई के पूर्व गांव में सूचना दे दी जाती है। यदि कोई व्यक्ति, समूह, या गांव मड़ई का आयोजन करना चाहे तो कर सकता है।      

अब हम मड़ई मेले में पहुंच गए। शाम का समय था। मौसम साफ था। पहाड़ व पेडों के बीच से धूप झांक रही थी। नीले आकाश में सफेद बादलों के गाले थे। हरे-भरे पहाड़ मनोहारी लग रहे थे। हमें दूर से ही ढालों (देवी का रूप या उनका निशान) की झलक दिखी। विशाल पीपल पेड़ के नीचे गांगो (देवी) की मडिया बनी है। वहां पड़िहार मौजूद थे। गांगों की मूर्ति थी, जहां लोग उनके दर्शन करने व उनकी मनोकामनाएं पूरी करने आ रहे थे। यह ढालें देवी का रूप मानी जाती हैं। ढाल, लम्बे बांस के एक सिरे पर मोर पंख से छतरीनुमा बनाई जाती हैं। इन्हें लोग लेकर नाचते-गाते मंड़ई में लेकर आते हैं। अहीर नृत्य मेले का बड़ा आकर्षण होता है।

ढाल, देवी का रूप

मैंने मड़ई मेले का एक चक्कर लगाया। जैसे-जैसे शाम ढल रही थी, मेले की रौनक बढ़ती जा रही थी। तेज रोशनी के बल्बों की रोशनी चमक रही थीं। युवक-युवतियों और बच्चों की टोलियां इधर- उधर घूम रही थीं। महिलाएं सामान की खरीददारी कर रही थीं। मिठाईयों की दुकानों पर भीड़ थी। पंक्तियों में बैठे हलवाई रंग-बिरंगी बरफी, गुड़ की जलेबी, नमकीन, खोबे के लड़डू बेच रहे थे। मड़ई में सिंगाड़े, पीड़े, रतालू, फुटाने (भुने चने), मूंगफली बिक रही थीं। मेरा ध्यान कागज की फिरकनी (चकरी) ने खींचा। छुटपन में हम खुद भी कागज से इसे बना लिया करते थे। हमने सिंगाड़े लिए और रतालू चखे। चना फूटे व भुनी मूंगफलियां खाईं और मटकुली के प्रसिद्ध बड़ों का स्वाद लिया।   

मड़ई में दुकानें

मेले के आयोजन में सक्रिय बिसराम कहार ने बतलाया कि पुराने समय में जब बीमारियां ज्यादा बढ़ने लगीं, तब बंगाल से गांगो को लेकर आए। वह जादूगरनी थी। उसने बीमारियों से रक्षा की, ऐसा माना जाता है, तभी से यह मंडई की परंपरा पुरखों से चल रही है। कई तरह के विधि विधान से इसकी पूजा की जाती है। होम, धूप, गुड़, नारियल, नींबू जैसी कई चीजें पूजा में लगती हैं। भीलट व काला देव ने भी संकट हल किया है।

चिल्लौद गांव के शंकर दादा बताते हैं कि यह त्योहार पशुओं ( गाय-बैल) से जुड़ा है। इस मौके पर उन्हें नहलाते-धुलाते हैं। उन्हें सजाते हैं। खीर व अनाज खिलाते हैं। गोवर्धन पूजा के दिन गाय-बैलों की पूजा करते हैं। लेकिन इन दिनों मवेशी मारे-मारे फिर रहे हैं। छर्रई गांव के प्रेमदास कहार बताते हैं कि तुलतुला पहाड़ की बंजारी माता को ढाल के रूप में ब्याहने के लिए लाए हैं। वह उनकी कुलदेवी है। वो उनकी सभी बाधाएं दूर करती हैं। खुशहाली व सुकून का जीवन देती है।

देसी बीजों के संरक्षण में लगे बाबूलाल दाहिया बताते हैं कि “हमारे सभी त्योहार खेती से जुड़े हैं। दीवाली भी इनमें से एक है। इसी समय खरीफ की फसलें पककर आने लगती हैं। खुशी व उल्लास का मौका होता है”. किसानों से ही अन्य जातियां जुड़ी हैं। जैसे कुम्हार, नाई, बढ़ई, लुहार इत्यादि, इन सबको इनके काम, सामान व सेवाओं के बदले अनाज दिया जाता है, जिससे इनके घर में खुशियां आती हैं।

वे आगे बताते हैं कि “इस मौके पर गाय-बैल को सजाया जाता है। उनकी पूजा की जाती है। हल-बक्खर जैसे कृषि-औजारों की पूजा की जाती है। यह वह समय होता है जब किसान के घर में खरीफ की फसल पककर घर आ जाती है- ज्वार, मक्का, चावल और उड़द जैसी दालें। अरहर की फसल को छोड़कर, वह बाद में आती है, सब फसलें आ जाती हैं।      

वे आगे बताते हैं कि पहले स्कूलों में लंबी छुट्टी (24 दिन की) हुआ करती थी, जिसे फसली छुट्टी भी कहते थे। इस दौरान बच्चे उनके मां-बाप के साथ खेतों के काम में मदद करते थे। खेती के तौर-तरीकों सीखते थे, आसपास के पर्यावरण से परिचित होते थे। ज़मीनी हकीकत से जुड़ते थे। रिश्तेदारों के घर जाते थे। अब यह छुट्टी कम हो गई है।

बाबूलाल दाहिया कहते हैं कि “अब गांव, खेती, अनाज, लोक कला, संस्कृति पीछे होते जा रहे हैं। औद्योगिक सभ्यता आगे बढ़ रही है। एक दिवाली भागती हुई सभ्यता की प्रतीक बन गई है तो दूसरी दिवाली कृषि सभ्यता में ठहर गई है। एक दिवाली में गगनचुंबी इमारतों में होनेवाली दिवाली की पार्टियों का शोर है तो दूसरी दिवाली अब गांवों में उजड़ती दिख रही है, खेती और गांव उजड़ती हुई सभ्यता के प्रतीक बन रहे हैं।”     

मटकुली के बिसराम कहार, छर्रई के प्रेमदास कहार और मोहगांव के छोटेलाल दादा बतलाते हैं कि अब गांव में तीज-त्योहारों की वह रौनक नहीं है, जो कभी रहती थी। सतपुड़ा टाईगर रिजर्व से कई गांव विस्थापित हो गए हैं। न उनके गांव हैं, न त्योहारों में वह मस्ती है और न ही नाच-गाना। अब तो परंपरा को जैसे-तैसे जारी रखे हुए हैं।     

सतपुड़ा अंचल के साहित्यकार कश्मीर उप्पल बताते हैं कि “मेला कला, संस्कृति व सामाजिकता के संगम हुआ करते थे। जैसे संगम में कई नदियां एकत्रित होती हैं, उसी तरह मेलों में कई तरह की सीख होती थी।” यहां हाथ से बनी चीजें होती थीं, मिट्टी से बने खिलौने होते थे, उनमें सुघड़ता व कारीगरी होती थी। छोटी-छोटी दुकानें होती थी, जहां लोग उनके उत्पाद बेचते थे। लेकिन अब इन सबकी जगह रेडीमेड सामान ले रहे हैं। इससे गांव और अभावग्रस्त होते जा रहे हैं।

किसान आदिवासी संगठन के फागराम का कहना है कि “अब पहले जैसी दिवाली नहीं रही, इस पर बाजार हावी है।” उन्होंने एक गीत सुनाते हुए कहा कि आया है भाई लोगों बाजार का जमाना, हर चीज बिक रही है, बिकता है दाना दाना, कैसा जमाना आया, पानी भी बिक रहा है, दुनिया में आदमी का ईमान भी बिक रहा है, हर चीज पे ही सीधा, बाजार का निशाना..। इसमें गांव-समाज, आदिवासी सब पीछे छूटते जा रहे हैं।

मडई में उमड़ी भीड़

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता कि मेले से ग्रामीण जीवन की धीमी गति में उत्साह, उल्लास व जोश पैदा होता है। सामाजिक एकरसता व तनाव से मुक्ति दिलाते हैं। गांव- समाज में नई ऊर्जा का संचार करते हैं। प्रकृति से मेलों व त्योहारों का रिश्ता होता है। ऐसे मेले प्रकृति को बचाने, सामूहिकता का भाव पैदा करने, पारस्परिक सौहार्द, एक दूसरे से सहयोग करने की परंपरा की याद दिलाते हैं। इनसे आपसी सूझबूझ का विकास भी होता है। 

चूंकि ऐसे मेलों का आयोजन प्रकृति की गोद में बसे पहाड़ों व जंगलों के आसपास, पेड़ों के नीचे, तालाब व नदियों के किनारे होता है। और इनसे यहां के बाशिन्दों का खास रिश्ता होता है, वे प्रकृति पूजक हैं। उनके देवी-देवता भी जंगल में ही हैं। वे जंगल से उतना ही लेते हैं, जितनी जरूरत है। इसलिए ऐसे मेलों से प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीने की प्रेरणा भी मिलती दिखाई देती है।     

मेलों की संस्कृति व परंपराएं सदियों से विकसित हुई हैं। यह आपस में जोड़ती हैं, एक दूसरे की मदद करने की परंपराएं सिखाती हैं। इससे हमें खेती व छोटे व लघु कुटीर उद्योगों की ओर बढ़ने की दिशा भी मिलती है। ऐसे कामों से गांव-समाज को आत्मनिर्भर व स्वावलंबी बनाने में मदद मिल सकती है।

हमारी देश की हवा, जलवायु व मिट्टी खेती के लिए अनुकूल है। अगर हम इस दिशा में आगे बढ़ेंगे तो हमारे किसान, मजदूर, आदिवासियों के घरों में खुशहाली आएगी, और हमारी भाईचारा बढ़ानेवाली व प्रकृति के साथ सामंजस्य करनेवाली की परंपराएं कायम रहेंगी, वही हमारा भविष्य है। 

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