पेड़ लगानेवाली महिलाएं (in Hindi)

By बाबा मायारामonJul. 14, 2021in Environment and Ecology
विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख  (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)

सभी फोटो : सूरज पोरते व ओमकारेश्वर शर्मा

“जंगल से हमें जलाऊ लकड़ी, चारा, कांदा व हरी सब्जियां मिलती हैं। हवा, पानी, भोजन सब मिलता है। यह हमारा जीवन है। यह हमारे पुरखों की निशानी है, नई पीढ़ी का भविष्य है, इसे बचाना और बढ़ाना जरूरी है।” यह रामेश्वरी नेताम थीं, जो बिलासपुर के डिडौल गांव में रहती हैं।

छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले के कोटा विकासखंड के गांवों में इन दिनों महिलाएं पेड़ लगाने का काम कर रही हैं। रामेश्वरी नेताम जैसी कई महिलाएं मानती हैं कि गांवों में हरियाली लाने की यह पहल हमें अपने पुरखों से व जंगलों की विरासत से जोड़ती है। रामेश्वरी कहती हैं कि हम इन्हीं वनों की ताजी हवा में सांस लेते हैं, यहां का पानी पीते हैं, कांदा और भाजियां खाते हैं, अगर हम जंगलों की हरियाली रखेंगे तो आगे आनेवाली पीढ़ी को भी यह सब चीजें जंगलों से मिलेंगी।

डिडौल गांव में पौधारोपण

पौधारोपण के इस काम में महिला समूहों की महिलाएं आगे हैं क्योंकि जंगल से उनका वास्ता पड़ता रहता है। जलाऊ लकड़ी, चारा, वनोपज, हरी पत्तीदार सब्जियां, कंद-मूल और औषधीय पौधे जंगल से मिलते रहे हैं। वनों के हरा-भरा रहने से जलस्रोत भी सदानीरा रहते हैं। तालाब और कुओं में पानी रहता है। छत्तीसगढ़ में लगभग हर गांव में तालाब हैं। यहां की पानीदार तालाब संस्कृति है।

पिछले कुछ समय से जंगल कम हो रहे है और ये सब चीजें बहुत कम मिलती हैं। विविध वनों के स्थान पर सागौन जैसे पौधे रोपे जा रहे हैं। इन वनों से गांव की जरूरत पूरी नहीं होती, इसलिए देसी प्रजाति के पौधे लगाए जा रहे हैं जिससे गांव की जलाऊ लकड़ी की और चारे की जरूरतें पूरी हों। साथ ही साथ पोषण मिले और कुछ वनोपज से आमदनी बढ़े। यानी वनों की सुरक्षा के साथ आजीविका की सुरक्षा व पोषण व खाद्य सुरक्षा भी हो।

सराईपाली गांव में पौधारोपण

यह इलाका अचानकमार अभयारण्य से लगा हुआ है। हरियाली लाने की पहल प्रेरक संस्था और विकासशील फाउंडेशन संस्था ने शुरू की है। प्रेरक संस्था के प्रमुख रामगुलाम सिन्हा ने बताया कि पौधारोपण यह मुहिम ऐसे इलाकों में चल रही है, जहां आजीविका के संसाधन कम हो रहे हैं। इससे वनों की रक्षा के साथ आजीविका की सुरक्षा भी होगी। जैव विविधता और पर्यावरण का संरक्षण भी होगा। जलवायु बदलाव के दौर में जब मौसम की अनिश्चितता बढ़ गई है, किसानी संकट में है तब हरियाली बढ़ाने की मुहिम अनिवार्य हो गई है।

वे आगे बताते हैं कि इसके साथ देसी बीजों की मिश्रित खेती और सब्जी बाड़ी का काम किया जा रहा है। गरियाबंद जिले में कमार आदिवासियों के बीच सब्जी बाड़ी का अच्छा काम हुआ है। कोविड-19 के समय प्रेरक संस्था ने देसी बीज व सब्जियों के बीज वितरित किए हैं। जैव कीटनाशक बनाने की विधियां किसानों को बताईं हैं और उसे बनाने के लिए ड्रम व जरूरी सामग्री वितरित की है। घरेलू हिंसा के खिलाफ जागरूकता अभिय़ान चलाया है। छत्तीसगढ़ के कई जिलों में यह मुहिम चल रही है जिसमें बस्तर, कांकेर, गरियाबंद, धमतरी, महासमुंद, कबीरधाम, बिलासपुर, मुंगेली, रायगढ़ आदि जिले शामिल हैं।

कोआजति गांव में पौधारोपण

बिलासपुर की विकासशील फाउंडेशन संस्था के लक्ष्मी कुमार जायसवाल, अमृका साहू व ओमकारेश्वर शर्मा ने बताया कि कोटा विकासखंड के डिडौल गांव में 700, सराईपाली में 675, बरर में 860, कुआंजति में 750, कंचनपुर में 400, तिलकडीह में 350, जमुनाही में 450, मानपुर में 300 और करपीहा में 400 पौधे रोपे गए हैं। इनमें फलदार, छायादार और औषधि पौधे शामिल हैं। औषधि पौधों में दशमूल, चिरायता, नागफनी, एलोवेरा, आंवला, गुरूद, हर्रा, बहेड़ा आदि है। यहां 20 गांवों में पौधारोपण किया गया है। आम, अमरूद, नींबू, हर्रा, बहेड़ा, चार, तेंदू,करौंदा, बरगद, इमली और सीताफल हैं। कोइलार, कोसम, छींद, चरौटा, वन कुदरू, आंवला हैं। 

सराईपाली गांव की शांतिदेवी मरकाम कहती हैं कि “हमारे इलाके में जंगल कम हो गए हैं। जलाऊ लकड़ी और चारे पानी की परेशानी होती है। इसलिए गांव की खाली जमीन में, सब्जी बाड़ी में और जंगल में पेड़ लगा रहे हैं।”

डिडौल गांव में पौधारोपण करती महिलाएं

इसके लिए जंगल से बीज संकलन किए गए और फिर नर्सरी तैयार की गई। बीज संकलन भी महिला समूहों की सदस्यों ने किया जिसमें ग्राम बरर से जय बड़ादेव महिला स्व सहायता समूह व महामाया स्व सहायता समूह, ग्राम कुआजती से उत्कर्ष महिला स्व सहायता समूह व बम्लेश्वरी स्व सहायता समूह, ग्राम मानपुर में माँ सन्तोषी स्व सहायता समूह व जय सेवा स्व सहायता समूह आदि शामिल हैं।

गत वर्ष मई-जून में चार गांव मानपुर, डिडौल, सरईपाली और कुआजति में नर्सरी तैयार की गई। नर्सरी के अलावा कुछ पौधे बांसाझाल व करगी उद्यानिकी विभाग से पौधे लिए गए। इसके बाद अगस्त- सितंबर के महीने में गांवों में सामूहिक रूप से पौधारोपण किया गया है। कुदाल व फावड़ा लेकर गड्ढा खोदे गए और पेड़ लगाए गए। महिला समूहों ने बीज संकलन से लेकर नर्सरी तैयार करने तथा सार्वजनिक स्थलों में पौधारोपण में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। पौधों की परवरिश की जिम्मेदारी महिला स्वसहायता समूह ने ली है।

जंगलों के पेड़ पौधों का महत्व न केवल खान पान की दृष्टि से हैं बल्कि परंपरागत तीज-त्यौहार में भी है। जैसे हरेली त्यौहार में पेड़ों की पूजा की जाती है जिसमें मुख्य रूप से सराई, तेंदू, धनबहेर आदि पेड़ों की डंगाल को ग्रामीण अपने खेतों में गड़ाते हैं। पोला त्यौहार के दिन ग्रामीणों द्वारा बैलों की पूजा की जाती है जिसमें अंडी के पत्ते पर नमक रखकर बैलों को खिलाया जाता है। अक्षय नवमीं के दिन आंवला के पेड़ की पूजा होती है। आंवला फल को खाने का रिवाज है। नवाखाई (नया खाना) त्यौहार पर बैगा आदिवासी साजा पेड़ पर नई फसल के धान का चावल चढ़ाते हैं। इसके बाद अपने घर की कुल देवी की पूजा कर  सगे संबंधियों के बीच नवाखाई की रस्म निभाते हैं। नवाखाई त्यौहार नई फसल के मौके पर मनाया जाता है। अक्ति के दिन आम के पेड़ों का पूजा करने का प्रचलन है

डिडौल गांव की जय बजरंग महिला स्वसहायता समूह की रजनी ध्रुव ने बताया कि “शकरकंद,  चार, तेंदू,   ढेस  कांदा, क्ओ  कांदा, गोंदलीकांदा, दशमूल कांदा, सेमर कांदा इत्यादि खाए जाते थे। जब अकाल या सूखा पड़ता है तब भी जंगल से सहारा मिलता है।”

बिलासपुर जिले के इस इलाके में बैगा और गोंड आदिवासी रहते हैं। बैगा विशेष पिछड़ी जनजाति में आते हैं। ये वनोपज संग्रहण से लेकर बांस बर्तन बनाते हैं। विकासशील फाउंडेशन के अमृका साहू और ओमकारेश्वर शर्मा ने बताया कि “पहले जंगल से बांस, छींद आदि पर्याप्त मात्रा में मिलते थे जिससे कि वे सूपा, टोकरी, बिजना, पर्रा, झाड़ू, खरहरा, चटाई, बनाते थे। अपना जीवन निर्वाह करते थे। कुछ वर्षों पहले तक जंगलो में छोटे-छोटे जलाशय व डबरी एवं बधान रहते थे जिसका रखरखाव व देखरेख गांव के लोग करते थे। इनमें स्थानीय लोग मछली मारते थे और खाते थे। यह उनका पोषण का बड़ा माध्यम था।”

वे आगे बताते हैं कि “गांव संस्कृति का संबंध प्राचीन काल से ही जंगलों से रहा है। जैसे कर्मा,ददरिया,सुवा नाच, हुड़का नाच आदि में जंगल की लकडियों के वाद्य यंत्र ढोलकी, मादर व बाजा व साज सज्जा बनाए जाते थे। आज जंगलो में तेजी से हो रही कमी के कारण इनके लिए उपयुक्त लकड़ी नहीं मिलती और जंगलों के साथ पारंपरिक कला व संस्कृति भी लुप्त हो रही है।”|

संस्था के द्वारा प्रतिवर्ष जंगली खाद्य एवं बीज त्यौहार प्रदर्शनी मेला लगाया जाता है। जिसमें देसी बीज, कन्द मूल, जड़ी बूटी, कांदा और विभिन्न किस्म के देसी धान बीज आदि कोस्टाल में प्रदर्शित किया जाता है। यहां से देसी बीजों का वितरण भी किया जाता है।इस प्रकार देसी परंपरागत बीजों की खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा है, जो जलवायु बदलाव के दौर में बहुत उपयोगी है।

अमृका साहू ने बताया कि ग्राम पंचायत नांगचुआ के बांसाझाल और ग्राम पंचायत चपोरा के बांसाझाल को सामुदायिक वन संसाधनों के हक का मान्यता प्राप्त हो गई है।

बरर गांव में सामूहिक पौधारोपण

कुल मिलाकर, पेड़ लगाने की इस मुहिम से जंगल व गांव के आसपास हरियाली की वापसी होगी। गांव व जंगल की खाली पड़ी जमीन पर हरे-भरे पेड़ पौधे होंगे। वनोपज होगी तो गांववासियों की आजीविका की सुरक्षा होगी। वनों की सुरक्षा होगी। पशु चारा होगा, तो पशुपालन बढ़ेगा। मिट्टी-पानी का संरक्षण होगा। औषधीय पौधे से पारंपरिक चिकित्सा का ज्ञान का आदान प्रदान होगा। जैव विविधता और पर्यावरण का संरक्षण व संवर्धन होगा।जंगल पोषण का स्थाई भंडार हैं, कोविड 19 जैसी महामारी के दौरान उनके भोजन व पोषण की पू्र्ति होगी। खाद्य सुरक्षा होगी। महिलाओं की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है, इसलिए यह महिला सशक्तिकरण का भी अच्छा उदाहरण है। आमतौर पर महिला समूह आर्थिक गतिविधियों पर ही जोर देते हैं, परंतु यह जैव विविधता को बढ़ाने की, पेड़ लगाने की अनूठी, सराहनीय व अनुकरणीय मिसाल है।  

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