पर्यावरण के साथ आजीविका की रक्षा (In Hindi)

By बाबा मायारामonMay. 29, 2023in Environment and Ecology

(Paryavaran Ke Saath Aajeevika Ki Raksha)

विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)

महाराष्ट्र के भीमाशंकर वन्य जीव अभयारण्य में आदिवासी जंगल व ज़मीन का अधिकार लेने की प्रक्रिया में जुटे हुए हैं। वे गांव–गांव में बैठक कर रहे हैं और दावा फार्म भर रहे हैं। व्यक्तिगत दावे के साथ सामुदायिक वन अधिकार पाने की कोशिश कर रहे हैं। इस दौरान उन्हें दो गांवों में सामुदायिक वन अधिकार मिल चुका है, जिससे उत्साहित होकर वे और भी व्यापक रूप से जंगल के संरक्षण के साथ उनकी आजीविका की रक्षा करने में जुटे हुए हैं। 

मुझे हाल में ही 17-18 मार्च को इन गांवों में जाने का मौका मिला। यहां मुझे कल्पवृक्ष के कार्यकर्ता सुभाष डोलस ले गए थे। उनके गांव येळवळी में ही दो दिन रूका। यह गांव पुणे जिले की खेड़ तहसील में स्थित है। जंगल और पहाड़ से घिरा हुआ है। यह बहुत छोटा गांव है, जहां 23 घऱ हैं और कुल आबादी 123 है। यहां के बाशिन्दे महादेव कोली आदिवासी हैं। इस गांव से 4 किलोमीटर दूर ही 12 ज्योर्तिलिंगो में से एक भीमाशंकर मदिर है। यहां साल भर धार्मिक श्रद्धालु आते रहते हैं।

येळवली का जंगल

यह गांव पश्चिमी घाट स्थित सह्यद्री पर्वतमाला में बसा है। यहां तक पहुंचने का रास्ता अत्यंत दुर्गम है। ऊंची पहाड़ी है, जिसे चढ़ना पड़ता है। यहां धान की खेती प्रमुख है। भीमा नदी भी है, छोटे-छोटे तालाब भी हैं, जिससे कुछ गांव के लोग सिंचाई करते हैं। यहां के लोगों का जीवन मुख्य रूप से जंगल पर निर्भर है। वे जंगल से कई तरह के कंद-मूल, हरी पत्तीदार सब्जियां, फल-फूल, शहद लाते हैं। यहां के अधिकांश लोगों की आजीविका जड़ी-बूटी बेचकर चलती है। इसके अलावा, पशुपालन व मजदूरी भी करते हैं।

इस इलाके में बदलाव की शुरूआत पर्यावरण के क्षेत्र में कार्यरत कल्पवृक्ष संस्था व ग्रामीणों ने मिलकर की। वर्ष 2008 से गांव-समाज पर्यावरण की रक्षा के साथ आजीविका की रक्षा कैसे कर सकते हैं, इस पर बैठकों का दौर हुआ। इन बैठकों में अधिकांश वन अधिकार कानून,2006 को लेकर हुई थीं। शुरूआत में बहुत कम लोग बैठकों में आते थे, लेकिन धीरे-धीरे उनका जुड़ाव होने लगा। येळवळी गांव में एक संगठन भी बन गया। इस संगठन का नाम है  ग्राम पारिस्थितिकी विकास समिति। वन अधिकार कानून 2006 के बारे में जानकारियों का आदान-प्रदान हुआ।

 खरपूड में वन प्रबंधन की बैठक

कल्पवृक्ष के कार्यकर्ता सुभाष डोलस और प्रदीप चव्हाण ने बताया कि इस पूरी पहल को आगे बढ़ाने के लिए गांव में लोकतांत्रिक तरीके से बैठकें होती हैं। बैठक होने से दो-तीन दिन पहले स्थान व तारीख की जानकारी दी जाती है। बैठक में जितने भी लोग आते हैं, लगभग सभी को उनकी बात रखने का मौका दिया जाता है। विशेष तौर पर, महिलाओं को भी उनकी बात रखने का मौका दिया जाता है। बैठकों में गांव के सभी मुद्दों पर चर्चा होती है। जैसे बिजली, पानी, सड़क, पर्यावरण की रक्षा के साथ पर्यटन से आजीविका इत्यादि। 

येळवळी गांव के कल्पवृक्ष कार्यकर्ता सुभाष डोलस बताते हैं कि “हमने तय किया कि हम जंगल का संरक्षण, व्यवस्थापन और पुनर्निर्माण करेंगे। इसके लिए वन अधिकार कानून के तहत् सामुदायिक हक लेंगे और जंगल के साथ आजीविका की रक्षा भी करेंगे। यह भी तय किया गया कि गांव के आसपास के जंगल में निगरानी की जाएगी और बाहरी लोगों को जंगल से लकड़ी लेने या किसी भी तरह से जंगली जानवरों को नुकसान पहुंचाने से बचाएंगे।”

उन्होंने बताया कि इस प्रक्रिया के तहत्  दो गांव खरपूड और भोमाळे गांव को वर्ष 2020 को सामुदायिक वन संसाधन और जंगल संरक्षण का अधिकार मिल गया है। खरपूड में 938 हेक्टेयर 73 आर का और भोपाळे में 462 हेक्टे. 15 आर का जंगल का अघिकार मिला है। अब इन दोनों गांवों में सामुदायिक वन संसाधन और जंगल संरक्षण व व्यवस्थापन का माइक्रो प्लान बनाया जा रहा है। इसके तहत् कई शासकीय योजनाओं से जोड़कर पर्यावरण के साथ कई रोजगारमूलक कामों की योजना बनाई जा रही है। महाराष्ट्र आदिवासी विकास विभाग भी इस प्रक्रिया से जुड़ा है। मनरेगा को भी इस प्रक्रिया से जोड़ा गया है जिससे लोग उनके खेतों में मेडबंदी, समतलीकरण और वृक्षारोपण कर रहे हैं। 

संयुक्त वन प्रबंधन की बैठक

गांव के प्रकाश मारूति डोलस बतलाते हैं, “पहले हम नाचणी, सांवा, वरई, कांगू, बगर,कोलबा, हुलगे, तिल, उड़द की खेती करते थे। पहाड़ों के खेतों में हल नहीं चलता था, तो लकड़ी या लोहे से मिट्टी खोदकर हाथ से बीज बोते थे। अब तो हल भी चलाकर बोने लगे।” पहले का खान-पान शुद्ध था, तो वे 100 किलोग्राम गेहूं की बोरी लेकर पहाड़ी चढ़कर गांव ले आते थे। उनकी मजबूत कद-काठी थी।

बीज महोत्सव

देसी बीजों के संरक्षण व संवर्धन के उद्देश्य से वर्ष 2016 में बीज महोत्सव का आयोजन भी किया गया था। इस कार्यक्रम में 6 गांव के लोग उनके पारंपरिक देसी धान के बीज भी लगाए थे। देसी बीजों की प्रदर्शनी भी लगाई थी। कार्यक्रम में पारंपरिक अनाजों की जानकारी व महत्व पर बातचीत की गई। सह्यद्री स्कूल की प्राचार्या दीपा मोरे उनके स्कूली बच्चों के साथ कार्यक्रम में शामिल हुई थीं और बच्चों ने भी देसी बीजों के बारे में जाना था। यहां खेती को जंगली जानवरों से नुकसान होता है। विशेषकर, सुअर और बंदर फसल चर जाते हैं।

जैव कीटनाशक बनाते हुए

उन्होंने बताया कि जंगल ही उनका भूख का साथी है। जंगल से कंद-मूल जैसे अनीव, सांवा, हडूदा, तांबोली मिलते थे। फलों में करौंदा, जामुन, तोरोनो, अंबोड़ी, सिंद, बेर, चार, खोखली, जायफल, जैकफुट ( कटहल), आम, आंवला इत्यादि। हरी पत्तीदार सब्जियों में कुरडू, गोमेटी, कटुली, चांवा, गोटिल भाजी, पटडी तोड़े, गोडू, तांदूडजा, मांसूरडा, कांठेमठ, चीलू इत्यादि। यहां की रानकेली ( जंगली केला) भी प्रसिद्ध है। 

इसके अलावा, कई तरह की जड़ी-बूटियां भी मिलती हैं जैसे अमरकंद,बेडकापाला, बिउला, कुडा, उदाडा, हिरडा, बहेडा, आंवला, बागदौड़ा, ऐला करंज इत्यादि। शिकाकाई से साबुन बनती है और यहां की शहद भी अच्छी मानी जाती है। 

सुभाष डोलस बताते हैं कि वर्ष 2017 में भोरगिरी व येळवळी गांव में शहद त्यौहार ( हनीबी फेस्टिवल) का आयोजन किया गया था। इस मौके पर बच्चों ने चित्र बनाए, कहानियां पढ़ी और मज़े किए। यहां के स्वयं सहायता समूह जय सदगुरू महिला बचत गट और कल्पवृक्ष दोनों साथ मिलकर जंगल आधारित आजीविका को प्रोत्साहित करने का काम कर रहे हैं। इसी कड़ी में वन अधिकार कानून के तहत् दावा फार्म भरे जा रहे हैं और पर्यावरण आधारित पर्यटन को बढ़ावा दिया जा रहा है। 

भोरगिरी गांव में वर्ष 2022 में रानभाजी महोत्सव का आयोजन किया गया था। इस महोत्सव में अनेक प्रकार की जंगली सब्जियों और जंगली खाद्यों की प्रदर्शनी लगाई गई थी। जिसमें कुई, उंबर चावा, चिचूर्डी, तोड्या, कारवी, घोमेती, हालुंदा इत्यादि थी। जंगली भोजन का लोगों ने लुत्फ भी उठाया।

भीमाशंकर मंदिर में दर्शन के लिए आनेवाले धार्मिक पर्यटकों को भोरगिरी के स्वयं सहायता समूंह ने खाना खिलाने का काम भी शुरू किया है। इस समूह का नाम सद्गुरू महिला बचत गट है। इस समूह में 13 सदस्य हैं। समूह की सुनंदा शाह ने बताया कि यह काम 3 साल से कर रहे हैं। हर साल करीब 60-70 हजार रूपए की आमदनी प्रतिवर्ष हो जाती है। समूह की पर्वता बाई ने बताया    “हम स्थानीय किसानों से ही चावल खरीदते हैं, जिससे उनकी भी कुछ कमाई हो। अब यह समूह जैविक खान-पान उपलब्ध कराने पर विचार कर रहा है।” 

इस गांव में दो नेचर गाईड भी हैं, जिनमें एक सुभाष डोलस हैं। उन्होंने पक्षियों की 150 से अधिक प्रजातियों का दस्तावेजीकरण ( फोटो के साथ विवरण) किया है। इनमें तिबेटी, खंडया, शामा, निलगिरी पिजान, हरियाल, मोर इत्यादि हैं। इसके अलावा, पेड़-पौधे, जंगली जानवर के बारे में भी जानकारी है। गांव में एक वन संरक्षण समिति का गठन भी किया गया है। इस समिति को 11 लाख रूपए की सहायता भी मिली, जिसके तहत् इको टूरिज्म( पर्यावरण आधारित पर्यटन) की शुरूआत हो चुकी है।

येळवळी में पर्यटक

पर्यटन के लिए कुछ नियम भी बनाए गए हैं जैसे गांव की जानकारी के बिना कोई भी पर्यटक को नहीं रखेंगे। पर्यटकों की संख्या 30 से 40 के अंदर होनी चाहिए। पर्यटक को आने के 3 दिन पहले सूचना देनी होगी। सभी को रोजी मिले, इसके लिए बारी-बारी से पर्यटकों को ठहराने की व्यवस्था की जाएगी।  पर्यटन से आनेवाली राशि को बैंक में जमा किया जाएगा। 

इस तरह पर्यावरण संरक्षण के साथ आजीविका की रक्षा के कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। यहां जो भी पर्यटक आते हैं, उन्हें जंगल में कचरा, प्लास्टिक, बोतल इत्यादि फैलाने से रोकने के लिए कहा जाता है। जंगल में जंगली जानवरों को किसी भी तरह की परेशानी या नुकसान न हो, यह ख्याल रखा जाता है। 

कुल मिलाकर, इस पूरी पहल से आदिवासियों को वन अधिकार कानून के तहत् सामुदायिक वन अधिकार मिला है। पर्यावरण की रक्षा के साथ उनकी आजीविका की रक्षा भी हो रही है। जंगल में हरियाली बढ़ी है और जंगली जानवरों की रक्षा हो रही है। हरियाली बढ़ने के कारण पक्षियों की संख्या भी बढ़ी है। सूख चुके पानी के स्रोत भी सदानीरा हो गए हैं। मिट्टी पानी का संरक्षण हो रहा है। जैव विविधता और पर्यावरण का संरक्षण व संवर्धन हो रहा है। जंगल पोषण का भंडार है, लोगों की खाद्य सुरक्षा भी हो रही है। पर्यावरण के प्रति लोगों की जागरूकता भी बढ़ी है और वे उसे बचाने के साथ उनकी आजीविका का संरक्षण भी कर रहे हैं। यह पूरी पहल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है। 

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