मिट्टी-बीज बचाने का अनोखा मेला (In Hindi)

By बाबा मायाराम (Baba Mayaram)onJun. 24, 2024in Environment and Ecology

विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)

(Mitti-beej bachane ka anokha mela)

बीजोत्सव में सुरक्षित व पौष्टिक खान-पान पर ज़ोर दिया जाता है।

हाल ही में गांधीजी की कर्मस्थली सेवाग्राम में अनूठे बीजोत्सव का आयोजन हुआ, जिसमें देश के कई कोनों से जैविक व प्राकृतिक खेती करने वाले कई किसान शामिल हुए। इस तीन दिनी कार्यक्रम में देशी बीजों की खेती, जलवायु बदलाव, बीजों के कानून और नई खेती पद्धतियों पर विचार-विमर्श हुआ। यह कार्यक्रम 29 से 31 मार्च तक आयोजित किया गया था। इसी प्रकार, बाद में दूसरा बीजोत्सव का एक मेला 27 अप्रैल से 29 अप्रैल को नागपुर को सम्पन्न हुआ। 

सेवाग्राम यानी सेवा का गांव। यह महाराष्ट्र के वर्धा शहर से 8 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। सेवाग्राम आश्रम में गांधीजी ने जीवन के उत्तरार्ध का एक दशक से ज्यादा समय बिताया था। गांधीजी के साथ यहां उनके कुछ सहयोगी भी रहे। यहां जो छोटे घर बनाए गए, उन्हें कुटी के नाम से जाना जाता है। जिनमें बापू कुटी व बा ( कस्तूरबा गांधी) कुटी शामिल हैं। उस जमाने की ये कुटियां गांधीजी की सादगी व सरलता की बानगी देती हैं। 

यहां मिट्टी के घर,लकड़ी और छतों पर खपरैल से बने हैं। प्राकृतिक खेती, नई तालीम का स्कूल, खादी व चरखा और सादा रसोईघर है। हरे-भरे पेड़-पौधे, रंग-बिरंगे फूल व लताओं से सजा परिसर है। सादगी व सुघड़ता यहां की पहचान है। यहां प्रकृति की अपनी संस्कृति है, लय है। गांधी इसी लय को समाज में उचित स्थान दिलाना चाहते थे। 

बीजोत्सव भी गांधी की प्रेरणा की एक मिसाल है। यह खेती के गहरे संकट से जुड़ा है। इसकी शुरूआत करीब एक दशक पहले कपास के किसानों की खुदकुशी चिंतित होकर की गई थी। उस समय अधिकांश किसान बैंक से कर्ज लेकर खेती करते हैं और कर्ज के बोझ तले दबकर ही जान दे रहे थे। इसके साथ ही आज की जीवनशैली में कई तरह की बीमारियां ( जैसे मधुमेह, कैंसर, उच्च रक्तचाप, हृदयरोग, लकवा, गुर्दे की नाकामी) भी बढ़ रहे थे, यह भी चिंता थी। 

बीजोत्सव में अनुभव बांटते किसान

गांधीवादी सोच के एक समूह ने मिलकर बीजोत्सव की शुरूआत की गई थी, जिससे किसानों की मदद की जा सके। इस समूह में संस्थाएं, व्यक्ति और जैविक किसान शामिल हैं। मैं इसमें दूसरी बार शामिल हुआ। बीजोत्सव में सुरक्षित व पौष्टिक खान-पान पर ज़ोर दिया जाता है। देशी बीजों की गोबर खाद व हल-बैल वाली प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जाता है। इसमें खेती को पशुपालन से जोड़ने की सोच है, जिससे मिट्टी को गोबर व केंचुआ खाद से उर्वर बनाया जाए और दूध-घी से भोजन में पौष्टिकता भी बढ़े। यह खेती रासायनिक खाद से मुक्त होती है।

कोविड-19 के बाद से लोगों में स्वास्थ्य जागरूकता बढ़ी है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए जैविक और प्राकृतिक तरीके से उत्पादित अनाज और सब्जियां जरूरी हैं। सभी जानते हैं कि रासायनिक खेती में उत्पादन के साथ बीमारियां भी बढ़ी हैं।

इसका एक उदाहरण जबलपुर से अमरावती एक्सप्रेस ट्रेन है। इसमें अधिकांश सवारियां मरीज होती हैं, जो नागपुर इलाज कराने जाती हैं। इस कारण इस ट्रेन को ही लोग एम्बुलेंस कहने लगे हैं। इसी ट्रेन से मैं 30 मार्च को इटारसी से वर्धा पहुंचा था। नागपुर मेडिकल हब बन गया है, जहां बड़ी संख्या में इलाज कराने मरीज आते हैं।

गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता बसंत फुटाणे ने बताया कि हाल के दिनों में आई स्वास्थ्य जागरूकता के कारण जैविक उत्पादों की मांग बढ़ गई है, पर पूर्ति कम है। क्योंकि जैविक खेती कम होती है और जो जैविक खेती, किसान करते भी हैं तो उनके उत्पाद बेचने में कठिनाईयों का भी सामना करना पड़ता है। कुछ जगहों पर यह देखने में आया है कि जैविक किसानों को अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है।

वे आगे बताते हैं कि कई बार किसानों के पास सही जानकारियों का अभाव रहता है और कई बार उन्हें समय पर अच्छे बीज नहीं मिल पाते। बीजोत्सव का आयोजन इन्हीं उद्देश्यों को लेकर किया जाता है, जिससे किसानों को उचित जानकारी, एक दूसरे से सीखना, ऩई तकनीक, वैज्ञानिक जानकारी और परंपरागत बीजों का आदान-प्रदान किया जा सके।

इसके अलावा, खेती में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। लेकिन ग्रामीण इलाकों की महिलाएं कई कारणों से ऐसे कार्यक्रमों में शामिल नहीं हो पातीं। इसलिए उन्हें कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिले, इसका प्रयास किया जाता है।

महिला किसानों की भागीदारी

इस कार्यक्रम में आसपास के गांवों की बड़ी संख्या में महिलाएं शामिल हुईँ। महिलाओं ने उनके जैविक उत्पादों के स्टॉल भी लगाए थे। मैंने उनकी आंखों में जैविक उत्पाद बेचते हुए आत्मविश्वास की चमक देखी, यह आत्मनिर्भरता का भी अच्छा उदाहरण है।

वर्धा जिले के खैरगांव की शोभाजी गायधनी भी उनके जैविक उत्पाद लेकर बीजोत्सव में आई थीं। उनके पास 15 एकड़ जमीन है। तालाव व 3 कुएं हैं। वे हल्दी, ज्वार, गेहूं, चना, मिरची व तुअर उगाती हैं। सभी उत्पाद उनके स्टाल पर बिक्री के लिए उपलब्ध थे। वे उनके उत्पादों की बिक्री ऑनलाइन भी करती हैं। उन्होंने बताया कि उन्हें जैविक उत्पादों से अच्छी आमदनी हो जाती है।

महिला किसान

बसंत फुटाणे बताते हैं कि जैविक खेती करने वाले शोभा जी जैसे किसानों की आमदनी अच्छी होती है, क्योंकि वे प्रोसेसिंग भी करते हैं। और खुद ही उसे बेचते हैं। प्रदर्शनी, मेले और शासकीय कार्यक्रमों में भी स्टॉल लगाते हैं। इसमें किसान व उपभोक्ता का सीधा संबंध होता है, बिचौलियों की भूमिका खत्म हो जाती है।

नागपुर जिले के उखली गांव के रोहन राउत ने बताया कि वे साल 2012 से जैविक खेती कर रहे हैं। उनकी 38 एकड़ जमीन है, पर उन्होंने कुछ ही जमीन में बिना रासायनिक खेती की शुरूआत की। उनके पास 100 मवेशी हैं। गिर प्रजाति की गाय हैं। 

उन्होंने बताया कि खेतों को उर्वर बनाने के लिए हरी खाद का इस्तेमाल करते हैं। दलहनी फसलों के अलावा ढेचा व मक्का का उपयोग करते हैं। उनके 2 एकड़ खेत में मुनगा और आम है। जैविक खेती की काफी मांग बढ़ रही है।

पानी फाउंडेशन से जुड़े रहे युवा किसान प्रताप बताते हैं कि उनकी 40 एकड़ जमीन है, जिसमें वे जैविक खेती करते हैं। पौष्टिक अनाजों के साथ वृक्ष खेती भी करते हैं। उनके खेत में केला, सीताफल, नींबू हैं, तो हल्दी, सफेद मूसली, भी है। कई तरह की दालें भी उगाते हैं। उन्होंने अनुभव साझा करते हुए बताया कि इसमें लागत कम हो गई है, और उत्पादन भी अच्छा है। खेती की जमीन भी उर्वर हो गई है।

प्रताप, कृषि स्नातक भी हैं, कृषि विज्ञान का प्रयोग उनके खेत में अच्छी समझ से कर रहे हैं। उनका बीज, खाद का स्वावलंबन तो है ही, जैव कीटनाशक भी स्वयं  तैयार करते हैं। दूसरे किसानों को भी सिखाते हैं। बीटी कपास की जगह अब पिछले दो साल से देसी कपास उगा रहे हैं।

सब्जियों के बीज

अकोला जिले के मूर्तिजापुर गांव के गजानन ठोकड जैविक सब्जियां लेकर आए थे। भिंडी, अम्बाड़ी, गोल लौकी, ककड़ी, चेरी टमाटर, परवल इत्यादि। उन्होंने बताया कि वे केंचुआ खाद का इस्तेमाल करते हैं, जिसे वे खुद तैयार करते हैं। बीज व खाद उनका खुद का है। लागत बहुत कम लगती है। हालांकि उन्होंने कहा कि जैविक उत्पादों का उचित दाम मिलना चाहिए, यह सुनिश्चित होना चाहिए। 

इस कार्यक्रम में मिट्टी की उर्वरता बचाने पर ज़ोर दिया गया। फसलों के ठंडल व अवशेष न जलाएं जाएं बल्कि उनसे जैव खाद बनाई जाए। इसके अलावा, द्विदलीय फसलें लगाई जाएं, जैसे मूंग, तुअर, उड़द, मूंगफली, मसूर इत्यादि। इन फसलों के अवशेष जमीन में सड़ जाते हैं, जिससे जमीन उर्वर बनती है। खेतों की मेड़ों पर पेड़ लगाएं जाएं, जिससे खेतों में नमी बने रहे, उनकी पत्तियों से जैव खाद भी बने। जलवायु बदलाव के दौर में पेड़ लगाना और भी जरूरी हो गया है।

बीज संवर्धक महिलाएं

यह एक ऐसा मौका होता है, जब किसान और उपभोक्ताओं का आपस में जुड़ते हैं। जिससे किसानों को उनके उत्पाद का उचित दाम मिले और उपभोक्ताओं को भी वाजिब दाम में पौष्टिक अनाज मिल सके। यहां वे साझा भविष्य तलाशते हैं। जलवायु बदलाव बहुत ही गंभीर मुद्दा है। धरती की सभी प्रजातियां खतरे में हैं। इसलिए पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली बहुत जरूरी है। इसके लिए मिल-जुलकर काम करना जरूरी है।

खेती का संकट जलवायु बदलाव से भी जुड़ा हुआ है। पर्यावरण के संकट से जुड़ा है। कुछ समय पहले तक देशी बीजों की खेती ऋतु के अनुसार होती थी। अब मौसम बदलाव में बारिश अनिश्चित हो गई है। कभी ज्यादा तो कभी कम, कभी सूखा तो कभी अकाल, बारिश का कोई ठिकाना नहीं है। इसका सीधा असर परंपरागत खेती करने वाले और भूमिहीन किसानों पर पड़ता है।  

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि बीजोत्सव जैसे कार्यक्रम हमें नई जैविक,प्राकृतिक खेती का मार्ग तो दिखाते ही हैं, जिस पर चलकर मिट्टी-पानी का संरक्षण किया जा सके, जैव विविधता व पर्यावरण रक्षा की जा सके। नई तकनीकों की जानकारी भी देते हैं। किसान- उपभोक्ताओं में आपस में मेल-मिलाप कराते हैं, जिससे किसानों को फसलों को उचित दाम मिले और उपभोक्ताओं को भी वाजिब दाम में अच्छा अनाज मिल सके।

महाराष्ट्र के पश्चिमी विदर्भ की प्रमुख नकद फसल कपास रही है। हरित क्रांति के पहले कपास के बाद ज्वार, मूंग, उड़द आदि फसलें बोते थे। इस अनाज की जगह अब अखाद्य सोयाबीन ने ली, जिससे जमीन बेकार हो रही है। पुरानी मूंगफली, उड़द, जैसे फसलें जमीन को उर्वर बनाती है, उसकी सेहत सुधारती हैं। इनमें विविधता भी है, जो जलवायु परिवर्तन से बचाव करेंगी।

 बीजोत्सव में एक साथ

फसल विविधता जितनी अधिक होगी, प्राकृतिक विपदाओं से बचने की संभावना उतनी ही ज्यादा होगी। अतः खेतों में परंपरागत बीजों के द्वारा विविधता बढ़ाना, टिकाऊ व प्राकृतिक खेती के लिए बहुत जरूरी है।

इसके साथ ही खेती को स्वावलंबी, कुदरती, विविधतापूर्ण, रसायनमुक्त, कम ऊर्जा वाली, कम पूंजी वाली, एक कम जोखिम वाली बनाया जाए। जैविक व प्राकृतिक खेती को लोकप्रिय बनाया जाए। साथ ही फिजूलखर्जी, शान-शौकत, तामझाम को बढ़ावा देने वाली भोगवादी संस्कृति पर भी लगाम लगाई जाए, तभी हम खेती, पर्यावरण के संरक्षण के साथ बेहतर जीवन भी जी पाएंगे।

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