गाँधी जी – क्या मैंने सही सुना है? 24 अप्रैल को आपने कहा कि ‘कोविड 19 की विपदा का जो सबसे बड़ा पाठ हमने पढ़ा है, वो है कि हमें आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन की ओर बढ़ना है… और ये बात आपने 12 मई के एक भाषण में फिर दुहराई ?
मोदी जी – हाँ, गाँधी जी सही सुना है आपने। 24 अप्रैल को ‘राष्ट्रीय पंचायत दिवस’ के दिन मैं सरपंचों को संबोधित कर रहा था और 12 मई को राष्ट्र को। मैंने कहा कि हर गाँव, हर जिला और पूरे देश को आत्मनिर्भर होना है।
गाँधी जी – ताज़्जुब है। जब हम अंग्रेजों से अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे थे तो आत्मनिर्भरता का सपना मैंने भी देखा था। और आज देखिए मज़दूर-किसान, लाखों की संख्या में अपने ऊपर निर्भर रह कर ही, बिना मदद, अपने पाँव अपने गाँव जा रहे हैं। 24 मार्च को आपने पूर्ण तालाबंदी का फ़रमान ज़ारी किया, कोरोना के डर से, 4 घंटे का समय दिया कि लोग अपने घरों में बंद रहें। बड़े शहरों के कारख़ानों, ऑफ़िसों और बिल्डिंगों में काम कर रहे ये लोग क्या करते, बिना नौकरी, बिना पैसे, बिना घर अपने-अपने गाँव-घरों को लौटने लगे। वो 700-1000-1500 किलोमीटर की दूरियाँ पाटते जा रहे हैं – पैदल, साइकिल से, ठेले से, ट्रक से… गोद में… बच्चे, बूढ़े, जवान… ये है उनकी मजबूरी की आत्मनिर्भरता। लेकिन जिस आत्मनिर्भरता की बात मैंने की है उसमें मजबूरी का सवाल नहीं है, सम्मान और प्रतिष्ठा की मुहर है…
मोदी जी – लेकिन… गाँधी जी, मैंने इन मजदूरों के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलवाईं…
गाँधी जी – हाँ, हाँ… तब तक देर हो चुकी थी और वो नाकाफ़ी है। … चलिए, आगे बढ़ते हैं ‘आत्मनिर्भरता’ की बात पर लौटते हैं। मैंने अपनी पुस्तक ‘हिंद-स्वराज’ में कहा था कि अंग्रेजों से आज़ादी मिलने के कोई मायने नहीं हैं जब तक हमें वास्तविक स्वराज न मिल जाए, जहाँ स्थानीय स्तर पर लोग शासन की बागडोर अपने हाथ में ले सकें और अपनी ज़रूरतों को पूरा कर सकें।
मोदी जी – मैंने हमेशा ‘हिंद-स्वराज’ में दिए आपके संदेश में विश्वास किया है गाँधी जी।
गाँधी जी – अच्छा लगा सुन कर। लेकिन मुझे ये तो बताइए कि इस विश्वास को समझने के लिए एक विषाणु की क्यों ज़रूरत पड़ी? प्रत्येक गाँधी-जयंती के दिन आप और आपके पूर्वज प्रधानमंत्री व सबकी सरकारें उन आदर्शों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते रहे हैं, जिनके लिए मैंने अपना जीवन समर्पित किया और मृत्यु को गले लगाया। इसके बावज़ूद इतने दशकों में आपको ये याद नहीं आया कि इन आदर्शों की नींव है समुदायों की आत्मनिर्भरता! आज एकाएक ये हल्ला-गुल्ला क्यों?
मोदी जी – नहीं, नहीं गाँधी जी, मेरी सरकार हमेशा स्वराज की पक्षधर रही है और इसके लिए काम करती रही है। ये तो आपके कांग्रेसी चेले इस राह से भटक गए थे। अब हम हिंदुस्तान को सही रास्ते पर लाने की कोशिश कर रहे हैं।
गाँधी जी – जानते हैं, आज़ादी के बाद विकास और प्रशासन का जो नमूना बताया गया उसके बारे में मुझे गंभीर आशंकाएं थी और मैंने ये बात आज़ादी के पहले, अक्टूबर 1945 में, जवाहरलाल को लिखे पत्र में, कही थी। ‘विकास’ शुरु से एक औपनिवैशिक मसला रहा है। इस शब्द की शुरुआत की द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-45) के विजेताओं (अमेरिका और उसके संगी साथियों) ने। पहले के उपनिवशों का प्राकृतिक व व्यावसायिक शोषण करने के लिए ये षडयंत्र रचा गया। आधुनिक विकास का मतलब बताया गया- बड़े उद्योगों, चौड़ी सड़कों, ऊँचे पुलों व बिल्डिंगों का निर्माण तथा सत्ता का केंद्रीकरण, जो दिल्ली में बना। होना चाहिए था विकेंद्रीकरण – प्रशासन का, आर्थिक गतिविधियों का। मेरे साथी कुमार (जे.सी. कुमारप्पा) ने इसे ‘अर्थ-व्यवस्था का स्थायित्व’ कहा है। ये है स्वराज का सही अर्थ। लेकिन हम पाश्चात्य देशों के बताए रास्ते पर चल पड़े, भौतिक और व्यावसायिक ख़्वाबों की खोज में। 1991 में जब वैश्वीकरण और उदारीकरण को अपनाया गया तो मैं और दुःखी हो गया। इससे हम किसी प्रकार के ‘स्वराज’ से और दूर होते चले गए। लेकिन…
मोदी जी (रोकते हुए): बीच में टोकने के लिए माफ़ी चाहता हूँ गाँधी जी। मैं भी तो यही कहना चाहता हूँ कि दशकों से कांग्रेस ने हम सबको गुमराह किया है।
गाँधी जी – हाँ, ये ठीक है। लेकिन उनके और आपके नमूनों में फ़र्क क्या है? 1947 के बाद दशकों में अर्थव्यवस्था पर सामाजिक अंकुश रखने की कुछ कोशिश तो की गई। और संविधान के 73वें तथा 74वें संशोधनों के ज़रिए, कुछ हद तक, ग्राम तथा नगर स्वराज की ओर कदम बढ़ाए गए। हालांकि 1991 में इनको ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। फिर भी 2000 के शुरु के वर्षों में कुछ नए और अच्छे कानून बने, जैसे जानकारी का अधिकार, ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना और वन-अधिकार। लेकिन 2014 के बाद से मैं ऐसा कुछ भी नहीं देख पा रहा हूँ जिससे स्वराज की अवधारणा कुछ आगे बढ़ सके। सच पूछिए तो मुझे इस बात पर हँसी आई कि आप विदेशी सरकारों और विदेशी कंपनियों से, उद्योगों में निवेश माँगने के लिए दुनिया-भर में दौड़ लगाते रहे हैं। और हाँ… इसे कुछ भला सा नाम भी दिया गया है…हाँ ‘मेक इन इंडिया’! अब सुनने में आ रहा है कि इस कोविड-विपदा की आड़ में आप सैकड़ों विदेशी कंपनियों को अपने यहाँ आने का लालच दे रहे हैं। ये कंपनियाँ अभी चीन में अपने कारोबार चला रही हैं। इनमें कपड़ा और खाद्य-उद्योग भी शामिल हैं। ये तो ‘आत्मनिर्भरता’ यानी ‘सेल्फ़ रिलायंस’ की अजीबोग़रीब परिभाषा है। आपने 24 मार्च को कहा था ‘कभी विदेशों का मुँह नहीं ज़ोहना पड़ेगा।’ – इसका आत्मनिर्भरता से क्या संबंध है?’
मोदी जी – अं…, अं… ऐसा है गाँधी जी कि इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। हिंदुस्तान का प्राचीन इतिहास गवाह है कि जो भी यहाँ आया वह हिंदुस्तानी बन गया।… इसलिए मेरा विश्वास है कि जो भी विदेशी-कंपनी यहाँ आएगी वो हिंदुस्तानी बन जाएगी। हम दृढ़ता के साथ आत्मनिर्भरता यानी सेल्फ़-रिलायंस की ओर कदम बढ़ाएंगे।
गाँधी जी – सचमुच? इस तर्क के आधार पर क्या कहा जा सकता है कि जब 1991 में मनमोहन सिंह आर्थिक उदारीकरण ले आए तो वो भी ‘स्वराज’ की ओर उठा एक कदम था?
मोदी जी – नहीं, नहीं, उनकी सोच तो कुछ अलग ही थी। उनकी दिलचस्पी सिर्फ़ ऊँचे-विकास दरों में थी, चाहे वो किसी भी क़ीमत पर पायी जा सके। हम विकास दर नीचे ले आए हैं, पर अर्थव्यवस्था की बुनियादी बातों को हमने सुदृढ़ किया है। मैं अपने वित्तमंत्री से कहूँगा वो इनका विस्तृत विवरण आपको भेज दें।
गाँधी जी – ये तो मुझे आर्थिक दोग़लापन सा दिख रहा है। क्योंकि आपकी पार्टी भी तो ऊँचे-विकास दरों का वादा कर रही है! चलिए छोड़िए इन बातों को, वापस लौंटे ‘स्वराज’ और ‘आत्मनिर्भरता’ पर। इन अवधारणाओं पर आपकी समझ क्या है? आपके 2019 के चुनावी घोषणा-पत्र में ‘स्वराज’ शीर्षक के अंतर्गत दान-रुप में कई चीज़ें रखी गई हैं, जैसे नल के ज़रिए पीने का पानी, घर-आवास और सड़कें मुहैया कराना। मुझे ऐसा कुछ नहीं दिखा जो गाँवों को, अपने भाग्य का निर्णय करने के लिए, सशक्त कर सके।
मोदी जी – लेकिन उनकी बुनियादी ज़रूरतों को तो हमें पूरा करना पड़ेगा ना? और हमने उन्हें इंटरनेट की सारी सुविधाएं दे रखी हैं, जन-धन-योजना दी है, जिसके फलस्वरुप काफ़ी पैसों तक उनकी पहुँच बन गई है। क्या अपने भाग्य-निर्वारण के लिए एक गाँव को इतना मिलना काफ़ी नहीं है?
गाँधी जी – है, लेकिन ‘आत्मनिर्भरता’ की जो परिभाषा मैंने दी वो कुछ ऐसी है – आत्मनिर्भर गाँव का अर्थ है ‘अपनी ज़रूरतें ख़ुद पूरी करना और अपनी शासन-व्यवस्था ख़ुद चलाना।’ न कांग्रेस, न भा.ज.पा, न दिल्ली की गद्दी पर बैठी किसी अन्य पार्टी ने ऐसा कोई क़दम उठाया जिससे 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधनों के अनुसार पंचायतों व शहरी वार्डों को यथार्थ में कुछ सत्ता हासिल हो सके। सच पूछिए तो उनकी वित्तीय और कानूनी सत्ता को कमज़ोर किया गया है। राष्ट्र के तथाकथित ‘विकास’ के नाम पर आपने वो पूरी सत्ता अपने हाथ में रख ली है, जिसके ज़रिए लोगों के जल, जंगल, ज़मीन और जीविका को आसानी से छीना जा सके। मुझे पता लगा है कि अच्छे (आपके) प्रधानमंत्री बने रहने के दोनों कार्यकालों में सरकार द्वारा ज़मीन के कब्ज़े बढ़े हैं।… आपका पर्यावरण मंत्रालय खदान, बाँध और उद्योग की प्रत्येक योजना को मंजूरी देने में तत्परता से काम कर रहा है। 1991 के बाद से भारत की हर सरकार ने उपभोक्तावाद को प्रोत्साहित किया है। ये तो उस सरल जीवन-शैली के बिल्कुल विपरीत है जो आत्म-निर्भरता के लिए ज़रूरी है। ऐसी परिस्थिति में ‘ग्राम-स्वराज’ कैसे मिल सकता है?
मोदी जी – गाँधी जी, मैं आपके प्रति उचित आदर-भाव रखता हूँ। आप जानते ही होंगे कि गाँव के लोग बच्चों की तरह होते हैं। सरकार को उनकी मदद करनी चाहिए। और ‘विकास’ की ख़ातिर, उद्योगों के लिए हमें उनकी ज़मीन लेनी ही पड़ती है… लोगों को रोज़गार मिले वे ग़रीबी से उबर सकें, इसके लिए और क्या किया जा सकता है भला?
गाँधी जी – अरे भई, इससे ज़्यादा आसान तरीका है कि स्थानीय, श्रम-आधारित विकेंद्रीकृत उत्पादन पर ध्यान दिया जाए… न कि दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों को लाया जाए जो ज़्यादा काम मशीनों के ज़रिए करती हैं। परंतु आपने तो और उलट काम किया। हथकरघा-उद्योग पर ये नया टैक्स-जी.एस.टी. लगा दिया। मुझे ये भी मालूम हुआ है कि आपकी पार्टी द्वारा शासित कुछ प्रदेशों ने श्रम-कानूनों को ताक पर रख दिया है।
मोदी जी – ओह! ये तो सिर्फ़ इसलिए किया गया है कि मजदूर व कारीगर और मेहनत करें। ख़ैर, इसे छोड़िए मैं आपको एक गोपनीय बात बताऊँ- जितनी विदेशी कंपनियों को हम आमंत्रित कर रहे हैं, उन्हें अपने नाम हिंदुस्तानी में बदलने पड़ेंगे। इसीलिए मुझे वाकई ‘वेदान्ता’ नाम पसंद है… हालांकि वो एक अंग्रेजी कंपनी है। कितना महान् इंडियन नाम है!
गाँधी जी – अच्छा, यही वो कंपनी है क्या, जो ओड़ीसा के डोंगरिया कौंध आदिवासियों के पहाड़ों में खदान खोदने जा रही थी? मैंने सुना है कि ये समुदाय आत्मनिर्भर है। इसका मतलब है कि आपका इरादा है-अधिक से अधिक ग्रामीण इलाकों को ‘विकास’ के लिए खोलना और ग्रामीणों को आसान व सस्ते श्रमिकों में तब्दील कर देना…।
मोदी जी (दोबारा टोकते हुए) – हाँ… हाँ…! आपने हमेशा कहा है हमारी अर्थव्यवस्था श्रम-केन्द्रित होनी चाहिए… समस्या ये है कि डोंगरिया कौंध जैसे समुदाय प्रकृति का दोहन करके जीवन-यापन करते हैं ज़रूरी है कि हम उन्हें उत्पादक श्रम में परिवर्तित करें।
गाँधी जी – अच्छा तो इसीलिए आपकी सरकार आज महामारी के दौर में प्रवासी मज़दूरों की घर-वापसी को इतना कठिन बना रही है, जिससे वे उद्योगपतियों और निर्माण-ठेकेदारों की दया पर आश्रित रहें। श्रम प्रतिष्ठा से तो मेरा ये मतलब था ही नहीं।
मोदी जी – ये शहरी नक्सल लोग आपको झूठ घुट्टी पिला रहे हैं। इसीलिए तो हमें उन्हें सज़ा देनी पड़ जाती है। वे सच नहीं बोलते हैं। वे आपके बताए पवित्र पथ से दूर हो गए हैं गाँधी जी। हम हैं सच्चे सत्याग्रही…
गाँधी जी (कराहते हुए) – नहीं… नहीं… नहीं…। यदि मुझे अपने ज़माने के अंग्रेज़ों की दोमुँही बातों को सुनने का अनुभव नहीं होता, तो सत्याग्रह की, आपकी इस भयावह परिभाषा सुन कर मेरी बोलती बंद हो जाती। सत्ता के गलियारे में सच बोलने पर अंग्रेज़ों ने मुझे आतंकवादी करार दिया… और आप भी, जो लोक आपसे असहमत हैं, उनके साथ वैसा ही सलूक कर रहे हैं। आप राष्ट्रद्रोह के उसी औपनिवेशिक कानून के तहत उन पर आरोप लगा रहे हैं, जिसके तहत मुझे सज़ा दी गई थी। जब भी सरकारें जन-विरोधी कदम उठाती हैं जनता को उनका विरोध करने का अधिकार है। उन्हें ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ यानी सत्याग्रह करना ही पड़ेगा। आप जानते हैं, मैंने ‘स्वराज’ की कई अन्य तरीक़ों से परिभाषा की है? अपनी पत्रिका ‘यंग इंडिया’ में मैंने लिखा था – ‘यदि सत्ता की बागडोर मुट्ठी भर लोगों के हाथ में आ जाए तो ‘स्वराज’ नहीं आएगा। ‘स्वराज’ आएगा तब जब लोग इतने सक्षम हो जाएँगे कि सत्ता के दुरुपयोग का विरोध कर सकें।
(दूसरी ओर चुप्पी)
गाँधी जी – मोदी जी…?
मोदी जी – माफ़ करिए गाँधी जी, फ़ोन में बहुत सिर्र-सिर्र हो रहा है, मैं आपको सुन नहीं पाया…
गाँधी जी – कोई बात नहीं… संक्षिप्त में एक बात कहूँ जो मैं बहुत पहले कह चुका हूँ- ‘जो सुन नहीं सकता उसे सुनाया जा सकता है, लेकिन जो न सुनने का ढोंग कर रहा है, उसे नहीं सुनाया जा सकता,… चलिए छोड़िए एक दूसरे बिंदु पर आते हैं। हमारी सभ्यता का मुख्य आधार है प्रकृति और पर्यावरण के साथ हमारा अटूट संबंध। ये सारा औद्योगीकरण इसे ध्वस्त नहीं कर देता है? मुझे बताया गया है कि आप कट्टर हिंदू हैं। आप जानते होंगे कि हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि प्रकृति तथा अन्य जीवों का हम आदर करें।
मोदी जी – आप बिल्कुल सही कह रहे हैं गाँधी जी। यही तो हमारे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा है… हम तो प्रकृति को समृद्ध कर रहे हैं। अगर हम एक हेक्टेयर जंगल के पेड़ काटते हैं तो उससे दुगुनी संख्या में वृक्ष रोपते हैं।
गाँधी जी – लेकिन जो जंगल हज़ारों सालों में बढ़ा है, उसके कटने की भरपाई कैसे होगी?
मोदी जी – मैं नहीं जानता आपको ऐसे पाठ कौन पढ़ा रहा है गाँधी जी। सच कुछ और है। सैकड़ों तरह के झाड़-झंखाड़ से भरे जंगल से कहीं बेहतर है दो-तीन प्रजातियों के पेड़ लगाना। मनुष्यों में भी ऐसा ही होना चाहिए। ख़ैर, ये दो-तीन प्रकार के वृक्ष ज़्यादा कार्बन डाइऑक्साइड (जो हवा को साफ़ करने के लिए ज़रुरी है) सोख लेते हैं। मैं नहीं जानता कि जलवायु-परिवर्तन के बारे में आप क्या जानते हैं। इससे जुड़े मुद्दे आपके समय के बहुत बाद सामने आए हैं।
गाँधी जी – अरे मुझे सब पता है! आपने जलवायु-परिवर्तन के लिए कुछ काम किया और आपको अर्थ-चैम्पियन का पुरस्कार मिल गया। वाह क्या बात है! मुझे इस पर हँसी आ रही है क्योंकि आपकी सरकार ने पर्यावरण से जुड़े कानूनों को कमज़ोर किया है। अच्छा, ग्राम स्वराज की थोड़ी और बात कर लें, आपकी बड़ी-बड़ी योजनाएँ, अकसर, ग्रामीणों, आदिवासियों व शहरी ग़रीबों की ज़मीन और प्राकृतिक संसाधनों को हड़प लेती हैं और उनसे इंकार करने का अधिकार भी छीन लिया जाता है, तो ये कैसा ‘स्वराज’ है? उनकी राय नहीं ली जाती, उन्हें जन-सुनवाइयों में बुलाया नहीं जाता। सुना है कि आज कोविड-19 की विपदा के बीच आपने ऐसी बहुत सी योजनाओं को मंजूरी दे दी है। पूरी तालाबंदी के दौर में लोग इकट्ठे होकर विरोध भी नहीं कर सकते।
मोदी जी – देखिए गाँधी जी, मैंने पहले भी आपको बताया था कि मेरी जनता बच्चों के समान है। अक्सर उन्हें पता नहीं होता कि वो ख़ुद चाहते क्या हैं।… इसलिए उन्हें मेरे जैसे सख़्त माँ-बाप की ज़रूरत है।
गाँधी जी – अच्छा, अब समझ में आया – आत्मनिर्भरता होने का का मतलब है आपके उपर निर्भरता।
मोदी जी – सही है!
तीसरी आवाज़ – नरेन्द्र, भूलिए मत, मैं भी इस बातचीत को सुन रहा हूँ!
गाँधी जी – ये कौन है मोदी जी? मुझे नहीं पता था कि कोई अन्य व्यक्ति भी हमारी बातें सुन रहा है!
मोदी जी – कोई चिता नहीं गाँधी जी! इस कहानी का ‘निर्भर’ यानी ‘रिलायंस’ भी एक पात्र है…!
गाँधी जी – हे राम!
*****
(श्री अशीष कोठारी कल्पवृक्ष (पर्यावरण समूह) के संस्थापक सदस्यों में से हैं। आप इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में पढ़ा चुके हैं। कई जनांदोलनों में भागीदारी निभायी है।वर्तमान में आप विकल्प संगम का संचालन कर रहे हैं। अपने करीब 30 किताबों का लेखन व सम्पादन किया है और आपके 300 से अधिक लेख प्रकाशित हैं।)
(श्रीमती जया श्रीवास्तव स्वतंत्र चिन्तक एवं समाजकर्मी हैं। साठ से भी अधिक वर्षों से समाजकार्य में लगी हुई हैं।)
First published by The Bastion on 28 May 2020
अंग्रेजी में MAHATMA GANDHI CALLS PM MODI: “DID YOU REALLY MEAN SELF-RELIANCE?”
पढ़ने के लिए लिंक
/article/mahatma-gandhi-calls-pm-modi-did-you-really-mean-self-reliance/#.XyyIySgzaM8
First published by Nai Azadi
Read a Gujarati version (first published by Bhoomiputra)
Read a Tamil Translation of the same