किचन से संभव है सेहत का ख्याल़ (in Hindi)

By बाबा मायारामonDec. 10, 2022in Food and Water

विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)

(Kitchen Se Sambhav Hai Sehat Ka Khayal)

“मधुमेह, उच्च रक्तचाप, ह्दयरोग, कैंसर जैसी बीमारियों का संबंध भोजन व खान-पान की आदतों से जुड़ा है। प्लास्टिक डब्बाबंद फूड और कार्बोनेटेड पेय जो बाहर से आयात किए जा रहे हैं- यह सब स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हैं। जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां सिर्फ अस्पताल से ठीक नहीं होंगी, बल्कि कृषि और रसोई से ठीक होंगी।” यह लेह (लद्दाख) के सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. नोर्दन ओथज़र थे।

हाल ही में लेह के पास रनबीरपुर गांव में दो दिनी जौ फूड फेस्टिवल का आयोजन किया गया। यह कार्यक्रम हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ आर्कियोलोजी एंड एलायड साइंस सेंटर में 17-18 सितंबर को हुआ। इसका आयोजन लद्दाख आर्टस एंड मीडिया आर्गनाइजेशन, स्नो लेपर्ड कंजरवेंसी इंडिया ट्रस्ट, लोकल फीचर्स, कल्पवृक्ष और विकल्प संगम ने संयुक्त रूप से किया था। जौ (बारले) यहां की प्रमुख फसल है। जौ का सत्तू लद्दाख के सांस्कृतिक व आध्यात्मिक गतिविधियों में शामिल है। 

इस आयोजन में किसान, सामाजिक कार्यकर्ता, शोधकर्ता, पर्यावरणविद्, लोक कलाकार शामिल हुए थे। मैं भी इस फूड फेस्टिवल में शामिल हुआ था, और कई किसान कार्यकर्ताओं व कार्यक्रम के आयोजकों से मिला। यहां की सौंदर्य की नदी सिन्धु, दूर-दूर तक फैले काले स्याह पहाड़, ऊंचाई पर थोड़ी हरियाली, कल-कल बहते बर्फीले नाले और ठंडा वातावरण बहुत ही मनमोहक था। मैं यहां करीब हफ्ते भर से ज्यादा रहा। इस दौरान मैंने एक-दो गांवों की यात्रा भी की।

कार्यक्रम की शुरूआत में कल्पवृक्ष की सृष्टि वाजपेयी ने कहा कि इस तरह के फूड फेस्टिवल की ज़रूरत इसलिए है, क्योंकि कृषि अर्थव्यवस्था बदल रही है। इससे हमें यह भी प्रेरणा मिलती है कि खुद से उगाया खाना खाएं, लोगों को आजीविका मिले, लोगों का स्वास्थ्य बेहतर हो, जीवन संभलें, सामूहिक रूप से आपस में एक-दूसरे से सीखें व इसके लाभ आपस में साझा करें। 

फेस्टिवल का उद्घाटन

इसके पहले लोक संगीतकार त्सेरिंग सोनम ने पारंपरिक रीति-रिवाज से कार्यक्रम का शुभारंभ किया। उन्होंने पहाड़ी खेती में जौ की खेती, पानी, ग्लेशियर और भूमि के महत्व को बताया। इसके बाद हमने नाश्ता किया। नाश्ते में लद्दाखी ननगे त्योदमा और कोलाक था। बाद में जौ से बना चानतुक भी खाया। इसे सब्जियों के साथ बनाया जाता है। दे खामबीर, एक अन्य लद्दाखी व्यंजन है, वह काफी स्वादिष्ट था। थापू को भी सभी ने पसंद किया। लद्दाखी भोजन व खान-पान के स्टाल स्थानीय महिला समूहों ने लगाए थे, जो आसपास के गांव से आई थीं।

इस कार्यक्रम का उद्देश्य जौ का संरक्षण व संवर्धन करना था। इसके बारे में लोगों को जागरूक करना था। इस कार्यक्रम के आयोजकों ने कहा कि लुप्त हो रही जौ की प्रजातियों को बचाना जरूरी है, क्योंकि यह लद्दाख की स्वावलंबी खेती के लिए आवश्यक है। लद्दाखी खान-पान में फिर से जौ के महत्व को सामने लाना जरूरी है, जिससे देशी बीजों की खेती को कायम रखा जा सकें।

उन्होंने कहा कि जौ का संरक्षण इसलिए भी जरूरी है कि इससे कृषि पारिस्थितिकी ज्ञान और पद्धतियों को भी बचाया जा सके। इस क्षेत्र में ही जौ की खपत व उपभोग हो, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूती मिले। स्थानीय खेती पद्धतियों को पुनर्जीवित किया जा सके, जिससे अपशिष्ट कचरे में कमी आए और स्वास्थ्य बेहतर हो। यह भी देखा गया है कि स्थानीय पोषणयुक्त भोजन हमेशा ही डब्बाबंद भोजन से बेहतर होता है।

अगले सत्र में ताशी नामगैल, उरूगेन फूनत्सोग और डॉ. सोनम स्पालजिन ने भाग लिया। ताशी नामगैल, स्वयं देशी बीजों और स्थानीय फलों का संरक्षण करते हैं और जैविक उत्पाद की बिक्री करते हैं। उरूगैन फूनत्सोंग, पेशे से पशुपालक हैं, गया गांव के रहनेवाले हैं। डॉ. स्पालजिन, पुरातत्वविद् हैं।

ताशी नामगैल ने बताया कि आज के समय में जौ का महत्व कम होते जा रहा है। इसकी नासनक, किस्म अब लुप्त होती जा रही है, जिसे बचाना आवश्यक है। इसी प्रकार, स्तबास और बानगपे प्रजाति भी कम दिखाई देती है, इसे भी नई पीढ़ी के लोग नहीं जानते।  

भुने जौ और सूखे सेब फल

उरूगेन ने बताया कि पूर्वी लद्दाख में प्रमुख रूप से पशुपालक हैं, जबकि पश्चिमी लद्दाख में खेती करनेवाले किसान हैं।  जौ लद्दाख के सभी क्षेत्रों में होता है और यह धार्मिक व भौगोलिक दूरी दोनों को पाटता है। डॉ. स्पालजिन ने बताया कि जौ, सबसे पहली फसलों में से एक है, जो मनुष्य ने शुरूआत में उगाई थीं। उन्होंने कहा कि नवपाषाण काल में इसकी खेती के पुरातत्वीय प्रमाण मिले हैं।

ओडिशा से आए कृषि वैज्ञानिक डॉ. देबलदेव ने देशी बीज संरक्षण पर अनुभव साझा किए। उन्होंने धान की 1500 किस्सों का संरक्षण किया है। उन्होंने कहा कि किसान व खेती को बचाने के तीन स्तंभ हैं। एक, शून्य लागत, इसमें बीज, खाद व कीटनाशक इत्यादि शामिल हैं। दो, जीन व जैव विविधता जिसमें बीजों की विविधता शामिल है। और तीसरा है स्वावलंबी खेती। 

उन्होंने बताया कि पहले भारत में 1 लाख 10 हजार धान की किस्में थीं, जिनमें से अब 6 हजार शेष हैं। मक्का की मेक्सिको में 22 हजार प्रजाति थीं, जो अब 700 बची हैं। इसी प्रकार, अफगानिस्तान-तुर्की में जौ की 600 प्रजाति थीं, जो अब 32 रह गई हैं। देबलदेव ने बताया कि बीज संस्कृति में बीजों का आदान-प्रदान होता था। लद्दाख में यह परंपरा रही है, पर अब बीज कंपनियां आ गई हैं और वह बीजों का व्यापार करती हैं, मुनाफा कमाती हैं। अगर बीज नहीं हैं तो किसान स्वाधीन नहीं है।

डॉ. त्सेवांग नामगैल ने बताया कि जौ और पौष्टिक अनाज की खेती को किस तरह पुनर्जीवित किया जा सकता है। उन्होंने बताया कि यहां पारंपरिक तौर पर कंगनी (फॉक्सटेल) और बाजरा (प्रोसो) होता रहा है। यहां कुटू (बकव्हीट) की दो प्रजाति होती हैं- इन्हें लद्दाखी में ब्रोनक और ब्रोकर कहा जाता है। उन्होंने बताया कि कम ऊंचाई वाले क्षेत्र जैसे शाम व कारगिल में पौष्टिक अनाज और कुटू की खेती होती है।

डॉ. नामगेल ने बताया कि पहले घर से खेत तक खाद को गधे ढोते थे। बकरी का खाद खेत को उर्वर बनाने के लिए बहुत जरूरी है। कृषि के साथ पशुपालन भी जरूरी है। लेकिन अब खाद्य संप्रभुता नहीं है, ज्यादातर चीजें बाहर जा रही है। सेब, खुबानी स्थानीय लोगों को खाने को नहीं मिलते हैं,बाहर चले जाते हैं।

जापान में रहनेवाले लद्दाखी मूल के स्करमा गुरमेत ने बतलाया कि वे कुटू के नियमित ग्राहक हैं, लद्दाख का कुटू ज्यादा स्वादिष्ट व पौष्टिक हैं, जापान की बनिस्बत। जापान ने लद्दाख में कुटू के उत्पाद को उगानेवाले प्रोजेक्ट को आर्थिक मदद दी है। अधिक ऊंचाई वाले दो गांव साबू और सक्ति में इसकी सफलतापूर्वक खेती की जा रही है। जबकि पारंपरिक रूप से तराई वाले इलाकों में उगाया जाता है।

डॉ. नार्दन ओथज़र ने बतलाया कि पहले लद्दाखियों को ह्दयरोग, मधुमेह, कैंसर आदि बीमारियां नहीं होती थीं। लोग खेतों में उगाया हुआ भोजन करते थे, लेकिन आजकल बाहर से आयातित डब्बाबंद फूड का जमाना है। खान-पान की आदतों में बदलाव के कारण ही ऐसी बीमारियां हो रही हैं। इसलिए खान-पान की आदतों में सुधार करना होगा।

पर्यावरणविद् अशीष कोठारी ने खाद्य सुरक्षा और खाद्य संप्रभुता के अंतर को समझाया। खाद्य सुरक्षा, भोजन की सुनिश्चितता से होती है जबकि खाद्य संप्रभुता भोजन से जुड़े सभी पहलुओं पर स्थानीय समुदाय के नियंत्रण से होती है। बीज, ज़मीन, और पानी इत्यादि सभी पर, और खेती से जुड़े पारंपरिक ज्ञान पर भी किसानों का नियंत्रण जरूरी है।

उन्होंने तेलंगाना का उदाहरण देते हुए बताया कि वहां की दलित महिलाओं ने अन्न स्वराज का अनूठा काम किया है। पहले वहां भुखमरी व कुपोषण था, लेकिन पिछले 3 दशक में तस्वीर बदल गई है। वहां की महिलाओं ने मिलकर 75 गांव में पुराने देसी बीज बचाए हैं, पौष्टिक अनाजों की खेती की है। अब उनके पास बीज बैंक में 75-80 किस्में हैं, जिनमें पौष्टिक अनाज, दाल व अन्य किस्में शामिल हैं। अब वे जरूरतमंदों को मुफ्त राशन और बीज बैंक में बीजों का आदान-प्रदान करती हैं। उनकी खाद्य सुरक्षा है, और अन्न स्वराज भी है। क्योंकि वे बीज, ज़मीन, पानी और पारंपरिक ज्ञान के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं है। इस तरह उन्होंने बिहार के केडिया गांव, नागालैंड के नॉर्थ ईस्ट नेटवर्क, और कर्नाटक के वनस्री का उदाहरण भी दिया, जहां लोगों ने आत्मनिर्भर खेती की ओर कदम बढ़ाया है।

अनुभव साझा करते युवा उद्ममी

भोजन और कृषि उद्यमियों के सत्र में युवा उद्यमियों ने उनके अनुभव साझा किए। इसमें डोलमा, सोनम आंगमो, रिगजेन यांगडोल, त्सेतान दोरजे, और थिनलेस नुरबो ने हिस्सा लिया। इस सत्र में यह बिन्दु उभरकर सामने आया कि सबसे पहले लद्दाखी लोगों की भोजन की जरूरतें पूरी होनी चाहिए, इसके बाद अगर अतिरिक्त अनाज बचता है तो बाहर भेजना चाहिए। लद्दाखी लोगों को छोटे उद्यमियों का सम्मान करना चाहिए, उनको प्रोत्साहित करना चाहिए। 

कार्यक्रम में लोक कलाकारों की भागीदारी आकर्षण का केन्द्र रही। सोनम आंगडस और त्सेरिगं सोनम ने लोकगीत गाए। जंगल और कृषि पर गीतों ने समा बांधा। इन गीतों में भोजन, कृषि और संस्कृति का संबंध बताया। इनमें आसमान, बादल, सूरज, चांद, तारे, ग्लेशियर, झील और वन्यप्राणी, पालतू पशु सभी का समावेश था। कथावाचक मोरूप नामगैल ने केसर सागा की कहानी सुनाई। 

फेस्टिवल के प्रतिभागी

फेस्टिवल में फूड स्टाल, संगीत, फिल्म, फोटो प्रदर्शनी इत्यादि भी शामिल थी। इसके अलावा, यहां लद्दाख के जेप़ो घास से टोकरी बनाना, मिट्टी के खिलौने बनाने की गतिविधियां भी हुईं। टोकरी को यहां लद्दाखी में त्सेपो कहा जाता है।

टोकरी बनानेवाले नोरबू ने कहा कि नई पीढ़ी की टोकरी बनाने में ज्यादा रूचि नहीं है। मुख्य बाजारों में उन्हें टोकरी बेचने के लिए जगह भी नहीं मिलती है। मिट्टी के बर्तन, खेती से जुड़े हैं, क्योंकि मिट्टी के बर्तनों में अनाज का भंडारण किया जाता है। यहां लोगों ने घास से टोकरी बनाना भी सीखा।

कुल मिलाकर, इस पूरी पहल ने जौ, कुटू, बाजरा व पौष्टिक अनाजों जैसी पारंपरिक खेती की ओर ध्यान खींचा है। इस आयोजन में युवा सामाजिक कार्यकर्ता व युवा उद्यमियों की भागीदारी व सक्रियता ने भी आशा जगाई है। महिला समूहों ने न केवल पारंपरिक खान-पान को जरूरी बताया बल्कि उन्होंने लद्दाखी भोजन के कई व्यंजन बनाए व सिखाए भी। यहां देसी बीजों के संरक्षण व संवर्धन पर न केवल जोर दिया गया, बल्कि कुछ ऐसे किसान भी आए, जो यह काम बरसों से कर रहे हैं। इस तरह के आयोजनों ने लद्दाख में बढ़ रहे पर्यटन को भी एक नई राह दिखाई है, जिसमें स्थानीय खान-पान के साथ वैकल्पिक जीवनशैली शामिल है, लद्दाख में चूंकि अभी बड़े पैमाने पर पर्यटन की शुरूआत है, इसलिए ऐसे कार्यक्रमों से सुरक्षित पर्यावरण की ओर बढ़ा जा सकता है, जिसमें जैविक खान-पान, स्थानीय समुदायो की सहभागिता, उनकी आजीविका और लद्दाखी श्रम संस्कृति सभी का संरक्षण व संवर्धन संभव है। यह पूरी पहल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है। 

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