झारखंड में छोटे बच्चों के लिए अनूठी पहल (In Hindi)

By बाबा मायारामonJun. 02, 2023in Knowledge and Media

(Jharkhand Mein Chhote Bacchon Ke Liye Anoothi Pahal)

विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)

बच्चों के पोषण व सेहत का कार्यक्रम है बा बागान, जो 3 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए झूलाघर है, वे वहां रहते हैं, खाते हैं, खेलते हैं, वहीं उनके माता-पिता भी उन्हें यहां छोड़कर अपने काम कर रहे हैं

फोटो क्रेडिट – विनीत मोहांतो व डेबाय हेम्ब्राम

गोल घेरे में एक दूसरे का हाथ पकड़कर नन्हें बच्चे गोल चक्कर घूम रहे हैं। घोर-घोर रानी, इत्ता-इत्ता पानी बोल-बोलकर खेल रहे हैं। यह न आंगनबाड़ी है और न ही स्कूल है, यह एक झूलाघर है, जहां 3 साल से कम उम्र के बच्चे खेलते हैं, गाते हैं, नाचते हैं, खाते हैं, सोते हैं और गतिविधियां कर सीखते हैं। यह झारखंड के पश्चिम सिंहभूम जिले का मूरहातु गांव है, इस झूलाघर को यहां बा बागान के नाम से जाना जाता है।

बा बागान का अर्थ फूलों की बगिया होता है। यह एक झूलाघर का कार्यक्रम है, जिसमें 3 साल के कम उम्र के बच्चों के पोषण व अच्छी सेहत पर जोर दिया जाता है। इसे एकजुट संस्था द्वारा संचालित किया जा रहा है। इस कार्यक्रम की शुरूआत वर्ष 2012 में हुई थी। एकजुट संस्था, एक गैर सरकारी संस्था है, जो पिछले 20 सालों से झारखंड, ओडिशा व राजस्थान में कार्यरत है। संस्था स्वास्थ्य, मातृ व शिशु पोषण व मानसिक स्वास्थ्य, जैविक खेती इत्यादि कार्यक्रमों को संचालित कर रही है।

पश्चिमी सिंहभूम आदिवासी बहुल क्षेत्र है। यहां ‘हो’ आदिवासियों की आबादी अधिक है। इस इलाके की आजीविका खेती-किसानी, पशुपालन व जंगल पर निर्भर है। गरीबी व अभाव के कारण यहां के लोगों को पलायन भी करना पड़ता है। घर के सभी सदस्य या तो खेतों में काम करते हैं, या जिन दिनों खेतों में काम नहीं होता है, मजदूरी करते हैं। महिलाएं घरों में चटाई, झाड़ू, बागान व खेती के कामों में हाथ बंटाती हैं। घर की साफ-सफाई व रसोई का काम तो उनके ज़िम्मे होता ही है। अधिकांश घरों में बच्चों के अभिभावक माता-पिता दोनों कामकाजी हैं, ऐसे में बा बागान की ज़रूरत व महत्व बढ़ जाता है, क्योंकि बच्चों के माता-पिता बा बागानों में उन्हें छोड़कर काम पर चले जाते हैं।

मुरहातु बा बागान

पिछले दिनों में मुझे इन झूलाघरों को देखने का कई बार मौका मिला। चुरमुई, टापकोचा, मुरहातु और नारंगाबेड़ा जैसे कुछ बा बागानों का दौरा किया। यहां मैं इनके संचालकों से मिला, कार्यकर्ताओं, पर्यवेक्षकों और चिकित्सकों से बात की। यह झूलाघर साफ-सुथरे हैं और इनकी दीवारों में बहुत अच्छे चित्र बने हैं। प्यासा कौआ, कछुआ,खरगोश, बिल्ली और बंदर जैसी चित्र कहानियां चित्रित हैं। इसके अलावा, बागान (किचिन गार्डन) हैं, जिनकी ताज़ी सब्जियां बच्चों के भोजन में शामिल की जाती हैं। 

एकजुट संस्था के शिवानंद रथ बतलाते हैं कि बच्चे के विकास के लिए पहले 1000 दिन सबसे महत्वपूर्ण होते हैं, इस दौरान उन्हें अच्छा पोषण मिलना ज़रूरी है। इनमें गर्भवती महिला के 270 दिन और दो साल के 730 दिन मिलाकर 1000 दिन शामिल होते हैं। जबकि इस अवधि के बच्चों के लिए पोषण का सरकारी कार्यक्रम नहीं है। इसी ज़रूरत के मद्देनजर हमने बा बागान शुरू किए गए हैं। यह झारखंड व ओडिशा में चल रहे हैं। झारखंड के पश्चिम सिंहभूम जिले के खुंटपानी व चक्रधरपुर प्रखंड में 12 बा बागान हैं, जिसमें क्रमशः 7 और 5 बा बागान हैं। जबकि ओडिशा के क्योंझर जिले में 72 बा बागान चल रहे हैं। हर बा बागान में 2 महिला कार्यकर्ता (दीदी) होती हैं। और हर संकुल में एक सुपरवाइजर नियुक्त किया जाता है।

भोजन करते बच्चे

एकजुट की डॉ. धनश्री बताती हैं कि 6 माह से 3 साल के बच्चों की सुऱक्षा, अच्छा स्वास्थ्य, खान-पान, खेलकूद और प्रतिक्रियात्मक देखभाल जरूरी है। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन भी मानता है। इस अवधि के बच्चों के पोषण के लिए गरम, पतला, मुलायम व स्वादिष्ट भोजन की जरूरत होती है। बा बागान में खिचड़ी, सत्तू व सूजी भी खिलाई जाती है। सुबह नाश्ता, दोपहर में भोजन और शाम को छुट्टी होने से पहले पुनः नाश्ता दिया जाता है। हफ्ते में 5 दिन अंडा भी दिया जाता है। आयरन सीरप भी दिया जाता है। इसके अलावा, हर 6 महीने में आंगनबाड़ी की ओर से कृमि की दवा भी दी जाती है।

डॉ. धनश्री ने बताया कि एक बा बागान एक केन्द्र में 15 से 20 बच्चे होते हैं। उनकी देखभाल के लिए दो एकजुट कार्यकर्ता (कार्यकर्ता दीदी) होती हैं। उनकी समान जिम्मेदारी होती है। कार्यकर्ता चयन की प्रक्रिया गांव के समुदाय के साथ मिलकर होती है। इसमें ग्रामीणों के साथ गांव के मुंडा, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता व सहिया दीदी भी शामिल होती हैं। इन सबकी सहमति व सहभागिता से कार्यकर्ता का चयन किया जाता है। इन कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण होता है, जिसमें नए कार्यकर्ताओं को पुराने चल रहे केन्द्रों के कामकाज देखना भी शामिल है। इन केन्द्रों में पोषण, स्वच्छता, बच्चों की देखभाल व उनके शारीरिक व मानसिक विकास पर जोर दिया जाता है। 

वे आगे बतलाती हैं कि बच्चों का ग्रोथ निगरानी चार्ट बनाया जाता है जिसमें हर माह बच्चों का वज़न लिया जाता है। दो माह में ऊंचाई नापी जाती है। उम्र के हिसाब से वज़न, ऊंचाई के हिसाब से वज़न, उम्र के हिसाब से नाटापन इत्यादि के आधार पर बच्चों को कुपोषण व गंभीर कुपोषण जैसी श्रेणियों में विभक्त कर उनकी सेहत बेहतर करने पर ध्यान दिया जाता है। अगर कोई बच्चा बीमार होता है तो बुखार, डायरिया जैसी मामूली बीमारियों की दवाएं केन्द्र में उपलब्ध होती हैं। जरूरत पड़ने पर डॉक्टर भी जाकर देखते हैं, लेकिन अधिकांश बार नजदीकी शासकीय प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में बच्चे का इलाज करवाया जाता है। स्वास्थ्य विभाग के साथ एकजुट संस्था कुछ अन्य स्वास्थ्य कार्यक्रम पर भी मिलकर काम करती है।

खेल गतिविधि

इन केन्द्रों को प्लास्टिक मुक्त व धुआंरहित रखा गया है, जिससे बच्चों की सेहत पर किसी प्रकार का विपरीत प्रभाव न पड़े। स्वच्छता का विशेष ख्याल रखा जाता है। बच्चे साबुन से हाथ धोते हैं, चम्मच से खाते हैं और इस दौरान कार्यकर्ता दीदी न केवल मौजूद रहती हैं, बल्कि उन्हें खाना खिलाने में मदद करती हैं। यहां बच्चों के लिए निर्धारित समय सारणी का पालन किया जाता है, जिसमें खाना, खेलना, सोने का समय भी तय है। 

कार्यक्रम के सुपरवाइजर डेवाय हेम्ब्राम ने बताया कि केन्द्रों के आसपास बागान को लगाया जाता है, जिसमें तरह-तरह के फल, फूल, हरी पत्तीदार सब्जियां लगाई जाती हैं। फलदार पेड़ों को भी लगाने पर जोर दिया जाता है। इसके तहत् भिंडी, लाल भाजी, मूली, लौकी, गिलकी, पालक, पपीता, केला, मुनगा, नींबू, अमरूद इत्यादि लगाया जाता है। इसके अलावा, जंगल से मिलनेवाले ( गैर खेती भोजन) पौष्टिक फल, मशरूम, पत्तीदार सब्जियों के बारे में बताया जाता है।

टापकोचा गांव की बा बागान की कार्यकर्ता सुकरमुनि बताती हैं कि वर्ष 2012 से उनके गांव में बा बागान है। अभी उनके केन्द्र में 22 बच्चे हैं। इनमें आधे लड़के और आधी लड़कियां हैं। वे रोज सुबह 8.30 बजे आते हैं और शाम 4.30 बजे जाते हैं। बच्चों के अभिभावक उन्हें छोड़कर जाते हैं और वे ही ले जाते हैं। उन्होंने खुद बच्चों के लिए गीत बनाए हैं, उनकी सहयोगी रानी बोदरा ने इस केन्द्र के लिए जमीन दान में दी है, जिससे बा बागान का भवन बन गया है।

खेल खेलते बच्चे

चुरमुई की कार्यकर्ता सरस्वती जामुदा व पांगेला जामुदा ने बा बागान में पूरे दिन के काम गिनाए। जिसमें साफ-सफाई, नाश्ता बनाना, दोपहर भोजन बनाना व बच्चों को खिलाना और गतिविधियां करवाना इत्यादि शामिल हैं। स्थानीय हो भाषा में खेलगीत, कहानियां व लोरियां भी सुनाई जाती हैं। उन्होंने बताया कि शुरू-शुरू में उन्हें बच्चों को संभालने में दिक्कत हो रही थी, पर अब तो आदत हो गई है। बच्चों से हिल-मिल गई हैं, अब उनके बिना घर पर भी अच्छा नहीं लगता।

मूरहातु की कार्यकर्ता रानी कुई व हीरामुनि देवगम ने बताया कि उनके केन्द्र में ऐसे बच्चे भी हैं, जिनके पिता रोजी-रोटी की तलाश में पलायन कर गए हैं, माता को बच्चे संभालने में दिक्कत नहीं होती, क्योंकि वे बा बागान में बच्चे छोड़कर काम करने चली जाती हैं। चुरमुई की पांगेला जामुदा के पति भी पलायन कर पूना गए हैं, जबकि उनकी छोटी बेटी सिद्यू बा बागान में जाती है। पांगेला, सहिया दीदी का काम करती हैं, इस वजह से उन्हें गर्भवती मांओं की देखभाल करने व प्रशिक्षण लेने ज्यादातर बाहर रहना पड़ता है। वे कहती हैं कि अगर बा बागान न होता तो उन्हें बड़ी दिक्कत होती। इसी प्रकार, सुरू चम्पिया की भी कहानी है, उनके पति व सास रोजी-रोटी की तलाश में अहमदाबाद गए हैं। उनकी ढाई साल की बेटी बा बागान में जाती हैं, तब वे खेती का काम कर पाती हैं।

कार्यकर्ता दीदी रानी कुई व हिरामनी देवगन व बतलाती हैं कि हम बच्चों को कई तरह की गतिविधियां करवाते हैं। जैसे खेलगीत घोर-घोर रानी, छुक-छुक रेलगाड़ी, गेंद को एक-दूसरे बच्चे को देना, पिट्ठू से गेंद को गिराना, लाइन लगाकर धान को सुखाने का नाटक करना इत्यादि। इन सबसे बच्चों को मज़ा तो आता ही है, वे सीखते भी हैं।

डेवाय हेम्ब्राम ने बताया कि कई बार बच्चों के माता-पिता दोनों भी पलायन कर जाते हैं, पर हम उनके नाम रजिस्टर से नहीं काटते। क्योंकि वे वापस आकर फिर से उनके बच्चों को बा बागान में भेज सकते हैं, ऐसे भी कई परिवार हैं, जो पहले पलायन को चले गए थे, और कुछ समय में वापस आ गए। उन्होंने बताया कि हम हर माह अभिभावकों की बैठक भी करते हैं। ऐसी एक बैठक में नारंगाबेड़ा में मुझे जाने का मौका मिला। इस बैठक में बच्चों की माएं आईं थीं, यहां उनकी घर में सुरक्षा, देखभाल, खान-पान पर चर्चा हुई। इसके अलावा, बच्चों की तबीयत खराब होने पर शासकीय प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र व अति कुपोषित होने पर कुपोषण उपचार केंद्र ले जाने की सलाह दी गई।

डॉ. धनश्री व शिवानंद रथ ने बताया कि इस पूरी पहल के कारण बच्चों को अच्छा पोषण मिल रहा है, उनका मानसिक व शारीरिक विकास हो रहा है। बच्चों के माता-पिता मजदूरी कर पा रहे हैं। इससे उनकी खेती-बाड़ी भी संभल गई है, आमदनी भी बढ़ गई है। इसके अलावा, छोटे बच्चों को अकसर उनके भाई-बहन संभालते थे, जिस कारण वे स्कूल भी नहीं जा पाते थे। इन केन्द्रों के कारण वे भी स्कूल में पढ़ पा रहे हैं। इसका एक असर यह हुआ है कि ओडिशा राज्य के क्योंझर और सुंदरगढ़ जिला प्रशासन ने डिस्ट्रिक मिनरल फाउंडेशन ट्रस्ट ( डीएमएफटी) के माध्यम से वर्ष 2018 में 30 केन्द्र शुरू किए, जिनकी संख्या अब 72 हो गई है। और जल्द ही ये बढ़कर 233 होनेवाले हैं।

वे आगे बतलाते हैं कि इन केन्द्रों के बच्चे काफी चंचल होते हैं। मूरहातु गांव के एक व्यक्ति की नातिन जो घर में गुमसुम रहती थी, बा बागान में आकर खेलने और बोलने लगी। बच्चों के संग घुल मिल गई। इस तरह के और भी उदाहरण सामने आए हैं।

कुल मिलाकर, यह बच्चों के पोषण व सेहत का ऐसा अनूठा कार्यक्रम है, जिससे मजदूर माता-पिता को राहत मिली है। वे उनकी खेती-बाड़ी कर पा रहे हैं, उनकी आमदनी बढ़ रही है। सब्जियों के बागान से गांवों में भी इसका अनुसरण किया जा रहा है, जिससे उन्हें पोषण व हरी पत्तीदार सब्जियां मिल रही हैं। रोग का ही नहीं, रोगों की रोकथाम का काम हो रहा है। प्लास्टिक व धुआंरहित चूल्हे के प्रयोग से पर्यावरण के प्रति जागरूकता भी आई है। यह महिला सशक्तीकरण भी अच्छा उदाहरण है।

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