गोंड गांवों में सीढ़ीनुमा खेती की स्वीकृति की कहानी (in Hindi)

By भावना बिष्ट (अनुवाद)onAug. 31, 2021in Economics and Technologies

विकल्प संगम के लिये अनुवादित किया गया विशेष लेख  (SPECIALLY TRANSLATED FOR VIKALP SANGAM)

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ज़िला पदाधिकारी चटनिहा गांव के सीढ़ीनुमा खेतों का दौरा करते हुए

मध्य प्रदेश में सिंगरौली जिले के चटनिहा गांव में दौरे के दौरान, रामकली और मुन्नी ने बताया कि किस तरह जुताई और बारिश के कारण उनकी ज़मीनों की उर्वरकता पर बुरा असर पड़ रहा है। दौरे के बाद की गई बैठक में यही मुद्दा बुधनी, सुग्मन्ति और बिट्टी पनिका जैसे अन्य गांव वालों द्वारा भी उठाया गया।

गांव का दौरा करते समय हमने हर तरफ़ पथरीली बंजर ज़मीनें देखीं। जब हमने बैठक में गांववालों से पूछा, “खेत की मिट्टी कहाँ गई?”, तब हमेशा की तरह मुन्नी अपने मज़ाकिया अंदाज़ में बोली, “मेरे खेत की मिट्टी तो शांति दीदी के पास है”। मुन्नी के खेत पहाड़ी के ऊपर की तरफ़ हैं। उसका परिवार हर साल खेती के लिए अपनी ज़मीन की जुताई करता है, लेकिन बारिश की वजह से पानी के साथ मुन्नी के खेतों की सारी उर्वरक मिट्टी बह कर नीचे घाटी में शांति के खेतों में जमा हो जाती थी।

प्रदान, अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय (एपीयू) और मध्य भारत के तीन गांवों की ग्रामीण समिति ने साथ मिलकर ‘अडैप्टिव स्किलिंग थ्रू एक्शन रिसर्च’ (‘असर’/एएसएआर) नाम से एक शोध की शुरुआत की। चटनिहा के लोगों के इस शोध से जुड़ने के बाद वहाँ मिट्टी के अपरदन, मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने और फ़सल उत्पादन को बढाने से संबंधित कई चर्चाएं हुईं। अंततः शोध करने वाली पूरी टीम मृदा अपरदन का सामना कर रहे चटनिहा वासियों के लिए एक बहुत अच्छा समाधान लेकर आई।

चटनिहा का इतिहास

चटनिहा, मध्य प्रदेश में सिंगरौली जिले के देवसर ब्लॉक का एक गांव है। यहाँ की कुल आबादी का 90% हिस्सा गोंड समुदाय से है। गोंड समुदाय के लोग लगभग अस्सी से सौ सालों पहले यहाँ आकर बस गए थे। बाद में, 1950 के दशक में, रिहंद बांध के निर्माण के समय कुछ और गोंड परिवारों को भी यहाँ लाकर बसा दिया गया था। देओसर का यह भू-भाग काफ़ी उबड़-खाबड़ है। इसके तीस प्रतिशत से ज़्यादा भाग पर खड़ी ढ़लानों वाली छोटी पहाड़ियाँ हैं जिनके बीच से पानी की पतली-पतली धाराएं बहती हैं। तथापि, उस क्षेत्र में रह रहे गोंड समुदाय के लोगों ने पुश्ते/बांध बना कर इन धाराओं को धान के खेतों में परिवर्तित कर दिया और अपने खाने के लिए यहाँ चावल उगाने लगे। इन पहाड़ी ढ़लानों पर वे कोदो और कुटकी की खेती भी किया करते थे।

शांति और अन्य ग्रामवासियों के अनुसार, साठ के दशक के मध्य में कुछ ऊँची जाति (ब्राह्मण) के परिवार यहाँ आकर बसने लगे थे। धीरे-धीरे इन ऊँची जाति के लोगों ने विभिन्न प्रशासनिक स्तरों पर अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर, गोंड समुदाय द्वारा पुश्ते/बांध बना कर परिवर्तित किए गए उन धान के खेतों पर खुद कब्ज़ा कर लिया। उसके बाद गोंड समुदाय के पास खेती के लिए केवल पहाड़ी ढ़लानें ही बची थीं। खड़ी ढ़लानों पर ज़्यादा जुताई के कारण मिट्टी की ऊपरी सतह ढ़ीली हो गई जिससे मिट्टी का अपरदन होने लगा। दस-पंद्रह साल खेती करने के बाद उन ढ़लानों पर कंकड़-पत्थर के अलावा और कुछ भी नहीं बचा और वह ज़मीनें खेती करने लायक नहीं बचीं। ग्रामवासियों को अपने गुज़ारे के लिए नए खेतों की तलाश करनी पड़ी।

ग्रामवासियों के साथ बातचीत से पता चला कि वे खड़ी/ऊँची ढ़लानों वाले खेतों पर जुताई के हानिकारक प्रभावों के बारे में अच्छी तरह जानते थे। खेती करने लायक और कोई ज़मीन न होने के कारण उनके पास उन्हीं ढ़लानों पर जुताई कर खेती करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था। एक ग्रामवासी, इन्द्रभान सिंह ने बैठक में कहा, “पहले तो बचना पड़ेगा, उसके बाद भविष्य का सोचना पड़ेगा। आप बताओ हम क्या करें? खेती नहीं करेंगे तो खायेंगे कैसे?”। वहाँ मौजूद लोगों में से किसी के पास इस बात का जवाब नहीं था।

चट्टानें और मिट्टी

अपने कार्यालय, प्रदान में हमने मध्य भारत पठार (सीआईपी) में चटनिहा गांव जैसी समान भौगोलिक स्थिति वाले क्षेत्रों में मृदा अपरदन से बचाव के तरीके ढूंढ़ने के लिए सभी संभावित स्रोतों से जानकारी ली। बचाव के रूप में हमें पौधारोपण/वृक्षारोपण और चारागाह जैसे विकल्प मिले। फिर हमारे ही एक साथी द्वारा सीढ़ीनुमा खेती का विकल्प सुझाया गया, जो कि देश के अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में भी प्रचलित है।

चटनिहा गांव के किसान मिलकर सीढ़ीनुमा खेत तैयार करते हुए

हमने चटनिहा की चट्टानी ढ़लानों पर सीढ़ीनुमा खेती की व्यावहारिकता का अनुमान लगाना शुरू कर दिया। इस पर काफ़ी हिसाब-किताब करने के बाद हमने पाया कि इससे संभावित लाभ की तुलना में इसके निर्माण की लागत बहुत अधिक होगी। हम सीढ़ीनुमा की हर सीढ़ी के लिए आधे मीटर से भी कम ऊँचाई वाली पतली पट्टी बनाने के लिए सोच रहे थे। ज़्यादा ऊँचाई वाली चौड़ी पट्टियाँ तेज़ बारिश के दौरान ढ़ह सकती हैं। लेकिन इससे बैलों की मदद से हल चलाना असंभव हो जाएगा। बैल इतनी पतली पट्टियों पर चल नहीं पाएंगे। अगर हम चौड़ी पट्टी बनाते हैं, तो दो पट्टियों के बीच की ऊँचाई ज़्यादा हो जाएगी और बैल एक पट्टी से दूसरी पट्टी तक नहीं चढ़ पाएंगे। यह विकल्प चटनिहा के छोटे और सीमान्त किसानों के लिए बेमेल था इसीलिए हमने इस विकल्प को लगभग छोड़ ही दिया था।

सर्रा से मिला समाधान

देओसर कार्यालय के हमारे एक सहयोगी ने हमें बताया कि हमारी ही संस्था के किसी सहयोगी के पिताजी, जो कि हिमाचल प्रदेश के एक किसान हैं, उन्होंने देओसर के सर्रा गांव के कुछ किसानों को सीढ़ीनुमा खेती करना सिखाया है। यह देखने के लिए हम फटाफट सर्रा गांव पहुँचे। सर्रा गांव के तीन किसानों ने, चटनिहा जैसे ढ़लान वाले अपने खेतों में हिमाचल प्रदेश के उस किसान के मार्गदर्शन के साथ सीढ़ीनुमा खेत बनाए हुए थे। यह देख कर हम दंग रह गए। इन सीढ़ियों के खड़े भाग में घास लगाई गयी थी। सीढ़ीनुमा खेत बनाने के बाद उनपर खेती करने का यह उनका चौथा साल था और अब तक उनकी भूमि का यह भाग पहले साल की तरह ही स्थिर था।

सर्रा के एक किसान, रामस्वरूप जी ने कहा कि सीढ़ीनुमा खेती करने से उनकी फ़सल का उत्पादन कई गुना बढ़ गया। मिट्टी की गुणवत्ता भी बेहतर हो गई। इससे हमें उम्मीद की एक किरण मिली और फिर हमने चटनिहा के लोगों को यह दिखाने के लिए, उनके लिए सर्रा गांव के दौरे की व्यवस्था की।

प्रेरणा और उसका अनुकरण
सर्रा के दौरे के बाद की बैठकों में चटनिहा के लोगों ने अपनी ज़मीन के कुछ भागों में सीढ़ीनुमा खेती का प्रयोग करने के लिए चर्चा की। उन्होंने उन चीज़ों के बारे में भी चर्चा की जिनमें उनके अनुसार बदलाव करने की आवश्यकता थी।

उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

1. सीढ़ियों की पट्टियां बहुत पतली नहीं होनी चाहिए। वे कम से कम इतनी चौड़ी होनी चाहिए कि उनमें जुताई के लिए बैल आराम से चल सकें।
2. सीढ़ियों की ऊँचाई इतनी होनी चाहिए कि उनमें बैल जुताई के दौरान आराम से चढ़ या उतर सकें।
3. किसी भी सीढ़ी की मिट्टी की ऊपरी परत/उर्वरक परत बर्बाद नहीं होनी चाहिए।
4. सीढियां स्थिर होनी चाहिए।
5. सरकार की ओर से वित्तीय सहायता (पैसे की सहायता) की कमी में सामुदायिक रूप से साथ में खेती करना ही नियम होगा।

चौड़ी पट्टियों का मतलब था पट्टियों के बीच की ऊँचाई का अधिक होना, इसलिए पहले दो मुद्दों का हल करना मुश्किल था। ज़्यादा ऊँचाई वाली पट्टियां बैलों के चढ़ने-उतरने में भी समस्या पैदा करती हैं, साथ ही उनकी लागत भी अधिक है। काफ़ी हिसाब-किताब और विचार-विमर्श के बाद गांव वालों ने पट्टियों की लंबाई और चौड़ाई तय करके उसपर प्रयोग करने का फैसला किया। उन्होंने चौड़ी पट्टियों का चयन किया जिससे बैल और हल की मदद से खेत में जुताई करने में परेशानी न हो। दो पट्टियों के बीच की ऊँचाई लगभग एक मीटर रखी गई। बैलों के एक पट्टी से दूसरी पट्टी तक आसानी से पहुँच पाने के लिए गांव वालों ने एक उपाय खोजा। उन्होंने हर सीढ़ी की एक तरफ़ एक छोटी-सी गली (ramp) बनाया जिसपर से बैल जुताई के लिए आसानी से एक पट्टी से दूसरी पट्टी में चढ़ या उतर सकते थे।

गांव में पत्थरों की कोई कमी नहीं थी इसलिए गांव वालों ने सीढ़ियों की स्थिरता बनाए रखने के लिए हर सीढ़ी पर पत्थर डालने का फैसला किया। साथ ही, उन्होंने खेतों को मृदा अपरदन से बचाने के लिए उनमें घास और सीसल लगाने की संभावना के बारे में पता किया। चूंकि यहाँ के खेतों में उर्वरक मिट्टी की बहुत पतली परत है, इसलिए उन्होंने सीढ़ियाँ बनाने से पहले मिट्टी की उस परत को खोदकर खेत में कहीं अलग से रखने का फैसला किया। सीढ़ीनुमा खेत बन जाने के बाद अलग से रखी उस उर्वरक मिट्टी को खेत की हर पट्टी में फैला दिया गया।

पहाड़ी ढलान पर खेती के लिए तैयार सीढ़ीनुमा खेत

रामदुलारे और उनकी पत्नी लालवा अपने खेतों में यह प्रयोग करने के लिए सबसे पहले आगे आए। उनकी देखा-देखी सुग्मन्ति और फुलकारी भी आगे बढ़े। अलग-अलग आयु और लिंग के लगभग तेरह लोगों ने मिल कर दो दिनों में रामदुलारे के खेत में चार पट्टियां बनाईं।

अंततः इस साल (2020) मानसून से पहले चटनिहा में सीढ़ीनुमा खेती ज़मीन के तीन भागों में (दो एकड़ में) की गई थी। यह सीढ़ीनुमा खेती करने का एक विषय-विशेष तरीका है। इस कार्य के लिए गांव वालों ने अपने ही पैसे और श्रम का निवेश किया। प्रदान की टीम और चटनिहा के लोगों ने सीढ़ीनुमा खेती के इस तरीके को बेहतर ढंग से और जल्दी लागू करने के लिए अलग-अलग सरकारी योजनाओं से पैसे जुटाने की संभावनाओं के बारे में पता लगाया।

जिला अधिकारियों ने चटनिहा का दौरा किया और गांव में सीढ़ीनुमा खेती के काम करने को लेकर आश्वस्त हो गए। उन्होंने इस कार्य को मनरेगा के अंतर्गत शामिल कर लिया। अब सीढ़ीनुमा खेती जिले के अन्य गांवों में भी की जाती है। आसपास के गांवों की पांच पंचायतों की पंद्रह एकड़ ज़मीन पर लगभग पच्चीस

सीढ़ीनुमा ढांचे ऐसे हैं, जो या तो तैयार हो चुके हैं या बनाए जा रहे हैं।

वैश्विक महामारी कोविड-19 की वजह से यह योजना काफ़ी प्रभावित हुई है। फिर भी, गांव वालों को यह उम्मीद है कि खेती का यह प्रकार से मृदा अपरदन की समस्या का समाधान करेगा और इससे मिट्टी की उर्वरता भी लम्बे समय तक बनी रहेगी। कृषि योग्य भूमि जितनी ज़्यादा होगी, उतनी ही ज़्यादा सब्जियां और अनाज उगाया जा सकता है, जिससे खाद्य पर्याप्तता, पोषण और आय में स्थिरता आएगी।

Original article by Parijat Ghosh, Dibyendu Chaudhuri and Jostine A.

Contact the first author of the original, who is a researcher with Pradan

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