आत्मनिर्भरता की मिसाल है पहाड़ी खेती (in Hindi)

By बाबा मायारामonFeb. 01, 2021in Food and Water

विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)

“मैं अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए खेती करती हूं। महामारी के दौरान हम पर  इसका बहुत प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि हमारा खुद का घर है, धान के खेत हैं, और झूम खेती है। इन सब संसाधनों से हमारे परिवार की जरूरतें पूरी हो जाती हैं। हम खेतों में विविध फसलें उगाते हैं और इससे हमें पूरे साल भर भोजन मिलता है। हमें जंगल से कई तरह के कंद-मूल व खाद्य मिलते हैं। हमारे समुदाय के अन्य किसान भी खेती करते हैं। हम आपस में प्यार करते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं। अकाल, महामारी, बीमारी, संघर्ष और युद्ध आदि सभी का हम सामना करने के लिए तैयार रहते हैं।” यह नागालैंड की महिला किसान मेसीलहीय अकामी थीं, जो फेंक जिले के चिजामी गांव में रहती हैं।

खेत में काम करती महिला किसान

कोविड-19 के बाद तालाबंदी के दौरान नागालैंड में आत्मनिर्भर पहाड़ी खेती ने लोगों को भूख से बचाया, जिसमें महिला किसानों की प्रमुख भूमिका है। वे विविध मिश्रित फसलों की खेती करती हैं। यहां कार्यरत नार्थ ईस्ट नेटवर्क (एन.ई.एन) नामक संस्था ने परंपरागत देसी बीजों की जैविक खेती की पहल की है, जो 90 के दशक तक आते आते कम हो रही थी। उनकी मेहनत अब रंग लाने लगी है।

कोविड-19 के दौराऩ इस संस्था ने कई स्तरों पर पहल की। इस महामारी के बारे में जागरूकता कार्यक्रम चलाया। महिला कार्यकर्ताओं ने घर-घर जाकर लोगों को इसकी जानकारी दी, उनके साथ सहभागिता व एकजुटता जताई, और उनकी मदद की। जरूरतमंद लोगों तक राशन सामग्री पहुंचाई। शहरों से लौटे युवाओं को खेती से जोड़ा, उन्हें उसका प्रशिक्षण दिया। इस महामारी के दौरान सभी को टिकाऊ खेती व पर्यावरण रक्षक खेती के महत्व को पहचाना और इसे आगे बढ़ाने की सोच बनी।

कोविड-19 में राहत वितरण की तैयारी  

विकल्प संगम द्वारा आयोजित विकल्प वार्ता में नार्थ ईस्ट नेटवर्क ( एन.ई.एन.) की सदस्य अकोले, सेनो और डा. मोनिशा बहल ने हिस्सा लिया। इस महामारी के दौरान एन.ई.एन. की पहल को विस्तार से बताया। आगे बढ़ने से पहले यह बताना भी उचित होगा कि यह संस्था 1995 से तीन राज्यों- असम, मेघालय और नागालैंड में कार्यरत है। इसने परंपरागत खेती की वापसी के साथ कई और मुद्दों पर भी काम किया है। महिला स्वास्थ्य, महिला अधिकार, आजीविका, सुशासन, प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन, मानव अधिकार और शांति के मुद्दों पर काम करती है। एनईएन ने स्थानीय समुदायों को जैव विविधता संरक्षण, टिकाऊ खेती और खाद्य संप्रभुता पर जागरूक किया है। सिलाई, कढ़ाई, बुनाई का भी काम किया है। नागा पोशाकों की विशेष हथकरघे पर बुनकरी का काम हुआ है, जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हुई हैं। हालांकि यहां आजीविका का प्रमुख स्रोत खेती है, बुनकरी पूरक आय बढ़ाने में सहायक होती है।

एन.ई.एन. संस्था से जुड़ी अकोले बताती हैं कि कोविड-19 का असर मुख्य रूप से तीन तरह से देखा जा सकता है। एक आजीविका पर, दो, खाद्य सुरक्षा पर, और तीन, स्वास्थ्य, स्वच्छता और साफ-सफाई पर। वे आगे बताती हैं कि इससे दिहाड़ी मजदूर, शहरी गरीब, रेहड़ी पटरीवाले, सब्जी विक्रेता आदि सभी की आजीविका पर असर पड़ा है। इन सबने आजीविका खोई और आमदनी गंवाई।

यहां के किसान उनके परिवार और समुदाय के लिए अनाज उगाते हैं, बाजार के लिए नहीं। लेकिन जिनकी बाजार पर उनके अतिरिक्त उत्पाद बेचने की निर्भरता है, वे इस दौरान ज्यादा प्रभावित हुए। क्योंकि आवाजाही पर रोक थी, और यातायात के लिए आने-जाने के लिए साधन उपलब्ध नहीं थे, बाजार बंद थे।

फेंक गांव के युवा राहत काम में मदद करते हुए

अकोले बताती हैं कि नागालैंड में हमसे जुड़े बुनकर भी इससे प्रभावित हुए। वे न तो कुछ बेच पाएं और न ही कुछ नया बना पाए। क्योंकि उनके पास कच्चा माल भी नहीं था। कुल मिलाकर, दस्तकार, रेहड़ी फेरीवाले, सब्जी विक्रेता सभी प्रभावित हुए।

वे आगे बताती हैं कि नागालैंड में स्वास्य्य सुविधाओं की कमी है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, स्वच्छता और साफ-सफाई के मामले में अच्छी स्थिति नहीं है। हम जिन 28 गांवों में काम करते हैं, वहां भी स्वच्छता और साफ-सफाई की स्थिति अच्छी नहीं है। लोगों का व्यवहार और सोच में बदलाव लाना एक चुनौती है। इस प्रकार, महामारी का आजीविका, खाद्य सुरक्षा और स्वच्छता व साफ सफाई पर प्रभाव पड़ा।

लेकिन इस सबके बीच एनईएन व अन्य संस्थाओं की पहल से महिलाओं की सामूहिक पहल ने स्थिति को सामान्य बनाने में मदद की है। अकोले व सेनो ने बताया कि सबसे पहले हमने अलग-अलग इलाकों में कुछ महिला कार्यकर्ताओं की पहचान की, युवा स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं को भी  जोड़ा। जागरूकता कार्यक्रम चलाया। कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण किया। लोगों की मदद के लिए उन्हें घर-घर तक पहुंचाया। इस मुहिम में सिर्फ कोविड-19 के बारे में ही नहीं बल्कि किस तरह स्वस्थ रहें, किस तरह स्वच्छता व साफ सफाई का ख्याल रखें, और किस तरह पोषक तत्वों से युक्त भोजन करें, वन क्षेत्रों में जाकर कैसे खाद्य लाएं, इस सबके बारे में जानकारी दी गई व समझाया। सहभागी वीडियो के माध्यम से जागरूकता बढ़ाई और उन्हें लोगों तक साझा किया। यह सब हमने अपनी स्थानीय बोली में किया। इनके माध्यम से खेती, जैव विविधता, पोषण आदि के महत्व के बारे में बताया।

तालाबंदी के दौरान स्कूली बच्चे खेती में मदद करते हुए

एनहूलुमी गांव की कोनयीयू ने बताया कि वे कोविड19 के बारे में  जागरूकता कार्यक्रम का हिस्सा थीं। वे करीब 900 महिला व लड़कियों तक यह संदेश लेकर पहुंची। वे बताती हैं कि “उस समय डर व घबराहट का माहौल था। लोग मुझसे भी डरते थे, पर मैं फिर भी उनके बीच गई। इसके साथ ही मैं राहत के काम से भी सक्रियता से जुड़ी थी, जो हमारे इलाके के अलग अलग गांवो में चल रहा था। इस पूरे काम से मैंने काफी कुछ सीखा। एक बात यह सीखी कि सही नेता वही है जो संकट के समय लोगों के काम आएं, न कि सिर्फ अच्छे व शांतिपूर्ण समय में उनसे मिले।”

अकोले बताती हैं कि कोहिमा और दीमापुर में महिला सब्जी विक्रेताओं के बीच में काम कर रहे हैं। कोहिमा में अकेले 300 सब्जी बेचनेवाली महिलाएं हमसे जुड़ी हैं। उनके परिवार में ये महिलाएं ही प्रमुख रूप से कमानेवाली हैं। वे बाहर जाकर सब्जियां नहीं बेच पा रही थीं। उनके पास कोई आमदनी नहीं थी। इसलिए महिलाओं ने सामूहिक रूप से पहल की। उन्होंने नगर पालिका से बातचीत की और सब्जी दुकान लगाने के लिए स्थान देने की मांग की। यह कोशिश कामयाब हुई और कोहिमा नगर पालिका परिषद ने उन्हें 5 स्थान आवंटित किए, जहां वे उनकी दुकानें लगा सकती थीं। साथ ही पहचान पत्र भी जारी किए। इससे 80 फेरीवाले अपनी आजीविका जारी रख सके। बाद में 50 और स्थान आवंटित किए गए। इसमें वीमेन कलेक्टिव और सेवा ( सेल्फ एम्प्लाइड वीमेंस एसोसिएशन) ने मदद की।

कोहिमा की सब्जी विक्रेता अथे बताती हैं कि ”तालाबंदी के समय हमारी आमदनी खत्म हो गई। वह बहुत ही चुनौती भरा समय था। मैं घर का किराया नहीं दे सकती थी और न ही बच्चों की स्कूल फीस दे पा रही थी। ऐसे समय में सेवा के नेताओं ने मदद की और कोहिमा नगर पालिका परिषद से बात की और हमें सब्जी लगाने के लिए जापफू होटल के पास जगह मिली। दुकान लगाने से कुछ आमदनी हुई। जिससे हम कुछ खाद्य वस्तुएं खरीद पाए और घर का किराया दे पाए।”

एनईएन की सदस्य सेनो ने बताया कि पिछले चार महीने से हम देख रहे हैं कि यहां के लोग एक साथ आए हैं, सभी ने टिकाऊ खेती व पर्यावरण रक्षक खेती के महत्व को समझा है। खाद्य वस्तुओं को शहरी क्षेत्रों तक पहुंचाया है। जो बुजुर्ग खेतों तक नहीं जा सकते, उन तक खाद्य सामग्री पहुंचाई गई। जो महामारी के दौरान काम कर रहे थे, चाहे वे स्वास्थ्यकर्मी हो या पुलिसकर्मी, सभी की मदद की गई।

वे आगे बताती हैं कि महिलाएं एक साथ आईं और सामूहिक रूप से खेती की। जंगल से खाद्य कंद मूल एकत्र किए। कमजोर लोगों और पड़ोसी शहरी क्षेत्रों तक भी यह खाद्य सामग्री पहुंचाई। कोई भी पड़ोसी भूखा न रहे, सबको पोषकयुक्त भोजन मिले, यह प्रयास किया गया। ऐसे लोगों ने नार्थ ईस्ट नेटवर्क से संपर्क किया, जिन्हें राशन सामग्री की जरूरत थी। बाद में उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें इस राशन सामग्री की जरूरत नहीं है, वे अपनी व्यवस्था खुद करने में सक्षम हैं, इस राशन सामग्री को दूसरे जरूरतमंद लोगों को दे दिया जाए।  

धान रोपाई में युवा मदद करते हुए

कुल मिलाकर, एनईएन की यह पूरी पहल से कुछ बातें कही जा सकती है। परंपरागत जैविक खेती से आज भी खाद्य सुरक्षा व खाद्य संप्रभुता सुनिश्चित की जा सकती है, जो महामारी के समय साफ तौर पर दिखाई दी है। इस इलाके में कोई भूखा नहीं रहा। परंपरागत बीजों के साथ स्वावलंबी खेती की है, उससे जुड़े परंपरागत ज्ञान को भी बचाया। जैव विविधता व पर्यावरण का भी संरक्षण किया है। महिला कार्यकर्ताओं ने घऱ घऱ जाकर लोगों के दुख-दर्द में सहभागिता व एकजुटता जताई। जरूरतमंद लोगों तक राशन सामग्री पहुंचाई। महिला सब्जी विक्रेताओं की मदद की। जो युवा बाहर से गांव में लौटे हैं, उन्हें खेती के काम से जोड़ा और इसका प्रशिक्षण भी दिया। यह सराहनीय व प्रेरणादायक पहल है। इसके साथ ही यह चुनौती भी है कि इस पहल को किस तरह जारी रखा जाए, जो युवा खेती से जुड़े हैं, उन्हें इसमें टिकाए रखा जाए, क्या वे इसमें अपना भविष्य देखते हैं। इस सबके बावजूद यहां टिकाऊ खेती व पर्यावरण रक्षक खेती से आत्मनिर्भरता हासिल की है और उससे खाद्य सुरक्षा व खाद्य संप्रभुता संभव है, वह एक अनूठी मिसाल है, जिससे सीखा जा सकता है। यह पूरी पहल महिला सशक्तिकरण और महिला नेतृत्व की है, जो न्यायसंगत, पर्यावरणीय ज्ञान के साथ टिकाऊ विकास का रास्ता दिखाती है।  

टिप्पणी– झूम खेती, अंग्रेजी में इसे शिफ्टिंग कल्टीवेशन कहते हैं। इसमें छोटी-छोटी झाड़ियां काटकर उन्हें खेत में जला दिया जाता है और उसकी राख में बीज बिखेर दिए जाते हैं। जब बारिश होती है तो वह बीज अंकुरित हो जाते हैं। इस खेती में 9 साल में जमीन बदली जाती है। जिससे मिट्टी की उर्वरक शक्ति जो कम हो जाती है, उपज कम हो जाती है, वह क्रमशः वापस आ जाती है।

सभी फोटो – एन.ई.एन.

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Sanjeeb Mali February 2, 2021 at 12:29 pm

Very good collection.

रजनीश दुबे February 2, 2021 at 11:43 am

कोविड-19 की महामारी के आने के बाद पूरे समाज में एक भय और आतंक का माहौल तो रहा परंतु इस अवसर पर हमने मानवीय एवं प्राकृतिक गुणों का विकास होते हुए देखा एवं साथ ही तथाकथित विकास के दुष्परिणामों को भी अनुभव किया।
नागालैंड असम मिजोरम या अन्य राज्यों के सुदूरवर्ती रहने वाले आदिवासी यावे रहवासी जो तथाकथित विकास से शहरी सभ्यता से दूर रहे उन्होंने बड़ी ही जिम्मेदारी एवं प्रकृति के साथ सहभागिता बनाकर एक महामारी से मुकाबला किया।
परंपरागत कृषि पद्धतियां एवं बीज उपयोगिता एवं उपादेयता पहले भी थी आज भी है परंतु हम आर्थिक लाभ कमाने के सरकारी प्रयासों से प्रकृति एवं कृषि पद्धति दोनों से अनैतिक जोहार करने लगे।
बाबा भाई अपनी जमीन से जुड़ी पत्रकारिता या प्रकृति सेवा से जब ऐसी घटनाएं ऐसे प्रयास समाज के सामने लाते हैं तो यह माना जाता है की प्रकृति सर्वोपरि है और हम तथाकथित विकास के नाम पर उसका जो दोहन कर रहे हैं वह 1 दिन विनाश के रूप में ही सामने आता है।

रजनीश दुबे February 2, 2021 at 9:15 am

कोविड-19 के चलते हुए हमने यह जाना की प्रकृति के विपरीत जाकर विकास करना विनाश को आमंत्रित करने के बराबर है। कोविड-19 एक विकसित वायरस का आक्रमण है जोकि अभी तक जाना नहीं जा रहा है कि यह प्राकृतिक रूप से उपजा है या विकास के महापुरुष माने जाने वाले वैज्ञानिकों के द्वारा किसी प्रयोगशाला में जैविक हथियार के रूप में बनाया गया है।
जीवन यापन के लिए प्रकृति से सहचर होकर जो भी कार्य होते हैं वह कभी भी विपरीत प्रभाव नहीं डालते एवं मानवीय गुणों का भी विकास करते हैं। नागालैंड जा अन्य राज्यों के जंगलों में रहने वाले आदिवासी जोकि तथाकथित विकसित सभ्यता से दूर है उनमें सहयोग समर्पण एवं सद्भावना हम विकसित शहरी लोगों से अधिक ही होती है।
बाबा भाई ऐसे मन को छूने वाले विषयों को जब अपनी लेखनी से समाज के सामने लाते हैं तो हम प्रकृति एवं प्राकृतिक गुणों के असीमित सौंदर्य से सराबोर हो जाते हैं।
कोविड-19 यदि हमें अपनी जीवन शैली सुधारने में मौका दे रहा है तो इसे भी प्रकृति के द्वारा दिया गया एक अवसर समझे और तथाकथित विकास के दुष्परिणामों से बचने का प्रयास करते रहे।