शाल के तले – असम का अद्वितीय वन-संरक्षक नाट्योत्सव (in Hindi)

By रोहित बंसल द्वारा अनुवादित संगीता बारुआ पिशरोति का लेख onFeb. 23, 2017in Environment and Ecology

विकल्प संगम के लिये विशेष अनुवाद – Under the Sal Tree, a Unique Theatre Festival that Unites the Villages of Assam (by Sangeeta Barooah Pisharoty)

(Shaal key taley – Asam kaa adwiteeya van-sanrakshak naatyotsava) 

असम में गोलपाड़ा के जंगलों में, मध्य-दिसम्बर में आयोजित यह वार्षिक महोत्सव, भारत में समकालीन नाट्यकला के अद्वितीय प्रारूप का एक उदाहरण प्रस्तुत करता है।

A still from Rabha play ‘Nukhar REngchakayni Gopchani.’
राभा नाटक ‘नुखर रेंग्चकय्नी गोप्चनी’ का एक दृश्य। श्रेय – विशेष प्रबन्ध

रामपुर गाँव, गोलपाड़ा (असम): देर सुबह के सूरज की रोशनी में नहाये धान के खेतों से लगी कच्ची सड़क पर मिनोती राभा, साइकिल पर अपनी ५ वर्षीय बेटी को पीछे बैठा कर, जैसे-तैसे सम्हलते हुये, अपने गाँव बोर्दमल से पड़ोस के गाँव रामपुर जा रही थी। गाँव की एक महिला ने बात करने की कोशिश की परन्तु राभा ने इन्कार करते हुये पूछा, “मुझे देर हो रही है, क्या तुम नहीं आ रही हो?” और उत्तर सुने बिना ही आगे बढ़ गयी।

आगे थोड़ी दूर, प्रणब राभा भी धान के खेतों से निकलकर इसी कच्ची सड़क पर तेजी से आगे बढ़ने लगा। उसने सोचा, “१० बज रहे हैं, मुझे अब तक वहाँ पहुँच जाना चाहिये था, गायों को देखने में कितना वक्त निकल गया।” चौथाई किमी॰ चलने के बाद प्रणब एक गली में मुड़कर एक बड़े खेत में पहुँच गया जिसके अगले छोर पर गगनचुम्बी शाल के पेड़ों का विशाल कुंज था।

तब तक, मिनोती, अपनी साइकिल को कतार में खड़ा कर, शाल के कुंज में प्रवेश कर चुकी थी। उन साइकिलों के साथ मोटर-गाड़ियों की भी एक कतार थी जिसमें से कुछ १५० किमी॰ दूर प्रदेश की राजधानी गुवाहाटी से, कुछ २०० किमी॰ दूर नागाँव व मोरीगाँव से एवं कुछ १५ किमी॰ दूर जिला मुख्यालय गोलपाड़ा से यहाँ पहुँची थीं।

प्रणब शीघ्रता से आदमी, औरतों और बच्चों के झुण्ड में सम्मिलित हो गया जो उस बड़े खेत को पार कर रहा था। जब तक वह अपने गन्तव्य तक पहुँचा, पेड़ों के नीचे लगभग १,२०० लोग एकत्र हो चुके थे।

वर्ष २००८ से ही प्रणब के गाँव में ऐसा तीन-दिवसीय कोलाहल प्रतिवर्ष मध्य-दिसम्बर में इस जंगल में होता रहा है। उत्सव के दौरान, प्रतिदिन प्रातः १० बजे और दोपहर २ बजे, लोगों की भीड़ शाल के पेड़ों के नीचे एकत्र होकर नाटकों की श्रृंखला। का आनन्द उठाती है।

Playwright H. S. Shivaprakash (in blue) inaugurating this year’s edition of Under The Sal Tree Theatre Festival in Ramour village in Assam’s Goalpara district.
नाटककार श्री ह. शि. शिवप्रकाश (नीले कुर्ते में) असम के गोलपाड़ा जिले के रामपुर गाँव में इस वर्ष के ‘शाल के तले’नाट्योत्सव का उद्घाटन करते हुये। श्रेय – विशेष प्रबन्ध

दूर-दराज के गाँवों से आने वाले दर्शकों की संख्या में लगातार वृद्धि होने से रामपुर गाँववासियों के लिये यह एक वार्षिक उत्सव बन गया है, और अब “शाल के तले”नाम से लोकप्रिय हो गया है। गाँव के बहुत से पढ़े-लिखे नवयुवक, जो दिल्ली जैसे दूर-दराज के शहरों में रोज़गार करते हैं, वह भी इस उत्सव में शामिल होने के लिये गाँव वापस आ जाते हैं।

उत्सव के नवीनतम संस्करण में, पहली बार, ब्राजील, दक्षिण कोरिया, श्रीलंका और पोलैण्ड देशों से एक एक नाटक सम्मिलित किया गया। इस उत्सव की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि यह गाँववासियों को मनोरंजन एवं भारतीय समकालीन नाट्यकला को एक अद्वितीय प्रारूप प्रदान करने में सफल हुआ है।

The audience waiting for a play to begin.
दर्शकदीर्घा में बैठे दर्शक नाटक प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा में। श्रेय – विशेष प्रबन्ध

प्रति वर्ष दिसम्बर में, युवा स्वयंसेवक शाल के वृक्षों के नीचे मिट्टी से निर्मित एक मंच खड़ा करते हैं। पृष्ठभूमि में भूसे की बाड़ और मंच के चारों ओर बाँस के तख्तों से दर्शकदीर्घा बनाते हैं, एक खुले सभागार की भाँति। जंगल के भीतर स्थित होने के अतिरिक्त इस नाट्यमंच का एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यहाँ कलाकार, प्रायः प्रयोग होने वाले, कृत्रिम ध्वनि एवं प्रकाश संयन्त्रों का प्रयोग नहीं करते। कलाकार अपनी आवाज़ को इस प्रकार नियन्त्रित करते हैं जिससे कि वह सभी दर्शकों तक पहुँचे। शाल का कुंज भी एक प्राकृतिक पात्र की भाँति ध्वनि को संयोजित करता है। पार्श्व संगीत सजीव होता है और शाल के वृक्षों से छन कर आती सूर्य की किरणें प्राकृतिक स्पॅाटलाइट का काम करती हैं।

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इस उत्सव की अद्वितीय संकल्पना का श्रेय जाता है रामपुर निवासी एवं नाट्य कलाकार सुक्रचर्ज्या राभा को, जो वर्ष १९९८ से, अपने पारिवारिक धान-खेत पर स्थित बडुंगडुप्पा कलाकेन्द्र के तहत, गाँव के युवाओं को नाट्य कला में प्रशिक्षित कर रहे हैं।

Sukracharjya Rabha, the man behind the festival
सुक्रचर्ज्या राभा, नाट्योत्सव के सूत्रधार। श्रेय – संगीता बरूआ पिशरोति

वर्ष २०१६ के संस्करण के अन्तिम दिन, १८ दिसम्बर को, सुक्रचर्ज्या अपने गुरू – दिवंगत श्री हेस्नम कन्हाईलाल, जिनकी श्रेणी पूर्वोत्तर राज्यों के अग्रणी निर्देशकों में की जाती है – की फोटो के समीप खड़े होकर दर्शकों की उमड़ती भीड़ को देख रहे थे। बाद में उन्होंने इस पत्रकार को बताया कि उनको इस प्रकार के नाट्यमंच की प्रेरणा कन्हाईलाल जी से प्राप्त हुयी। “प्रत्येक वर्ष कन्हाईलाल जी उत्सव में सम्मिलित होते थे, परन्तु इस वर्ष केवल उनका चित्र ही है”, उन्होंने बताया। गत वर्ष अक्तूबर में इम्फाल में श्री कन्हाईलाल जी का निधन हो गया। सुक्रचर्ज्या की भेंट कन्हाईलाल जी से वर्ष २००३ में गुवाहाटी के श्रीमन्त शंकरदेव कलाक्षेत्र में आयोजित एक नाट्य-कार्यशाला में हुयी थी। “उनकी प्रेरणा के कारण ही मैं जीवनपर्यन्त नाट्यमंच से जुड़ गया”, सुक्रचर्ज्या ने बताया।

सुक्रचर्ज्या ने वर्ष १९९३ में एक स्थानीय नाट्यमण्डली रामपुर रूपज्योति के साथ अपना नाट्य जीवन शुरू किया और पाँच वर्षों के पश्चात उन्होंने बडुंगडुप्पा कलाकेन्द्र की स्थापना की। लगभग इसी समय, कई स्थानीय युवा एक अलगाववादी संगठन – असम संयुक्त मुक्ति मोर्चा (यूनाइटेड लिबरेशन फ्रन्ट आफ असम) (उल्फा) – की ओर आकर्षित हो रहे थे। सुक्रचर्ज्या समस्त विद्यार्थी संघ (आल राभा स्टूडेण्ट्स यूनियन) के गोपालपाड़ा के जिलाध्यक्ष होने के कारण विद्यार्थियों की राजनीति में काफी सक्रिय थे। “परन्तु मैंने रंगमंच से नाता रखा और वर्ष १९९१ में बरपेटा शहर के एक नाट्य समारोह में राभा भाषा में अपना प्रथम नाटक निर्देशित किया”, उन्होंने अतीत के पृष्ठों को पलटते हुये कहा।

वर्ष २००० के आसपास, राभा हसौंग स्वायत्त परिषद (आटोनोमस काउन्सिल) में सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से दुःखी होकर, वे पूरी गम्भीरता से नाट्यकला में संलग्न हो गये। “वर्ष २००४ से २००५ के दौरान मैंने कन्हाईलाल जी से इंफाल में नाट्यकला का प्रशिक्षण प्राप्त किया। तत्पश्चात मैंने रामपुर के युवाओं के लिये नाट्य-कार्यशालायें आयोजित करना प्रारम्भ किया और पूर्णरूप से राजनीति से अलग हो गया। मैं उस कठिन समय में हतोत्साहित युवाओं को एक उद्देश्य देना चाहता था”, उन्होंने बताया। उन्हीं दिनों की एक यादगार – गाँव के उन युवाओं का स्मारक जो उल्फा के तथाकथित सदस्य थे और अंततः पुलिस की गोलियों के शिकार हुये – बडुंगडुप्पा कलाकेन्द्र के समीप ही है। पिछले दशक में यद्यपि इस क्षेत्र में आतन्कवाद लगभग समाप्त हो गया है, सुक्रचर्ज्या के अनुसार, “विध्वन्स का एक नया दौर शुरू हो गया है।”

गाँववासियों ने रबड़ उगाने के लिये क्रमशः सभी पुराने शाल के जंगलों को काट दिया है। “शाल के वृक्ष से २५ वर्षों के पश्चात पैसे मिलते हैं जबकि रबड़ के वृक्ष से मात्र ७ वर्ष में। यही कारण है कि गाँव के ज्यादातर शाल के वृक्षों के स्थान पर अब रबड़ के वृक्ष दिखाई देते हैं”, गाँव-प्रमुख हमर सिंह राभा ने वायर को जानकारी दी। “यह प्रवृत्ति इतनी प्रबल है कि लोग समितियाँ बनाकर पंचायत की ज़मीन पट्टे पर लेते हैं, उस पर रबड़ के वृक्ष लगाते हैं और उससे होने वाली आय को साझा कर लेते हैं”, प्रणब ने बताया। उसने, पाँच अन्य किसानों के साथ, ऐसा ही ज़मीन का एक टुकड़ा बलिजान गाँव में लिया था। यह सभी लोग, रबड़ के वृक्ष से निकलने वाले रस को मशीन द्वारा चादर में परिवर्तित कर गोलपाड़ा के स्थानीय व्यापारियों को बेच देते हैं। “मैं एक माह में सात हजार रूपये तक कमा लेता हूँ”, प्रणब ने जानकारी दी।

Rubber plantation at Rampur village.
रामपुर गाँव में रबड़ के बागान। श्रेय – संगीता बरूआ पिशरोति

यद्यपि प्रणब जैसे किसान इस अतिरिक्त मासिक आय से अति प्रसन्न हैं, हमर सिंह एवं सुक्रचर्ज्या इसके राभा संस्कृति और रीतियों पर सम्भावित कुप्रभावों से चिन्तित हैं। “शाल कुंजो का संरक्षण समुदाय की रीतियों से सम्बद्ध है। शाल के यह जंगल हमें पूज्य हैं। मरणोपरान्त, लोगों को इन्हीं वृक्षों के नीचे दफन किया जाता है”, हमर सिंह ने बताया। वृद्ध राभागण शाल की पत्तियों से बने खसरेंग का धूम्रपान करते हैं। “शाल के वृक्ष अब केवल सामुदायिक ज़मीन पर ही बचे हैं”, उन्होंने शोकपूर्वक कहा। इसी बदलते परिदृश्य ने सुक्रचर्ज्या को शाल वृक्षों के तले नाट्य महोत्सव की प्रेरणा दी।

“सम्भवतः महोत्सव की लोकप्रियता इन वृक्षों की रक्षा कर सके”, उन्होंने आशा प्रकट की। उनका स्वप्न है कि आने वाले वर्षों में, रामपुर के प्रत्येक शाल-कुंज के तले नाट्य-मंचन हो।

इस वर्ष, सुक्रचर्ज्या ने महोत्सव हेतु नई दिल्ली स्थित संगीत नाटक अकादमी, संस्कृति विभाग, एवं असम सरकार से धन की व्यवस्था की। वर्ष २००८ में जब सुक्रचर्ज्या ने कन्हाईलाल जी को अपने स्वप्न के विषय में बताया तो उन्होंने तुरन्त उत्सव के संचालन हेतु रू॰ ७०,००० दानस्वरूप दिये। बाहर से आने वाली नाट्य-मण्‍डलियों के रहने की व्यवस्था इसी धनराशि से की जाती है। “काफी विचार करने के पश्चात मैंने स्थानीय फूस – हम्प्रंग – से झोंपड़ी बनाने का निश्चय किया। यह फूस भी दुर्लभ हो गया है क्योंकि इसके स्थान पर लोग रबड़ उगाने लगे हैं”, उन्होंने बताया। इस वर्ष, काफी ढ़ूँढ़ने के पश्चात, उन्हें हम्प्रंग केवल एक ही गाँव में प्राप्त हुआ।

उत्सव के नवीनतम संस्करण में, हम्प्रंग से निर्मित इन झोंपड़ियों की फूस जब सुबह की धूप में सुनहरी दिखती है, तब बडुंगडुप्पा कलाकेन्द्र का विशाल मैदान एक सुरम्य नाट्य-गाँव की भाँति प्रतीत होता है – एक ओर अतिथि नाट्य-मण्‍डलियों की झोंपड़ियाँ और दूसरी ओर कन्हाईलाल जी की स्मृति में पुराने उत्सवों के चित्रों की प्रदर्शिनी।

“इस उत्सव को देखकर मैं नाट्यकला के प्रति आश्वस्त हो गया हूँ। यह उत्सव नाट्यकला को दर्शकों के अत्यन्त समीप लाता है – ना विशाल रंगशाला, ना कृत्रिम ध्वनि-यन्त्र और ना ही कृत्रिम प्रकाश; केवल कलाकार, नाटक और दर्शक”, दिल्ली स्थित नाटककार श्री ह. शि. शिवप्रकाश जी ने, जो आरम्भ से ही इस पहल से जुड़े हुये हैं, टिप्पणी की।

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इस वर्ष उत्सव का शुभारम्भ हुआ शिवप्रकाश जी के कन्नड़ नाटक के अंग्रेजी रूपान्तर ‘मिडनाइट’स प्ले’ (मध्यरात्रि का नाटक) के राभा रूपान्तर ‘नुखर रेंग्चकय्नी गोप्चनी’ से। दिसम्बर १८ को प्रातः १० बजे, जैसे ही अन्तिम नाटक ‘एस्ट्रेलास’ (सितारे) शुरू हुआ चारों ओर शान्ति छा गयी क्योंकि दर्शक एक अन्जान भाषा – ब्राजीलियन – की प्रस्तुति समझने की कोशिश कर रहे थे।

A still from Sri Lankan play ‘Payanihal.’
श्रीलंका के नाटक ‘पायनिहाल’का एक दृश्य। श्रेय – विशेष प्रबन्ध

जल्द ही, मैरिलिन न्यून्स ने अपने अर्थपूर्ण हाव-भावों से भाषा की बाधा को पार कर दर्शकों की प्रतिक्रिया प्राप्त की। वह एक चौकीनुमा संदूक से अपनी ज़रूरत के अनुसार नाट्य सामग्री निकाल लेती थीं। वह कभी अपने बालों को खोल कर मकाबे नामक महिला पात्र बन जातीं और अगले ही क्षण जूड़ा बना के उस पर टोपी पहन कर ओलिम्पिको नामक पुरुष पात्र बन कर मकाबे से बात करने लगतीं। नाटक के अन्त में, दर्शकों ने खड़े होकर, उनके मन्त्रमुग्ध करने वाले अभिनय के लिये न्यून्स का अभिनन्दन किया।

मिनोति ने कहा, “भाषा के दृष्टिकोण से राभा नाटक व दो बंगाली नाटक (‘प्रश्न चिन्ह’व ‘एण्टिगनी: राज्य-सत्ता का विरोध’) सर्वाधिक प्रासंगिक हैं क्योंकि गोलपाड़ा के अधिकतर निवासी बंगाली समझते हैं।” मिनोति के साथ बैठे मरमी नाथ ने आगे कहा, “पटकथा के दृष्टिकोण से उड़िया नाटक ‘नियन’ का विषय – राज-द्रोह और निर्दोषों की उसमें फँसने की व्यथा – अत्यन्त प्रासंगिक प्रतीत होता है क्योंकि मेरे गाँव में ऐसी ही समस्यायें आयीं थीं।” दर्शकों ने श्रीलंका की प्रस्तुति ‘पायनिहाल’ (यात्री) और पोलैण्ड की प्रस्तुति ‘मोजा पोद्रोज दो वेद प्रकृति’ (वेद भूमि के लिये मेरी यात्रा) को भी सराहा।

दर्शकों का उत्साह स्पष्ट दिखता था – सुबह के नाटकों को देखने हेतु जहाँ गाँव की महिलाओं ने जल्दी उठकर घर के सारे काम खत्म किये, वहीं दूर से आने वाले लोगों ने रात्रि में ३ बजे ही रामपुर की ओर प्रस्थान किया। प्रतिदिन, सायंकाल में, नाटकों की समाप्ति के पश्चात, रंगमंच के कलाकार और प्रशंसक, बडुंगडुप्पा कलाकेन्द्र में एकत्र होकर, उस दिन के नाटकों की, कलाकारों और निर्देशकों के साथ, सम्मिलित समीक्षा करते।

उत्सव के समापन की रात्रि, हमर सिंह ने अनुष्ठानिक अलाव जलाया जिसके चारों ओर गाँव के युवाओं ने ढोल-ताशे के संगीत पर मनोहर नृत्य प्रस्तुत किया। मन्त्रमुग्ध सुक्रचर्ज्या ने कहा, “नाट्यकला के लिये ऐसा उत्सव अविश्वसनीय है।”

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