विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)
(Mazdooron kaa apnaa Aspataal – The Labourers’ Own Hopital)
सभी फोटो – शहीद अस्पताल
छत्तीसगढ़ के बालोद जिले के कस्बे दल्ली राजहरा में स्थित है शहीद अस्पताल। यह मजदूरों का अपना अस्पताल है। उन्होंने इसे अपनी खून-पसीने की कमाई से बनाया है। यहां की एक-एक ईंट मजदूरों के चंदे के पैसे से लगी है। न केवल उन्होंने इसे बनाया है बल्कि 35 वर्षों से इसे सफलतापूर्वक चला रहे हैं। इसके प्रबंधन से लेकर संचालन तक सभी काम मजदूर ही संभालते हैं। इसमें चिकित्सकों, नर्सों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का पूरा सहयोग रहता है।
हाल ही में 26 सितम्बर को जब मैं यहां पहुंचा तो मेरी बरसों पुरानी स्मृतियां ताजा हो गईं। डा.शैबाल जाना आज भी रात-दिन अस्पताल के काम में जुटे रहते हैं। वर्ष 1984 में मैं यहां आया था तब शहीद अस्पताल बने हुए सिर्फ एक साल हुआ था। अस्पताल और दल्ली राजहरा के मजदूर आंदोलन को देखने के लिए चला आया था। उस समय डा. आशीष कुंडु, उनकी पत्नी चंचला भी थे। तब से अब तक उनके डा. जाना के बालों में सफेदी जरूर आई है पर उनका जोश, समर्पण और गहरी निष्ठा कायम है।
उस समय डा. जाना के साथ ही मैं अस्पताल के एक कमरे में ठहरा था। अस्पताल के बरामदे में ही सुबह मरीजों की भीड़ लग जाती थी। दिन भर मरीजों का इलाज अस्पताल में होता था। शाम को डाक्टरों व स्वास्थ्यकर्मियों की टीम मजदूर बस्तियों में घर-घर जाया करती थी और वहां बीमारियों की रोकथाम व इलाज के लिए लोगों को समझाइश देती थी। पहाड़ी के तराई में बसे इस कस्बे की निचली बस्तियों में प्राय: पानी भर जाता था और इनमें मौसमी बीमारियों की बाढ़ आ जाती थी। शहीद अस्पताल की टीम बस्ती-बस्ती जाकर पर्चे, घर-घर संपर्क व पोस्टर प्रदर्शनी के माध्यम से जन शिक्षण करती थी।
छत्तीसगढ़ के बालोद जिले में दल्ली राजहरा नाम का एक कस्बा है। दल्ली और राजहरा नाम की दो लौह खदानों के नाम से इस कस्बे का नाम दल्ली राजहरा पड़ा। प्राकृतिक रूप से यह जगह बहुत ही खूबसूरत है। लौह अयस्क की लाल पत्थर की पहाड़ियां और नीचे ढलान व तराई में बसी मजदूर बस्तियां। लकड़ी व खपरैल वाले कच्चे घर व झोपड़ियां। नदी-नालों में पहाड़ का लाल पानी कल-कल बहता रहता है। यहां की खदानों से निकाले जाने वाला लौह खनिज भिलाई इस्पात संयंत्र को भेजा जाता था।
शहीद अस्पताल कैसे बना इसकी कहानी जानने के लिए हमें थोड़ा और पीछे जाना पड़ेगा। मजदूर आंदोलन पर नजर डालनी होगी। यहां जो लौह खनिज की खदानें हैं उनमें मजदूरों के दो संगठन थे- इंटक और एटक। यह 1977 के पहले की बात है। ये दोनों संगठन मजदूरों से चंदा तो लेते थे लेकिन उनकी मांगों के प्रति ईमानदार नहीं थे। मजदूरों को एक ईमानदार नेता की तलाश थी।
जब मजदूरों को दानीटोना माईन्स में काम करने वाले शंकर गुहा नियोगी के बारे में पता चला तो वे नियोगी जी के पास गए। नियोगी जी उसी समय जेल से छूटे थे। उन्हें आपातकाल के दौरान जेल में बंद कर दिया गया था। नियोगी जी ने मजदूरों की बात ध्यान से सुनी। और दल्ली राजहरा के मजदूरों के नेतृत्व के लिए तैयार हो गए। इस तरह शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में नया संगठन छत्तीसगढ़ माईन्स श्रमिक संघ अस्तित्व में आया।
उचित मजदूरी और मजदूरों ने अपने अधिकारों के लिए आंदोलन किया। आंदोलन को दबाने के लिए पुलिस गोलीचालन हुआ जिसमें 11 लोग मारे गए। नियोगी जी की गिरफ्तारी हुई। लेकिन मजदूरों की एकता के आगे प्रबंधन को झुकना पड़ा और मजदूरों की मांगें मानी गईं।
नियोगी जी ने मजदूरों के सामने यह जोर देकर कहा कि “यह यूनियन सिर्फ आठ घंटो के लिए नहीं, वरन चौबीस घंटों के लिए है।” यानी यह सिर्फ आर्थिक मांगों को लेकर ही नहीं लड़ेगा, बल्कि जीवन बेहतर बनाने सभी पहलुओं पर काम करेगा। यह सोच परंपरागत ट्रेड यूनियन की सोच से अलग थी।
मजदूरों ने अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और जीती। मजदूरी बढ़ी तो मजदूरों में शराब की लत बढ़ गई। शराब ठेकेदारों की चांदी हो गई। वे मालामाल होने लगे। तब यूनियन में सोचा गया कि क्या हमने मजदूरी इसलिए बढ़वाई ताकि शराब ठेकेदारों की कमाई हो। लिहाजा, शराब के खिलाफ अभियान छेड़ा गया। इससे ट्रेड यूनियन की लड़ाई सामाजिक आंदोलन में बदल गई। यह अच्छी सेहत की लड़ाई भी थी। इसमें कुछ मजदूरों पर शराब माफिया द्वारा हमले भी किए गए। दुर्ग से दल्ली राजहरा के रास्ते में भैंसबोड़ का मोड़ मुझे अब भी याद है जहां शराब विरोधी आंदोलन में अगुआ कार्यकर्ता को दुर्घटना का शिकार बनाया गया था। लेकिन इस सबके बावजूद लड़ाई जारी रही।
शंकर गुहा नियोगी ने अपने कुशल नेतृत्व से बहुत ही कम समय में बहुत बड़ी सफलताएं हासिल की थीं। उन्होंने अपने संगठन छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के लिए संघर्ष और निर्माण का रास्ता अपनाया था। वे मानते थे कि संघर्ष के साथ निर्माण भी होना चाहिए। एक तरफ सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष तो दूसरी तरफ बेहतर समाज को बनाने के लिए रचनात्मक काम।
संघर्ष के साथ रचना का काम एक दूसरे की मदद करता है। रचनात्मक कामों में अस्पताल बनाने, स्कूल खोलने और मजदूर बच्चों को कौशल शिक्षा के लिए गैराज खोलने जैसे काम किए गए। किसानों में और समाज के व्यापक तबके में काम करने के लिए छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा बनाया, महिलाओं में काम करने के लिए अलग से महिला मुक्ति मोर्चा बनाया।
जन स्वास्थ्य के लिए जोर-शोर से काम शुरू किया गया। स्वास्थ्य के लिए संघर्ष करो और मेहनतकशों के लिए मेहनतकशों का अपना कार्यक्रम नारे के तहत स्वास्थ्य कार्यक्रम संचालित किया गया।
इस बीच एक हादसे ने अस्पताल बनाने के विचार को जन्म दिया। और वह हादसा था छत्तीसगढ़ माईन्स श्रमिक संघ की उपाध्यक्ष कुसुमबाई की असमायिक मौत। उन्हें गर्भावस्था के दौरान दिक्कत होने के कारण भिलाई इस्पात संयंत्र के अस्पताल में भर्ती कराया गया था। लेकिन वहां उनका ठीक ढंग से इलाज नहीं हुआ और उनकी मौत हो गई थी। इससे मजदूरों को गहरा दुख हुआ और चिंता भी। वे सोचने लगे क्या हम अपने मजदूरों को नहीं बचा सकते। क्या हम उनकी देखरेख नहीं कर सकते। इसी से अस्पताल के विचार की नींव पड़ी।
पहले छोटी सी डिस्पेंसरी शुरू की गई और बाद में अस्पताल बनाने का निर्णय हुआ। अस्पताल का सारा काम मजदूरों ने किया। उन्होंने चंदा एकत्र किया, श्रमदान किया और अस्पताल बनाने के लिए रात-दिन एक कर दिया। एक ही दिन में दस हजार मजदूरों ने मिलकर छत डाल दी। जब अस्पताल बनकर तैयार हुआ तो मजदूरों ने स्वास्थ्य कार्यकर्ता का प्रशिक्षण लिया। यहां के डाक्टरों ने ही उन्हें प्रशिक्षित किया। वे दिन में माईन्स में जाकर लोहा खोदते थे। वहां से लौटने के बाद शहीद अस्पताल में 6-6 घंटे काम करते थे। रात्रिकालीन सेवा देते और वह भी अवैतनिक।
अस्पताल का उद्घाटऩ 3 जून 1983 को कोकान माईन्स के मजदूर लाहर सिंह और आडेझर गांव के हलालखोर ने किया था, नियोगी ने इस मौके पर कहा था कि “यह संगठित मजदूरों का असंगठित मजदूरों को तोहफा है।” इस अस्पताल का नाम 1977 में पुलिस गोलीचालन में मारे गए मजदूरों की याद में ‘शहीद अस्पताल’ रखा गया।
वैसे तो हमारे देश में बड़े-बड़े अस्पताल हैं, डाक्टर हैं, पर उनमें गरीब मजदूरों का इलाज नहीं होता। वे उनमें हाथ पसारकर जाते हैं। डाक्टर-नर्सों की दुत्कार सुनते हैं। लुटते हैं। कई बार मर भी जाते हैं। वहां उनकी कोई नहीं सुनता। लेकिन यह अस्पताल मजदूरों का अपना है। उन्होंने खुद इसे बनाया है। संघर्ष का प्रतीक है। आज वे इस पर गर्व करते हैं। यहां के स्वास्थ्य कार्यकर्ता पूनाराम, जग्गूसिंह साहू, एबल सिंह बरसाईत जब बात करते हैं तो यह भाव उनकी चमकती आंखों में पढ़ा जा सकता है। पहले 10 स्वास्थ्य कार्यकर्ता थे, आज 4 हैं। ज्यादातर सेवानिवृत्त होकर अपने मूल गांव चले गए हैं।
जब कभी संघर्ष जोर पकड़ता है और मजदूरों पर जुल्म होता है तब शहीद अस्पताल की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। चाहे कहीं भी संघर्ष हो, शहीद अस्पताल की टीम संघर्ष में मौजूद रहती है। ऐसे ही 24 साल पुराने मुकदमे में इसी वर्ष 2016 में मार्च महीने में डा. शैबाल जाना की गिरफ्तारी हुई थी जिसका बड़े पैमाने पर पूरे देश में बुद्धिजीवियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने विरोध किया था। नर्मदा बचाओ आंदोलन, भोपाल गैस पीड़ितों के संघर्ष, लातूर के भूकम्प आदि जगह शहीद अस्पताल ने अपनी भूमिका का निर्वहन किया है।
एक छोटी सी डिस्पेंसरी से शुरू हुई यह कोशिश आज 135 बिस्तर के अस्पताल में तब्दील हो गई है। तीन मंजिला इमारत बन गई है। शहीद अस्पताल ने कई अत्याधुनिक सुविधाएं भी जुटा ली गई हैं। दवाई, आपरेशन थियेटर, पैथालाजी लैब सभी सुविधाएं हैं। अस्पताल की एम्बुलेंस भी है। यहां रोजाना ओपीडी में 250 मरीज आते हैं। सौ से डेढ़ सौ किलोमीटर के मरीज कई घंटों की यात्रा कर यहां इलाज कराने आते हैं। राजनांदगांव, रायपुर, बालोद, कांकेर, चारामा, पखांजूर( कांकेर) आदि कई जगह के मरीज आते हैं। अस्पताल में जगह नहीं होने पर नीचे बरामदों में मरीज भरे होते हैं। पैर रखने की भी जगह नहीं होती है। अभी एक अलग से इमारत बन रही है, उसमें प्रसूति विभाग होगा।
वैसे तो शहीद अस्पताल में कई चिकित्सकों ने अपनी सेवाएं दी हैं। कुछ ने आंदोलन से प्रभावित होकर और कई ने नौकरी के बतौर। जिन्होंने जन स्वास्थ्य के आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई उनमें डा. विनायक सेन, डा. पवित्र गुहा, डा. पुण्यव्रत गुण प्रमुख हैं। लेकिन डा. शैबाल जाना शहीद अस्पताल के पर्याय बन गए हैं। वे कोलकाता से अपनी पढ़ाई खत्म कर यहां आ गए थे। 34-35 साल से वे इस अस्पताल की रीढ़ बने हुए हैं। इस अस्पताल को बनाने से लेकर स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण आदि से करीब से जुड़े रहे हैं। वे छत्तीसगढ़ सरकार की कई स्वास्थ्य समितियों के सदस्य भी रहे हैं। आज यहां 7 पूरावक्ती डाक्टर हैं। नए डाक्टरों में पवन मिलखे हैं। डा. जाना की पत्नी अल्पना जी भी अस्पताल में अपनी सेवाएं सतत् दे रही हैं।
अस्पताल खुलने के पहले इलाके में मान्यता थी कि जचकी (प्रसव) के समय महिला को पानी नहीं देना चाहिए। इसी तरह आलसमाता( टाइफाइड) में खाना पीना बंद कर देना चाहिए। स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने बस्ती-बस्ती जाकर प्रदर्शनी लगाई, सही जानकारी दी, अंधविश्वास और झाड़ा-फूंकी का विरोध किया। टट्टी-उल्टी में पानी की कमी से लोग मर जाते थे, ऐसे कई लोगों की जान बचाई। अब इसमें कमी आई है।
यहां की सबसे पुरानी नर्स में से एक कुलेश्वरी सोनवाणी कहती हैं कि अगर कोई मरीज गंभीर रूप से बीमार होता है, हम तत्काल इलाज शुरू कर देते हैं। पर्ची बनाने का इंतजार नहीं करते। यहां जिसके पास पैसे नहीं होते उसका भी इलाज करते हैं। एम्बुलेंस उसे बिना किराये लिए घर भी पहुंचा देती है।
नर्स पद्मावती साहू कहती हैं कि “यहां हम मरीज की परिस्थिति समझने की कोशिश करते हैं। उसे अपना समझते हैं। यहां कम पैसे में अच्छे से अच्छा इलाज करने की कोशिश होती है। नार्मल डिलीवरी एक से डेढ़ हजार में हो जाती है। अगर सीजर करना पड़े तो पांच हजार तक खर्च होता है। दूसरी जगह 15 हजार से ज्यादा खर्च होता है। अस्पताल की एक और खास बात है हम मरीज से एक कप चाय भी नहीं पीते। डिस्चार्ज करते समय एक पैसा भी नहीं लेते। हम सिर्फ यहां पैसे के लिए काम नहीं करते, सेवा भावना से काम करते हैं। यहां सभी को समान रूप से एक ही नजर से देखा जाता है। मरीजों में कोई भेदभाव नहीं होता। और यही सिद्धांत अस्पताल पर भी लागू होता है। सफाईकर्मी से लेकर डाक्टरों तक सबको एक ही अधिकार प्राप्त हैं। एक ही रूतबा है।”
स्वास्थ्य कार्यकर्ता पूनाराम कहते हैं कि हमारा अस्पताल नो प्राफिट नो लास (लाभ नहीं और नुकसान भी नहीं) के सिद्धांत पर चलता है। यहां पर्ची बनाने का 10 रू, बिस्तर चार्ज 5 रू. है। सेवा शुल्क के रूप में 25 रू लिए जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों से गरीबी रेखा के नीचे आने वाले मरीजों के इलाज के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना चल रही है। इसके अंतर्गत शहीद अस्पताल में इलाज किया जाता है, जिससे आर्थिक स्थिति पहले से अच्छी हुई है। इस योजना के तहत निर्धारित खर्च के अंदर ही इलाज हो जाता है। यहां का पूरा स्टाफ 98 का है जिसमें 7 डाक्टर, 35 नर्स, 17 सफाईकर्मी, 6 स्वास्थ्यकर्मी और अन्य कर्मचारी हैं।
डा. जाना कहते हैं कि “हम शहीद अस्पताल में एलोपैथी के अलावा भी आयुर्वेद वगैरह से इलाज करना चाहते हैं। एक डाक्टर भी इसके लिए है। लेकिन अब तक हमें कोई ठीक व्यक्ति नहीं मिला है। हमें शहीद अस्पताल में अच्छे डाक्टरों की हमेशा जरूरत है। अच्छी उपयुक्त सस्ती तकनीक की जरूरत है। “
शहीद अस्पताल की कई विशेषताएं रही हैं – जैसे अनावश्यक दवाओं से परहेज। यहां पिरामिडनुमा ढांचा नहीं है, जहां एक दूसरे के मातहत होता है। जैसा कि आम अस्पतालों में होता है। यहां बराबरी और सम्मान के साथ काम करने को तरजीह दी जाती है। अस्पताल किसी तरह की फंडिंग बाहर से नहीं लेता। विदेशी धन कई बार ठुकरा चुका है। दान राशि भी स्वीकार नहीं करता। अगर कोई अस्पताल को कोई चीज भेंट में देना चाहे तो दे सकता है।
शहीद अस्पताल ने अब तक के सफर में कई उपलब्धियां हासिल की हैं। लेकिन उसके सामने कुछ चुनौतियां भी हैं। शहीद अस्पताल का सच्चे हितैषी नियोगी अब नहीं हैं। 28 सितंबर 1991 को भिलाई आंदोलन के दौरान शंकर गुहा नियोगी की हत्य़ा कर दी गई। इस आंदोलन के तहत उद्योगों में कार्यरत मजदूरों को जीने लायक वेतन और कुछ बुनियादी सुविधाओं की मांग की जा रही थी। लेकिन उद्योगपतियों ने उनकी मांगें मानने की बजाय उनके लोकप्रिय नेता नियोगी की ही हत्या करवा दी। नियोगी जी के जाने के बाद मजदूरों का संघर्ष भी कमजोर हो गया है, टुकड़ों में बंट गया है। हालांकि अच्छी खबर है कि अब फिर सबको एक करने की कोशिशें हो रही हैं। अस्पताल का एक स्वतंत्र ट्रस्ट भी बन गया है। अस्पताल आगे बढ़ता भी दिख रहा है। मजदूरों के आंदोलन के संघर्ष के बिना यह अधूरा सा है जिसे पूरा करने की जिम्मेदारी नई पीढ़ी पर है।
इस लेख का अंग्रेजी रूपांतर Shaheed Hospital पढ़िए
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