विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)
मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के कनासिया गांव में कबीर भजन हैं। धन्य तेरी करतार कला का, पार नहीं कोई पाता है, भजन की टेर गूंज रही है। दर्शकों में भजन सुनते सुनते मस्ती छा गई, वे झूमने और नाचने लगे। यह मीठी खनक आवाज शिवानी गांगोलिया की थी, जो कबीर भजन गा रही थीं।
शिवानी गांगोलिया उज्जैन की रहने वाली हैं, उनका पूरा परिवार ही संगीत से जुड़ा है। उन्होंने हाल में कालेज की शिक्षा ग्रहण की है। लेकिन यहां शिवानी अकेली नहीं है, जो कबीर भजन गाती हैं। और भी कई महिलाएं हैं। मालवा में कबीरधारा बह रही है। कई युवा इससे जुड़े हैं और प्रहलाद सिंह टिपानिया जैसे बहुत से लोक गायक कबीर को गाने वाले भी हैं।
शिवानी गांगोलिया कबीर भजन गाते हुए
हाल ही में 2 अगस्त ( वर्ष 2019) को कबीर भजन कार्यक्रम में दूसरी बार शामिल हुआ था। हालांकि मैं 90 की दशक की शुरूआत में भी जाता रहा हूं। जब ऐसे कार्यक्रमों की शुरूआत हो रही थी। शिक्षा के क्षेत्र में काम करनेवाली संस्था के कार्यालय में मंडलियां आती थी और भजन गाती थीं। कबीर के विचारों पर चर्चा होती थी। तब से यह सिलसिला चल रहा है। हर माह की 2 तारीख को यह कार्यक्रम होता है।
इस बार का कार्यक्रम इसलिए भी खास था क्योंकि इसमें एकलव्य संस्था से जुड़े रामनारायण स्याग, अरविंद सरदाना, अनु गुप्ता आए थे। एकलव्य संस्था ने ही करीब तीन दशक पहले कबीर मंडलियों से संपर्क व संवाद स्थापित किया था। कबीर के सामाजिक विचारों को केन्द्र में रखकर इस तरह के नियमित कार्यक्रमों को प्रोत्साहित किया था। हालांकि कबीर को मालवा में मौखिक वाचिक परंपरा में सालों से गाया जाता रहा है। यह श्रुति (सुनना) और स्मृति (याद करना) कबीर परंपरा शताब्दियों से चल रही है। मौखिक परंपरा, श्रुति और स्मृति के आधार पर चलती है, इसमें गीतों में जोड़-घट होती रहती है।
कबीर 15 वीं शताब्दी के क्रांतिकारी कवि, समाज सुधारक थे। वे ऐसे कवि व संत हैं जिन्होंने आर्थिक अभाव में रहते हुए धार्मिक कर्मकांड, जातिवाद और पाखंड का विरोध किया था। जुलाहे के रूप में अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करते रहे। उन्होंने एक निडर सामाजिक आलोचक की भूमिका को भक्ति और आध्यात्मिकता से जोड़ा था। उनके जन्म व जाति को लेकर कई जनश्रुतियां हैं। हालांकि कबीर ने खुद को जुलाहा कहा है। कबीर के भजनों की खूबी यह है कि 6 सौ साल बाद भी वे जनसामान्य में कई रूपों में मौजूद हैं। कबीर उनके भजन व उन्हें गाने वालों में हैं। मैं इसी मालवा के कबीर को जानने – समझने की कोशिश करने आया हूं।
मध्यप्रदेश का पश्चिमी भाग में मालवा अंचल है। मालवा की एक पुरानी कहावत है- मालव धरती गहन गंभीर, डग डग रोटी पग पग नीर। यह कहावत यहां की उपजाऊ भूमि, जिसमें अच्छी उपज होती है, यहां की समृद्धता को दर्शाती है और पानी की बहुलता को भी। यहां की बोली मालवी है। यहां के ज्यादातर लोग खेती करते हैं। जो भूमिहीन या कम जमीन वाले हैं, वे खेतों में मजदूरी करते हैं। यहां के मालवी गेहूं बहुत प्रसिद्ध थे। कम पानी या बिना पानी के यह गेहूं होते थे। मालवा के दाल-बाफला भी बहुत प्रसिद्ध हैं।
अब तक जिन लोगों से मिला हूं उनमें एक हैं नारायण सिंह देल्म्या। वे बरण्डवा ( उज्जैन जिला) गांव के रहने वाले हैं। पहले वे खुद कबीर की चौका आरती, पूजा पाठ व महंतों की सेवा करते थे लेकिन जब से उन्हें कबीर वाणी का सही अर्थ समझ आया है, तब से उन्होंने यह सब छोड़ दिया। इसी प्रकार, कालूराम बामनिया जो पहले एक महंत की सेवा करते थे, सतसंग से जुड़े थे, पर उन्होंने भी वह सब छोड़कर कबीर की समाज सुधार वाली परंपरा को आगे बढ़ाया।
गीता पराग, बीसलखेड़ी गांव की रहनेवाली हैं। वे कबीर की ओर उनकी सास लीलाबाई पराग की वजह से मुड़ी। लीलाबाई, कबीर भजन गाती थीं। गीता पराग ने उनसे कबीर भजन सुने, फिर कैसेट व सीडी से भजन सुनने लगीं। वे कबीर भजन गाने लगीं, उन्हें विधिवत गायन की सीख नारायण देल्म्या और कालूराम बामनिया ने दी। इसके लिए हर हफ्ते घरों में जाकर तम्बूरा और मजीरा के साथ भजनों का प्रशिक्षण दिया जाता था।
कबीर भजन गायिका गीता पराग
गीता पराग कहती हैं कबीर भजनों में सच्ची बात है, हकीकत है। उसे उन्होंने सुना, याद किया, गाया, समझा और माना। यानी जीवन में बदलाव किया। पहले उनके भजन गाने का परिवारवालों व रिश्तेदारों ने विरोध किया और धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया। उनके पति अब खुद अब ढोलक पर संगत करते हैं। बेटी तनु कबीर भजन गाती हैं। पूरा परिवार बदल गया है। जीवन बदल गया है। पहले जैसा पूजा पाठ घर में नहीं होता। उन्होंने मुझे आडंबरों और पूजा पाठ पर कबीर का दोहा बतायाः-
पाहन पूजे हरी मिले तो मैं पूजूं पहार,
यासे तो चाकी भली पीस खाय संसार।
( कबीर बाह्य आडंबर का विरोध करते थे। मूर्ति पूजा के स्थान पर उन्होंने घर की चक्की को पूजने के बात की, जिससे अन्न पीस कर भोजन मिलता है।)
उन्होंने प्रेम की राह अपनाने के लिए कबीर का दोहा भी बतायाः-
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढै सो पंडित होय।
( कबीर कहते हैं कि बड़ी बड़ी किताबें पढ़ते पढ़ते संसार में कितने लोग मर गए, पर विद्वान न हो सके। अगर वे ढाई अक्षर वाले प्रेम को गहराई से पढ़ते और समझते तो वास्तव में ज्ञानी हो जाते)
मालवा में कबीर का यह रूप मेरे लिए बहुत आकर्षक था जिसमें पहले लोगों ने कबीर को जाना, समझा और बाद में माना। यानी उनके जीवन में बदलाव किया। यह व्यक्ति के साथ परिवार में बदलाव था। और इसी का संदेश वे कबीर के भजनों के माध्यम से समाज को दे रही हैं।
महिला कबीर गायकों को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष प्रयास किए गए हैं। बच्चों की भी मंडलियां बनाई गईं। इसके लिए कबीर प्रोजेक्ट चलाया गया जिसका संचालन एकलव्य और सृष्टि स्कूल आफ आर्ट एंज डिजाइन एंड टेक्नोलाजी ने संयुक्त रूप से संचालित किया गया। यह वर्ष 2013 में एक साल चला। इसके तहत् महिला और बच्चों की कबीर मंडली को भजन गाना सिखाना था।
लीलाबाई अमलावदिया और उनकी बेटी माया
इस पूरी कोशिश से कई महिला गायक सामने आईं। जिनमें से लीलाबाई अमलावदिया और उनकी बेटी माया (बीसलखेड़ी), लाडकुंवर, लीलाबाई पराग और उनकी बहू गीताबाई पराग, (बीसलखेड़ी), श्यामाबाई, सीताबाई (उज्जैन), कमलाबाई (देवास) आदि टीम बनाई हैं। महिलाओं की टीम बनाने में दिक्कत आईं, पर धीरे धीरे उसमें कामयाबी मिली। बच्चों को स्कूल में जाकर कबीर भजनों का प्रशिक्षण दिया, उनकी टीम बनाई। टीम में पालदुना की मंडली में पुरूषोत्तम गायक के रूप में तैयार हुए।
हालांकि कबीर भजन मंडलियों के साथ एकलव्य का काम 90 के दशक से चल रहा है। इसे व्यवस्थित रूप देने के लिए उस समय पूरा नाम कबीर भजन विचार मंच बनाया गया। बाद में इसे कबीर भजन विचार मंच समूह का नाम दिया गया। इसमें कबीर भजन गाना और उन पर चाय के साथ चर्चा करना, उसके सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ को समझना। वर्ष 1991 से 1998 तक कबीर मंच को एकलव्य ने सहयोग किया, उसका आयोजन किया। कुछ अंतराल के बाद अब नारायण देलम्या की पहल से यह कार्यक्रम चल रहा है।
कबीर भजन सुनते ग्रामीण
देवास एकलव्य के सेन्टर प्रभारी रहे रामनारायण स्याग कहते हैं कि कबीर से दो धाराएं निकली हैं- एक है धार्मिक, जिसमें भगवान की भक्ति, गुरू पर श्रद्धा, परमात्मा का नाम, अध्यात्म आदि की है। और दूसरी है सामाजिक, जिसमें जातिवाद, अंधविश्वास, पाखंड, कुरीतियों का विरोध की, सामाजिक बदलाव की, इसी धारा को हमने महत्व दिया। कबीर ने निडरता से सामाजिक बदलाव किया। हमने लोगों को खुला छोड़ दिया। किसी पर कोई दबाव नहीं था कि वह यह मानें, वह न मानें।
एकलव्य संस्था का काम शिक्षा के क्षेत्र में हैं और विशेषकर विज्ञान में, य़ह कबीर से कैसे जुड़ता है, इस पर रामनारायण स्याग कहते हैं कि विज्ञान भी सत्य की खोज करता है, और कबीर ने भी यही किया। कबीर ने कहा कि जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। यानी जिन्होंने खोजा है उन्हें मिला है। दोनों इसी तरह जुड़ते हैं।
रामनारायण स्याग कहते हैं कि गांव समाज में लोगों की पहचान जाति से होती है। वे कहां बैठेंगे, कैसे बात करेंगे, इससे तय होता है। वहां महिला-पुरूष में भेदभाव है। छुआछूत है। इसलिए हमने सोचा कि गांव की जो कबीर मंडलियां हैं, उनसे बातचीत की जाए, उनसे संवाद किया जाए और उन्हें मजबूत किया जाए। इसी सोच से हमने लगातार इसको महत्व दिया।
वे आगे कहते हैं कि सबसे पहले हम नारायण जी से मिले थे। वे तम्बूरा लेकर बस से तम्बूरा लेकर जा रहे थे। हम उनके साथ गए, कार्यक्रम में शामिल हुए। यह 1990 के आसपास की बात है। एकलव्य कार्यकर्ताओं ने कबीर साहित्य का संग्रह किया, खुद पढ़ा और लोगों को पढ़ाया। कबीर वाणी से परिचित कराया और अर्थ समझाया।
कबीर मंडलियां पहले से बनी हैं, उन्हें किसी ने नहीं बनाया है। वे मौखिक परंपरा की वाहक हैं। वे लोगों की जरूरत हैं और उनकी अपेक्षाएं पूरी करती हैं। हमने देखा कि लोग दिन भर काम करते हैं और रात में बैठते हैं और सुंदर भजन गाते हैं। तरोताजा होते हैं। कई बार तो रात भर भजन गाकर सीधे सुबह काम पर चले जाते हैं। इसने हमें प्रभावित किया। हम उनसे मिले और सिलसिला चल पड़ा।
एकलव्य कार्यकर्ताओं में भी बदलाव हुआ। स्याग भाई में खुद भी बदलाव आया और उन्होंने एकलव्य से अलग होकर समावेश संस्था के साथ समुदाय आधारित काम किया। वे पंचायतों में महिला सशक्तीकरण का काम करने लगे। एक और उदाहरण है दिनेश शर्मा का, जो एकलव्य के कार्यकर्ता थे। कबीर मंडलियों के काम से जुड़े थे, ब्राह्मण थे। पर कबीर के असर कारण उन्होंने छुआछूत और ऊंच-नीच का भेद मिटाया और दलितों के घर ठहरे, उनसे घुले-मिले। कुछ समय पहले एक बीमारी में असमय निधन हो गया।
इस प्रक्रिया में कई नए कबीर गायक सामने आए। दयाराम सारोलिया ( सार गाडरी, देवास), मानसिंह भोंदिया (देवास), नारायण देल्म्या( बरण्डवा, उज्जैन), कालूराम बामनिया कनेरिया, देवास), साहेब गिर महाराज, (चौबारा घेरा, देवास), रामचंद्र गांगोलिया (उज्जैन), दिनेश देवड़ा (नागझिरी, उज्जैन), प्रहलाद सिंह टिपानिया, (लूनियाखेड़ी, उज्जैन) इत्यादि। देश-दुनिया में कबीर वाणी पहुंच गई। फिल्म निर्माता शबनम विरमानी और कबीर की शोधकर्ता लिंडा हेस इससे जुड़ी। जिन्होंने इसे व्यापक स्वीकृति व विस्तार दिया।
पहले कबीर भजन गायन में भी बदलाव आया। पहले इकतारा, करताल, खंजरी, मंजीरा जैसे वाद्ययंत्रों से कबीर भजन गाए जाते थे। लेकिन अब इसमें कई नए वाद्ययंत्र जुड़ गए हैं। तम्बूरा, हारमोनियम, वायलिन, ढोलक, नगाड़ी, करतार और मंजीरे ने इसे नया रूप दिया है। सुर-तान व कबीर संगत को मजेदार बनाया है। बाजार में कई सीडी आ गई हैं। जगह-जगह कार्यक्रम होते हैं।
रामनारायण स्याग बताते हैं कि हमने कबीर के साथ भीमराव आंबेडकर को भी जोड़ा। आंबेडकर विचार मंच का भी गठन किया था। इसके तहत् भी कई सालों तक बैठकों का सिलसिला चला। आंबेडकर के विचारों व संविधान में लोगों के अधिकारों पर भी बातें की।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि कबीर के 6 सौ साल बाद भी कबीर धारा बह रही है। वह आज मालवा में कबीर भजन मंडलियों में जीवंत हैं, जो नियमित तौर पर उन्हें गाते हैं, सुनते हैं और गुनते हैं, उसमें कुछ जोड़ते और आगे बढ़ाते हैं। कबीर से सीख लेते हैं। खुद बदलते हैं और दूसरों को यही संदेश देते हैं।
कबीर मनुष्य को सबसे बड़ा समझते थे। उन्होंने सभी धर्मों के पाखंड की बात की है और इंसानियत को केन्द्र में रखा है। यह संदेश कबीर गायक लेते हैं और जन-जन तक भजनों के माध्यम से पहुंचाते हैं। यह धारा एक दूसरे को जोड़ती हैं, मिलाती है, भाईचारा सिखाती है। सामाजिक बदलाव लाती है।
यह बदलाव व्यक्तियों के साथ परिवार में भी दिखता है। परिवार व समाज के रिश्तों में बराबरी आई है। रीति-रिवाजों में खुलापन आया है। महिलाएं बाहर निकलने लगी है। सांस्कृतिक बदलाव आ रहा है। मालवा के कबीर आज व्यक्ति, परिवार और कुछ हद तक समाज में भी बदलाव के प्रतीक बन गए हैं।