अपर्णा दास यह जानना चाहती थीं कि औटिस्टिक वयस्कों का क्या होता है. अपर्णा के अनुसार बहुत बच्चों को औटिस्म होता है (अमरीका में 68 में से 1 बच्चा इस विकार का शिकार होता है) और यह संख्या लगातार बढ़ रही है.
“औटिस्म के वयस्कों का क्या होता है? वो कहाँ जाते हैं?”
अपर्णा के लिए यह महज़ शोध का प्रश्न नहीं था. उसके लिए यह सवाल अतिआवश्यक और एकदम व्यक्तिगत था. कारण? उस समय अपर्णा की छोटी बहन रूनी को औटिस्म था. तब अपर्णा 40 वर्ष की, और रूनी 30 की थी. भविष्य में रूनी का देखभाल कैसे होगी? इसकी अभी कोई योजना नहीं बनी थी.
भारत में ऐसा होना बहुत संभव है. यहाँ परिवार के लोग ही, विकलांग व्यस्क बच्चे की, आजीवन सेवा करते हैं. पर जैसे-जैसे उनका अंत समीप आता है उनकी चिंताएं बढ़ती जाती हैं. “हमारी मृत्यु के बाद बच्चे का क्या होगा?”
पर यह मामला कुछ अलग था. यहाँ अपर्णा अपनी छोटी बहन के बारे में चिंतित थी.
औटिस्म
औटिस्म, मस्तिष्क की तंत्रिकाओं के विकास में विकार के कारण होता है. क्यूंकि इसकी तीव्रता भिन्न लोगों में बहुत अलग-अलग होती है इसलिए इसे “स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर” भी कहते हैं. औटिस्म के मुख्यतः तीन लक्षण होते हैं – खराब सामजिक विकास, बाचतीत में गड़बड़ी, साथ-साथ सीमित और बार-बार दोहराने वाली रुचियाँ. औटिस्टिक बच्चा शायद आँख मिलाने से कतराए, बहुत कम, या कुछ न बोल पाए. उसे अन्य लोगों की भावनाएं भ्रामक लग सकती हैं और वो उनसे परेशान भी हो सकता है. उसे केवल एक ही चीज़ से, बार-बार उसी खेल को दोहराने और खेलने में मज़ा आता है. (उदाहरण: खिलौनों को एक विशेष क्रम में बार-बार सजाना, या फिर दिन में एक ही कार्टून फिल्म को सैकड़ों बार देखना).
औटिस्टिक लोगों की दिनचर्या में एक निश्चित ढांचा चाहिए होता है. दिनचर्या में किसी भी किस्म की बाधा और बदलाव से उन्हें परेशानी होती है. सामजिक विकास ठीक से न होने की कारण, उनके लिए रिश्ते बनाना बहुत चुनौतीपूर्ण काम होता है. शरीर की भाषा और सामाजिक संकेत, जिन्हें सामान्य लोग आसानी से समझते हैं, उन्हें औटिस्टिक लोगों को समझने में बहुत मुश्किल होती है. अत्यधिक निपुण औटिस्टिक महिला टेम्पल ग्रंदीन ने, सामान्य लोगों के साथ अपनी बातचीत के बारे में यह कहा, “मुझे लगता है जैसे मैं मंगल ग्रह पर एक मानव-विज्ञानी हूँ.”
90-प्रतिशत औटिस्टिक लोगों के लिए कई चीजें “असंवेदनशील” होती हैं और वो उन्हें परेशान करती हैं. उदाहरण के लिए रोयेंदार चुभने वाला स्वेटर, मोज़े के। अन्दर का अस्तर, या फिर कोई खास खाना उनके लिए असहनीय हो सकता है. जो ध्वनियाँ आम लोगों को सामान्य लगती हैं वो एक औटिस्टिक के लिए असहनीय शोर हो सकती हैं. अगर कोई उन्हें एक विशेष तरह से छुए, तो उन्हें लग सकता है जैसे किसी ने उनके शरीर में सुइयां चुभोई हों.
सामूहिक रूप से एक-साथ रहना औटिस्टिक लोगों के लिए सबसे उपयुक्त होता है क्यूंकि वहां उन्हें लगातार एक निश्चित और नियमित दिनचर्या मिलती है. किसी परिवार के लिए ऐसा माहौल उपलब्ध कराना लगभग असंभव होता है. परिवार में बच्चों, पालकों और बुजुर्गों को रोजाना अलग-अलग, परिवर्तनशील माहौल चाहिए होता है. इसलिए परिवार में सब लोगों की ज़रूरतों को एक-साथ पूरा कर पाना बहुत चुनौती भरा काम होता है. जहाँ सब की ज़रूरतें एक जैसे हों वहां सामूहिक रूप से रहना आसान होता है. जहाँ देखभाल करने वाला स्टाफ, स्थितियों से वाकिफ हो, ऐसे घर में रहना आसान होता है. अगर उम्मीद के मुताबिक दिनचर्या और सुरक्षा मिले तो उससे औटिस्टिक लोगों का बेहतर विकास होता है. संस्था में औटिस्टिक लोगों को अपने विकास के जो मौके मिलते हैं उन्हें अधिकांश परिवारों के लिए घर में उपलब्ध कराना बहुत मुश्किल होता है.
अपर्णा दास एक “स्पेशल एड्युकटर” हैं और वो देहरादून, उत्तराखंड की राजधानी में रहती हैं. 2011 में उन्होंने अपनी बहन रूनी के भविष्य के बारे में गंभीरता से विचार किया. उन्हें जल्द ही उत्तर मिल गया – बहन के भविष्य के बारे में उन्हें खुद ही कुछ ठोस कदम उठाने होंगे, बाकी समाज कोई कुछ नहीं करेगा.
“मेरे जाने के बाद, रूनी कैसी ज़िन्दगी जियेगी? यह सोच कर मेरा दिल दहल जाता था,” उन्होंने कहा. “ऐसे ही अन्य परिवारों पर क्या गुज़र रही होगी उसका भी मुझे अच्छा अंदाज़ था.”
इसलिए 2011 में, अपर्णा ने देहरादून में, एक केंद्र शुरू किया जिसमें व्यस्क औटिस्टिक लोग, सामूहिक रूप से एक-साथ रह सकें. उस समय उनके पास न तो धन था, न ही कोई ईमारत, और न ही किसी भावी निवासी की कोई अर्जी. सबसे बड़ी बात – विशेष बच्चों के साथ काम करने में केवल अपर्णा ही प्रशिक्षित थीं.
पर वो इस सबसे परेशान नहीं हुईं. उनके पास एक सपना था और उन्हें उम्मीद थी कि अंत में सब कुछ ठीक-ठाक हो जायेगा.
और इत्तिफाक से, सब कुछ अच्छा ही हुआ.
आज अरुणिमा केंद्र जिसका नाम उन्होंने अपनी बहन के रूनी के नाम पर रखा खूब फल-फूल रहा है. वहां चौदह किशोर और व्यस्क, पूरे समय रहते हैं (उनमें से एक, दिन में स्कूल जाता है). साथ में देखभाल करने वाले चौदह स्टाफ मेम्बर भी हैं. ऐसा लगता है जैसे एक मरीज़ पर एक स्टाफ हो. पर ज़रा गहराई से सोचें. स्टाफ को यह काम हफ्ते के सातों दिन, चौबीसों घंटे करना होता है. केवल मातापिता ही इस तरह की मेहनत-मशक्कत कर सकते हैं. ऐसे सामूहिक केंद्र, पेशेवर लोगों के सहारे ही चलाये जा सकते हैं. यह लोग रोज शाम को अपने घर वापिस जाते हैं. उन्हें काम के साथ-साथ खुद की ऊर्जा को भी संरक्षित रखना पड़ता है. ऐसे केन्द्र तभी सुचारू रूप से चलते हैं जब वहां के पेशेवर स्टाफ, शिफ्ट के आधार पर काम करें, और जहाँ स्टाफ की ज़रूरतों का भी पूरा-पूरा ध्यान दिया जाये.
स्टाफ में सभी स्थानीय लोग हैं जिन्होंने काम के दौरान ही ट्रेनिंग पाई है. अन्य संस्थाओं जैसा ही अरुणिमा का भी वही अनुभव है – फालतू डिग्रियों से लैस लोगों की जगह, बिना डिग्री वालों को ट्रेन करना ज्यादा आसान होता है. पर उम्दा ट्रेनिंग और कुशलताएँ देने के बावजूद, अपर्णा केंद्र के कामकाज पर हमेशा अपनी पैनी नज़र रखती है. “स्टाफ कैसा बर्ताव करेगा इसकी मुझे चिंता रहती है. मैं लगातार अपने स्टाफ को सिखाती हूँ, उनसे चर्चा कर उन्हें समझाती हूँ, नहीं तो वो औटिस्टिक लोगों के साथ पुराने तरीके से व्यव्हार करना शुरू कर देते हैं.”
जो लोग खुद स्वाबलंबी हो सकते हैं शायद केंद्र उनकी कुछ ज्यादा ही मदद करता हैं. यह भी संभव है कि जो लोग अगले चरण पर जाने को तैयार हों उन्हें केंद्र सही मौके नहीं दे पता हो. कभी-कभी निराश होकर स्टाफ के लोग गुस्सा भी होते हैं कि अमुक मरीज़ ने अभी तक खुद पर नियंत्रण करना नहीं सीखा.
यह सब समझ में आता है. ऐसी संस्कृति जहाँ व्यक्तित्व निर्माण को बढ़ावा नहीं दिया जाता हो, जहाँ घर और स्कूल में बच्चों को दूसरों की तरह बनने या उनकी नक़ल करने की नसीहत दी जाती हो, वहां अरुणिमा द्वारा विविधता और अन्तरों का उत्सव मनाने की बा टपटी लगती है. इसे संभव करने के लिए निरंतर प्रयास करना पड़ता है और योजना बनानी पड़ती है. यह बात लोगों को प्राकृतिक रूप में समझ में नहीं आती है. पर अरुणिमा का स्टाफ नए तरीके सीखने को उत्सुक लगता है. जब स्टाफ मुश्किलों से निबटने के नए तरीके अपनाता है तो, कभी-कभी उन्हें खुद अपने अन्दर छिपी करुणा, कल्पना और नवाचार करने की शक्ति पर आश्चर्य होता है.
अरुणिमा के ढांचे में बहुत कुछ अलग है. स्टाफ और निवासियों का अनुपात अधिक होने से, कार्यक्रम की गुणवत्ता कायम रहती है. किसी भी गलत व्यवहार पर तुरंत कार्यवाही होती है और उसे ठीक किया जाता है. इससे स्टाफ और निवासियों दोनों का, केंद्र पर पूरी तरह यकीन बरक़रार रहता है. स्टाफ जानता है कि ढांचे में, किसी भी गलत व्यवहार के तुरंत ठीक करने की व्यवस्था है. स्टाफ से उनकी क्षमतायों से ऊपर का काम नहीं करवाया जाता है. निवासी भी जानते हैं कि हालात को कभी भी हाथ से बाहर नहीं जाने दिया जायेगा. उन्हें अपनी भावनायों से अविभूत होने भी नहीं दिया जायेगा. इस प्रकार वो यहाँ सुरक्षित रह सकेंगे.
“मुझे अपने स्टाफ पर नाज़ है,” अपर्णा कहती हैं. “उनमें अविश्वसनीय समर्पण है. छुट्टी से वापिस आते वक़्त उन्हें बस अपनी गैरहाजरी में हुई समस्याओं की चिंता रहती है. सपने में भी उन्हें संस्था के लोग दिखाई देते हैं.”
ऐसी लगन और समर्पण भाव को खरीदा नहीं जा सकता. पर उसकी कुछ कीमत ज़रूर चुकानी पड़ती है. विकलांगता के क्षेत्र में अरुणिमा के स्टाफ का वेतन ठीकठाक है (विशेष शिक्षकों का वेतन 8000 रुपये माह से शुरू होता है). स्टाफ को लगातार समुदाय के लोगों से मिलने जाना पड़ता है. कार्यक्रम में कंप्यूटर टेक्नोलॉजी का खूब उपयोग होता है. केंद्र को आरामदेय और आनंदायी बनाया गया है. वहां अच्छी क्वालिटी का खाना दिया जाता है. कुल मिलाकर केंद्र में जीवन स्तर, महंगा नहीं पर उच्च कोटि का ज़रूर है.
केंद्र ने दो घर किराये पर लिए हैं. इससे किराये पर काफी खर्च होता है. केंद्र के एक नहीं, दो घर हैं. यह खुद में, कार्यक्रम की गुणवत्ता का प्रमाण है. अन्य संस्थाएं इतने कम निवासिओं के लिए शायद एक घर से ही काम चला लेती. पर अपर्णा अपने मत पर अडिग हैं – वो चाहती हैं कि घर और स्कु अलग-अलग स्थानों पर हों. अन्य लोगों की तरह ही औटिस्टिक लोग रात को घर में ही रहें, और दिन में कार्यक्रम के लिए किसी दूसरी जगह जाएँ. प्रोजेक्ट को सफल बनाने के लिए अपर्णा कैसे-कैसे करके धन जुटाती हैं.
वो धन कैसे जुटाती हैं? अरुणिमा में फीस लगती है. निवासी हर माह 26000 रूपए देते हैं और उनके परिवार यह कीमत खुशी-खुशी चुकाते हैं. कुछ अमीर परिवार, गरीब बच्चों की आंशिक फीस भी देते हैं. पर फिर भी 52-लाख का सालाना बजट कम पड़ता है. उस कमी को व्यक्तिगत चंदों और दान से पूरा किया जाता है.
अपर्णा अपने आप खुद धन जुटाने का काम करती हैं. इसमें उनके समर्थक और चहेते सहायता करते हैं, कभी कोई बड़ी कम्पनी अनुदान देती है, पर अक्सर किसी जादुई करिश्मे से ही बजट पूरा हो पाता है. धन जुटाने में बहुत श्रम लगता है, पर अपर्णा के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती नहीं है. औटिस्टिक लोगों की मदद करना और उनकी रोज़मर्रा की समस्यायों से निबटना भी अब इतना चुनौतीपूर्ण नहीं रह गया है. “काम का यह हिस्सा आसान बना है! मरीजों को मौका देने के बाद उनमें अभूतपूर्व परिवर्तन आये हैं. केंद्र उनसे ऊंची अपेक्षाएं रखता है और वो उन्हें पूरा भी करते हैं. इसमें कोई परेशानी नहीं है.”
“मुश्किल आती है समाज के गलत मूल्यों के कारण और जनता के साथ व्यवहार के समय. उससे बहुत थकान और परेशानी होती है,” वो समझाती हैं. अपने पांच साल के अस्तित्व में अरुणिमा को पांच बार जगह बदलनी पड़ी है. स्थान बदलने के कारण कई बार व्यावहारिक होते हैं तो कई बार उसके पीछे पड़ोसियों की नाराज़गी होती है.
हर बार जब केंद्र शिफ्ट होता है तो समुदाय में चेतना जागरण का एक मुहिम चलाया जाता है. इसके लिए घर-घर जाकर लोगों की शंकायों, पूर्वाग्रहों और गलतफहमियों को दूर किया जाता है. यह कठिन काम है और औटिस्म की प्रकृति के कारण इसकी गति धीमी होती है. (शिफ्टिंग में केंद्र के कुछ निवासियों की हालत ख़राब हो जाती है. औटिस्म के बारे में नासमझी के कारण पड़ोसी भयभीत हो जाते हैं). इसका क्या नतीजा होता है? लगता है हम एक कदम आगे बढ़कर फिर तीन कदम पीछे हटते हैं. एक जगह, पड़ोसियों ने पलिस में शिकायत दर्ज करायी कि केंद्र का स्टाफ मरीजों पर अत्याचार कर रहा था और वे चीख रहे थे. यह आवाजें पड़ोसियों को सुनाई दे रही थीं.
पर इसके साथ-साथ अपर्णा को इस बात का भी एहसास है कि अरुणिमा की वजह से विकलांगता के क्षेत्र में धीरे-धीरे करके बहुत बदलाव आया है. जब केंद्र नए इलाके में शिफ्ट होता है तब अपर्णा वहां अभियान चलाती हैं. उससे लोगों के नज़रिए में फर्क पड़ा है. केंद्र का काम न केवल औटिस्टिक किशोरों की सहायता करना है पर साथ-साथ आम लोगों और समुदाय को भी शिक्षित करना है.
“जब हम पहले इस इलाके में आये, तो हमारा बहुत विरोध हुआ,” अपर्णा ने मुझे बताया. “लोग काफी घबराये थे. वो औटिस्म के बारे में बिलकुल नहीं जानते थे. औटिस्टिक बच्चों का व्यवहार, उनके खुद के बच्चों से बिलकुल अलग होता है, वो इससे भी अनजान थे. पर हमने घर-घर जाकर अपना जागृति अभियान चलाया. हमने उन्हें औटिस्म विषय, और अपने काम के बारे में समझाया. उससे पड़ोसियों का रवैया बदला और उन्होंने बाद में हमसे अच्छा सलूक किया. मोहल्ले के लोग अब हमारे केंद्र में आते हैं, और वहां बनी चीजें खरीदते हैं. इस बार उन्होंने हमें मोहल्ले की होली पार्टी में आमंत्रित किया और वहां हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया. असल में हमारे पड़ोसी बहुत भले हैं.
पड़ोसियों की प्रतिक्रिया का एक अंश वैचारिक भी हो सकता है. अब वो औटिस्म को ज्यादा जानते, समझते हैं (औटिस्म, मधुमेह और उच्च रक्त-चाप जैसे ही परिस्थिति है – जिसे काबू में रखा जा सकता है, पर उसका कोई इलाज नहीं है). पर दसरी ओर पड़ोसियों पर अरुणिमा का जादुई प्रभाव भी अवश्य पड़ा होगा.
मरीजों में सुधार और उनके जीवन में आये परिवर्तन को सराहने के लिए आपका एक मनोचिकित्सक होना ज़रूरी नहीं है. धीरे-धीरे करके औटिस्म के युवाओं और उनके परिवारों की ज़िन्दगी में जो क्रन्तिकारी बदलाव आया है उसे निहारने के लिए आपका एक विशेष शिक्षक होना ज़रूरी नहीं है.
अगर आप एक औटिस्टिक बच्चे के पालक होते तो शायद आप अरुणिमा द्वारा लाये शान्ति और मुक्ति के बदलाव को, भिन्न लोगों की स्वीकृति को, और खुशियों से भरी संभावनायों के इस संसार को अधिक सराह पाते.
Read the Original Story in English “Arunima: Joy Possible“.