पौष्टिक खेती की ओर लौट रही हैं भीली किसान (In Hindi)

By बाबा मायाराम Baba MayaramonNov. 25, 2023in Environment and Ecology

विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)

(Paushtik Kheti Ki Or Laut Rahi Hain Bheeli Kisaan)

सभी फोटो क्रेडिट: सुभद्रा खापर्डे

लुप्त हो रही देसी बीजों की खेती और उसकी संस्कृति को फिर से प्रचलन में लाने की कोशिश की जा रही है

“मैंने महिला स्वास्थ्य के मुद्दे पर काम करते हुए देखा कि उनकी सेहत बहुत कमज़ोर है, उनमें खून की कमी है और वज़न भी कम है। उनकी अधिकांश स्वास्थ्य समस्याओं की वजह पौष्टिक आहार न मिलने से जुड़ी हुई हैं, इसलिए हमने पहले खुद पौष्टिक अनाजों की जैविक खेती की, अनुभव कर सीखा और अब आदिवासी महिला किसानों को भी इससे जोड़ने में लगे हैं।” यह पांडुतालाब गांव की किसान व सामाजिक कार्यकर्ता सुभद्रा खापर्डे थीं।

पश्चिम मध्यप्रदेश का यह इलाका नर्मदा नदी व सतपुड़ा की घाटी के बीच स्थित है। यहां के बाशिन्दे मुख्यतः भील आदिवासी हैं। भील, भिलाला, बारेला, मानकर, नाइक और पटेलिया अनुसूचित जनजातियां एक साथ भीलों के नाम से जानी जाती हैं। अधिकांश आदिवासी भूमिहीन और कम जोतवाले किसान हैं। यहां अधिकतर खेती असिंचित व वर्षा आधारित है। चूंकि खेती से बहुत कम आमदनी होती है, इसलिए आजीविका के लिए मजदूरी भी करनी पड़ती है। 

यहां के गांवों की बसाहट घनी नहीं है,विरल है। खेतों में घर (झोपड़ी) बने हुए हैं। उनकी आपस में बहुत दूरी होती है। पहाड़ियों की टेकरियों व फलियों (मोहल्ला) में कच्चे व खपरैल के घर हैं। घास-फूस व लकड़ियों के घरों में दीवार भी मिट्टी, लकड़ियों व ईंटो से बनी हैं। मुर्गा, मुर्गी, बकरी और मवेशी भी साथ-साथ रहते हैं। 

खेती में बदलाव की कहानी वर्ष 2015 से शुरू होती है। इसकी पहल सुभद्रा खापर्डे व उनके पति राहुल बनर्जी ने की है। यह दंपति बरसों से समाज कार्य में लगा है। सुभद्रा खापर्डे ने उनके सामाजिक काम की शुरूआत एकता परिषद से की, वहीं राहुल बनर्जी ने आईआईटी खड़गपुर से सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर अलीराजपुर में आदिवासियों के बीच लम्बे अरसे तक काम किया। 

जैविक खेती को व्यवस्थित रूप से करने और इस काम को आगे बढ़ाने के लिए एक संस्था बनाई। इस संस्था का नाम महिला जगत लिहाज समिति (https://mahilajagatlihazsamiti.in/) है। यह गांव, देवास जिले की उदयनगर तहसील में हैं। इससे पहले राहुल बनर्जी ने अलीराजपुर जिले में खेडुत मजदूर चेतना संगठ के माध्यम से आदिवासियों के अधिकार, शिक्षा व सम्मान के लिए काम किया है। 

सुभद्रा खापर्डे ने बताया कि सबसे पहले हमने एक एकड़ ज़मीन खरीदी और वहां आदिवासी संस्कृति व आजीविका संवर्धन केन्द्र की स्थापना की। यह केन्द्र बंजर और पहाड़ी ज़मीन पर स्थित है। इस ज़मीन को उपजाऊ व पानीदार बनाने के लिए कई तरह के प्रयास किए गए और मिट्टी-पानी का संरक्षण किया। वैकल्पिक सौर ऊर्जा से सिंचाई की। मिट्टी के क्षरण को रोकने के लिए मेड़ बंधान किया गया है और पानी को रोकने के लिए पहाड़ी ढलानों पर कई स्थानीय प्रजातियों के पेड़ लगाए गए हैं, जिनमें आंवला,सीताफल, बांस, करंज, नीम, आम इत्यादि शामिल हैं।

पांडुतालाब का खेत व संग्रहालय

हाल ही में मैंने इस इलाके का तीन दिनी दौरा किया। राहुल बनर्जी के साथ मैंने पांडुतालाब की खेती देखी और देवास,खरगोन, अलीराजपुर और झाबुआ जिले की कई महिला किसानों से मुलाकात की।

हमने रिमझिम बारिश के बीच सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा की। रास्ते में मिट्टी, हवा, पेड़ों की खुशबू थी। दोपहर में बारिश में भीगी साफ हवा थी। हरा-भरा जंगल था। पत्तों की सरसराहट, कीट-पतंगों की फरफराहट थी। कहीं कहीं मेढकों का टर्राना, हवा का हल्का स्पर्श, हवा में झूलते मक्के, ज्वार, कपास, मूंगफली व सोयाबीन के खेत थे। हरे घास के मैदान थे। कई नदी-नाले की कल-कल छल-छल थी। बैलगाड़ियों की चर्र चूं की आवाजें और बैलों की गले की घंटियां ध्यान खींचती थीं। ऊंची पहाड़ियों में तो हम बादलों के बीच से गुजरे।

पांडुतालाब पहुंच कर मैंने खेत पर एक निगाह डाली। फसलों को घूमकर नजदीक से देखा और छुआ। यहां राला, भादी, बट्टी, सांवा, रागी, बाजरा, ज्वार और मक्के, तुअर, चौला, मूंगफली और आंबाड़ी की फसलें लहलहा रही थीं। देसी डंवर व दूबराज धान भी थी। इसके अलावा, देसी भिंडी, छोटा टमाटर, पालक, गिलकी, तोरी, चावला और सेमी थीं।

यह केन्द्र आदिवासी संस्कृति और परंपरागत खेती की याद भी दिलाता है। इसका निर्माण भी मिट्टी, पत्थर व लकड़ी से किया गया है। आदिवासी कारीगरों द्वारा लकड़ियों पर नक्काशी की गई है। मिट्टी के घर की अधिकांश सामग्री स्थानीय थी। मिट्टी भी पुराने टूटे हुए घर से लाई गई थी। पुरानी लकड़ी खरीदकर उसका इस्तेमाल किया। मिट्टी के खपरैल बनवाए और छत पर चढ़ाए। यहां कुआं और सौर ऊर्जा से संचालित मोटर पंप भी है।

संग्रहालय में कलाकृतियां

इस केन्द्र के माध्यम से आदिवासियों की लोक परंपराएं जैसे लोकगीत, कहानियां, वाद्य यंत्र, कारीगरी को संरक्षित करने की कोशिश की जा रही है। इसी कड़ी में संस्था के माध्यम से भील वाइस (https://www.youtube.com/channel/UCndkAYBLF_2ZWRPHZRJglaw) नामक श्रव्य दृश्य कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसके लिए अलीराजपुर जिले के ककराना गांव में पहाड़ी पर एक स्टूडियो बनाया गया है, जिसमें भील आदिवासियों की कहानियां, गीत व पर्यावरण शिक्षण के कार्यक्रम पर वीडियो बनाकर यू ट्यूब चैनल पर प्रसारित किए जाते हैं। यहां आदिवासी बच्चों के लिए एक आवासीय स्कूल भी है, जिसे आदिवासी शिक्षक ही संचालित करते हैं। भीलों की जीवनदायिनी देवी रानी काजल के नाम पर इस स्कूल का नाम रानी काजल जीवन शाला रखा गया है।

सुभद्रा खापर्डे ने बताया “ पांडुतालाब केन्द्र में 30 किस्म के अनाज, दलहन, तिलहन और सब्जियों के देसी बीज हैं। यह बीज हमने गांव-गांव जाकर इकट्ठे किए हैं। इसके साथ इन बीजों से जुड़े गुणधर्म व जानकारी भी प्राप्त की। यह पहल देसी बीजों का संरक्षण व संवर्धन करने की है।”

पांडुतालाब में बीज संग्रहालय

वे आगे बतलाती हैं कि केन्द्र में समय-समय पर महिला किसानों की बैठकें व कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। इस साल मई में मदर्स डे भी मनाया। आसपास के गांवों की महिलाओं को इससे जोड़ा। उन्हें भी देशी बीजों की जैविक खेती के बारे में बताया और देशी बीज वितरित किए, जिससे वे भी उनके खेतों में बिना रासायनिक खाद के खेती कर सकें।

मदर्स डे पर बैठक

सुभद्रा खापर्डे ने बताया कि इन देसी बीजों की खेती को लगातार अन्य आदिवासी जिलों में फैलाया गया है। इसी तरह का एक और केन्द्र अलीराजपुर जिले के ककराना गांव में है। इस केन्द्र से आसपास के कई गांव की महिला किसानों को देसी बीज बांटे गए हैं। जिससे वे उनके खेतों में पौष्टिक अनाज उगा सकें और उसे उनके भोजन में शामिल कर सकें। 

पांडुतालाब केन्द्र के कार्यकर्ता बदरीलाल और उनकी पत्नी हीराबाई ने बताया कि खेती में किसी भी प्रकार का रासायनिक खाद व कीटनाशक का इस्तेमाल नहीं करते हैं। जैव कीटनाशक खुद तैयार करते हैं और छिड़काव करते हैं, जिससे कीट मर जाते हैं। खेत के कचरे से जैव खाद जीवामृत भी बनाते हैं, गोबर खाद भी डालते हैं, जिससे मिट्टी उपजाऊ होती है।

सुभद्रा खापर्डे के साथ महिला कार्यकर्ता

अलीराजपुर जिले के खोडअम्बा गांव की तेजलीबाई और बेलूबाई ने खेत में ज्वार, सांवा, उड़द, बाजरा और बट्टी उगाई हैं। उन्होंने बताया कि इस खेती में कोई भी लागत नहीं है। न तो किसी प्रकार का रासायनिक खाद व कीटनाशक की जरूरत है और न ही बाजार से बीज खरीदने की और देसी अनाज खाने में बहुत स्वादिष्ट हैं। पहले यह देसी बीज लुप्त हो गए थे, जिसे संस्था से उन्हें वापस मिल गए हैं। 

तेजलीबाई ने हमें उनके खेत से ताजी आंबाड़ी की भाजी और मक्के की रोटी खिलाई। उसी दिन उनके घर ‘नवाखाई’ की पूजा हुई है। नवाखाई यानी नया खाना। खेतों में फसलों के स्वागत के लिए यह पारंपरिक त्यौहार है। इसे छत्तीसगढ़ और ओडिशा में भी किसान बड़े धूमधाम से मनाते हैं।

अट्ठा गांव की वेसती बाई, ककराना की रायटी बाई और नाकू बाई ने बताया कि अब हमें पुराने देसी बीज मिल गए हैं। इनकी खेतों में उगाते हैं और हर साल कुछ नए किसानों को इसके बीज देते हैं। ककराना में बीज बैंक है, जिससे हर साल बीज ले जाते हैं और जैव कीटनाशक बनाना भी सीखते हैं।    

कुल मिलाकर, इस पहल के बारे में कुछ बातें कहीं जा सकती हैं, जैसे यह पहल  पर्यावरण हितैषी है। यह पद्धति न केवल देशी बीज, देशी गोबर खाद पर आधारित है बल्कि जैव कीटनाशक जैसी नई तकनीकों से भी उत्पादन बढ़ाने में कारगर है। प्रतिकूल परिस्थितियों में उत्पादन बढ़ाने में उपयोगी है। क्योंकि मिश्रित खेती में कोई एक फसल मार खा जाती है तो दूसरी फसलों से पूर्ति हो जाती है। इसमें लगातार पारंपरिक बुजुर्ग किसानों से सीखने पर जोर दिया जाता है। क्योंकि देसी बीजों के साथ परंपरागत ज्ञान भी जुड़ा रहा है। 

यह खेती में बाहरी निवेश की लागत भी कम करने की पद्धति है। यह ऐसे समय और मौजूं है जब देश भर में किसान अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं। जिनमें से अधिकांश ज्यादा लागत के बोझ से कर्जग्रस्त होकर आत्महत्या जैसे अतिवादी कदम उठाने लगते हैं। ऐसे समय में पुरानी देशी बीजों व हल-बैल की कम लागतवाली खेती को याद करना और उस पर अमल करना बेहद जरूरी हो गया है। इसमें मेहनत जरूर लगती है पर वह भी बेरोजगारी की समस्या कम करेगी। सरकार को इसे पर्याप्त मात्रा में अनुदान देकर लोकप्रिय बनाने की दिशा में पहल करनी चाहिए।

जैविक खेती से जैव विविधता, मिट्टी की गुणवत्ता, पानी के संरक्षण में वृद्धि होगी एवं जलवायु बदलाव के दौर में कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी। यह श्रमिक हितैषी और बहुत रचनात्मक है, इसलिए इसमें लोगों को रचनात्मक आजीविका में शामिल होने का मौका मिलता है। यह ककराना के स्कूली बच्चों, शिक्षकों के लिए भी एक सीख है। यह पहल स्कूलों के लिए भी शिक्षा में श्रम के मूल्य को बढ़ाती है, जिसका हमारी शिक्षा में लोप हो गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि किसानों को पौष्टिक आहार मिलेगा। कुल मिलाकर, यह पहल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।

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