जंगल को कैसे बचा रहे हैं छत्तीसगढ़ के कमार ? (In Hindi)

By बाबा मायाराम (Baba Mayaram)onSep. 27, 2023in Environment and Ecology

विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)

(Jungle Ko Kaise Bacha Rahe Hain Chhattisgarh Ke Kamaar)

सभी फोटो क्रेडिट: प्रेरक संस्था

सामुदायिक वन अधिकार मिलने के बाद  जंगल को आग से बचाना, पौधारोपण करना, जंगल की रखवाली करना इत्यादि का काम किया जा रहा है, जिससे पर्यावरण, दीर्घकालीन विकास और आजीविका की रक्षा हो सकेगी।

“इस साल हमारे गांव के आसपड़ोस के जंगल में आग लगी, लेकिन हमारे जंगल में नहीं लगी, क्योंकि हम जंगल की रखवाली करते हैं। बारिश के पहले पौधारोपण करते हैं और पेड़ पौधों के साथ पशु-पक्षियों को भी बचाते हैं।” यह आमझर गांव के राधेलाल सोरी थे।

छत्तीसगढ़ में गरियाबंद जिले में छोटा सा गांव आमझर जंगल के बीच स्थित है। यहां के बाशिन्दे कमार आदिवासी हैं। यह करीब 70 घर का गांव है। कमार, विशेष पिछड़ी जनजाति समूह (पीवीटीजी) के अंतर्गत आते हैं। ये आदिम जनजातियों में से एक हैं। इनकी पारंपरिक जीवनशैली प्रकृति के करीब है। कमारों की आजीविका बांस के बर्तन बनाकर बेचने और जंगल से भी जुड़ी से है। हाल के कुछ वर्षों से कमार खेती की ओर भी मुड़े हैं।

मैंने हाल ही में इस इलाके का दौरा किया था। मुझे प्रेरक स्वयंसेवी संस्था के दिनेश कुमार साहू, कोमलराम साहू, यशोदा यादव, लोकेश नेताम और भुवनेश्वरी सोरी ने गांव के लोगों से मिलवाया था और जंगल दिखाया था। जंगल में हवा की खुशबू थी। गर्म लू के थपेड़ों की बजाए हवा में कुछ नमी थी। एक ओर चिड़ियों की आवाज आ रही थी और दूसरी ओर पैरी नदी कल-कल बह रही थी, उसकी आवाज आ रही थी। हवा की ताजगी, पेड़ों की चमकीली पत्तियां, कीट-पतंगों की भिनभिनाहट और पानी की झिलमिलाहट मुझे खींच रही थी।

राजिम स्थित प्रेरक स्वयंसेवी संस्था इस इलाके में लंबे समय से काम कर रही है। देसी बीजों की जैविक खेती, शिक्षा, बुजुर्गों के लिए आश्रम, मानसिक स्वास्थ्य की समस्या से ग्रस्त युवाओं के लिए केन्द्र इत्यादि। पिछले कुछ वर्षों से वन अधिकार कानून के तहत् सामुदायिक वनाधिकार के लिए लोगों को जागरूक करने से लेकर वन प्रबंधन, पौधारोपण, जल संरक्षण कई कामों में संस्था सहयोग कर रही है।

वन अधिकार समिति की बैठक

प्रेरक स्वयंसेवी संस्था के निदेशक रामगुलाम सिन्हा बताते हैं कि हमारा उद्देश्य आदिवासियों के जीवन में बेहतरी लाना है। इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों पर समुदायों के अधिकारों की पैरवी करते हैं। लघु वनोपज संरक्षण व संवर्धन, वन खाद्यों की सुरक्षा, जैव विविधता का संरक्षण और वन अधिकार कानून के तहत् सामुदायिक वनाधिकार इत्यादि काम किए जा रहे हैं।   

वे आगे बताते हैं कि कमार आदिवासियों का जीवन जंगल पर निर्भर है। पूर्व में वे शिकार करते थे, पर अब शिकार पर प्रतिबंध है। अब वे वनोपज एकत्र करना, बांस के बर्तन बनाना, मजदूरी करना इत्यादि काम करते हैं, जिनसे उनकी आजीविका चलती है।

इसके अलावा, वे झूम खेती भी करते थे। इसे यहां बेवर खेती भी कहते हैं। झूम खेती में हल नहीं चलाया जाता है। छोटी-मोटी झाड़ियां व पत्ते काटकर उन्हें बिछाया जाता है, सूखने पर उन्हें जलाया जाता है और फिर उस राख में बीज बिखेर दिए जाते हैं। जब बारिश होती है तो बीज उग जाते हैं। फसलें पक जाती हैं। यहां विशेषकर झुनगा ( बरबटी की तरह) खेती की जाती है।

वे आगे बताते हैं कि पेड़ों के पत्तों से लेकर, फल, फूल, हरी पत्तीदार भाजियां, कंद-मूल और पारंपरिक जड़ी-बूटियां इत्यादि सभी के लिए जंगल पर निर्भर हैं। चाहे विवाह में मंडप के लिए छायादार पेड़ों की शाखाएं हों या तीज-त्यौहार में पूजा के लिए पेड़ों के हरे पत्ते, हर तरह से जंगल ज़रूरी है। कमारों में संचय करने की प्रवृत्ति नहीं है, वे रोज़ कमाते हैं और खाते हैं।

रामगुलाम सिन्हा बताते हैं कि मौसम बदलाव भी हो रहा है। इसलिए जंगल को बचाना और उसे बढ़ाना ज़रूरी है। अब तो इस गांव को वन अधिकार कानून के तहत् सामुदायिक वन संसाधन का अधिकार मिल गया है, इसके लिए वनों की सुरक्षा के साथ आजीविका की सुरक्षा करना आवश्यक हो गया है।

नज़री नक्शा बनाते ग्रामीण

आमझर गांव के राधेलाल सोरी बताते हैं कि वैसे तो हम जंगल की रखवाली व देखभाल लम्बे समय से करते आ रहे हैं पर इसे व्यवस्थित रूप से दो-तीन सालों से कर रहे हैं। जब से वन अधिकार कानून के तहत् वर्ष 2022 में वन संसाधन का अधिकार मिला है, उसके बाद वन प्रबंधन समिति का गठन किया गया है। इसके पूर्व सामुदायिक वन अधिकार लेने के लिए ग्रामसभा का आयोजन करना, समिति गठित करना, नज़री नक्शा बनाना, दावा सत्यापन करवाना और फार्म जमा करने की लंबी प्रक्रिया चली, तब जाकर अधिकार मिला। इसके बाद जंगल की रखवाली, आग से बचाने के उपाय और पौधारोपण का काम किया जा रहा है।

उन्होंने बताया कि गांव के लोग वनविभाग में पौधारोपण के लिए दो सौ पौधा लेने गए थे, उन्होंने कहा है कि ग्राम पंचायत का प्रस्ताव दीजिए, तब हमने ग्राम पंचायत से प्रस्ताव पास कर वनविभाग को भेजा है, वहां की पौधशाला से पौधे मिलने पर उनका रोपण किया जाएगा।

गांव की हेमिन बाई, सुखंतिन बाई, लक्ष्मी बाई और भारती ने बताया कि बांस से खुमरी, मोरा, टुकना, झिंझरी, सूप, चांप, झाड़ू और चटाई बनाते हैं, जिन्हें बेचकर पेट पालते हैं। जंगल से बहुत सारी खान-पान की चीजें मिलती हैं, जैसे फल, फूल, हरी पत्तेदार भाजियाँ इत्यादि। फुटू ( मशरूम) भी कई तरह के मिलते हैं, जैसे भिमोरी फुटू, भदेली फुटू, पैरा फुटू इत्यादि।

इसी प्रकार, कई प्रकार की भाजियां मिलती हैं- जैसे चरौटा भाजी, अमटी भाजी, कोलियारी भाजी इत्यादि। फलों में तेंदू, चार, आम, कुसुम, मोकाई और भिलवां मिलते हैं। जब वर्ष 2001-02 में जब अकाल पड़ा था तब करूकांदा और छींदकांदा  लोग खाते थे। इन्हीं सबके सहारे मुश्किल समय काटा था।

वन प्रबंधन समिति के लाल सिंह सोरी ने बताया कि आमझर गांव के जंगल में इस साल आग नहीं लगी, क्योंकि गांव के लोग बारी-बारी से इसकी रखवाली करते हैं। जबकि आसपड़ोस के जंगल में आग लगी है, उनके जंगल में नहीं लगी। जंगल में आग लगना आम बात है। इसका मुख्य कारण महुआ संग्रह के लिए पेड़ के नीचे कचरा व पत्तों में आग लगना है। इसके कारण आग फैल जाती है। चरवाहे व राहगीरों के माध्यम से आग लग जाती है। जंगल में आग की वजह से छोटी-मोटी झाड़ियां, फलदार पेड़ और कंद-मूल इत्यादि जलकर नष्ट हो जाते हैं।

आग से जंगल बचाने जाते ग्रामीण

वे आगे बताते हैं कि महुआ बीनने से पहले गांव में वन प्रबंधन समिति की बैठक हुई थी, उसमें तय हुआ कि कुछ जगह छोड़कर आग लगाएं। इसके लिए पतझड़ में जो पत्ते झड़ते हैं, उन्हें अलग करके रखते हैं, जिससे आग न लगे। इसके साथ ही, जंगल की सीमा में एक गड्ढा बनाया गया है, ताकि आग से जंगल को बचाया जा सके। आग से जलनेवाली चीजों के इस्तेमाल पर रोक लगाई है।

वे बतलाते हैं कि वे सुबह से शाम तक जंगल की रखवाली करते हैं। अगर कोई व्यक्ति जंगल में मिलता है तो उसे हिदायत देते हैं कि जंगल में आग मत लगाना। जंगल में आग लगने से खेतों की नमी खत्म हो जाती है। इतना ही नहीं, तरह तरह के कीट-पतंग, सांप, मेढ़क और पक्षी, यह सब भी इस आग से जलकर मर जाते हैं। इनमें से कई खेती में उपयोगी हैं।

सामुदायिक वन संसाधन अधिकार की नामपट्टिका

गांव की वन प्रबंधन समिति ने जंगल की सुरक्षा के लिए नियमावली बनाई गई है, जिससे जंगल को किसी प्रकार नुकसान न हो, यह सुनिश्चित किया जा रहा है। गीली लकड़ी न काटें। अगर गांव के बाहर से कोई व्यक्ति जंगल आता है तो उसे लकड़ी ले जाने के लिए मना करते हैं। बकरी व मवेशियों को भी जंगल में ले जाने से मना करते हैं, जिससे छोटे पौधों को नुकसान न हो।

इसी वर्ष राजस्थान के भेड़ चरानेवालों को लोगों को गांववालों ने जंगल में भेड़ चराने से रोका था, क्योंकि छोटे पौधों को इससे नुकसान होता है। गांव के मवेशियों के लिए एक ही जगह चराई पर रोक है, जिससे छोटे पेड़ पौधों को नुकसान न हो। इसके साथ ही दुर्लभ प्रजाति के पेड़ों को काटने पर रोक है।

वे आगे बताते हैं जलाने के लिए सूखी लकड़ी ही लाएंगे, जहां जंगल में पेड़ कम हैं, वहां पौधारोपण करेंगे, जंगल की कटाई नहीं हो, वनोपज सबको मिले, यह सुनिश्चित करेंगे, मशरूम के लिए किसी के लिए रोक-टोक नहीं है। अगर किसी व्यक्ति को नया मकान बनाना है या मरम्मत करना है तो लकड़ी के लिए ग्रामसभा की अनुमति लेनी होगी।

इस साल भी पौधारोपण करने की तैयारी की जा रही है। सागौन, आंवला, महुआ, भोइली, हर्रा, बहेड़ा, बांस, नीम, इमली, आम इत्यादि। पेड़ होते हैं, तो उऩमें पक्षी घोंसला बरनाते हैं, उसमें बसेरा करते हैं और पानी के स्रोत बचते हैं।

लालसिंह सोरी बताते हैं कि घने जंगल होने के कारण ज़मीन में नमी होती है जो खेती के लिए बहुत अच्छी होती है। पेड़ की शाखाएं जैसे- कर्रा, हर्रा, तेंदू और चार से पानी होकर खेतों में जाता है, वह मिट्टी को बहुत उपजाऊ बनाता है। जंगली चूहा खेतों में बिल बनाकर रहता था, जिससे खेतों की जुताई हो जाती थी, चिड़िया भी कीटनाशक का काम करती हैं, इनके कम होने से फसलों में कीट ज्यादा लगते हैं।

कुल मिलाकर, यहां के ग्रामीण अपने गांव के आसपास का जंगल, चरागाह, वन, जलस्रोत सुधार कर गांव के दीर्घकालीन विकास व गांव के पर्यावरण की रक्षा की संभावनाओं को निरंतर बढ़ा रहे हैं। यहां सामुदायिक वन संसाधन अधिकार मिलने के बाद से जंगल की रखवाली, पौधारोपण और जंगल को बचाने और बढ़ाने के लिए नियम कायदे बनाए हैं, जिससे पर्यावरण, जैव विविधता के संरक्षण की रक्षा के साथ आजीविका की रक्षा भी हो रही है। कमार आदिवासियों का आत्मविश्वास बढ़ रहा है।

जलवायु बदलाव के दौर में जल संरक्षण व हरियाली का बने रहना, गांव में दो सबसे बड़ी ज़रूरतें हैं, वनों की रक्षा से दोनों काम हो रहे हैं,जंगल होगा तो पानी व मिट्टी का भी संरक्षण होगा। हमें वन खाद्य, चारे, वन, मिट्टी संरक्षण के साथ स्थानीय वृक्षों को महत्व देना चाहिए। इस गांव के लोगों ने यह काम कर दिखाया है, जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।

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Dr D K Sadana May 2, 2024 at 4:51 pm

Excellent approach – a practical, working and beneficial system. Benefits not only to self by way of livelihood but also in terms of better quality and diverse nutrition, and to environment, to forest, to animal world as well. Compliments.
-D K Sadana