विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)
फोटो क्रेडिट – अशीष कोठारी
इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा, जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब दुख का सागर झलकेगा, जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नगमें गाएगी, वो सुबह कभी तो आएगी, साहिर लुधयानवी का यह गीत कोरस में गाया जा रहा है। यह गीत असंगत नहीं था, यह गीत वही कह रहा था, जो यहां एकत्र हुए लोग सपना संजोए हुए थे। यह पश्चिमी हिमालय विकल्प संगम का मौका था, जो उत्तराखंड के छोटे से गांव देवलसारी में चल रहा था। यहां न कोई भाषण था, न कोई तामझाम। पश्चिमी हिमालय के अलग-अलग इलाकों के लोग उनके काम और अनुभव को साझा कर रहे थे। विकल्पों की खोज कर रहे थे।
टिहरी-गढवाल जिले में देवलसारी गांव स्थित है, जहां 21 से 24 अक्टूबर तक विकल्प संगम का आयोजन हुआ, जिसमें पश्चिमी हिमालय के करीब 35 लोगों ने हिस्सा लिया। इसमें बीज बचाओ आंदोलन, पर्यावरण संरक्षण व तकनीकी विकास समिति, नौला फाउंडेशन, श्रमयोग, स्नो लेपर्ड ( हिम तेंदुआ) कंजरवेंसी इंडिया ट्रस्ट, लद्दाख, इक्वेशन्ज, कैम्प हॉर्नबिल, ट्रॅवलर्स यूनिवर्सिटी, लोक विज्ञान संस्थान, पवलगढ़ प्रकृति प्रहरी, कार्बेट ग्राम विकास समिति, कल्पवृक्ष और तोसा मैदान बचाओ, कश्मीर, इत्यादि के प्रतिनिधि शामिल हुए। इसके अलावा, मैदानी कार्यकर्ता, पत्रकार, शोधकर्ता, समाज शास्री पर्यावरणवादी भी शरीक हुए।
यहां ऊंचे पहाड़ की चोटी पर देवलसारी गांव बसा है, और नीचे कल-कल झरना बह रहा है, पक्षी चहचहा रहे हैं और फुदक रहे हैं। प्रकृति यहां अपने अनूठे अंदाज में खेल रही है। इस गांव की खुशनसीबी है कि उसके नजदीक ही सदानीरा नाला है, अन्यथा कई जगह तो पीने के पानी के लिए मीलों चलना पड़ता है। यहां पर्यावरण पर काम करनेवाली संस्था के परिसर में स्थानीय स्तर पर उभरते विकल्पों पर बातचीत चल रही है। यह अविस्मरणीय अनुभव था। शायद विकल्प भी ऐसी सजीव प्रकृति के बीच से, उसके संरक्षण व संवर्धन करते हुए ही उभरेंगे।
मध्यप्रदेश से उत्तराखंड के इस गांव तक पहुंचने में मुझे दो दिन लगे। दिल्ली और देहरादून तक ट्रेन का सफर। देहरादून से जब देवलसारी के लिए टैक्सी से चले तो पूरा रास्ता ऊंचे, घुमावदार व आड़े-टेढ़े तीखे ढलानवाले पहाड़ और जंगल का था। पहाड़ियों की तराईयों में बसी बस्तियां, कच्चे- पक्के घर और झोपड़ियां बड़ी खूबसूरत थीं, इन पर नजर डाली तो बड़ा अच्छा लगा। लेकिन जब पहाड़ के लोगों के रहन-सहन की कहानियां सुनीं और भौतिक स्थिति देखीं तो सारा रोमांच हवा की तरह उड़ गया।
पश्चिमी हिमालय का यह क्षेत्र काफी विस्तृत है, जो हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, लद्दाख, जम्मू- कश्मीर तक फैला हुआ है। यहां वनस्पति व जीव-जंतुओं की काफी विविधता है। यह क्षेत्र न केवल महाद्वीप के बड़े हिस्से को पानी उपलब्ध कराता है बल्कि ऊंची चोटियां, विशाल प्राकृतिक भूदृश्य और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत यहां की पहचान भी है।
आगे बढ़ने से पहले यहां विकल्प संगम और उसकी प्रक्रिया के बारे में जान लेना उचित होगा। मौजूदा विकास और वैश्वीकरण के ढांचे के कई नकारात्मक परिणाम आ रहे हैं। इससे पर्यावरण नष्ट हो रहा है, स्थानीय समुदायों की आजीविकाएं तहस-नहस हो रही हैं, खेती-किसानी का संकट बढ़ रहा है, गैर-बराबरी बढ़ रही है। इन बदलावों पर काफी कुछ लिखा और कहा जा चुका है। लेकिन संगम में स्थानीय स्तर पर उभरते विकल्पों और उसमें आनेवाली चुनौतियों पर चर्चा की गई। देश-दुनिया में पारिस्थितिकीय रूप से टिकाऊ, समतापरक खुशहाली के रास्तों की तलाश और इसे गढ़ने की कई कोशिशें जारी हैं, पर यह छोटी-छोटी और बिखरी हैं।
विकल्प संगम के आयोजन से जुड़ी सृष्टि वाजपेयी ने बतलाया कि “विकल्प संगम एक साझा मंच है। इसमें इन विकल्पों पर जो जनसाधारण, समुदाय, व्यक्ति या संस्थाएं काम कर रही हैं, उनके अनुभव सुने-समझे जाते हैं। सीखने, गठजोड़ बनाने और मिल-जुलकर वैकल्पिक भविष्य बेहतर बनाने की कोशिश की जाती है।”
वे आगे बताती हैं कि “इस तरह की पहल राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रही है, पश्चिमी हिमालय विकल्प संगम भी उसी का हिस्सा है, जो शोधकर्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, विचारकों व अन्य लोगों का एक साझा मंच है। इसमें न केवल ऐसे संगठन, समूह व व्यक्ति जुड़े हैं, जो हिमालय में वैकल्पिक काम कर रहे हैं, बल्कि वे भी जुड़े हैं, जो इसके परे जाकर हिमालयी राज्यों के वैकल्पिक भविष्य की समझ बनाने के लिए एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं। पश्चिमी हिमालय विकल्प संगम का उद्देश्य लोगों व संस्थाओं के नेटवर्क को मजबूत करना और विकास के वैकल्पिक नजरिए की दिशा में मिलकर काम करना है।”
विकल्प क्या हैं, और इसके मूल्य क्या हैं, इस सवाल के जवाब में कल्पवृक्ष के अशीष कोठारी बताते हैं कि “संगम के पांच स्तंभ हैं, जिन पर चलकर हम वैकल्पिक विकास की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। पर्यावरण सुरक्षा, राजनैतिक लोकतंत्र, आर्थिक लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और संस्कृति और ज्ञान की विविधता।”
इसे विस्तार से बताते हुए अशीष कोठारी बताते हैं कि “उसमें पांच प्रमुख बातों का ध्यान रखना जरूरी है। एक, जो भी विकास हो उसमें पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन न हो, उनका नाश न हो। वे भावी पीढ़ियों के लिए भी बचे रहें। दूसरा, जो विकास हो उसमें स्थानीय लोगों की जरूरतें व उनके निर्णय की प्रक्रिया में केन्द्रीय सहभागिता हो। यानी स्वशासन हो। लोकतांत्रिक तरीके से फैसले लिए जाएं, ऊपर से न थोपे जाएं।
तीसरा, आर्थिक लोकतंत्र हो यानी स्थानीयकरण हो, भूमंडलीकरण न हो। चौथा, सामाजिक न्याय हो, शांति हो, आपस में वर्ग, जाति, नस्ल, लिंग, धर्म आदि के आधार पर भेदभाव न हो। हम समानता और बंधुत्व की ओर बढ़ सकें। पांचवा, संस्कृति और ज्ञान में विविधता हो। उनका निजीकरण न हो। वे सबके लिए सामूहिक रूप से सुलभ हों।”
विकल्प संगम में हिमालय से जुड़े कई मुद्दे उभरकर सामने आए और उन पर विस्तार से चर्चा हुई। जिसमें खेती-किसानी, जलवायु परिवर्तन, पहाड़ी युवा और समुदाय आधारित पर्यटन के कई पहलुओं पर बातचीत हुई। खेती-किसानी पर वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता बीजू नेगी ने और जलवायु परिवर्तन पर पर्यावरण विशेषज्ञ सौम्या दत्ता ने वक्तव्य रखा। इसके साथ ही पहाड़ी युवाओं पर इंडिया भारत संस्था की आद्या सिंह ने और समुदाय आधारित पर्यटन पर लद्दाख से आए डॉ. त्सेवांग नामगेल ने अपने विचार साझा किए।
सामाजिक कार्यकर्ता बीजू नेगी बतलाते हैं कि “हिमालय में काफी विविधता है। यहां बारहनाजा (मिश्रित) की फसलें होती हैं, जिसमें साग-सब्जी, अनाज, दलहन, तिलहन एक साथ होती हैं। यहां राजमा की 300 देशी प्रजातियां हैं। बासमती की खुशबूदार धान की किस्में हैं। यह सब यहां की मिट्टी, हवा और जलवायु के कारण संभव हुआ है।”
बीज बचाओ आंदोलन के विजय जड़धारी ने बतलाया कि “हमने बारहनाजा पद्धति का संरक्षण तो किया ही है, गांव-गांव से ढूंढकर देशी बीज भी बचाए हैं। इससे पहाड़ी खान-पान की संस्कृति वापस लौट रही है। जड़धार गांव का जंगल भी बचाया है। यहां 80 के दशक में हरियाली कम हो चुकी थी। चारा, पत्ती, पानी, ईंधन की कमी हो गई थी। लेकिन गांववालों ने पेड़ बचाने व नंगे वृक्षविहीन जंगल को हरा-भरा करने की ठानी, और इसे कर दिखाया। कुछ ही साल में जंगल फिर से जी उठा और पहाड़ों पर हरियाली लौट आई। इससे न केवल वहां के सूखते जलस्रोत सदानीरा हो गए बल्कि जीव-जंतु, जंगली जानवर और पक्षियों की कई प्रजातियां भी जंगल में आ गईं। वन पंचायत ने भी बांज-बुरांग का जंगल बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।”
श्रमयोग संस्था के अजय कुमार ने बताया कि वे “महिला समूहों के साथ काम करते हैं। इन समूहों ने मिलकर रचनात्मक महिला मंच बनाया है। इस मंच से करीब 1500 महिलाएं जुड़ी हैं, जो सामूहिक जैविक खेती करती हैं। हल्दी, मिर्ची, अदरक, दालें, मसूर, उड़द, गहथ, जाख्या, काला भट्ठ, धनजीरा इत्यादि उनके खेतों में उगाती हैं। विशेषकर, यहां की हल्दी बहुत मशहूर है। वह सल्ट की हल्दी के नाम से बिकती है। इस हल्दी को बेचने में श्रमयोग ने मदद की है और इससे महिलाओं की आय में काफी वृद्धि हुई, वे आत्मनिर्भर हुई हैं।”
नेचर गाइड ( प्रकृति मार्गदर्शक) मोहन पांडे ने बताया कि “छोटी हलद्वानी में होमस्टे का काम अच्छा चल रहा है। वहां सिलबट्टे से पिसे मसाले और जाख्या की छोंक के साथ आलू के गुटके बनाए जाते हैं, जो पर्यटकों द्वारा काफी पसंद किए जा रहे हैं। इसी तरह चकोतरा ( नींबू) का जूस भी बनाया जाता है। जाख्या को उपहार स्वरूप भी लोग देने लगे हैं। इससे पर्यटकों की संख्या बढ़ रही है।”
लद्दाख के त्सेवांग नामगेल ने समुदाय आधारित पर्यटन पर चर्चा को आगे बढ़ाया। उन्होंने बताया कि “वहां स्कूली किताबों में पढ़ाया जाता है कि बिजली बचाओ, पंखा इस्तेमाल के बाद बंद रखो, नल बंद रखो, सड़कें सुरक्षित पार करो, जबकि वहां न बिजली है न पंखा है, न नल और ना ही सड़कें हैं। वन्य जीवों में शेर, मोर, बाघ के बारे में पढ़ाया जाता है, जबकि यह सब वन्य जीव लद्दाख में नहीं हैं, इसलिए हमने स्थानीय परिवेश से जोड़ते हुए नया पाठ्यक्रम बनाया है।”
वे आगे बताते हैं कि “कल्पवृक्ष के सहयोग से हमने ग्रामीण लद्दाख के लिए समुदाय व पर्यावरण आधारित पाठ्यक्रम विकसित किया है। जिसमें हिमालय के हिम तेंदुआ व वन्य जीवों के संरक्षण और पर्यावरण शिक्षा पर जोर दिया है।”
नामगेल बतलाते हैं कि “इस क्षेत्र में बहुत से तीर्थस्थल और प्राकृतिक भूदृश्य हैं। पर्यटन की अत्यधिक संभावनाएं हैं, पर महत्वपूर्ण सवाल टिकाऊपन का है, वहन क्षमता का है, और पर्यावरण के अनुकूल पर्यटन का है। सबसे बड़ी चिंता का विषय कचरा प्रबंधन है। पर्यटकों की बढ़ती संख्या है। इसके नतीजे के रूप में प्लास्टिक का इस्तेमाल बढ़ना है। इस सबके मद्देनजर समुदाय आधारित पर्यटन एक टिकाऊ विकल्प दिखाई देता है, जहां होमस्टे से ग्रामीण समुदायों की आय बढ़ सकती है, जिसे उनकी संस्था ने लद्दाख में शुरू किया है।”
पश्चिमी हिमालय की एक और समस्या है, और वह है बड़े पैमाने पर गांवों से युवाओं का पलायन करना, जिससे गांव के गांव भुतिहा ( सूने) हो रहे हैं। खाद्य सुरक्षा का मुद्दा भी बड़ा है। यह क्षेत्र प्राकृतिक आपदाओं के लिए संवेदनशील है, जैसे बाढ़, भूस्खलन, और सूखा है। इस मुद्दे पर आद्या सिंह ने प्रकाश डाला।
इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन पर सौम्या दत्ता ने अपने विचार रखे। उन्होंने स्थानीय पहल के साथ वैश्विक स्तर पर नजर रखने की बात कही। उन्होंने कहा कि वैश्चिक सोच के साथ जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए जमीनी स्तर पर काम करना चाहिए। अध्ययन बताते हैं कि हिमालय में ग्लेशियर के बर्फ की चादर में कमी आई है। झरने व नदी-नालों में पानी कम हो रहा है। इस चर्चा में यह बात भी उभर कर सामने आई कि जलवायु बदलाव से हिमालय में प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएं बढ़ी हैं। कार्यक्रम के आखिरी दिन उत्तराखंड के मुख्य वन संरक्षक राजीव भरतरी भी शामिल हुए। उन्होंने उत्तराखंड में उभरते विकल्पों की सराहना की और जैव विविधता के संरक्षण की जरूरत बताई।
कार्यक्रम के अंत में पश्चिमी हिमालय में इस काम के संचालन के लिए एक समिति का गठन हुआ और कार्ययोजना भी बनी। इस कार्ययोजना में जलवायु परिवर्तन पर आपसी समझ बनाना, वैकल्पिक पहलों का दस्तावेजीकरण करना, आपस में कार्यक्रम और गतिविधियों का आदान-प्रदान करना, समुदाय आधारित पर्यटन के लिए दिशा-निर्देश बनाना, नीतिगत बदलाव के लिए पैरवी करना, पश्चिमी हिमालय में खुशहाली व सामाजिक समृद्धि के मापदंड बनाना इत्यादि काम शामिल हैं। कुल मिलाकर, पश्चिमी हिमालय विकल्प संगम बहुत प्रेरणादायक था। और यह ऐसे समय हुआ है जब हिमालय में प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं, इसलिए ऐसी पहल से लोगों की उम्मीदें बढ़ गई हैं। इसने पर्यावरणीय मुद्दों पर न केवल ध्यान खींचा है, बल्कि कई विकल्पों पर काम करनेवाले लोगों को एक साथ लाने व एक-दूसरे से सीखने का मौका दिया है। हिमालय में पर्यावरण के बचाने के साथ किस तरह जैव विविधता बचाई जा सकती हैं, आजीविकाएं बचाई जा सकती हैं, संस्कृति को बचाया जा सकता है, इसके ठोस वैकल्पिक उदाहरण सामने लाने में मदद की है, जिससे इस दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है, जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी हैं।