सिर्फ दवा से ही नहीं, समुदाय से भी इलाज (in Hindi)

By बाबा मायारामonMar. 27, 2021in Health and Hygiene

विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)

बसंती ने तीन बार अपने बच्चे के साथ खुदकुशी करने की कोशिश की थी, पर पड़ोसियों ने उसे बचा लिया। उसे डायन कहकर प्रताड़ित किया जा रहा था। लेकिन अब वह दो साल के इलाज, नियमित परामर्श और समुदाय की मदद से अच्छी हो रही है। खाना बनाने लगी है, उसकी बड़ी बेटी जो उसे छोड़कर चली गई थी, वापस आ गई है। पति, जो घर नहीं आता था, साथ में रहने लगा है। वह खेत में मजदूरी का काम करने जा रही है। यह सुमित्रा गागराई थीं,जो मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बता रही थीं।

यह झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले की बदलाव की कहानी है। यह जिला अति पिछड़ा इलाकों में एक माना जाता है। यहां के अधिकांश बाशिन्दे हो आदिवासी हैं। झारखंड उन राज्यों में एक है, जहां डायन बताकर महिलाओं को प्रताड़ित करने की खबरें लगातार आती रहती हैं। ओडिशा, छत्तीसगढ़ व पश्चिम बंगाल भी ऐसे ही राज्यों में शुमार है। इसे रोकने के लिए कानून भी हैं, पर फिर भी इस पर काबू नहीं पाया जा सका है।

मानसिक स्वास्थ्य के कार्यक्रम से जुड़े डा. सचिन बारब्दे ने बताया  राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वे 2016 के मुताबिक झारखंड राज्य की 11.1 प्रतिशत आबादी मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं से गुजर रही है, जो भारत के औसत 10.6 फीसदी से ज्यादा है। ये सर्वे यह भी बताता है कि इससे जुड़े लगभग 75 प्रतिशत लोगों को इलाज मुहैय्या नहीं होता।

इसी जिले में एकजुट संस्था वर्ष 2002 से कार्यरत है। वह गर्भवती महिलाओं की देखभाल व सुरक्षित प्रसव, नवजात शिशु की मृत्यु दर रोकने, लिंग आधारित हिंसा, किशोर-किशोरियों से जुड़ी समस्याओं पर काम कर रही है।  

स्वास्थ्यकर्मियों का परिवारजनों को परामर्श

इसमें सहभागी सीख एवं क्रियान्वयन (पार्टिसिपेटरी लर्निंग एंड एक्शन, संक्षिप्त में पी.एल.ए.) पद्धति का उपयोग करते हैं। इस पद्धति में गांव के दौरे, वहां नियमित बैठकें व ग्रामीणों से बातचीत की जाती है। समस्याओं की पहचान और उसके समाधान के लिए सामुदायिक पहल होती है। इन बैठकों में चित्र कार्ड, नुक्कड़ नाटक, खेल आदि के माध्यम से चर्चा को आगे बढ़ाया जाता है।

खेल से समस्या की पहचान

समस्याओं की पहचान के लिए समुदाय की बैठक में एक खेल खेला जाता है। इसमें अलग-अलग समस्याओं से जुड़े कागज पर बने चित्रों को जमीन पर बिछा दिया जाता है, और लोगों से कहा जाता है कि सबसे ज्यादा बड़ी समस्या कौन सी लगती है, उस पर पत्थर रखिए। ज्यादा बड़ी समस्या पर ज्यादा पत्थर, जैसे किसी कार्ड पर 3 पत्थर, किसी कार्ड पर 2 या किसी पर 1 पत्थर। जिस पर ज्यादा पत्थर डाले जाएंगे, वह बड़ी समस्या मानी जाएगी, और उसी तत्परता व प्राथमिकता से उसे हल करने की पहल होगी।

इस पद्धति के माध्यम से सुरक्षित प्रसव कराने व नवजात मृत्यु कम करने में उल्लेखनीय सफलता मिली है। इस कार्यक्रम की सफलता को देखकर सरकार ने इस माडल को राज्यों में अपनाया है। बिहार, ओडिशा व झारखंड में इस माडल का विस्तार हुआ है। छोटे बच्चों के पोषण व स्वास्थ्य के लिए बागान ( फुलवारी) ऐसा ही एक कार्यक्रम है। जिसके तहत् कुपोषण में कमी आई है। यह उनके अध्ययन से पता चला है।

ऐसी ही एक बैठक में मानसिक स्वास्थ्य की समस्या की पहचान हुई। मानसिक स्वास्थ्य की पहल दो साल से शुरू हुई है, लेकिन इसकी जरूरत इसी से पता चलती है कि 6 मरीजों से शुरू किया यह स्वास्थ्य कार्यक्रम 100 मरीजों के इलाज तक पहुंच गया है। मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम से जुड़े डा. सचिन बारब्दे ने बताया कि हम सिर्फ दवा से ही नहीं इलाज करते, बल्कि समुदाय सहायता समूहों (कम्युनिटी सपोर्ट ग्रुप) की मदद से इलाज किया जाता है।

एकजुट की कार्यकर्ता सुमित्रा गागराई, जो खुद हो आदिवासी हैं, ने बताया कि मानसिक स्वास्थ्य के मरीज, विशेषकर महिलाओं को डायन बताकर मारा पीटा जाता है। अगर वे मिरगी की समस्या से पीड़ित हैं तो अज्ञानता व अंधविश्वास के कारण भूत-प्रेत है, ऐसा माना जाता है। मरीज की हालत तब और खराब हो जाती है जब उसे ओझा, झाड़-फूंक वालों के पास इलाज के लिए ले जाते हैं। और कई तरह के पूजा पाठ करवाते हैं, जबकि मरीज की जरूरत सही इलाज एवं देखभाल की होती है। गलत धारणाएं, भ्रांतियां, पूजा-अर्चना, इसका इलाज नहीं है। इससे मरीज की हालत और खराब होती है।

सुमित्रा बताती हैं कि उनकी छोटी बहन खुद मानसिक बीमारी से त्रस्त थी, लेकिन उसे वे कोशिश करने के बावजूद नहीं बचा सकीं, और उसकी खुदकुशी से मृत्यु हो गई। उस पर डायन होने का आरोप लगाया गया था। यह घटना नहीं भूल पाती हूं। इसलिए अब अपने इलाके की ऐसी बहनों को बचाने की कोशिश कर रही हूं।

डा. सचिन बारब्दे ने बताया कि एकजुट ने शुरूआत में मरीजों को रांची इलाज के लिए भेजा, पर हमें जल्द ही यह समझ आया कि कई मरीज यात्रा किराया भी वहन करने की स्थिति में नहीं है। पिछले साल जनवरी से समुदाय सहायता समूह की बैठक हुईं। मरीजों का इलाज गांव में ही करने की पहल शुरू हुई। हमारे लिए शुरूआत बहुत ही मुश्किल थी, क्योंकि कोई बैठक में बुलाने से भी नहीं आता था।  वे उनका आत्मविश्वास खो चुके थे, समुदाय द्वारा प्रताड़ित व दुतकारे जाने के बाद विस्मरण की ओर जा रहे थे।

मानसिक स्वास्थ्य पर सहयोगी समूह की बैठक

वे आगे बताते हैं कि हम यह भी चाहते थे कि मरीज की देखभाल करनेवाले परिवार के लोग भी बैठक में आएं जिससे उनकी मानसिक स्वास्थ्य के बारे में सोच बदले और अंधविश्वास से मुक्ति मिले। एकजुट की सतत् पहल से यह मरीज और परवरिश करनेवाले परिवार के सदस्य एक साथ आए। परवरिश करनेवाले मरीज के परिवार के लोगों को एक दूसरे से सहारा मिला। इनमें वे अपनी मन की बात व दुख- सुख साझा करते थे। इसलिए वे इन बैठकों को दुखू-सुखू बैठक कहने लगे। संवाद व बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। उन्हें बोलने व सबके बीच खुलने में काफी दिन लगे, कई लोग बैठक में अपने गांव के दूसरे लोगों को भी लेकर आए।

डा. बारब्दे ने बताया कि मरीजों में ज्यादातर आदिवासी महिलाएं हैं। इनमें ज्यादातर गंभीर मानसिक समस्या से जुड़े मिरगी और कुछ अवसाद (डिप्रेशन) के मरीज हैं। शांति का भी ऐसा ही मामला है। डेढ़ साल पहले हम उनके घर गए थे। उसे कमरे में बंद करके रखा जाता था। लगातार परामर्श व बातचीत से डेढ़ बाद माह के बाद परिवार के लोगों ने उसे कमरे से बाहर निकाला। समुदाय सहायता समूह ने मदद की, दवाओं से इलाज हुआ, उसकी हालत में अब सुधार है। उसमें आत्मविश्वास आया। वह छोटे-मोटे घरेलू काम करने लगी है।

इसी तरह बाकी मरीजों की हालत में भी सुधार आ रहा है। वे खेती-बाड़ी के काम करने लगे हैं। घर की मरम्मत में हाथ बंटाते हैं। कुछ लोग दवा लेकर काम करने बाहर चले गए हैं। दवा खत्म होने पर लेने आते हैं। इनमें दो मरीजों की शादी हो गई है। एक का रिश्ता पक्का हो गया है।

स्वस्थ होकर खेती में मदद

जबकि ऐसे लोगों की शादी होना तो दूर की बात है। उन्हें किसी तीज-त्यौहार में शामिल नहीं होने देते। शादी-विवाह में नहीं ले जाते। किसी मृत्यु के बाद भी उनके कार्यक्रमों में शामिल नहीं होने दिया जाता। अब इस स्थिति में सुधार आया है।  सोच यह है कि गरीबी, भेदभाव, जाति, असमानता और बेघर होने के कारण यह समस्याएं जन्म लेती हैं। इसमें केवल दवा से नहीं बल्कि समुदाय, रोजगार, शिक्षा आदि से मरीज का सही इलाज होगा।

कुल मिलाकर, मानसिक स्वास्थ्य का यह कार्यक्रम स्वास्थ्य की एक समग्र सोच सामने रखता है जिसमें दवा से नहीं, समुदाय की मदद से मरीज का उपचार एवं देखभाल होती है। यह पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा का मिला जुला प्रयास का नतीजा है। यह अंधविश्वास के खिलाफ भी मुहिम है। महिला सशक्तिकरण का भी बहुत अच्छा उदाहरण है। इसमें लोगों का खोया आत्मविश्वास लौटा है, वे जागरूक हुए हैं, और उन्होंने समुदाय व सामूहिक शक्ति को पहचाना है और उम्मीद व बदलाव की कहानी लिखी है, जिसे देश के सबसे पिछड़े इलाके के लोग लिख रहे हैं, जो बहुत ही बहुमूल्य, उपयोगी व प्रेरणादायक है।

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