जलभूमि बचाने का संघर्ष (in Hindi)

By बाबा मायारामonJul. 07, 2016in Environment and Ecology

विकल्प संगम वेबसाइट के लिए लिखा गया विशेष लेख – Specially written for Vikalp Sangam website

(Jalbhoomi bachaane kaa sangharsh)

सभी फोटो क्रेडिट – डा. ध्रुवज्योति घोष

“माफ करना, इन दिनों मैं बहुत व्यस्त हूं, आप से बात नहीं कर पा रहा हूं। वेटलैंड (जलभूमि) को बचाना है, सबको मिलकर लड़ना पड़ेगा।” यह फोन पर डा. घोष (ध्रुवज्योति घोष) थे, जिनसे हाल ही में मेरी कोलकाता में मुलाकात हुई थी। उन्होंने और उनके साथियों ने मुझे ईस्ट कोलकाता वेटलैंड को बचाने के लिए हुए संघर्ष की कहानी बताई थी। और इसी सिलसिले में बात करना चाह रहा था।

पश्चिम बंगाल के पर्यावरण मंत्री के ताजा बयान ने पर्यावरणविदों  और मछुआरों को चिंता में डाल दिया है कि ईस्ट कोलकाता वेटलैंड को रामसर संधि से बाहर निकाला जाना चाहिए, यह शहर के विकास में बाधक है। कई योजनाएं लंबित हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए जलभूमि की  जरूरत होगी। जबकि पर्यावरणविद् इसके महत्व को लंबे अरसे से बताते आ रहे हैं। उनके ही प्रयासों से ईस्ट कोलकाता वेटलैंड बच पाई है। और रामसर संधि में शामिल हुई है।

तेजी से बढ़ते शहरीकरण के कारण कोलकाता का वेटलैंड सिमट रहा है। जहां कभी जंगली बिल्ली, छोटे बंदर, ऊदबिलाव, सफेद गर्दन वाले किंगफिशर, तितलियां और पानी के सांपों की विशेष प्रजातियां होती थीं। पक्षियों के दल चहचहाते थे। इस जलभूमि क्षेत्र में 40 से अधिक पक्षियों की प्रजातियाँ हैं। कोलकाता के पूर्वी छोर के किनारे से गुजरती बड़ी सड़क यानी ‘ईस्टर्न मेट्रोपोलिटन बाईपास’ के किनारे के तालाबों, दलदलों, पोखरों और छोटी झीलों के इर्द-गिर्द हरे-भरे पेड़ थे। लेकिन अब तालाब पाटे जा रहे हैं। उन पर कालोनियों बनाई जा रही हैं।  

वेटलैंड की जमीन पर इमारतें
वेटलैंड की जमीन पर इमारतें

जलभूमि पर खतरे और रामसर संधि को जानने से पहले ईस्ट कोलकाता वेटलैंडस (जलभूमि क्षेत्र) और उससे शहर के रिश्ते को समझना उचित होगा। शहर के पूर्व में करीब 12,500 हैक्टेयर में 262 उथले तालाब हैं। इनमें शहर का मैला पानी आता है। उनमें इसी से मछली पालन होता है, धान की खेती होती है और सब्जियां उगाई जाती हैं। और वह भी बिना किसी खर्च के, बिना किसी लागत के। यह एक देशज विधि है, जो प्रकृति और मौसम के अनुकूल है। तालाबों से निकले उत्पाद भी स्वास्थ्य की दृष्टि से पूरी तरह सुरक्षित हैं।

सुबह के समय मछली पकड़ते मछआरे
सुबह के समय मछली पकड़ते मछआरे

वेटलैंड्स यानी जलभूमि क्षेत्र। इसका शाब्दिक अर्थ आर्द्रभूमि है, लेकिन हम समझने की दृष्टि से जलभूमि कह सकते हैं। इसमें स्थायी और अस्थायी रूप से पानी भरी जमीन शामिल है। जैसे नदी और नदी का पाट या किनारा।

नालियों के किनारे सब्जियों की खेती
नालियों के किनारे सब्जियों की खेती

इसमें तालाब, झील, पोखर, जलाशय, दलदल सभी शामिल हैं। स्थानीय भाषा में यहां इन्हें भेरियां कहते हैं। इन भेरियों में खास मात्रा में पानी डाला जाता है। शहर के मैले पानी को तीन से चार फुट भेरियों में भरा जाता है। जब सूरज की रोशनी पानी की गहराई तक पहुंच पाए, शैवाल भी ज्यादा नहीं होता, नहीं तो वही पानी की आक्सीजन को खा जाएगी। इस तरह भेरियों में पानी डाला जाता है, तो सूरज की रोशनी पानी में पहुंचकर उसे शुद्ध कर देती हैं। जिसमें मछलियां फलती-फूलती हैं। सब्जियों और धान की खेती होती है।

यह देशज् विधि को ईजाद किया था एक मछुआरे ने, जो बाद में इलाके में तेजी से फैल गई। यह बात वर्ष 1929 की है। जिसे उस समय इंजीनियर बी.एन. डे ने समझा और उसी हिसाब से नालियों का निर्माण करवाया। यानी इस नायाब विधि में केवल सूरज की रोशनी और मछुआरों की मेहनत लगी जिससे कई फायदे एक साथ हो रहे हैं।

डा. ध्रुवज्योति घोष पर्यावरण शास्त्री हैं और पश्चिम बंगाल सरकार के सेवानिवृत्त पर्यावरण अधिकारी हैं। उन्होंने सरकार के अंदर रहते हुए न केवल इस जलभूमि का अध्ययन किया, लोगों की मदद से इसका नक्शा बनाया,  मछुआरों की शहर के मैले पानी से मछली पालन, सब्जी की खेती और धान की खेती की देशज विधि की पड़ताल की और इसे वैज्ञानिक दृष्टि से सही पाया और इसकी सार्थकता और उपयोगिता को देश-दुनिया में प्रतिष्ठित किया।

उनके ही प्रयास से 2002 में संयुक्त राष्ट्र संघ के रामसर अनुबंध में ईस्ट कोलकाता वेटलैंडस को शामिल किया गया।  रामसर एक ऐसी सन्धि या समझौता है जिसमें अन्तरराष्ट्रीय महत्व के वेटलैंड को चिन्हित किया जाता है। इस सूची में शामिल होने के बाद इसके संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। यानी यह माना गया कि यह इलाका जैसा है वैसा ही बना रहना चाहिए। वेटलैंड, बारिश में जल भंडारण के साथ भूजल भी बढ़ाते हैं,  बाढ़ को रोकते हैं। (लेकिन कोलकाता ईस्ट वेटलैंड में भूजल रिचार्ज नहीं होता है क्योंकि यहां की भौगोलिक बनावट अलग तरह की है।) वेटलैंड पर्यावरण संतुलन में सहायक हैं। और कई जल-जीव, पशु-पक्षियों और जैव-विविधता का शरणस्थली होते हैं।

पिछले कुछ सालों में जलभूमि को हथियाने की लगातार कोशिशें होती रही हैं। पर्यावरण मंत्री के हाल के बयान को भी इसी कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि रामसर संधि से जलभूमि क्षेत्र को बाहर निकालना चाहिए क्योंकि शहर के विकास के लिए जमीन चाहिए। यह जलभूमि नगर निगम के अंतर्गत आती है। इसकी समीक्षा हो क्योंकि जब यह समझौता हुआ था तब नगर निगम से कोई परामर्श नहीं किया गया था।

उनका कहना है कि नगर निगम के पास विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक (एडीबी) और जायका (जापानी एजेंसी फार इन्टरनेशनल कोआपरेशन) के प्रोजेक्ट लंबित पड़े हैं। फिर हम क्यों न वेटलैंड की जमीन का इस्तेमाल करें। जो मछुआरे मछली पालन करते हैं, या किसान धान या सब्जियां उगाते हैं, क्यों न उन्हें इसकी कीमत अदा कर जमीन ले ली जाए।

जबकि पर्यावरण मंत्री के बयान से पर्यावरणविद सहमत नहीं हैं।  ध्रुवज्योति घोष का कहना है कि कोलकाता नगर निगम का भूमि उपयोग में कोई भूमिका नहीं है।1985 में जब वे राज्य योजना बोर्ड के संयुक्त निदेशक थे तब उन्होंने ही ईस्ट कोलकाता वेटलैंड का नक्शा बनाया जिसे बाद में रामसर समझौता में मान्यता मिली थी।  

ध्रुवज्योति घोष के अनुसार वर्ष 1911 में कलकत्ता इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट बना था और शहर के लिए योजना बनी थी। बाद में कोलकाता मेट्रोपोलिटन डेवलपमेंट अथारिटी ( केएमडीए) ने भूमि उपयोग और नगरीय नियंत्रण योजना की जिम्मेदारी ली। कोलकाता नगर निगम से परामर्श करने की जरूरत ही नहीं है। उसका काम तो बुनियादी सुविधाएं देने के बदले कर लेना है।

जलभूमि पर जो खतरा है वह पर्यावरण का ही संकट नहीं है, इससे हजारों मछुआरों और किसानों की रोजी रोटी का संकट भी जुड़ा है।  वर्ष 2015 के एक सर्वे में वे सिर्फ 202 जलस्त्रोत ही खोज पाए जबकि वर्ष 1998 में 264 जलस्त्रोत थे। यानी शेष 62 लुप्त हो गए।

डा. घोष के मुताबिक सबसे ज्यादा दबाव ई. एम. बायपास और बासंती हाइवे पर है। तरदाहा, चक्कलाखाल, चौबागा, करीमपुर, , भगवानपुर, जगतिपोता, मुकुंदपुर, आठधरा, खरकी, पश्चिम चौबागा में सबसे ज्यादा अतिक्रमण का दबाव है। पिछले दशक में दलदली भूमि में अतिक्रमण होता रहा है। इस भूमि पर निर्माण कार्य हो गए हैं।   

1991 में जलभूमि पर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर बनाने के खिलाफ याचिका दायर करने वाले बोनानी कक्कड़ कहते हैं कि हम ढाई दशक से जलभूमि को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। सरकार बदल गई है पर सोच नहीं बदली है। उन्हें पर्यावरण, विकास में बाधक लगता है। 

उत्तर 24 परगना के खासमहल गांव के शांतिरंजन हालदार कहते हैं कि “हमने अपने गांव की नजदीक भेरी को बचाने की लड़ाई लड़ी और जीती। यह इलाका भी वेटलैंड के अंतर्गत आता है। यहां वर्ल्ड ट्रेड सेंटर बनाने का प्रस्ताव था, जिसे बनाने के लिए करीब 250 एकड़ जमीन चाहिए थी। इसे डेवलपमेंट कंसल्टेंट्स प्राइवेट लिमिटेड (डीसीपीएल) नामक कंपनी बनाने वाली थी। इस जमीन पर हम पीढ़ियों से मछली पकड़ने का काम करते हैं। जब 1990-92 के दौरान हमें पता चला, धीरे-धीरे संगठित हुए। इस लड़ाई में हमने आसपास के गांव के मछुआरों को भी जोड़ा। क्योंकि अगर एक भेरी की जमीन चली गई तो दूसरी भेरियों की जमीन छिनने का रास्ता खुल जाएगा। एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) इसके खिलाफ अदालत गए और मछुआरों ने संगठित होकर संघर्ष किया।  

इस सब का असर यह हुआ कि हाईकोर्ट के न्यायाधीश खुद हमारे गांव आए और भेरी का मुआयना किया। मछुआरे से बातचीत की। और आखिर में नतीजा हमारे पक्ष में आया। इसमें डा. ध्रुवज्योति घोष ने जो वेटलैंड का नक्शा बनाया था उसे न्यायालय ने सही पाया। ”

इसी प्रकार, हाल ही में हाटगछछा गांव के मछुआरे संगठित हुए और अन्य लोगों के कब्जे से अपनी भेरी को मुक्त कराया। और भेरी में मछली पालन किया, जिसे वे पीढ़ियों से करते आ रहे थे। कुछ लोगों के तालाब निजी हैं, लेकिन ज्यादातर मछुआरे पट्टे पर तालाब लेते हैं जिसमें वे मछली पालते हैं।

पश्चिम बंगाल में तालाब संस्कृति है। हर घर गांव में पोखर-तालाब हैं। चावल और मछली उनके भोजन का खास हिस्सा है। यहां की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी गांवों में रहती है। खेती किसानी मुख्य आजीविका का स्त्रोत है। गरीबी और बेरोजगारी है।  जलभूमि की शोधकर्ता ध्रुबा दासगुप्ता कहती हैं कि मछली पालन से पूरे देश में 1.4 करोड़ लोगों की जीविका जुड़ी हुई है। और गरीबों के लिए मछली ही प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत है।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि अगर यह जलभूमि छिनती है तो हजारों लोग बेरोजगार हो जाएंगे और भुखमरी बढ़ेगी। शहर के मैले पानी का फिर से उपयोग कर मछली पालन, सब्जी और धान की खेती तो खत्म होगी ही। जैव विविधता और पर्यावरण के लिए भी बड़ा नुकसान होगा। खासतौर से ऐसे समय जब जलवायु बदलाव का असर तापमान वृद्धि के रूप में हो रहा है। बारिश की अनियमितता और सूखा एक स्थायी हो गया है। इसलिए जलभूमि को बचाना जरूरी है। यह कई दृष्टि से उपयोगी है। एक तरफ शहर के मैले पानी के उपयोग के लिए खर्च बच रहा है। शहर को ताजी मछलियां और सब्जियां मिल रही है। धान की खेती हो रही है। मछुआरे और उनके परिवार के लोगों का पोषण हो रहा है। समृद्ध जैव विविधता और पर्यावरण है। यहां एक परंपरागत अनूठी देशज पद्धति भी है जिसे सहेजा जाना चाहिए। इन सब को मिलाकर कहा जा सकता है कि आज की विनाशकारी विकास की अवधारणा के सामने यह है एक जीता जागता विकल्प, जिससे हमारे योजनाकारों को सीखना चाहिए।

धापा में सब्जियों की खेती
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