विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)
(Paataalkot mein Beejon ki Rishtedaaree)
मध्यप्रदेश के पातालकोट में भारिया आदिवासियों के बीच बीजों की रिश्तेदारी का अनूठा कार्यक्रम चल रहा है। इसके तहत जो परंपरागत बीज लुप्त हो चुके हैं, उन्हें खोजने, खेतों में बोने और उनके आदान-प्रदान का करने का काम किया जाता है।
आगे बढ़ने से पहले पातालकोट के बारे में जानना उचित होगा। छिंदवाड़ा से करीब 75 किलोमीटर दूर है पातालकोट। छिंदवाड़ा जिले की ही तामिया तहसील में है पातालकोट।
पातालकोट का शाब्दिक अर्थ है पाताल यानी पाताल की तरह गहराई वाली जगह और कोट यानी दुर्ग। दीवारों से घिरा हुआ। यहां दीवार से अर्थ सतपुड़ा की ऊंची-ऊंची पहाड़ियों से है। यह आकार में कटोरे सा लगता है।
सतपुड़ा की पर्वतमाला के बीच नीचे और बहुत गहराई में बसे हैं 12 गांव और उनके ढाने (मोहल्ले)। यहां के बारे में कहा जाता है कि जमीन से नीचे होने और सतपुड़ा की आड़ी-तिरछी पहाड़ियों के कारण यहां सूरज की रोशनी देर से पहुंचती हैं।
इन नीचे बसे गांवों तक पहुंचने के लिए पहले सड़कें नहीं थीं। अब भी कुछ गांवों तक पहुंचमार्ग नहीं है। तब पेड़ों की लताओं व जड़ों को पकड़-पकड़कर संभलकर उतरना पड़ता था। कुछ साल पहले इन पंक्तियों के लेखक को भी इसी तरह नीचे उतरकर गांव जाना पड़ा था।
भारिया आदिवासी ही यहां के मुख्य बाशिंदे हैं। कम संख्या में कुछ गोंड आदिवासी भी यहां हैं। यहां के 12 गांव हैं- कारेआम रातेड़, चिमटीपुर, पलानी गैलडुब्बा, घोंघरी गुज्जाडोंगरी,घटलिंगा, गुढ़ीछतरी, घाना कोड़िया, मालनी डोमनी, जड़मांदल हर्राकछार, सेहरा पचगोल, झिरन, सूखा भण्ड हारमऊ।
भारिया को विशेष पिछड़ी जनजाति घोषित किया गया है। इनके विकास के लिए भारिया विकास अभिकरण भी बना है। इनकी भाषा पारसी है। लेकिन वे हिन्दी में भी संवाद करते हैं। मुख्यतः इनके त्यौहार दीपावली, होली, हरीजिरौती ( हरियाली अमावस्य़ा) है। ये सभी त्यौहार खेती से जुड़े हुए हैं। यानी कृषि संस्कृति के हिस्सा हैं।
दिवाली में गाय-बैलों को नहलाते धुलाते हैं, मोर पाख बांधते हैं, गेरू (लाल मिट्टी) से रंगते हैं, रंग-बिरंगे फीते बांधते हैं और पूजा करते हैं। पोला त्योहार में बांस की गेड़ी पर चढ़ते हैं। ठेठरा-बतियां बनाते हैं। मिट्टी के बैलों की पूजा करते हैं। नागपंचमी पर नागदेवता को दूध पिलाते हैं। हरीजेवती ( हरियाली अमावस्या) को खेत की पूजा करते हैं। फसल को हरा-भरा रखने और दाना-पानी की कामना करते हैं। होली पर लकड़ी एकत्र होली जलाते हैं। रात-रात भर जागकर फागें गाते हैं।
पातालकोट के भारियाओं को अजूबा व नुमाइश की तरह पेश किया जाता है। कभी उन्हें नरभक्षी कहा जाता है, कभी कहा जाता है कि वे नग्न अवस्था में रहते हैं। कभी उन्हें लंगोटी वाला कहकर एक अलग नजर से देखा जाता है। लेकिन इनमें सच्चाई नहीं है।
मैं यहां 27 जनवरी ( 2019) की दोपहर पहुंचा और 28 जनवरी की शाम तक रहा। यहां मैं बीजों की रिश्तेदारी कार्यक्रम में शिरकत करने पहुंचा था। यह कार्यक्रम निर्माण संस्था और यूजिंग डायवर्सिटी ( यूडी) ने आयोजित किया था, जो 28 जनवरी को निर्धारित था। एक दिन पूर्व ही मैं भारिया आदिवासियों के बीच पहुंचा था।
सामाजिक कार्यकर्ता नरेश विश्वास मेरा इंतजार कर रहे थे। उनके साथ रोहन भी थे। नरेश विश्वास, बीजों की रिश्तेदारी नामक कार्यक्रम के आयोजक थे और वे ही निर्माण संस्था के प्रमुख हैं। बैगा आदिवासी के बीच देसी बीजों पर लम्बे अरसे से काम करते हैं।
हमें हमारी गाड़ी सूखाभंड से करीब एक-डेढ़ किलोमीटर पहले सड़क पर ही छोड़नी पड़ी। क्योंकि आगे पहाड़ी से पगडंडी रास्ता था। बालकिशन भारिया, जो सूखाभंड का था, हमारा मार्गदर्शक था। पहाड़ का ऊबड़-खाबड़ रास्ता, जंगल के बीच से, छोटी-मोटी झाड़ियों से उलझते हुए हम चल रहे थे। ऊंचे-नीची पहाड़ियों पर चढ़ते-चढ़ते जब सांस फूल जाती थी तब थोड़ा रुककर सांस लेते थे और फिर चलते थे।
सूखाभंड पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई थी। सर्द हवा थी। सतपुड़ा की पहाड़ियां कोहरे की चादर लपेटे हुए थीं। कुछ लोग बकरियां व ढोर लेकर घर आ रहे थे। यहां हमने अलाव के आसपास बैठकर भारियाओं से बात की। महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग सभी जमा थे। 10 बजे के आसपास कांदा (कंद, जो भारियाओं का भोजन का हिस्सा है) लेकर युवकों की टोली आई। वे सुबह से बड़ा कांदा ( कंद) लेने के लिए गए थे।

रात में हम बालकिशन के घर ही रुके। दहलान में धरती पर बिछौना बिछाया और सो गए। जब भी नींद खुली तब बैलों के गले में बंधी मधुर घंटी टन-टन करती रही। हमने सुबह नाश्ता बड़े कांदा का किया, जो रात में ही जंगल से आया था।
सूखाभंड से हम पैदल गैलडुब्बा पहुंचे। यहीं पर बीजों की रिश्तेदारी कार्यक्रम के तहत देसी बीजों की प्रदर्शनी, अनाजों के व्यंजन और सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन था। अलग-अलग गांवों से पैदल तो कुछ वाहनों से बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष पहुंचे थे।

यहां पंडाल में देसी बीजों की प्रदर्शनी लगी थी। रंग-बिरंगे देसी बीज न केवल रंग-रूप में अलग थे बल्कि स्वाद में भी बेजोड़ थे। बेउरी कुटकी, भदेल कुटकी, कंगना, कंगनी, मड़िया, बाजरा, कुसमुसी, बेड़ाबाल, तुअर, काला कांग, धान, सांवा, जगनी, मक्का, के बीज थे। बल्लर ( सेमी), बरबटी, नेवा, लाल सेमा भी था।

महुआ का भुरका था,जिसे जगनी और महुआ दोनों को कूटकर बनाया गया था। इसे लोगों ने बहुत पसंद किया। मैंने भी चखा। बेड़ा बाल की घूंघरी ( उबालकर) बनाई जाती है। कुसमुसी की दाल व बड़े बनाए जाते हैं। कुटकी का भात और बल्लर की दाल प्रमुख भोजन है। कुटकी का पेज ( एक तरह का सूप) बनाकर पीते हैं। मक्के की रोटी भी खाते हैं और भात ( चावल की तरह) भी खाया जाता है।

प्रदर्शनी में कई प्रकार के कांदा भी थे। बड़ा कांदा, माहली कांदा, सेत कांदा, डूनची कांदा, केऊ कांदा, कडु कांदा, मोड़ो कांदा, मूसल कंद, रातेड़ कांदा। इसके अलावा यहां कई प्रकार की जड़ी-बूटियां भी थीं। सफेद मूसली, सतावर, रामदातौन, गुडवेल, चिरायता, हर्रा, बहेड़ा, आंवला, अंतमूल ( चाय की तरह पीते हैं), भिलवां इत्यादि।
सूखाभंड हारमऊ के मुन्नालाल ने बताया कि मोड़ो कांदा बहुत पाचक होता है। बड़ा कांदा की तासीर गरम है। इससे भूख भी नहीं लगती। सेत कांदा को चुड़ा ( उबालकर) खाते हैं। यह भी गरम होता है। भारिया उनकी बीमारियों का अधिकांश इलाज जड़ी-बूटी से कर लेते हैं। जड़ी-बूटियों के वे जानमकार होते हैं। कुछ लोग इन्हें बेचकर उनकी आजीविका भी चलाते हैं।
गैलडुब्बा के भगलू चालथिया ने बताया कि भारिया बरसों से आम की रोटी ( आम की गोही को चूरा कर रोटी बनाई जाती है) और बल्लर की साग खाते थे। महुआ खाते थे। बांस की करील की सब्जी और दोवे भाजी की साग पकाते थे।। कोयलार भाजी की हरी पत्तियों की सब्जी बनती है।
वे आगे बताते हैं कि पहले हम दहिया खेती करते थे। खूब बेउर कुटकी पकती थी। मड़िया, कांग, कांगनी, जगनी, सिक्का और डंगरा बोते थे। अब दहिया पर रोक लगाई जा रही है। फिर हम कैसे जिएंगे?
भगलू ने आगे बताया कि दहिया खेती का तरीका यह था कि बारिश के पहले ललताना व छोटी झाड़ियां काटकर उसमें आग लगा देते थे। चाहे उस जगह पर पत्थर ही क्यों न हों। जब झाड़िया जलकर राख हो जाती थीं, कांगनी फेंक देते थे। पानी गिरता था तो वह उग जाती थी। बाद में दो-तीन बार निंदाई-गुड़ाई करनी पड़ती थी। और फसल पक जाती थी, बस।
इस तरह खेती में एक-दो साल में जगह बदलनी पड़ती थी। इसमें हल चलाने की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए अंग्रेजी में इसे सिफ्टिंग कल्टीवेशन कहते हैं। बहुत दिनों से भारियाओं ने इसे करना छोड़ दिया है। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता नरेश विश्वास की पहल पर उन्होंने फिर से उनके निजी खेतों में दहिया करना शुरू किया है।
सूखाभंड के गुरवा उइके ने बताया कि कातुल के फल भी चुड़ाकर ( उबालकर) खाते हैं। चुड़ाने के बाद बीज निकालकर पानी भी फेंक देते हैं। क्योंकि इसमें खट्टापन होता है। इसे जब अनाज नहीं होता था तब भूख के दिनों में खाते थे। ऊमर के पत्तों की सब्जी भी खाते हैं। वह भी गरम होती है। सेमरा के फलों की सब्जी भी बनाते हैं। रेटु भाजी और मक्का व ज्वार के आटे के साथ लड्डू भी बनाते हैं। गुरूवा ने आगे बताया कि यहां कई भमौड़ी ( मशरूम) होते हैं, जिनकी सब्जी बनती है। जैसे धतरौती भगोड़ा, बांस गाजरे, बमीठा भोंडली, पुक्का बिराद, कुम्भा इत्यादि।

निर्माण संस्था के नरेश विश्वास कहते हैं कि पातालकोट की जमीन समतल नहीं है। ऊंची-नीची और पथरीली है। इसमें दहिया खेती ही हो सकती है, जो भारिया आदिवासी पीढ़ियों से करते आ रहे हैं। उनका देसी खेती व बीजों का ज्ञान पारंपरिक है। दहिया में ही देसी पौष्टिक बीजों की खेती हो सकती है।
नरेश विश्वास मंडला- डिंडौरी के बैगाचक के बैगा आदिवासियों, छत्तीसगढ़ के रायगढ़ के पहाड़ी कोरवाओं में दहिया खेती के जरिए पुराने देसी बीजों की खेती को बढ़ावा देते रहे हैं। जो देसी बीज लुप्त हो चुके थे, उन्हें खोजकर आदिवासियों को उपलब्ध कराते हैं। सिकिया ऐसा ही अनाज था, जिसे लोग भूल चुके थे। मंडला में फिर से लोग इसे बोने लगे हैं। इसी प्रकार, बाजरा, जिसे चिड़िया बहुत खाती हैं, लेकिन उनके पास ऐसी देसी किस्म है जिसमें रोएं होते हैं, जिससे चिड़िया नहीं खा पाती। जिससे फसल का नुकसान नहीं होता है।
पौष्टिक अनाजों की खेती में पक्षियों का झुंड में आना और फसलों के दाने को चुगना, एक समस्या है। पर लोग यहां खेतों में मचान बनाकर रहते हैं, और जोर से आवाज लगाकर, खेतों में धोखा ( बिजूका) बनाकर पक्षियों का भगाते हैं। आदिवासियों को खेती-किसानी से जुड़ी ऐसी समस्याओं का हल आता है।
इन सबके बावजूद अब भारिया बाहरी दुनिया से प्रभावित हैं। उन्होंने सिंचाई व रासायनिक खेती भी करना शुरू कर दिया है। उनकी जीवनशैली भी बदल रही है। नई पीढ़ी मोबाइल व मोटर साइकिल वाली है। इस कार्यक्रम में युवा बड़ी संख्या में आए थे। वे उनके मोबाइल पर फोटो लेते व वीडियो बनाते दिखे।सूखाभंड में एक लड़की साइकिल सीख रही थी। इस कार्यक्रम में बीज प्रदर्शनी के साथ भारियाओं ने डंडा नृत्य, गेड़ी नृत्य व शैताम जैसे पारंपरिक लोकगीत भी गाए।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि भारियाओं का जीवन प्रकृति से जुड़ा हुआ है। उनकी जंगल आधारित खाद्य व भोजन व्यवस्था थी जिसमें अब कमी आ रही है। एक तो जलवायु बदलाव व मौसम बदलाव हो रहा है। जंगल कम हो रहे हैं। बारिश कम हो रही है। पानी के परंपरागत स्रोत भी सूख रहे हैं। कुछ समय पहले एक गांव में भूस्खलन की खबर भी आई थी। उनकी जीवनशैली व खेती भी बदल रही है।
लेकिन दहिया खेती के साथ देसी बीजों की खेती से उम्मीद भी बनी है। इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में भारियाओं के सभी तबकों का होना इसका प्रमाण है। दहिया खेती पोष्टिक अनाज के साथ खाद्य सुरक्षा भी करेगी। स्वास्थ्य सुरक्षा के साथ जैव विविधता बचाएगी। पारिस्थितिकीय तंत्र और पर्यावरण की सुरक्षा भी होगी। यह टिकाऊ खेती होगी। इसी के साथ प्रकृति के साथ सहअस्तित्व वाली जीवनशैली व देसी संस्कृति भी बचेगी, जो भारियाओं की जीवनशैली भी है।
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