(Prakriti-kala ke zariye kalabodh ka vikas)
हमारे आसपास बिखरी तमाम खूबसूरत चीज़ों को अनुभव करने, महसूस करने और उनका रस ले पाने के लिए यह ज़रूरी है कि हर बच्चे को सुनियोजित कलाबोध शिक्षा का अवसर मिले | जहाँ मुख्यधारा की शिक्षा बाज़ार द्वारा संचालित हितों को प्राथमिकता देती है और वैश्विक कम्पनियों के लिए कामगार तैयार करने में जुटी रहती है | वहां यह अक्सर बच्चे के व्यक्तित्व के कई और आयामों को नज़रअन्दाज़ कर देती है। इनमें शामिल हैं अपने आसपास की प्राकृतिक दुनिया को देखना-सराहना, उसके साथ परस्पर सम्बन्ध बनाना और उसका सम्मान करना। अपने आसपास की वास्तविक प्राकृतिक दुनिया के साथ जुड़ाव बच्चों के मनोसामाजिक, शारीरिक और संज्ञानात्मक विकास और स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है – उनके खुद के लिए, इस धरती के लिए और पूरे समाज के लिए।
इस शोधपत्र के लिए हमने ‘इको क्लब’ को आधार बनाया है | इको क्लब एक ऐसा क्लब है जिसमें प्रकृति भ्रमण, इससे जुड़ी गतिविधियाँ, छानबीन, और चर्चाएँ की जाती है | इसके लिए इको क्लब के 10 सदस्य सप्ताह में एक बार सत्र के लिए मिलते हैं | यह इको क्लब तैयार करना, सत्र लेने का उद्देश्य था बच्चों में कलात्मक और सौन्दर्य की सराहना की प्रक्रिया के ज़रिए प्राकृतिक दुनिया के प्रति रुचि, उत्साह और कौतुहल विकसित करना। इससे बच्चों को अपने आसपास के परिवेश और प्राकृतिक पर्यावरण के साथ जान-पहचान बढ़ाने, संरक्षण की समझ बनाने, प्रकृति के साथ हमारे पारस्परिक निर्भरता को जानने और प्रकृति के इस ताने-बाने के प्रति सचेत रहने के भी मौके मिले। इसमें गतिविधियाँ जैसे, प्रकृति भ्रमण, स्केच करना, मानचित्र बनाना, मिट्टी में पाए जाने वाले कीड़ों और उनके घरों को ढूंडना, और एक इको संग्राहलय बनाना शामिल है | हमने कोशिश की कि सीखने-सिखाने की इस प्रक्रिया को बहुआयामी और बहुऐंद्रिक गतिविधियों के ज़रिए रोचक और भागीदारीपूर्ण बना सकें। इनमें देखने और जानने के विविध तरीकों के लिए जगह बनाई गई थी।
इस लघु-शोध में हमारा उद्देश्य था आनंददायक और प्रासंगिक प्रकृति-आधारित शिक्षण कार्यक्रम बनाना | इसमें ठेंगावानी गांव शिक्षा केंद्र, पिपरिया (ब्लॉक), मध्य प्रदेश के प्राथमिक और माध्यमिक कक्षा के बच्चे शामिल रहे । ठेंगावानी गाँव ग्रामीण इकाले में स्तिथ है, यहाँ के ज्यादातर लोग मजदूरी कर अपना जीवन व्यापन करते हैं | कुछ लोग छोटे किसान हैं व कुछ लोग गाँव से 8km की दूरी स्तिथ पिपरिया शहर में देहाड़ी मजदूर करने जाते हैं | गाँव से ज्यादातर बच्चे गाँव के शासकीय प्राथमिक शाला में पढ़ने जाते हैं और कुछ शहर के प्राइवेट स्कूलों में जाते हैं | इन सत्र में दस नियमित भागीदार और सामुदाय के कुछ सदस्याओं ने भाग लिया और इन्हें ज्यादा इंटरैक्टिव बनाने में हमारी मदद की कि हम बेहतर तरीके से प्रकृति कला को समझ सकें और उनकी प्रसंशा कर सकें | इन सत्रों में भागीदारों द्वारा कुछ सामग्री जैसे, रंग, ब्रश, दूरबीन, लेन्सेस, इको संग्रहलय डब्बे और किताबों का इस्तेमाल किया गया | गतिविधियों को सरल तरीके से आयोजित किया गया था, जिसमें भागीदारों और संचालक के बीच परस्पर संवाद हो सके | गतिविधि करने के लिए हमने आसपास के खेत, स्कूल के प्रांगन, नदी और मैदान का इस्तेमाल किया |
ध्वनि पर ध्यान केंद्रित करना
हमारे आसपास, प्रकृति की बहुत सारी ध्वनियाँ हैं, जिसे हम रोजमर्रा की ज़िन्दगी में सुन कर भी अनसुना कर देते हैं | ध्वनि पर ध्यान केंद्रित करना जैसे सत्र लेने का मुख्य उद्देश्य यह था कि हम आसपास के प्राकृतिक ध्वनियों से अवगत हो सकें, उन्हें पहचान सकें, और अलग अलग ध्वनियों में अंतर जान सकें | प्रभाव यह होगा कि हम जान पाए कि हमारे आसपास क्या घटनाएं घट रही है और हम उससे किस तरह जुड़े हुए हैं | इसके लिए हमने भागीदारों को निर्देश दिया कि वे एक जगह पर बैठ अपनी आँखें बंद कर आवाजों को ध्यानपूर्वक सुनने की कोशिश करें | पहले दिन के सत्र को भागीदार गंभीर रूप में नहीं ले पाए, वे आंखें खोल कर एक दूसरे को देख मुस्कुरा रहे थे, ध्यान नहीं लगा पा रहे थे | जब पूछा गया कि कौन सी आवाजों को सुना गया, उनके जवाब थे माइक, ट्रक, चिड़िया, गाय और कुत्तों के भौंकने की आवाज़, बिजली के तार की आवाज़ आदि सुनने को मिली | उन्होंने उन्हीं आवाजों का ज़िक्र किया जिससे वे परिचित हैं | कुछ दिन बाद दूसरे सत्र में हमने बच्चों को शांत बैठकर ध्यान केन्द्रित करने का निर्देश दिया, पर इस बार हमने जगह में कुछ परिवर्तन किया | इस बार बच्चे विचलित नहीं हुए और ध्यानपूर्वक आवाजों को सुनने लगे | इस बार फिर उनसे पूछने पर बताया गया कि उन्हें अलग-अलग चिड़िया जैसे, तीतर, गौरैया, मुर्गी आदि की आवाज़ सुनाई दी | हवा में लहराते फसलों की आवाज़ सुनाई दी और कीड़े जैसे झींगुर, मक्खी, मच्छर आदि के आवाजों को सुन पाए, अपने बगल में बैठे साथी की साँसों की आवाज़ सुन पाए | ध्वनि पर ध्यान केंद्रित करना या ध्यानपूर्वक सुनने तक का सफ़र हमने कुछ ऐसा तय किया; पहले भागीदारों को घर वाले माहौल से थोड़े दूर खेतों में लिया, दो गज दूरी में बैठाया, धीमे से सांस लेने और छोड़ने के लिए कहा, धीरे से आँखें बंद करके फिर सुनने पर ध्यान लगाने के लिए कहा | इन चरणों को अपनाने पर काफी मदद मिली | गतिविधि पूरा होने पर बच्चों के सवाल उभर कर आ रहे थे जैसे, दूर की आवाज़ हम तक कैसे पहुँच जाती है ? हवा जब पेड़ों को टकराती है, उनकी अलग आवाज़ सुनाई देतीं होंगी ? समुद्र की आवाज़ कैसी होती होगी ?
नेचर जर्नलिंग
नेचर जर्नलिंग का मतलब है, नेचर/प्रकृति का भ्रमण करना, प्राकृतिक वस्तु जैसे पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े आदि का अवलोकन करना, इनके सम्बन्ध में लिखना, इनके चित्र बनाना और इन पर चिंतन करना | भागीदारों ने इको क्लब से सम्बंधित वस्तुओं का चित्र बनाने के लिए स्क्रैपबुक बनाया | जिससे वे अपने सत्र में बनाये हुए चित्र दर्ज कर सकें | इसके लिए हमने बच्चों को निर्देश दिया कि वे किसी एक फूल का चित्र बनाएं, बिना उस फूल को देखे | बच्चों ने बौगेंविल्ला, लैंटाना, नीम के फूल, प्याज के फूल, चमेली आदि के चित्र बनाये | नीचे दिए गए हैं:
इसके बाद वही फूल सामने रखकर फिर से चित्र बनाये गए |
इन दोनों चित्रों में काफी सारे अंतर देखने को मिले | जैसे पहले बनाये गए लैंटाना के चित्र में छोटे फूल शामिल नहीं किये गए थे | दूसरे चित्र में यह देखने को मिला कि लैंटाना के एक गुच्छे में बहुत से छोटे छोटे फूल होते हैं | और इनके रंग भी बहुत प्रकार के होते हैं | जैसे, गुलाबी, बैंगनी, लैवेंडर, सफ़ेद आदि | बौगेंविल्ला के पहले चित्र में नसें नहीं बनाई गयी थी, दूसरी चित्र में नसें हैं | प्याज फूल के दूसरे चित्र में यह नज़र आया कि छोटे छोटे फूल जो कि दाने जैसे हैं, वो भी शामिल हैं | भागीदारों ने दो तीन रंगों को मिलाकर नए रंग बनाये और ये उनके लिए नया अनुभव था | गतिविधि पूरा होने के बाद वह यह बता पा रहे थे कि हर फूल एक दूसरे से अलग है | उनकी खुशबू, उनकी बनावट और सतह भी अलग है | पहले सत्र के मुताबिक, दूसरे सत्र में भागीदार बारीक अवलोकन करते नज़र आये |
भागीदारों के अपने अवलोकनों पर कुछ सवाल उभर कर आये | जैसे, यह सवाल कि पौधे के फूलों के अलग अलग रंग क्यों और कैसे होते हैं ? फूलों के रंग कैसे बदल जाते हैं ? फूलों में खुशबू और रस कहाँ से आ जाते हैं ? इस दुनिया में फूलों की कितनी प्रजातियाँ होंगी ?
इको संग्राहलय
प्रत्येक भागीदारों को एक डब्बा दिया गया जिसमें उन्होंने इको-संग्रहालय बनाने के लिए अपना नाम लिखा। इस म्यूजियम को बनाने का मकसद यह था कि भागीदार को हमारे आस-पास मौजूद सभी प्राकृतिक चीजों में से कुछ अलग और अनोखा मिले, जो उन्हें पसंद आए या उन्हें किसी चीज की याद दिलाए उसे इकठ्ठा करें; उन्हें सुरक्षित रखें | डब्बे में अपने नाम के साथ साथ डब्बे के नाम भी रखे गए | ये उनके निजि डब्बे हैं जिन्हें वे हमेशा अपने पास अपने करीब रखेंगे | सत्र के लिए हम उन्हें खेत में ले गए और उन्हें बहुत सी अनोखी चीज़ें मिलीं जैसे- पक्षियों (मोर और तीतर) के पंख, विभिन्न प्रकार के पत्थर, बीज के बक्से, कांटेदार बीज, तिरंगे पत्ते और ज़िगज़ैग पैटर्न वाले फल। जब बच्चे अपनी चीज़ें दिखा रहे थे तो वे प्रत्येक चीज़ की विशेषताएँ और अपने जीवन से जुड़ी कुछ चीज़ें बता पा रहे थे। जैसे, तिरंगे पत्तों में एक जीवन काल नज़र आ रहा था, हरे रंग युवा को दर्शाता है, पीला रंग व्यस्क और भूरा रंग बुढ़ापे को दर्शाता है | बीज के बक्से जैसे गर्भवती महिला लग रही थी |
इको सम्बन्ध वेब
यह देखने के लिए कि हमारे आस-पास के वातावरण में जीवित प्राणी एक-दूसरे से कैसे संबंधित हैं, भागीदारों ने स्क्रैपबुक में पास के कुछ पेड़ों की छाल के चित्र बनाये । स्केचिंग करने पर पता चला कि छालों में छोटे-छोटे जीव बसे हुए हैं। बच्चों ने इनमें से कुछ प्राणियों की खोज की, जैसे तीन-चार प्रकार की चींटियाँ, मकड़ियाँ, दीमक, तितलियाँ, मक्खियाँ, मधुमक्खियाँ, गौरैया, गिलहरियाँ, अन्य कीड़े आदि। बच्चों से चर्चा के दौरान यह बात सामने आई कि एक पेड़ पर कई जीव-जंतु निर्भर हैं। जीव-जन्तुओं का भोजन, उनका घर, उनका परिवार सब वृक्ष पर ही रहते हैं और यदि एक वृक्ष कट जाता है तो कितने ही जीव-जन्तु बेघर हो जाते हैं। जीव-जंतु और पेड़-पौधे एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं | हम मनुष्यों के पास, गर्मी, धूप, ठण्ड, बारिश से बचने के लिए बहुत से साधन हैं, ये छोटे जीव- जंतु अपने आप को कैसे सुरक्षित रखते होंगे? नीचे भागीदार द्वारा बनाये गये चित्र हैं:
इको मानचित्र
भागीदारों को अपने आसपास के सभी पेड़-पौधों को जानने-समझने के लिए मानचित्र बनवाया गया | मानचित्र बनाने का मकसद यह था कि हम हमारे आसपास के पेड़-पौधों को हर दिन देखते हैं, लेकिन उनके नाम, उनकी विशेषताएं, उनकी महत्त्व जानने की कोशिश नहीं करते हैं | इसके लिए हमने भागीदारों को दो समूहों में बांटा, दोनों समूहों ने बड़े ही उत्साह से कार्य किया | उनके लिए ऐसा सत्र बहुत रोचक था, दोनों समूह मुख्य रास्ते से खेतों की ओर चले | मानचित्र बनाने पर भागीदारों ने अनेकों पेड़ों-पौधों के बारे में लिखा | परिणाम यह हुआ कि ज्यादातर पाए जाने वाले पेड़ टीम, बबूल और बेर के थे और वहाँ लैंटाना की झाड़ियाँ फैली हुई थी |
इस दौरान भागीदारों ने पेड़ों के नाम और उनकी विशेषताएं साझा कीं। इसी बीच कुछ पौधे ऐसे थे जिनके नाम हम नहीं जानते थे और गांव के कुछ वरिष्ठ सदस्यों ने हमारी मदद की। उन्होंने यह भी बताया कि पहले जब दवाएँ उपलब्ध नहीं होती थीं तो इनमें से कुछ पत्तियों को कुचलकर घावों पर लगाया जाता था। यह हम सभी भागीदारों के लिए फ़ायदेमंद रहा कि कुछ पारम्परिक बातें हमें जानने को मिली | यही नहीं, वरिष्ट सदस्यों ने भी इन सत्रों में भाग लेकर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर की| उनका कहना था कि वे आज तक किसी भी ऐसे सत्र में खासकर बच्चों के साथ शामिल नहीं रहे हैं| उन्हें यह देखकर ख़ुशी हो रही थी कि आज भी बच्चे भाषा और गणित के अलावा, प्रकृति को जानने समझने की कोशिश कर रहे हैं|
इन दो महीनों के छोटे प्रोजेक्ट के दौरान बच्चों को प्रकृति को देखने-समझने और उससे जुड़े सवाल पूछने का मौका मिला। वे ऐसे सत्रों और गतिविधियों से अभिभूत थे और पूरे मनोयोग से भाग ले रहे थे। मुझे उन्हें प्रकृति के बारे में सोचते, क्यों और कैसे जैसे प्रश्न पूछते (जिनके उत्तर मेरे पास नहीं थे) देखकर ख़ुशी हुई। अपने भीतर के प्रश्नों को उठाने और प्रस्ताव करने के साथ-साथ उन पर चर्चा करने से उन्हें नई जानकारी मिली और उनकी जिज्ञासाओं के उत्तर भी मिले। प्रकृति के साथ निकटता से जुड़कर, प्रकृति के भविष्य के बारे में सोचने में सक्षम हुए। जैसे. क्या होगा अगर पेड़ और कीड़े नहीं होंगे? यदि सारी नदी का पानी सूख जाए तो क्या होगा? इससे न केवल उन्हें सोचने में मदद मिली बल्कि चीजों को देखने, चित्र बनाने, सवाल पूछने, जवाब देने, गतिविधि के लिए तत्परता और अपने काम के प्रति प्रतिबद्ध रहने के मामले में उनके कौशल में भी वृद्धि हुई। हाँ, शुरू के सत्रों में सत्र लेने के दौरान मुझे दिक्कतें आई थी जब भागीदार मेरी बातों पर ध्यान नहीं देते थे | वे आपस में बातें करना शुरू कर देते थे | लेकिन जब धीरे धीरे हम सत्र करते गए, भागीदारों में वो बदलाव नज़र आई | वे रुचि ले रहे थे, और इसीलिए वे मेरी बातों को ध्यान दे रहे थे | समूहों में काम करने पर उनमें जिम्मेदारियों को संभालते नज़र आये | प्रकृति को साथी बनाते नज़र आये |
दो महीनों में की गई गतिविधियों के दौरान, हमने भागीदारों के अपने परिवेश से जुड़ने के तरीके में कुछ बदलाव देखे हैं – जहां वे अपने आसपास की प्राकृतिक सुंदरता के प्रति अधिक चौकस और अधिक जागरूक हो गए हैं। ये भागीदारों एवं अन्य युवा छात्रों में सौंदर्य संबंधी जागरूकता विकसित करने के लिए मूलभूत कदम हैं। इस प्रकार, ये वे छोटे कदम हैं जिनसे हमने परिवेश को जानने, अवलोकन करने और आश्चर्य करने के बीज बोए हैं। उदाहरण के लिए, प्राकृतिक ध्वनियों और वेब संबंधों, पौधों और जानवरों के महत्व को जानना और उन पर ध्यान केंद्रित करना। पत्तियों, छालों और अन्य प्राकृतिक चीज़ों का गहन अवलोकन करना। इन गतिविधियों का एक कार्य प्रतिभागियों को उत्साहित करते हुए बहुत खुशी और उत्साह लेकर आया। यही ख़ुशी और उत्साह को बरकरार रखने के लिए हमने सोचा है कि ऐसी ही गतिविधियाँ हम स्कूल के शिक्षक से बात करकर स्कूल के समय में भी करा सकते हैं| आशय यह है कि इको एक्टिविटीज को हम पर्यावरण विषय से जोड़कर भी पढ़ा सकते हैं| उदहारण के लिए जैसे, कक्षा पांचवी के पाठ्यपुस्तक के कुछ पाठ, हमारा पर्यावरण; वन, जल, शहर एवं पर्यावरण जैसे पाठों से जोड़कर पढ़ाया जा सकता है| इन पाठों में आसपास के पर्यावरण के सन्दर्भ में बहुत सी जानकारियाँ दी गयी है, बस कुछ रह गया है तो अवलोकन करने के मौके, खुद से करके देखने के मौके, समूह में कार्य करना, और तार्किक क्षमताओं को बढ़ावा देना| अगर ये सभी मौके हम उस कक्षा में दे पाएंगे तो पाठों की समझ के साथ साथ बच्चों में पर्यावरण के प्रति प्रेम और जारूकता भी उत्पन्न होगी| साथ ही इन गतिविधियों के दौरान यह भी महसूस किया गया की बच्चों में चित्रकला के प्रति भी भावना जागी| जो बच्चों को चित्र बनाने में संकोच था, झिझक थी, वे भी चित्र बनाने के लिए आगे बढ़े| आसपास के कीड़े-मकोड़े,फूल- पौधे, तितलियाँ- पक्षियों के बारे में जानने की इच्छा जागी, उनकी सुन्दरता को बयाँ कर पाए| यह कार्य वर्तमान में केवल एक इ केंद्र पर किया गया, लेकिन इस कार्य को एक स्कूल में करने के साथ अन्य और भी स्कूलों में करने का प्रयास किया जा सकता है|
यह लघु शोध मेलोडी खलखो, एकलव्य पिपरिया द्वारा किया गया है और मिहिर पाठक, बीमि स्कूल, बैंगलोर द्वारा निर्देशित और मार्गदर्शन किया गया है।
मेलोडी खलखो: वर्तमान में एकलव्य संस्था के ‘होलिस्टिक इनिशिएटिव टुवर्ड्स एजुकेशनल चेंज’(HITEC) प्रोग्राम में कार्यरत हूँ | 2020 में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय से MA एजुकेशन पूरा किया है | विभिन्न बाल साहित्य को पढ़ने-समझने, पेंटिंग और प्राकृतिक आधारित कार्य में ख़ास रुचि है| लिखने में और शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों के साथ ज़मीनी स्तर पर काम करने में दिल्चस्बी है|
इको क्लब की कुछ तस्वीरें




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अज़ीम प्रेमजी प्रकाशन द्वारा निबंधों के संग्रह में पहली बार प्रकाशित|