विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)
सभी फोटो- चिन्मय फुटाणे
“सीमेंट तो काफी नया है, जबकि लोग सदियों से मिट्टी के घर बनाकर रह रहे हैं। बचपन से ही मुझे मिट्टी और लकड़ी के परंपरागत घर अच्छे लगते थे, इसलिए मिट्टी का घर बनाया। और अगर कोई व्यक्ति मिट्टी का घर बनाता है, तो मैं उसकी मदद करता हूं।” यह बसंत फुटाणे थे, जो महाराष्ट्र के अमरावती जिले के छोटे से गांव रवाला के रहनेवाले हैं।
बसंत फुटाणे, किसान और सर्वोदयी, गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे रवाला गांव में पुश्तैनी जमीन में प्राकृतिक खेती करते हैं। उनके खेत में आम, संतरे, नींबू और अमरूद का बगीचा है। वहां हरा-भरा वातावरण है। खेत में ही उनका घर है। उन्होंने दो मंजिला मिट्टी का मकान बनाया है और उसमें दो दशकों से अधिक समय से सपरिवार रहते हैं।
बसंत फुटाणे ने बतलाया कि वे चार दशक पहले से प्रयोगात्मक तौर पर खेत में अलग-अलग प्रकार के मिट्टी के घर बनाते रहे हैं। उन्होंने मिट्टी के घर बनाने के बारे में किताबों से सीखा है। इसके लिए ‘ऑरोवील अर्थ इंस्टीट्यूट’ और मशहूर वास्तुशास्त्री लॉरी बेकर की किताबों को पढ़ा है। सबसे पहले उन्होंने वर्ष 1983 में मिट्टी का घर बनाया। इसे रेम्म्ड अर्थ कंस्ट्रशन तकनीक से बनाया था। इसमें टीन की छत थी।
वे आगे बताते हैं कि मिट्टी के घर करीब 200 साल तक रह सकते हैं। इनमें पीढ़ी दर पीढ़ी लोग रह सकते हैं। इनके टूटने के बाद भी इनकी सामग्री पुनः इस्तेमाल की जा सकती है। दूसरी तरफ कंक्रीट-सीमेंट के घरों की उम्र करीब 50 साल की होती है। उनके मलबे के निपटान की लागत भी चिंता का विषय है। उसमें भी बहुत ऊर्जा (डीजल) लगती है। सीमेंट और गिट्टी बनाने के लिए हर साल पहाड़ों को नष्ट किया जा रहा है, उन्हें तोड़ा जा रहा है। अगर हम यह कल्पना करें कि देश के सभी घर सीमेंट-कंक्रीट में परिवर्तित हो जाएं तो इसकी आर्थिक व पारिस्थितिकीय कीमत क्या होगी? यह एक दुःस्वप्न की तरह है।
वे आगे बताते हैं कि कुछ लोग सोचते हैं कि अच्छे और टिकाऊ मकान लोहे की सरिया, सीमेंट-कंक्रीट और पक्की ईंटों के बगैर नहीं बन सकते। परंतु लोहे और सीमेंट के उत्पादन में बहुत सारी ऊर्जा खर्च होती है। इसका मतलब यह है कि लोहे और सीमेंट के उत्पादन और ढुलाई में बहुत सारा ईंधन खर्च होता है। यह घर सीमेंट, स्टील, कंक्रीट, ईंटों और इमारती लकड़ी तक ही सीमित नहीं है। इस सूची में कांच, अल्युमिनियम, एस्बेस्टॉस और जस्ता चढ़ी लोहे की चादरें भी चाहिए। जबकि मिट्टी, निर्माण स्थल के एकदम करीब ही मिल जाती है। और मानव श्रम के अलावा, इसमें कोई ऊर्जा भी खर्च नहीं होती।
बसंत फुटाणे ने बताया कि मिट्टी के घर का नियोजन करते समय बढ़ई/ सुतार ( लकड़ी का ढांचा तैयार करने में) की अहम् भूमिका होती है। छत का भार या वजन दीवार पर नहीं, बल्कि लकड़ी के खम्बों पर रखा जाता है। मिट्टी के मकान के लिए नीम की लकड़ी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। उसमें दीमक लगने की संभावना बहुत ही कम होती है।
उनके बेटे विनय फुटाणे ने बतलाया कि वर्ष 1991 में मूसलाधार वर्षा के कारण बाढ़ आई थी, तब मोवाड़ गांव पूरा ही बह गया था, अन्य गांवों में भी नदी किनारे के मकान क्षतिग्रस्त हो गए थे। उस बाढ़ में जिन मकानों की छत बह गईं और दीवार खड़ी रह गई थी। वहां के टूटे-फूटे मकानों की मिट्टी हम नए घर बनाने के लिए लेकर आए। इस मिट्टी को मकान में लगाने के लिए तैयार करना पड़ता है। पहले उसे भिगोना पड़ता है और फिर उसमें गोबर, रेशा और बेल का गूदा, अलसी का भूसा आदि मिलाया जाता है। इससे मिट्टी मजबूत होती है और उसमें दरारें नहीं पड़ती हैं। इस मिट्टी से घर की दीवारें खड़ी की जाती हैं।
वे आगे बताते हैं कि उनके मकान की अंदरवाली दीवार 30 इंच की है। जबकि बाहरवाली दीवार की चौड़ाई 24 इंच रखी गई है। अंदरवाली दीवार पर ही दूसरी मंजिल का भार रखा है, इसलिए वह चौड़ी रखी गई है। दीवारें तो खड़ी हो गईं पर हमें सुतार बहुत देर से मिला। एक कारीगर धोन्डू मालक और दूसरा कोलमकर, इन दोनों का मकान निर्माण में बड़ा योगदान रहा है। इनके पास घर बनाने का पारंपरिक ज्ञान और कौशल था। उन्होंने खेत में घूमकर पेड़ों की लकड़ियों को देखा, उनकी पहचान की। कौन सी लकड़ी किस काम आएगी, इसका अनुमान लगाया और काम शुरू किया।
बसंत फुटाणे ने बतलाया कि कोलमकर ने सबसे पहले बैलगाड़ी, हल और टूटे फर्नीचर की खराब लकड़ियों को एकत्र किया। उससे खिड़कियों के किवाड़, अलमारी, छतों को आपस में जोड़ने की पट्टियां बनाईं। वे लकड़ी के आकार को देखते थे और फिर उसे काटते, और नया आकार देते थे। जब भी मेरी पत्नी उनको यह कहती थी कि यह लकड़ी बेकार है, तब वे जवाब देते थे यह काम की है, बेकार नहीं है। कोलमकर ने मकान में कई पेड़ों की लकड़ियां का इस्तेमाल किया। आम, नीम, सागवान, सिवन, बबूल, किनी, नीलगिरी इत्यादि। आमतौर पर सागौन की लकड़ी को मकान बनाने के लिए सबसे अच्छा माना जाता है, पर सुतार ने बताया कि बेल की लक़ड़ी भी श्रेष्ठ होती है। बांस की लकड़ी का उपयोग भी किया जा सकता है।
विनय भाई ने बताया कि इसके बाद हमें तीन सप्ताह दीवारों पर मिट्टी का पलस्तर करने में लगे। इसके लिए मिट्टी को तैयार करना पड़ता है। 8 दिन तक पानी डालकर मिट्टी मलना पड़ता था। गाय-बैल उस मिट्टी को पैरों से रौंदते थे। दीवार बनाने के लिए 3 दिन में और पलस्तर करने में 8 दिन में मिट्टी तैयार होती थी। जितनी जरूरत होती है, उतना अतिरिक्त चूना मिलाया जाता था, जिससे दीवारों को पानी की बौछारों से बचाया जा सके।
ग्रामीण मिस्री धोन्डू मालक ने मिट्टी की चिनाई के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि ऐसी माटी, जो चूना मिश्रित हो, पानी और दीमक से बचाव करती है। यह मिट्टी अलग-अलग तरह से परिष्कृत करके इस्तेमाल की जाती है। घर के फर्श के लिए ऐसी मिट्टी उपयोगी मानी जाती है। इस मिट्टी की तीन-चार इंच मोटी परत बिछाकर, थोड़ा सूखने के बाद, इस फर्श की अच्छी तरह से कुटाई की गई। उसे चिकना करने के लिए घिसाई की गई। सूखने पर गोबर से उसकी लिपाई की गई। हवा की दिशा की ओर मकान की खिड़कियां रखी गई हैं, जिससे पंखे की जरूरत नहीं पड़ती है। रसोईघऱ, आग्नेय/ पूर्व और दक्षिण के बीच की दिशा में बनाई गई है ताकि चूल्हे या सिगड़ी का धुआं घर के बाहर आसानी से निकले, घर के अंदर ना घुसे।
वर्ष 2000 में मिट्टी का मकान बनकर तैयार हुआ। यह दोमंजिला घर है। इसमें 6 कमरे हैं, रसोईघर है, और बीच में दो कमरे हैं, एक लम्बा बरामदा है। संडास और गुसलखाना है। आंगन है और हरे-भरे पेड़ों का परिसर है। एक तालाब भी है। गाय-बैल हैं। फुटाणे परिवार की भोजन-पानी,सब्जी और दूध की दैनंदिन जरूरतें खेत से ही पूरी हो जाती हैं।
इसी प्रकार, मिट्टी के घर बनाने की पहल कई स्थानों पर हो रही है। गुजरात के कच्छ में हुनरशाला नामक संस्था ने वहां वर्ष 2001 के भूकंप आने के बाद नई तकनीक से घर बनाने शुरू किए हैं। इसके स्थानीय कारीगर, इंजीनियर, वास्तुकार, शोधकर्ता सब एक साथ आए और पारंपरिक व आधुनिक विज्ञान निर्माण के संयुक्त ज्ञान से मकान बनाए। यह घर स्थानीय सामग्री से बनाए गए हैं, जो कई मायनों में टिकाऊ, पर्यावरण के अनुकूल और आपदाओं से सुरक्षित हैं।
हिमाचल प्रदेश की कांगरा घाटी में दीदी कांट्रेक्टर का काम भी अनूठा रहा है। अमरीकी मूल की डेलिया किसिन्जर ने मिट्टी, बांस, स्लेट पत्थरों से मकान बनाने की तकनीक सीखी। ऐसे घर आर्थिक और पर्यावरणीय रूप से टिकाऊ होते थे। और हवादार व खुली रोशनी वाले होते थे।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि फुटाणे परिवार ने हवादार व खुला मिट्टी का घर बनाया है जिसमें अच्छे से रहा जा सके, अच्छे से सांस ली जा सके। घर की मोटी दीवारें ज्यादा गरमी व ठंडी से बचाती हैं। इससे घर गरमी में ठंडा और ठंडी में गरम होता है। सीमेंट- कंक्रीट के घरों के टाइल्स में पैर ठंडे होते हैं, जोड़ों में दर्द होता है। मिट्टी के घरों में यह समस्या बिल्कुल नहीं है, और घर में चप्पल की जरूरत नहीं होती। ऐसे घरों की अधिकांश चीजें फिर से इस्तेमाल की जा सकती हैं। मकान निर्माण में पारंपरिक ज्ञान से काफी कुछ सीखा जा सकता है। इस तरह की पहल कई और भी स्थानों पर चल रही हैं। जलवायु परिवर्तन के दौर में मिट्टी के घर बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाते हैं। ऐसे घरों को देखकर गांधीजी का प्रसिद्ध कथन याद आता है कि किसी आदर्श गांव में निर्माण की सभी सामग्री वहां से पांच मील की दूरी के अंदर से ही आनी चाहिए। मिट्टी के मकान आज की जरूरत भी है, विशेषकर, तब जब सीमेंट-कंक्रीट के घर बहुत महंगे बनते हैं, उनमें ऊर्जा की खपत होती है। ऐसे में मिट्टी के घरों से सैकड़ों बेघर लोगों का खुद के मकान का सपना साकार हो सकता है।
पर्यावरण-स्नेही प्राकृतिक खेती (in Hindi) भी पढिये.