पशुओं से मिली आजीविका की नई राह (In Hindi)

By बाबा मायारामonOct. 03, 2024in Environment and Ecology

विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)

(Pashuon Se Mili Aajeevika Ki Nai Raah)

फोटो क्रेडिट: जन स्वास्थ्य सहयोग

पशुओं की देखभाल करने से अच्छे पोषण के साथ आजीविका मिल रही है। जैविक खेती व किचिन गार्डन के लिए जैव खाद के साथ भी मिलती है।  

“छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में हमारी पहल से लोगों का पोषण अच्छा हुआ है, पशुओं का स्वास्थ्य अच्छा हुआ है, पशु आधारित आजीविका में सुधार हुआ है, रोजगार में बढ़ोतरी हुई है, और खेत और बैल का रिश्ता मजबूत हुआ है।” यह कहना है जन स्वास्थ्य सहयोग के कार्यकर्ता महेश शर्मा का, जो संस्था के पशु स्वास्थ्य कार्यक्रम से जुड़े हैं।

हाल ही मेरा बिलासपुर जाना हुआ, जो जन सहयोग सहयोग संस्था का कार्यक्षेत्र है। वैसे तो यह संस्था स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय है। लेकिन इस संस्था ने बीमारी के इलाज के साथ उसकी रोकथाम पर भी खासा जोर दिया है। बिलासपुर के पास गनियारी कस्बे में अस्पताल है, सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रम है, जो करीब 70 गांवों में चल रहा है। इसका जैविक खेती का कार्यक्रम भी हिस्सा है।

यह आदिवासी बहुल इलाका है। यहां के बाशिन्दे गोंड और बैगा आदिवासी हैं। इसके अलावा, पिछड़ा वर्ग समुदाय के लोग हैं। यह अत्यंत निर्धन इलाकों में से एक है, जहां से बड़ी संख्या में पलायन भी होता रहा है। यहां के मजदूरों की पहचान बिलासपुरिहा मजदूर के नाम से होती है। बिलासपुर से अमृतसर एक ट्रेन चलती है, जिसे छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस भी कहा जाता है, इससे यहां के मजदूर दिल्ली व पंजाब जैसे स्थानों पर जाते रहे हैं।  

जन स्वास्थ्य सहयोग के डॉ. गजानन बताते हैं कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छा पोषण चाहिए। पोषण की सोच से ही जैविक खेती और पशु स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू हुआ था। इसका उद्देश्य पशुधन में बढ़ोतरी करना है। पशुओं में होने वाली बीमारियों की लोगों को समझ हो, और उनके गांव में उनका इलाज हो सके। इसके साथ ही, खेती में सुधार, रोजगारों में बढ़ोतरी होनी चाहिए। लोगों की आमदनी बढ़नी चाहिए। आजीविका सुनिश्चित होनी चाहिए, यह भी सोच बनी। इस लिहाज से पशु स्वास्थ्य कार्यक्रम से लोगों की आजीविका सुदृढ़ होती है। विशेषकर,छोटे किसानों की, पशुपालकों और महिलाओं की आजीविका को बेहतर करना जरूरी है, जो पीछे छूटते जा रहे हैं।

पशुओं का इलाज

पशु स्वास्थ्य कार्यक्रम से जुड़े महेश शर्मा बताते हैं कि यह कार्यक्रम करीब 50 गांवों में चल रहा है। इस कार्यक्रम के लिए 7 पशु स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं, जिनका चयन गांव के समुदायों द्वारा किया गया है। कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण दिया गया है। शुरूआत में पशु स्वास्थ्य के प्रशिक्षण में पुणे की अंतरा संस्था और इसी नाम की एक अन्य हैदराबाद की संस्था ने सहयोग दिया था। संस्था के प्रशिक्षणकर्ता एक साल तक जन स्वास्थ्य सहयोग में आए और स्थानीय कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया था। इसके बाद हमने भी वहां जाकर प्रशिक्षण लिया।

वे आगे बताते हैं कि पूर्व में हमने स्थानीय जड़ी-बूटियों की परंपरागत चिकित्सा पद्धति से मवेशियों का इलाज किया। उस समय महिला पशु स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पर बाद में इस कार्यक्रम से युवाओं को प्रशिक्षण दिया गया, जो वर्तमान में कार्यरत हैं।

इस कार्यक्रम के तहत् पशुओं की छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज किया जाता है। जैसे दस्त, पेट फूलना, गलघोंटू, खुरहा, चोट लगना, घाव, बुखार, एकटंगिया इत्यादि। टीकाकरण का काम स्वास्थ्य कार्यकर्ता करते हैं। शासकीय पशु स्वास्थ्य केन्द्रों से टीका उपलब्ध हो जाते हैं, जिन्हें पशु स्वास्थ्य कार्यकर्ता लगाते हैं। यानी इस कार्यक्रम में सरकार का भी सहयोग है।

पशु स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के सहयोग के लिए पशु चिकित्सक डॉ. पीयूष दुबे हैं, जो गंभीर व जटिल बीमारियों में मार्गदर्शन करते हैं। और स्वयं भी ऑपरेशन व हड्डी जोड़ने, कृत्रिम गर्भाधान इत्यादि करते हैं। इस कार्यक्रम के तहत् गाय, भैंस, बैल,बकरी, सुअर, कुत्ते, मुर्गा, मुर्गा सभी का इलाज किया जाता है। 

पशु स्वास्थ्य कार्यकर्ता भगत मरकाम और नौहर मरावी ने बताया उन्हें इस काम ने नया आत्मविश्वास दिया है। वह दवाओं का बैग लेकर मवेशियों के इलाज के लिए जाते हैं। उनकी मान्यता तब और बढ़ गई जब टीकाकरण के साथ-साथ कृमि मुक्ति के लिए दवाओं का असर देखा गया। संस्था जैविक खेती व किचिन गार्डन में भी सहयोग करती है। जैविक खेती से पशुओं के लिए चारा भी हो जाता है।

इस पहल से ग्रामीणों को जल्द ही पता चल गया कि गांव के समुदाय से ही पशु स्वास्थ्य कार्यकर्ता काम करते हैं, जिनसे जब भी ज़रूरत हो, बहुत कम खर्च मवेशियों का इलाज करवाया जा सकता है। वे गांव में ही सहज उपलब्ध हैं, और उन्हें जरूरत पड़ने पर तत्काल बुलाया जा सकता है। इस कार्यक्रम के तहत् कुछ मौसमी बीमारियों के लिए पहले से भी तैयारी की जाती है। दवाओं और टीका का भंडारण पूर्व से ही कर लिया जाता है। 

उन्होंने बताया कि जब प्रशिक्षण के बाद अपना काम शुरू किया तो कुछ ग्रामीणों ने उनके कौशल पर संदेह जताया। लेकिन धीरे-धीरे इस स्थिति में बदलाव आया। इसके बाद उन्हें गांव वालों की स्वीकृति और सम्मान मिला और तब से उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 

पशुओं का महत्व पोषण, आजीविका की दृष्टि से है, साथ ही जन स्वास्थ्य सहयोग ने लघु गोबर गैस प्लांट को भी प्रोत्साहित किया है। शुरूआत में संस्था के कार्यकर्ता होमप्रकाश साहू और बम्हनी के ग्रामीण ने इस प्लांट को लगाया है। यह दोनों प्लांट बहुत अच्छे से संचालित हैं। इस प्लांट में मवेशियों के गोबर से उपयोग से रसोई गैस चलती है। इससे जो जैव खाद बनती है, उसे वे किचिन गार्डन व खेतों में उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इस प्लांट की लागत भी 7-8 हजार रूपए हैं। और इसे सरलता से बनाया जा सकता है। 

बकरीपालन से स्वावलंबन

गांवों में बकरी पालन भी आजीविका का स्रोत है। लेकिन कई बार बकरियों में अचानक से बीमारी आ जाती है, जिसमें बड़ी संख्या में वे मर जाती हैं। अब उनकी त्वरित चिकित्सा होने के कारण बकरियों से आमदनी हो जाती है। बकरी पालन,ऐसा काम है, जिसे बुजुर्ग व अकेली महिलाएं भी आसानी कर लेती हैं, इससे उन्हें जीविकोपार्जन में बड़ी मदद मिलती है। यह दर्शाता है कि इससे इन परिवारों की आजीविका पर इसका बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है।

महिलाओं के साथ बातचीत

कुल मिलाकर, इस कार्यक्रम की सफलता को दो स्तरों पर देखा जा सकता है। सबसे पहले, चूंकि मवेशियों की पशु चिकित्सा उपेक्षित थी,गांव में पशुओं का इलाज नहीं होता था। इसलिए इस मॉडल ने पशु आधारित आजीविका की संभावनाओं को बढ़ाने में मदद की है और वह भी स्वस्थ व टिकाऊ तरीके से। पोषण की दृष्टि से भी यह उपयोगी है। दूध और मांस भी सहजता से उपलब्ध हो जाता है। आमदनी भी बढ़ी है।

दूसरा, महिला और युवाओं के कौशल के प्रति सम्मान और आदर भी बढ़ा है। पशु स्वास्थ्य कार्यकर्ताओँ का सीखना और कौशल विकास उम्मीद से कहीं अधिक रहा है, क्योंकि वे बहुत सी ऐसी चीजें जल्दी सीख रहे हैं, जिनके बारे में पहले सोचा जाता था कि यह अधिक कठिन या समय लेने वाला होगा।

इस कार्यक्रम का एक और आयाम है आधुनिक चिकित्सा पद्धति को पारंपरिक ज्ञान और प्रथाओं के साथ मिलाना। संस्था ने समुदाय के साथ मिलकर इस दिशा में अच्छा काम किया है, जिससे स्थायी, टिकाऊ आजीविका का सुरक्षा हो सके।

पशुपालन से खेती का जुड़ाव

परंपरागत खेती की खास बात यह है कि अलग से बाहरी निवेश की जरूरत नहीं थी। न फसलों में खाद डालने की जरूरत थी और न ही कीटनाशक या नींदानाशक। पशुओं की देखभाल में अतिरिक्त खर्च नहीं होता था। फसलों के डंठल से तैयार भूसा, पुआल व मेढ़ पर होने वाले चारे से उनका पेट भर जाता था। खेतों में होने वाली फसलों से जो डंठल,पुआल और खरपतवार होती थी, वह मवेशियों को खिलाने के काम आती थी। 

दूसरी तरफ खेत में डंठल व पुआल आदि सड़कर जैव खाद बनाते थे और पशुओं के गोबर से बहुत अच्छी खाद मिल जाती थी। गोबर खाद से खेतों में मिट्टी की उर्वरकता बढ़ती जाती थी। फसलों के मित्र कीट ही कीटनाशक का काम करते थे। मेड़ों पर कई प्रकार के घास भी होते थे।

लेकिन अब नींदानाशक या खरपतवार नाशक दवाईयों के छिड़काव के कारण ये चारे उपलब्ध नहीं हैं या कम हो गए हैं। इस कारण पशुपालन कम होता जा रहा है। लेकिन ऊर्जा संकट, बिजली संकट और मानव श्रम की बहुलता के मद्देनजर हमें टिकाऊ खेती की ओर बढ़ना पड़ेगा और इसमें पशु ऊर्जा की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। लेकिन जैविक खेती की पहल से पशुओं को पौष्टिक चारा भी मिल रहा है।

भारत समेत दुनिया में आज भी खेती और पशुपालन ही सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले क्षेत्र हैं। पशुधन ग्रामीण आजीविका का बड़ा स्रोत है। इससे आवश्यक भोजन, रेशे, ऊर्जा, और दवा सभी प्राप्त होती है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था केवल खेती-किसानी से ही नहीं, पशुपालन और छोटे-छोटे लघु-कुटीर उद्योग व लघु व्यवसायों से संचालित होती रही है। मवेशी एक तरह से लोगों के फिक्स्ड डिपॉजिट हुआ करते थे, जिन्हें बहुत जरूरत पड़ने पर वे बेच देते थे।

यह क्षेत्र जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही संकट में है। खेती में बदलाव का भी इस पर असर पड़ा है। खेतों में ट्रेक्टर व हारवेस्टर आने से बैलों का खेतों से रिश्ता टूट रहा है। रासायनिक खेती अब पारंपरिक खेती का स्थान ले रही है। लेकिन हम पशुधन के संरक्षण और संवर्धन को आगे बढ़ाने की दिशा में काम करें तो अधिक टिकाऊ, प्राकृतिक खेती और पर्यावरण की दृष्टि से उपयुक्त और सामाजिक रूप से अधिक संवेदनशील बनने में मदद मिलेगी। और जलवायु बदलाव, खाद्य सुरक्षा, टिकाऊ आजीविका की समस्याओं का भी कुछ हद तक समाधान कर पाएंगे। 

इसके साथ ही, खेती और पशुपालन का रिश्ता आज जो टूट रहा है। अगर इसको बरकरार रखा जाए तो न केवल हमें भूमि को उर्वर बनाने के लिए गोबर खाद मिलेगी। बल्कि बड़ी आबादी को रोजगार भी मिलेगा। पशु शक्ति के बारे में कई विशेषज्ञ व वैज्ञानिक भी यह मानने लगे हैं कि यह सबसे सस्ता व व्यावहारिक स्रोत है। इसलिए यह पहल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय है।

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