Written specially for Vikalp Sangam (Meri Abhivyakti)
एक्टिंग और नाटकों में मेरी दिलचस्पी आठवी क्लास से ही शुरू हो गयी थी। बचपन में रंगमंच की चमक धमक और उसकी रंग बिरंगी लाइट्स मुझे बहुत पसंद थी। स्कूल में मैंने कभी थिएटर तो नही किया मगर क्लास में अपने दोस्तों के बीच अपनी ऐक्टिंग और फिल्म स्टार्स की नक़ल उतारने में नंबर 1 था। कॉमेडी फिल्मस के डायलॉगज़ एक बार में मुझे याद हो जाते थे और वही डायलॉगज़ और एक्शन्स मैं क्लास में सबको सुनाकर और परफॉर्म करके खूब हँसाता था। लोग भी मेरी मस्ती–बाजी और नौटंकी की वजह से हमेशा मुझे और ऐक्टिंग करने को बोलते थे। मुझे भी इन सब चीज़ों में बहुत मज़ा आता था। एक्टिंग के आलावा एक और चीज़ जो की मुझे थिएटर की तरफ काफी लुभाती थी वह थी मेरे आस पास के लोगों की रीयल लाइफ कहानियाँ। मेरे ज़्यादातर दोस्त दिल्ली के निजामुद्दीन,भोगल,ओखला,जैसे बस्तियों में रहते थे। इन बस्तियों में रहने वाले लोगों के जब मैं किस्से सुनता था तो वह मुझे बहुत इंट्रेस्टिंग लगते थे। वहाँ के लोग मुझे किसी नाटक के किरदार जैसे मालुम पड़ते थे । उनकी बोल–चाल, बात करने का तरीका, उनकी लड़ाइयां, उनके मज़ाक, यह सब मुझे रीयल लाइफ ड्रामा लगता था जो की बहुत इंस्पायर करता था।
थिएटर और ऐक्टिंग के इसी शौक को आगे बढ़ाते हुए मैं ग्यारवी क्लास में द मिरर थिएटर ग्रुप (TMTG) के साथ जुड़ गया। TMTG एक ऐसा थिएटर ग्रुप है जो की 16 से 25 साल के उम्र के युवाओ द्वारा चलाया जाता है और यहाँ सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर नाटक किये जाते है। थिएटर को सिर्फ मनोरंजन का साधन न मानते हुए TMTG की कोशिश रहती है की नाटक के ज़रिये समाज की रूढ़िवादी सोच में एक बदलाव लाया जा सके। थिएटर एक ऐसा प्रभाव शाली माध्यम है जिसके द्वारा न केवल सोसाइटी को उसका आइना दिखाया जा सकता है बल्कि खुद को एक बेहतर इंसान भी बनाया जा सकता है। TMTG की शुरुवात 2012 में कुटुंब फाउंडेशन द्वारा हुई थी। कुटुंब फाउंडेशन एक ऐसी संस्था है जो की ड्रामा इन एजुकेशन के द्वारा सिखने की प्रक्रिया को रोचक और सम्मिलित बनाने का प्रयास करता है। यह संस्था दिल्ली के खान मार्किट, निजामुद्दीन बस्ती और घेवरा रीसेटलमेंट कॉलोनी जैसे इलाको में रहने वाले बच्चों के लिए काम करती है, जैसे की बच्चों के लिए कम्यूनिटी लाइब्रेरी बनायीं है, कई तरह की वर्कशॉप्स, क्लासेस, फुटबॉल मैचेस और इवेंट्स आयोजित करते हैं जिससे की बच्चों को कई तरह की नयी चीज़े सीखने को मिलती हैं । कुटुंब फाउंडेशन का उदेश्ये है की वह शिक्षा के वैकल्पिक माध्यम,जैसे की ड्रामा और स्पोर्ट्स, के द्वारा बच्चों को सम्पूर्ण शिक्षा (holistic learning) प्राप्त करने में मदद कर पाए।
2014 में TMTG के साथ जुड़ने के बाद यहाँ एक्टिंग और परफॉरमेंस के अलावा मुझे कई चीज़े नए तरीकों से सीखने और समझने को मिली। यहाँ सीखने सिखाने के तरीके स्कूल की पढाई से काफी अलग थे। स्कूल में छोटी क्लास में मैं जितना इमेजिनेशन इस्तेमाल कर पाता था वह बड़े होते होते ख़तम होता गया क्योंकि परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने के लिए किताबों में लिखी हुई चीज़ों को रटना पड़ता था। मैं कभी भी चीज़ें रट नहीं पाता था और इसीलिए बड़ी क्लासेस में नम्बर भी कम आने लगे। पढाई के अलावा एक्टिविटीज़ जैसे की डांस, एक्टिंग, डिबेट, पोएम कॉमपिटिशॅन, ड्रॉइंग, आदि में मेरा ज़्यादा लगाव था। मगर इन कॉमपिटिशॅनस में भी ज़्यादातर उन्ही बच्चो को हिस्सा लेने का मौका मिलता था जो की क्लास में अच्छे नंबर लाते थे और जो पढाई में अच्छे माने जाते थे। स्कूल की पढाई किताबों तक ही सीमित थी और इसी कारण हमें आगे की चीज़ों को एक्सप्लोर करने का मौका नही मिल पाता था। मैं जब नौंवी क्लास मे था तब हमारे साइंस की किताब में किशोर अवस्था और सेक्स एजुकेशन पर एक चैप्टर था। मैं उस चैप्टर को समझना चाहता था क्योंकि दिमाग में कई सवाल थे इन चीज़ों से सम्बंधित। मगर स्कूल में उस चैप्टर को कभी भी इतना महत्त्व नहीं दिया गया और इन टॉपिक्स को इसी नज़रिये से देखा जाता था की यह असभ्य बाते है,इनके बारे में खुल के बात नहीं की जा सकती। उस चैप्टर को बस परीक्षा के लिए कोर्स को खत्म करवाने के मकसद से जल्द-बाज़ी में पढ़ाया गया। वह चैप्टर में उस समय कभी ठीक से समझ नही पाया और न ही परीक्षा में ठीक से उसके बारे में लिख पाया। स्कूल में लड़कियों की अलग से क्लास भी होती थी जिसमे उन्हें पीरियड्स के बारे में बताया जाता था और लड़को को इन क्लासेस से बाहर रखते थे। इसी वजह से हम लड़को के दिमाग में कई गलत सोच बनी हुई थी पीरियड्स के बारे में।
थिएटर के द्वारा यह सवाल मेरे लिए कुछ साफ़ हो पाए। 2015 में हमने ‘डर‘ नाम का एक नुक्कड़ नाटक तैयार किया था, जो की हमे ब्रेकथ्रू नाम के एक NGO के साथ बनाना था। ब्रेकथ्रू एक ऐसी संस्था है जो लड़कियों के ऊपर हुए यौन हिंसा और जेंडर जैसे मुद्दों पर काम करती है। नाटक बनाने की प्रक्रिया से पहले ब्रेकथ्रू ने हमारे साथ जेंडर पर एक वर्कशॉप करायी। इस वर्कशॉप के दौरान कई मुद्दों, जैसे की सेक्सुअलिटी और जेंडर की केटगॉरीस के बारे में भी बातचीत हुई जहाँ हम खुल के अपने सवाल पूछ पाए और कई सारी गलत फैमिया भी दूर हुईं। जैसे कि वर्कशॉप से पहले ट्रांसजेंडर की एक अलग पहचान बनी हुई थी मेरे दिमाग में, इससे पहले में उन्हें एक नॉर्मल इंसान के रूप में नहीं देख पाता था क्योकि सोसाइटी में मैंने उनका मज़ाक बनते हुए या लोगों को उनसे डरते हुए ही देखा था। लेकिन वर्कशॉप के बाद मुझे समझ आया की वह भी जेंडर का एक हिस्सा है और इसी तरह लड़का और लड़की के अलावा और भी जेंडर में कई केटगॉरीस होती हैं। हम जेंडर को इंसानी तौर पर समझ पाए की यह सब भी साधारण लोग होते हैं न की अजीब। इसके अलावा वर्कशॉप में एक्टिविटीज़ और बातचीत के ज़रिये जेंडर रोल्स, स्टीरियोटाइपस और पैट्रियार्की जैसे मुद्दों के बारे में बताया और समझाया गया। कई सारी चीज़ें जो हमे पहले नॉर्मल या सही लगती थीं, एक अलग नज़रिये से देखने पर मालुम चली की कैसे वे सब लड़कियों को दबाने या उन्हें एक वस्तू की तरह पेश करने का काम करती हैं, जैसे की बॉलीवुड के कई सारे गानों में होता है। यह भी एहसास हुआ कि हम खुद जाने–अनजाने में किस तरह पितृसत्ताह वाली सोच को बढ़ावा देते हैं।
इन सब मुद्दों को समझने और इन पर सोच विचार करने के बाद हमने ‘डर’ नाटक के द्वारा यह दिखाने की कोशिश की थी की हमारे पितृसत्तात्मक समाज में औरतो को किस तरह दबाया जाता है और उन्हें इज़्ज़त के नाम पर बाँध कर रखा जाता है। अगर कोई लड़की ऐसे समाज से अलग हट कर अपनी ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जीना चाहे तो उसे गलत नाम देकर सज़ा दी जाती है। यह नाटक हमने दिल्ली के कई गली-मौहल्लो में जा कर परफॉर्म किया । कुछ परफॉर्मन्सेस के दौरान हमारे ही ग्रूप की लड़कियों पर ऑडिएंस की तरफ से अश्लील कमैंट्स आये। उनके कमैंट्स से यह साफ झलक रहा था कि किस तरह सोसाइटी में थिएटर करती हुई लड़कियों को बुरी नज़र से देखा जाता है। नाटक के रिहर्सल्स के वक़्त भी घर देरी से पहुँचने पर लड़कियों को घर पर उन्ही सब चीज़ों का सामना करना पड़ता है जिनकी आलोचना हम नाटक में कर रहे थे।
2015 में हमने ‘रामलीला’ नाम का एक स्टेज प्ले भी तैयार किया जो की कुटुंब फाउंडेशन के ऐनुअल इवेंट ‘हिले-ले’ में परफॉर्म किया गया। रामलीला नाटक राकेश (एक नाटककार) द्वारा लिखा गया है। यह नाटक असली रामलीला जैसा न होकर व्यंगात्मक तरीके से राजनीतिक लीडर्स का भेद खोलता है। नाटक में दिखाया गया था कि कैसे राजनीतिक तरीको से लीडर्स आम लोगो को धर्म के नाम पर लड़वाते है और उनकी ज़िंदगियां बर्बाद करते है। नाटक के लिए हमने काफी चीज़ों पर रीसर्च करी जैसे की उन दंगो के बारे में पढ़ा जो की लीडरों द्वारा धर्म के नाम पर हुए। नाटक तैयार करते हुए यह समझ आया की वोट लेने के लिए किस तरह राजनीतिक दल सांप्रदायिक हिंसा शुरू करवाते हैं और उसका फायदा लेते हैं। हमने कई डॉक्युमेंट्रीज़ भी देखी जैसे “राम के नाम”, “आपरेशन ब्लू स्टार”, आदि। ‘राम के नाम’ डॉक्यूमेंट्री में यह दिखाया गया की कैसे बाबरी मस्जिद को असंवैधानिक तरीके से तुड़वाया गया और फिर वहाँ दंगो में हिन्दू मुस्लिम को बांट कर आपस में लड़वाया गया। इसमें हमने यह भी समझ की कोई बड़े मुद्दों पर जब भी कोई जंग छिड़ती है तो उसमे पिसती आम जनता ही है और मरती भी। इसी से जुड़े हुए और टॉपिक्स जैसे – हाइरार्की और पावर पर भी ग्रुप में हमारी बातचीत हुई और इन्हें समझने का हमने प्रयास किया।
इस साल (2016 में) भी ‘हिले-ले’ इवेंट के लिए हमारे ग्रुप ने तय किया की हम बटवारे के मुद्दे पर नाटक बनाएंगे। बटवारे के मुद्दे को मैं बचपन से ही सुनता आ रहा हूँ लेकिन इतना कभी इस पर गौर नहीं किया जितना इस नाटक बनाने के प्रोसेस में मैंने इसे जाना। बचपन में इतना हे सुना था की 1947 में इंडिया और पाकिस्तान का बटवारा हुआ था और हमारे भारत को आज़ादी मिली थी, और तब से लेकर अब तक हम 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते है। बटवारे के दौरान कितने लोग मारे गए थे, कितने घरो से बेघर हुए थे, कितने बलात्कार और कितनी दहशत फैली थी – इन सब चीज़ों पर कभी गौर ही नहीं किया था। नाटक के लिए हमने ‘सआदत हसन मंटो’, जिन्होंने भारत और पकिस्तान के बटवारे के ऊपर बहुत ही बेहतरीन कहानिया लिखी है, उनकी चार कहानिया- टोबा टेक सिंह, शरीफन, ठंडा गोश्त और खोल दो उठाई। इस नाटक को बनाने के लिए हमने सुकृती खुराना (एक थिएटर आर्टिस्ट) के साथ दो महीनो की वर्कशॉप ली। वर्कशॉप के दौरान कई चीज़े सिखने को मिली जिसमे से मेरे लिए सबसे ज्यादा अहम था चीज़ों को गहराई से महसूस कर पाना। मंटो की कहानियों और उनके किरदारों को भी समझने के लिए शब्दो में छुपी उन लोगो की भावनाओं को समझना बहुत जरुरी है। मंटो की कहानियाँ ज़्यादातर आम इंसानो के हालात और उनकी ज़हन की बातो पर आधारित है। उनकी कहानियाँ हमने कई बार पढ़ी और हर बार पढ़ने में कुछ नयी चीज़े हमारे सामने आयी। मंटो का सीधा सीधा लिखने का तरीका उनकी कहानियो में ताज़गी बनाये रखता है। उनकी कहानियाँ पढ़ कर ऐसा नही लगता की वह पुराने समय में लिखी गयी थीं, बल्कि ऐसा लगता है की आज के समय में हमारे आस पास के लोगों के बारे में ही लिखी गयी हैं।
वर्कशॉप के दौरान हमने कुछ और एक्टिविटीज भी करी जैसे की होम-इमेज एक्सरसाइस। इस एक्टिविटी के दौरान हमने अपने घर (घर की चीज़े, घर के लोगों) से खुद के रिश्ते और लगाव के बारे में सोचा और समझा। इसके ज़रिये मैं यह महसूस कर पाया कि यह सब छोटी छोटी चीज़ें जो हम आम ज़िन्दगी में नज़र अंदाज़ कर देते हैं वह भी कितनी महत्वपुर्ण होती हैं। बटवारे या दंगो के समय जब लोग अपना घर बार छोड़ कर जाते होंगे तो वह उनके लिए कितना दर्दनाक अनुभव होता होगा । धीरे धीरे बटवारे और दंगो के मुद्दे को समझते समझते और भी चीज़े हमारे सामने आने लग गयी। 1947 में बटवारे के समय जो लोगों के साथ हुआ था वही सब चीज़े हमारे आस पास आज भी हो रही है, बस मीडिया में वह चीज़े पब्लिक के सामने सही ढंग से नहीं आ पाती। जब मैंने “मुज़फ्फर नगर अभी बाकि है” डॉक्यूमेंट्री देखी और वहाँ दंगो में पीड़ित लोगो की बाते सुनी तो वह हूबहू वैसे ही लगीं जैसा की बटवारे के दौरान मंटो की कहानियों में लिखी गयी हैं। उसके बाद उन इंसानो को न जानते हुए भी मैं कही न कही जानने लग गया।
नाटक बनाने के प्रोसेस में हमने कश्मीर में हो रहे अत्याचारों के बारे में भी पढा और जाना की वहाँ के लोगों की क्या जिंदगी है। बचपन में सुना था की कश्मीर के लोग बहुत सुन्दर और प्यारे होते है, उनके गाल लाल होते है। अगर किसी के भी गाल लाल होते थे तो उनसे कहा जाता है की कश्मीरी सेब है तुम्हारे गालो में। लेकिन इस वर्कशॉप में मैंने वहाँ हो रहे अत्याचारों के बारे में पढा और उधर के लोगो के ज़हन के बारे में जाना तो पता चला की कितनी कठिनाइयों से वह लोग अपना जीवन गुज़ार रहे है। बटवारे से लेकर अब तक वह इंडिया और पकिस्तान के बीच फसे हुए हैं और उन पर कितना अत्त्याचार हो रहा है। न उनकी सुनी जा रही है और न ही उनको कोई जस्टिस मिल रहा है। आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट के चलते दिन दहाड़े वहाँ किसी को भी आर्मी वाले शक के बिना पर उठा कर ले जा सकते है,गोली मार सकते है, टॉर्चर कर सकते है और उन्से कोई सवाल भी नहीं कर सकता। सेकड़ो लोगो को उठा लिया जाता है और उनका सालो सालो तक पता नही चलता की वह जिन्दा है या नही और उनके घर वालो को दिलासा दिया जाता है की मिल जायेंगे आपके घर वाले। कश्मीर में हुए अत्त्याचारो को काफी हद तक हमने मंटो की सोच से जोड़ा और पाया की आज भी अगर मंटो होते तो जरूर इन लोगो के बारे में लिखते।
इस प्ले में मैंने खोल दो कहानी के सिराज़ुद्दीन नामक शक्स का किरदार निभाया । इस किरदार को लेकर मैं बहुत खुश था क्योकि इससे पहले मैंने कभी कोई 55 साल के आदमी का किरदार नहीं किया था | मैंने काफी बूढ़े लोगो को देखा और उस उम्र के आदमी की चाल ढाल और हाव भाव को खुद के शरीर में ढलने की कोशिश करी। इसके अलावा मैंने नाटक में मंटो का रोल भी अदा किया। हमारे नाटक में मंटो खुद एक किरदार के रूप में आता है और आज कल हो रहे दहशत के बारे अपनी बात रखता है | खुद मंटो का किरदार करके मेरी उनके बारे में एक अलग सोच बन पायी जो की शायद सिर्फ उनकी कहानिया पढ़ कर नहीं बन पाती | मैं मंटो को एक लेखक के अलावा एक इंसान के रूप में भी जान पाया।
थिएटर की यह एक खूबी मुझे सबसे अच्छी लगती है की यहाँ आप खुद चीज़ों को जीते हैं, अनुभव करते हैं और फिर उसकी एक सूचित समझ बना पाते हैं। जिस भी मुद्दे पर नाटक बनाते हैं उसे किताबों की रिसर्च के अलावा और अनेक माध्यमो से जानने की कोशिश करते हैं। अपनी इमैजिनेशन और अपनी समझ का इस्तेमाल करते हुए नए तरीके से उसे लोगों के सामने पेश करते हैं। थिएटर की दुनिया में एक अलग तरह की आज़ादी है जहाँ मैं खुल के जी पाता हूँ, अपनी सोच रचनात्मकता तरह से दुसरो के सामने रख पाता हूँ, बे झिझक सवाल पूछ सकता हूँ, चीज़ों को नए तरह से जानने और समझने की जिज्ञासा ज़िंदा रख पाता हूँ। थिएटर के ज़रिये मुझे दुनिया की भेड़ चाल से अलग रास्ते पर चलने की आज़ादी मिलती है।
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