विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)
(Machli Paalan Aur Badlaav)
तान्या मजूमदार द्वारा लिखित मूल रूप से अंग्रेजी में
निधि अग्रवाल द्वारा अंग्रेजी से अनुवादित
पृष्ठभूमि
विदर्भ की झीलें – एकइतिहास
विदर्भ में पाई जानेवाली हज़ारों झीलों का एक लंबा इतिहास रहा है।
एक कहानी के अनुसार, 16 वीं सदी में राजा सूरजबलाल सिंह, विदर्भ के एक गोंड राजा, बनारस गए और वहाँ से कोहली समुदाय के लोगों को अपने साथ ले आए। उस समय, विदर्भ क्षेत्र पूरी तरह जंगलों से आच्छादित था। हीर शाह, राजा के पौत्र, ने बाद में दो फ़रमान जारी किए: 1) जो भी जंगल को साफ़ करके गाँव बसाएगा उसे सरदार बना दिया जाएगा; और 2) जो भी झीलें बनाकर ज़मीन की सिंचाई की व्यवस्था करेगा, उसे उस सिंचित ज़मीन का स्वामित्व दे दिया जाएगा। कोहली समुदाय ने सिंचाई के लिए कई झीलें बनाईं। अतः वे भू-स्वामी बन गए और झीलों के प्रबंधक भी।
अंग्रेज़ों के समय के दौरान, इन झीलों का प्रबंधन कोहली समुदाय ही करता रहा। उन्हें मालगुज़ार कहा जाता था। झीलों को भूतपूर्व–मालगुज़ारी झीलें कहा जाने लगा। स्वतंत्रता के बाद, विदर्भ मध्य प्रदेश का हिस्सा बना। 1951 में, मध्य प्रदेश ने स्वामित्व अधिकारों का उन्मूलन अधिनियम जारी किया और इन झीलों का स्वामित्व सरकार ने अपने हाथों में ले लिया। जब महाराष्ट्र राज्य बना, तो इस नियम को कायम रखा गया और विदर्भ उसका हिस्सा बन गया। 1965 में, पहला सिंचाई आयोग स्थापित किया गया, और उसकी संस्तुतियों के आधार पर, इन झीलों से सिंचाई के लिए पानी लेने पर टैक्स लागू कर दिया गया। मालगुज़ारों ने न्यायालय में मामला दर्ज़ कर दिया, जो अंततः सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचा। मलगुज़ारों (कोहली समुदाय) को इस मामले में जीत हासिल हुई और उन्हें बिना टैक्स दिए सिंचाई के लिए पानी उपयोग करने का अधिकार मिल गया। जल्द ही झीलों की हालत बिगड़ने लगी, संभवतः चूंकि अब सरकार उनके रख-रखाव के लिए पैसे इकट्ठे नहीं कर पा रही थी।
आज के दिन, इन झीलों के कई उपयोग हैं – सिंचाई, घरेलू उपयोग जैसे कि नहाने-धोने, झील से खाने योग्य सब्ज़ियाँ; चारे, झाड़ू बनाने, घरों की छत बनाने आदि के लिए घास प्राप्त करना; मनोरंजन, धार्मिक उपयोग जैसे कि विसर्जन आदि। सिंचाई एकमात्र ऐसा उपयोग है जहाँ पानी झील से बाहर निकाल जाता है। इसके अतिरिक्त, मुख्य तौर पर इन झीलों के पानी का उपयोग मछलीपालन के लिए किया जाता है।
क्षेत्र के समुदाय
विदर्भ क्षेत्र में कई समुदाय रहते हैं। कोहली, कुनबी, तेली, सोनार कृषक समुदायों में से हैं। वे ज़मीन के मालिक हैं और जाति वर्णक्रम में उच्च स्तर पर हैं, क्योंकि वे अन्य पिछड़ी जाति की श्रेणी में आते हैं। अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति भी हैं जिनमें क्रमशः महर और गोंड जातियाँ हैं। घुमंतू आदिवासी समुदायों में धीवर शामिल हैं और छोटी संख्या में बहुरूपी और गोसावी समुदाय भी हैं।
धीवर समुदाय में तीन उपजातियाँ हैं: कहार, जो मुख्यतः पालकी उठाने वाले और सिंघाड़ा उगाने वाले किसान हुआ करते थे; पश्चिमी विदर्भ में भोई; और धीवर या धीमर, जो कि इस क्षेत्र के मछुआरा समुदाय हैं।
धीवर समुदाय का ऐतिहासिक रूप से सामाजिक बहिष्कार किया जाता रहा है। उनके गांवों के सामाजिक वर्णक्रम में वे सबसे निचले स्तर पर हैं। मछली पकड़ने के अलावा, पुरुष मज़दूरी करते हैं और महिलायें कृषि मज़दूरी या घरेलू काम करती हैं।
1960 में महाराष्ट्र राज्य बनने के बाद, मत्स्य सहकारी समितियाँ बनीं, जिनमें धीवर समुदाय के सदस्य भी शामिल थे। इन सहकारी समितियों को झीलों पर क्षेत्राधिकार अधिकार दिए गए। वर्तमान में, एक सहकारी समिति को 5 वर्ग कि. मी. क्षेत्र की सभी झीलों पर क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं। हाँलाकि सिंचाई के लिए पानी का उपयोग निःशुल्क है, मछलीपालन के लिए झील का उपयोग करने के लिए सहकारी समितियों को प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष रु.450 किराया सरकार को देना पड़ता है।
झीलों और मछलियों के लिए खतरे
भारतीय प्रमुख कार्प मछलियों का चलन
भारत सरकार के मत्स्यपालन विभाग ने, इन झीलों से उत्पादन और आमदनी बढ़ाने के उद्देश्य से यहाँ विभिन्न प्रजाति की मछलियाँ लाईं जैसे कि रोहू, कतला और मृगल, जिन्हें भारतीय प्रमुख कार्प कहा जाता है। यह कदम छोटी देसी प्रजाति की मछलियों के लिए हानिकारक साबित हुआ। कार्प मछलियों के आने के बाद, लोगों ने मछली पकड़ने के लिए खींचने वाले जाल उपयोग करने शुरू कर दिए। जलीय वनस्पति खींचने वाले जाल के लिए अवरोध पैदा करते थे। इसका हल निकालने के लिए, मत्स्य विभाग ने ग्रास कार्प मछली ले आई, जिससे कि जलीय वनस्पतियों को नियंत्रित किया जा सके। जल्द ही मछलियों का आवास स्थल खराब होने लगा और खाने की कमी के कारण मछलियों की जनसंख्या कम होने लगी।
झीलों में कार्प मछलियाँ होने का यह भी परिणाम हुआ कि मत्स्य सहकारी समितियों को हर वर्ष बीज खरीदना पड़ रहा था, जबकि देसी प्रजातियाँ खुद ही पनपती रहती हैं।
मशीनी खुदाई
कुछ वर्ष पहले, सरकार ने तीन ऐसी योजनाएँ शुरू कीं, जिनका इन झीलों पर कुछ-न-कुछ असर पड़ा:
- जल युक्त शिवर जिसे दिसंबर 2014 में महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त क्षेत्र में जल संरक्षण बेहतर करने के लिए शुरू किया गया। इस योजना की विभिन्न गतिविधियों में शामिल था जल क्षेत्रों को गहरा करना, चौड़ा करना और गाद निकालना।[1]
- गाल मुक्त धारण व गाल युक्त शिवर, राज्य सरकार की बांधों से गाद निकालने और मिट्टी का कटाव रोकने के लिए चलाई गई परियोजना, मई 2017 में शुरू की गई। [2]
- झीलों के पुनर्जीवन के लिए मालगुज़ारी तालाब पुनर्जीवन योजना शुरू की गई।
हाँलाकि इन योजनाओं की मंशा सही थी, लेकिन इनके कुछ नकारात्मक प्रभाव हुए। तीनों योजनाओं में झीलों की क्षमता बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया जिसके लिए गाद निकाल कर झीलों को गहरा बनाने के प्रयास किए गए। इसके लिए मशीनों से खुदाई करनी पड़ती है। इस मशीनी खुदाई और साथ ही इन योजनाओं को ठीक से न लागू किए जाने के कारण कई समस्याएं पैदा हो गईं:
- मशीनी खुदाई में झील में से सब कुछ बाहर फेंक दिया जाता है, जिसमें ऐसे जलीय पौधे और वनस्पति भी होते हैं जिन पर मछलियाँ अपने जीवन के लिए निर्भर करती हैं।
- जे.सी.बी. के उपयोग से खुदाई का काम बाहरी ठेकेदार करते हैं। इसके कारण गाँव वालों से उस काम से मज़दूरी कमाने का मौका छिन जाता है।
- इस तरह से झीलों की गहराई बढ़ाने से, केवल मृत भंडारण [3] क्षमता बढ़ती है। इससे सिंचाई के लिए पानी (जीवित भंडारण) की मात्रा नहीं बढ़ती, जो असल में इन योजनाओं का उद्देश्य था।
- खुदाई करने से पहले कोई आँकड़े इकट्ठे नहीं किए जाते कि पहले कितनी गाद इकट्ठी हुई थी। अक्सर, खुदाई में केवल गाद से कहीं ज़्यादा खुदाई करके मिट्टी निकाली जाती है। सरकार का उद्देश्य था कि बाहर निकाली गई गाद को आसपास के किसानों को निःशुल्क दिया जाएगा। लेकिन खुदाई करने वाले कुछ भ्रष्टाचार ठेकेदार किसानों को यह गाद बेचते हैं, और फिर कुछ और खुदाई करते हैं और उसे सड़क निर्माण के लिए बेचते हैं। कुछ मामलों में, कीमती लाल मखरैला मिट्टी भी खोद कर बेची गई, क्योंकि इसके अच्छे पैसे मिलते हैं।
- इस क्षेत्र की ऊपरी मिट्टी की खासियत है कि एक बार वह गीली हो जाती है, तो वह सील हो जाती है और पानी को पार नहीं होने देती। इतनी खुदाई के कारण, गाद के साथ-साथ ऊपरी मिट्टी भी निकल जाती है। और अब पानी ज़मीन के अंदर जाने लगता है। इसके परिणामस्वरूप, बहुत सारी साल भर पानी से भरी रहने वाली झीलें अब केवल मौसमी झीलें बन कर रह गई हैं।
नीमगाँव की झील पर मशीनी खुदाई के प्रभाव – फोटो: तान्या मजुमदार
इन योजनाओं का लक्ष्य था प्रति वर्ष 400 झीलों की गाद निकालना। कई झीलों पर इसके नकारात्मक प्रभाव पड़ चुके हैं। नीमगाँव में, 10-15 विशाल पेड़ काट दिए गए जिससे कि जे.सी.बी. झील तक पहुँच सके और बाहर निकाली गई मिट्टी को फेंकने के लिए जगह बनाई जा सके। कई जगहों पर, गाँव वालों को पता चलने तक पहले ही बहुत देर हो चुकी होती है।
अन्य खतरे
झीलों के लिए एक बड़ा खतरा है उसके आसपास की ज़मीन पर खेती के लिए अतिक्रमण। लोग अक्सर झील के किनारों को तोड़ कर नीचे की ओर पानी निकाल देते हैं, जिससे कि झील के आसपास के “खेतों” में पानी न भरे। इसके कारण मृत भंडारण कम हो जाता है, जो कि मछलियों के लिए ज़रूरी है।
खेती करने के लिए कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है, जिनका रिसाव झीलों में चला जाता है, और मछलियों की जनसंख्या के लिए खतरा पैदा कर देता है।
कुछ पारंपरिक तरीके खत्म हो गए हैं – जैसे कि, प्रजनन के मौसम में मछलियाँ न पकड़ना। इसके कारण, मछलियों की जनसंख्या और आवास दोनों प्रभावित होते हैं।
परिणाम
इसके परिणामस्वरूप, मछलियों की जनसंख्या गिर गई है, और साथ ही मत्स्य सहकारी समितियों की आमदनी भी। लोगों ने पहले की तरह देसी मछलियाँ खानी बंद कर दीं, जबकि वो ज़्यादा पौष्टिक होती थीं।
प्रयास
मनीष राजनकर पक्षियों को देखने के शौकीन थे। विदर्भ के पक्षियों की विशाल जनसंख्या से वे आश्चर्यचकित थे, और फिर उन्हें इस क्षेत्र की विभिन्न झीलों के बारे में पता चला। उनकी जिज्ञासा के कारण उन्होंने इन झीलों के बारे में जानने की कोशिश की और धीरे-धीरे उनके इतिहास और उनकी वर्तमान स्थिति के बारे में जाना। समय के साथ उनका संपर्क वहाँ के मछुआरा समुदाय से हुआ और पता चला कि किस प्रकार झीलों में मछलियों की जनसंख्या कम हो रही है।
कई वर्षों तक झीलों पर अध्ययन करने और सामुदायिक मुद्दों को समझने के बाद, मनीष ने अपनी संस्था भंडारा निसर्ग व संस्कृति अभ्यास मण्डल (भनवसम) के माध्यम से धीवर समुदाय के लोगों के साथ मिलकर पुनर्स्थापन प्रयास शुरू किए। यह संस्था गोंदिया ज़िले के अर्जुनी मोरगाओं में स्थित है।
झील पुनर्जीवन
भनवसम के सदस्यों ने पाँच मत्स्य सहकारी समितियों के साथ मिलकर सर्वेक्षण किए और उन्हें पता चला कि सभी झीलों में आआईपोमिया फिस्टुलोसा नाम की खरपतवार है, जो इन झीलों के खराब होने का मुख्य कारण है। भनवसम के सदस्यों ने इनके पुनर्जीवन के लिए पहला काम किया वो था आआईपोमिया को हटाना। उन्होंने यह काम करने के लिए कई गाँव वालों – महिलाओं और पुरुषों – को इकट्ठा किया।
2009 में, उन्होंने नव-तालाब की शुरुआत की जिसके अंतर्गत उन्होंने पारिस्थितिकीय तंत्र को ठीक करने और मछलियों के लिए खाना देने वाले देसी जलीय पौधों का पौधारोपण किया। पाटीराम तुमसारे, धीवर समुदाय के एक बुजुर्ग, एक अनुभवी मछुआरे और भनवसम के सदस्य कहते हैं, “हमें समझना होगा कि इनका रोपण कहाँ करना है। हमें देखना होगा कि झील के किस हिस्से में किस प्रकार की मिट्टी है और वहाँ उस के लिए उपयुक्त प्रजातियों के पौधे लगाने होंगे।” पौधारोपण के बाद, पहले वर्ष में 50% से 75% पौधे ही जीवित रह पाते हैं। भनवसम के सदस्य और समुदाय के लोगों ने मिलकर नव-तालाब की निगरानी और रखरखाव किया।
इसके बाद उन्होंने नवेगाओं की झील से लाकर अपनी झील में देसी प्रजाति की मछलियों को डाला। नवेगाओं की झील एक विशाल झील है और वहाँ बहुत सारी प्रजातियाँ पाई जाती हैं। कुछ मछलियाँ प्रजनन के मौसम में पलट स्थानान्तर (रिवर्स माइग्रैशन) से, मॉनसून में बहने वाली उप-नदियों से अपने-आप आ गईं। धीरे-धीरे नव-तालाब में देसी मछली प्रजातियों की संख्या बढ़ने लगी।
इस सफलता को देख, दूसरी मत्स्य सहकारी समितियाँ भी जुड़ गईं। 2019 में, भनवसम 43 गांवों में 12 सहकारी समितियों, 63 झीलों के साथ काम कर रहा था। प्रत्येक मत्स्य सहकारी समिति के साथ, एक झील को देसी मछली प्रजातियों के लिए आरक्षित किया जाता है।
जब कोई सहकारी समिति पौधारोपण करने का निर्णय लेती है, भनवसम से पाटीराम और नंदू झील का सर्वेक्षण करने जाते हैं और उचित पौधारोपण के लिए क्षेत्र और मिट्टी की प्रकारों को नोट करके लाते हैं। फिर वे कुल पौधारोपण क्षेत्र का अनुमान लगाते हैं और निर्णय लेते हैं कि वहाँ कौन-सी प्रजातियाँ लगाई जानी चाहिए। फिर सहकारी समिति को कुछ प्रस्ताव पारित करने होते हैं, जैसे कि – घास कार्प या साधारण कार्प की कोई प्रजाति झील में नहीं डाली जाएगी; एक बार पौधारोपण हो जाने के बाद, 3-4 माह तक चरान नहीं की जाएगी और उस समय के दौरान खींचने वाले जाल का उपयोग नहीं किया जाएगा। यह सुनिश्चित करने के लिए एक व्यक्ति को चौकीदारी के लिए मानदेय दिया जाता है।
झील के तल को पहले गर्मी के मौसम में जोता जाता है। मॉनसून में उस क्षेत्र में पानी भरने के बाद पौधारोपण किया जाता है। मुख्यतः, पानी में डूबे रहने वाले पौधे जैसे कि हाईड्रिला वर्टीसिलाटा, सिराटोफाईलम डिमरसम, वेलीसनेरिया स्पाइरलिस, तैरने वाले पौधे जैसे कि निम्फोइड्स इन्डिकम, निम्फोइड्स हाईड्रोफिला, निम्फिया क्रिसटाटा और आंशिक रूप से डूबने वाले पौधे जैसे कि ईलिओकैरिस डुलचिस का प्रत्यारोपण किया जाता है। पुरुष दूसरी झीलों से पौधे ले कर आते हैं और महिलाएँ पौधारोपण करती हैं – महिलाएँ इस प्रक्रिया से परिचित हैं क्योंकि वे खेती मज़दूरी के काम का अनुभव रखती हैं।
झील के तले की खुदाई – चित्र: मनीष राजनकर
पौधारोपण के लिए जलीय पौधों का एकत्रीकरण – चित्र: मनीष राजनकर
जलीय पौधों का पौधारोपण – चित्र: मनीष राजनकर
भनवसम ने झीलों की गाद निकलने के लिए मानवीय श्रम के माध्यम से अन्य चिह्नित झीलों में भी काम करना शुरू किया। मशीनी खुदाई के मुकाबले, इससे यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि केवल गाद ही निकाली जाए, मौजूदा पौधों को कोई नुकसान न पहुंचे और बची हुई मिट्टी नए पौधों को बढ़ाने में मदद करे।
आवास स्थल के पुनर्वास के बाद, मॉनसूनी नदियों से आने वाली और ज़्यादा देसी प्रजाति की मछलियाँ यहाँ प्रजनन करने लगती हैं। कुछ को दूसरी झीलों से यहाँ लाया जाता है। भारतीय प्रमुख कार्प मछलियों से यह अलग है, क्योंकि उन्हें हर बार खरीदना पड़ता है।
मछलियों को भागने से बचाने के लिए नीमगाओं की झील की निकासी पर जाल – चित्र: तान्या मजूमदार
पारंपरिक मछली पकड़ने के तरीके और बदलती हुई प्रक्रियाएं
पाटीराम तुमसारे ने कई मछली पकड़ने के तरीकों के बारे में बताया जो अब तक प्रचलन में थे।
पारंपरिक मछली पकड़ने के उपकरण – चित्र: तान्या मजूमदार
पारंपरिक मछली फँसाने का जाल – चित्र: तान्या मजूमदार
अदारी, कांटे से मछली पकड़ने के तरीके में, दो बांस के डंडों के बीच में एक रस्सी बांध दी जाती थी। इस रस्सी से मछली पकड़ने की लाइनों को 1-1 मीटर की दूरी पर लटका दिया जाता था। इन लाइनों पर मछली का चारा इस तरह से बांधा जाता था कि वह पानी की सतह को छूता था। मछली के चारे के लिए घुइ नाम के कीड़े, मेंढक या छोटी मछलियों का इस्तेमाल किया जाता था। इस तरीके में थोड़े बड़े कांटे इस्तेमाल किए जाते थे और दाड़क, बोटारी और मरल मछलियाँ पकड़ी जाती थीं।
पटारी भी इसी तरह का एक तरीका था, लेकिन इसमें मछली पकड़ने की लाइनों को पानी में डूबने दिया जाता था। इन लाइनों पर अलग-अलग चारे के साथ छोटे-छोटे कांटे लगाए जाते थे।
झाका या थापा में शंकु के आकार का बांस और नेट से बना जाल बनाया जाता था। मछुआरे पानी में मछलियों की हलचल या बुलबुलों को देख कर, उसी जगह पर जाल लगाते थे।
टँगड़ में 8-10 लोग मछली पकड़ते थे। वे एक बांस लेकर उस से झील के पानी को छेड़ते थे, जिससे मछलियाँ हिलने लगती थीं और नज़र आने लगती थीं।
सदकी एक चपटा बांस का जाल होता है, जिसे बहते पानी में मछली पकड़ने के लिए लगाया जाता है।
बिलोनी में धान के खेतों में उथले पानी में मछली पकड़ने के लिए, एक पत्ते में कीड़ा फँसा कर धागे से बाँधा जाता है। फिर मछलियों को आकर्षित करने के लिए उसे पानी में ऊपर-नीचे हिलाया जाता है।
2000 के शतक की शुरुआत से, नाइलॉन के जाल इस्तेमाल होने लगे हैं।
पाटीराम अपने प्रचुर ज्ञान और अनुभव के साथ भनवसम में जुड़े। इतने वर्षों में, भनवसम ने झीलों पर बहुत से शोध किये हैं। उनके कार्यालय में इस क्षेत्र में पाई जाने वाली हर देसी प्रजाति की मछली के सैम्पलों को फॉर्मलीन में रखा गया है और कुछ पौधों के भी सैम्पल हैं जो उन्होंने झीलों के पुनर्स्थापन के लिए प्रयोग किये हैं। आपको यहाँ की झीलों में पाई जाने वाली पाँच प्रकार की मिट्टी के सैम्पल के साथ-साथ देसी जलीय पौधों के बीजों का बैंक भी मिलेगा।
भनवसम के कार्यालय में पाँच प्रकार की मिट्टी के सैम्पल – फोटो: तान्या मजूमदार
सहकारी समितियों के साथ-साथ, वे प्रत्येक झील में पाई जाने वाली मछलियों का रिकार्ड भी रखते हैं और वर्षों से अलग-अलग मौसम में उन्हें ट्रैक भी करते हैं।
भनवसम ने पक्षियों की गणना भी शुरू की है, यह देखने के लिए कि झीलों ने वन्यजीवों पर क्या प्रभाव डाला है। पाटीराम कहते हैं, “पहले हम मछलियों का प्रत्यारोपण करते थे, लेकिन वे पैदा नहीं होती थीं। झीलों के पुनर्स्थापन के बाद, न सिर्फ मछलियों की संख्या बढ़ी है, बल्कि पक्षी भी वापस आए हैं।”
इन झीलों से जुड़ा बहुत सारा पारंपरिक ज्ञान मौजूद है। मछलियाँ उनके औषधीय मूल्य के लिए जानी जाती थीं। झीलों में गाद भरने से रोकने की एक प्राकृतिक प्रणाली थी। इसमें झीलों में पानी आने के रास्ते में खस घास उगाई जाती थी। यह गाद आने से रोकने की पहली सुरक्षा देती थी। उसके बाद पानी जंगली धान से गुज़रता हुआ और अंत में गाद पौधों (कंद) से होते हुए निकलता था – यह दोनों ही बाकी बची गाद को छान देते थे। लेकिन अब, ज़्यादातर खस घास को बेच दिया गया है, क्योंकि यह बहुत कीमती होती है।
महिलाओं की भागीदारी
कुछ वर्ष काम करने के बाद, मनीष को अहसास हुआ कि हाँलाकि मत्स्य सहकारी समितियों की आमदनी तो बढ़ गई है, इससे समुदाय पर ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़ा। समुदाय की महिलाओं से चर्चा के बाद, कई मुद्दे सामने आए, जिसमें से एक था कि केवल मत्स्य सहकारी समिति अकेले 80 परिवारों को सहारा नहीं दे सकती। उन्हें दिहाड़ी काम की ज़रूरत थी। महिलाओं ने उनके समाज में मौजूद जातिवाद, भ्रष्टाचार और नशे की समस्याओं के बारे में भी चर्चा की। नीमगांव की शालू कोल्हे नाम की एक युवती विशिष्ट रूप से इस चर्चा में योगदान कर रही थी। मनीष ने उन्हें प्रेरित किया कि वे सेंटर फॉर लीडर्शिप, कोरो द्वारा चलाए जा रहे ग्रासरूट्स लीडर्शिप डेवलपमेंट प्रोग्राम में अध्येता के लिए आवेदन करें। इस कार्यक्रम में स्व-विकास, नेतृत्व, जनपैरवी व अन्य विषय सिखाए जाते हैं।
शालू, जो अब भनवसम की सदस्य है, ने यह अधिछात्रवृत्ति 2013-14 में की। इसके बाद, उन्होंने अपने ही समुदाय में काम करना शुरू किया। शालू कहती हैं, “एक धीवर महिला कोहलियों के सामने कुछ नहीं है। हम उनके घरों में मज़दूरी करते हैं। जब हम उनके सामने आते हैं तो हमें अपना सर ढँकना पड़ता है। अगर वे हमारे घर आते हैं, तो हमें अपनी कुर्सी उनके लिए खाली करनी पड़ती है और खुद ज़मीन पर बैठना पड़ता है। मैं यह सब बदलना चाहती थी।”
उन्होंने स्वयं सहायता समूह गठित करने शुरू किये और महिलाओं को प्रेरित किया कि वे ग्राम सभा में भागीदारी करें। उनकी ससुराल से विरोध के बावजूद, उन्होंने ग्राम सभा में महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए, जैसे कि उनके गाँव में मनरेगा का काम न होने के बारे में। उन्होंने कहा, “कोहली नहीं चाहते कि हमें दिहाड़ी मज़दूरी का काम मिले क्योंकि उन्हें अपने खेतों के लिए मज़दूर चाहिए। उनके पास इस सब का बंदोबस्त करने की सत्ता है”। उन्होंने भ्रष्टाचारी प्रथाओं का मुद्दा भी उठाया। एक मामले में, सरकार ने उस वर्ष बाढ़ आने के कारण, मत्स्य सहकारी समिति के ऋण को माफ़ कर दिया। इसके कारण मत्स्य सहकारी समिति के खाते में पैसे थे, लेकिन लोगों को इसके बारे में जानकारी नहीं थी। उनको यह भी पता चला कि ग्राम सभा में कई मामलों की गलत रिपोर्टिंग होती है। “ग्राम सभा में पुरुष नशे में आते हैं,” उन्होंने बताया। “उन्हें आधे से ज़्यादा चीजों के बारे में कुछ पता नहीं होता। इसलिए महिलाओं की भागीदारी बहुत ज़रूरी है – खाते बेहतर तरीके से बन रहे हैं, पैसा का लेन-देन भी बेहतर हो रहा है।”
शालू के प्रयासों से, उनके गाँव में मनरेगा का काम भी आया। महाराष्ट्र राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के अंतर्गत कई स्वयं सहायता समूह बनाए गए [4]। उन्होंने ज़ोर दिया कि ग्राम सभा की समितियों, जैसे कि राशन समिति, आरोग्य समिति और वन हक़ समिति, में महिलाओं का प्रतिनिधित्व ज़रूरी है (और जातियों का भी)। उन्होंने गांवों में स्वास्थ्य चिकित्सा की व्यवस्था लाई। “मैंने जब शुरू किया था, तब मैं अकेली थी। लेकिन कुछ ही वर्षों में, मेरे साथ सैंकड़ों महिलाएँ जुड़ गईं! मुझे लगा कि अब मेरे गाँव को मेरी ज़रूरत नहीं है। मैं बहुत खुश थी!” शालू कहती हैं। तब उन्होंने तय किया कि उन्हें अन्य गांवों के साथ काम करना चाहिए और अन्य महलाओं को सशक्त करना चाहिए। उन्होंने ऐसी महिलाओं की खोज करनी शुरू कर दी जो इस काम को आगे ले जा सकती थीं। ऐसी ही एक महिला हैं सावरटोला की सरिता मेसराम।
“मेरी बहुत कम उम्र में शादी हो गई थी,” सरिता बताती हैं। “मुझे खाना पकाना भी नहीं आता था, तो मेरी सास मुझे मारती थीं। मैं एक कुनबी परिवार के खेत में मज़दूरी का काम करती थी। कुनबी कोहलियों के जैसे ही होते हैं। जब मैं शालू से मिली, तो मैंने अपने जीवन में कुछ अलग करने का प्रयास किया। मैंने अधिछात्रवृत्ति के लिए फॉर्म भरा।”
सरिता 2014-15 में अध्येता बनीं और भनवसम के साथ काम करना शुरू किया। उनके परिवार के विरोध और बाकी गाँव वालों की आलोचना के बीच, उन्होंने भी ग्राम सभा में सवाल उठाने शुरू किये। उन्होंने राशन, विधवाओं, मज़दूरी, विकलांग समुदाय, कर के पैसों के उपयोग जैसे मुद्दे उठाए। उन्होंने अपने गाँव में दिहाड़ी मज़दूरी का काम लाने और महिलाओं को उनके लिए उपलब्ध सरकारी योजनाओं की जानकारी देने में भूमिका निभाई।
भनवसम सदस्यों के हस्तक्षेप के मध्यम से, मनरेगा के कामों की सूची में झीलों की गाद सफाई की मज़दूरी को जोड़ा गया। वे प्रयास कर रहे हैं कि पौधारोपण और आईपोमिया हटाने के काम भी इस सूची में शामिल हो जाएँ। भनवसम जिन 6 सहकारी समितियों के साथ काम करता है, उनमें ग्राम सभाओं ने प्रस्ताव पारित किया है कि झीलों में खुदाई के लिए जे.सी.बी. उपयोग नहीं किया जाएगा – गाद की सफ़ाई केवल दिहाड़ी मज़दूरी के माध्यम से की जाएगी। उन्होंने यह प्रस्ताव भी पारित किया है कि झीलों में कोई प्लास्टिक नहीं फेंका जाएगा।
मनीष, शालू और सरिता, भनवसम के सदस्य – चित्र: तान्या मजूमदार
भनवसम के पाटीराम तुमसारे – फोटो: तान्या मजूमदार
अन्य गतिविधियां
मनीष को समझ आया कि इस क्षेत्र के विभिन्न सामाजिक मुद्दों में, एक महत्वपूर्ण मुद्दा था कि स्कूलों में धीवर बच्चों को बहिष्कृत किया जाता था। उन्होंने स्कूलों के साथ कुछ परियोजनाएँ शुरू कीं। उनमें से एक में, उन्होंने बच्चों को अपने क्षेत्र की आदिवासी जैवविविधता के बारे में लिखने के लिए कहा। यह एक ऐसा विषय था जहाँ धीवर बच्चों के पास अन्य बच्चों से ज़्यादा जानकारी थी। परिणामस्वरूप, दूसरे बच्चों को धीवर बच्चों के साथ मिलकर काम करना पड़ा, और वे जल्द ही आपस में दोस्त बन गए।
बच्चों के साथ चढ़ानबंदी की आवश्यकता पर जागरूकता के विषय पर एक और परियोजना चलाई गई। बारिश के मौसम में, मछलियाँ ऊपरी प्रवाह में जाती हैं (जिसे चढ़ान कहते हैं) और वहाँ पर प्रजनन के लिए उपयुक्त आवास स्थल ढूंढती हैं। इस समय में बहुत संकरी जगह से बहुत सारी मछलियाँ गुज़रती हैं, तो उन्हें पकड़ना आसान होता है। “इस समय पर बहुत सारे लोग मछलियाँ पकड़ने आते हैं,” मनीष बताते हैं। “जो लोग मछुआरे नहीं हैं वे भी मच्छर जाली और साड़ियाँ लेकर मछली पकड़ने आते हैं। इस से मछलियों की जनसंख्या को नुकसान पहुंचता है। अंतर्राष्ट्रीय मछली पलायन दिवस के दिन, हमने बच्चों के साथ मिलकर पोस्टर बनाए, रैली निकाली और नारे लगाए। इससे इस मुद्दे पर जागरूकता बढ़ी और परिणामस्वरूप, ग्राम सभाओं में प्रस्ताव पारित किया गया कि इन दस से पंद्रह दिनों में कोई मछली नहीं पकड़ेगा।”
अंतर्राष्ट्रीय मछली पलायन दिवस पर बच्चों की रैली – फोटो: मनीष राजनकर
प्रभाव
पाटीराम तुमसारे कहते हैं, “चढ़ान के समय, नव-तालाब में चार से पाँच प्रजाति की मछलियाँ आती थीं। हमारे पुनर्स्थापन के काम के बाद, हमने झील में 28 प्रजातियों की गिनती की।”
तालिका 1 – 2016 में आईपोमिया फ़िसटुलोसा निकालने के बाद 4 झीलों में मछलियों की जैवविविधता
झील का नाम | क्रमिक रूप से स्थानीय पौध प्रजातियों की संख्या | व्यक्तिगत पौधों की संख्या | आईपोमिया पुनर्जनन की दर | |||
2017 | 2018 | 2017 | 2018 | 2017 | 2018 | |
गांवतलाब, भीवखिड़की | 10 | 24 | 985 | 13113 | 1.97 | 0.98 |
गांवतलाब, सावरटोला | 12 | 34 | 1775 | 12454 | 0.98 | 1.26 |
गांवतलाब, खमखुरा | 24 | 29 | 824 | 4476 | 7.63 | 1.36 |
बंध्यातालाब, नीमगाँव | 16 | 7 | 5085 | 7265 | 3.23 | 0 |
गाँवतालाब, कोकना | * | 9 | * | 4176 | * | 2.24 |
*अध्ययन संभव नहीं था |
आँकड़े: भनवसम
खमखुरा गांवतलाब में आईपोमिया – फोटो: मनीष राजनकर
आईपोमिया हटाने के बाद खमखुरा का गांवतलाब – फोटो: मनीष राजनकर
आईपोमिया हटाने के एक वर्ष बाद खमखुरा गांवतलाब – फोटो: मनीष राजनकर
मत्स्य सहकारी समितियों ने अपने क्षेत्र में 56 मछली प्रजातियों की सूची बनाई है। हाँलाकि मत्स्य सहकारी समितियाँ पहले भी आँकड़े रखती थीं, उन्होंने विभिन्न वर्षों के आंकड़ों को कभी एक-साथ देखकर रुझान समझने की कोशिश नहीं की थी। इसके अतिरिक्त, चूंकि मत्स्य विभाग केवल भारतीय प्रमुख कार्प के आँकड़े माँगता था, देसी प्रजाति की मछलियों पर आँकड़े अक्सर इकट्ठे ही नहीं किये जाते थे। झील पुनर्स्थापन कार्य करने के बाद जब देसी मछली प्रजातियों के उत्पादन में बढ़ोतरी हुई (जैसा कि तालिका 2 में देखा जा सकता है), लोगों को समझ में आया कि यह ज़्यादा लाभदायक प्रजातियाँ हैं।
तालिका -2: छः गतिविधि स्थलों पर आवास स्थल विकास के देसी प्रजाति की मछलियों के उत्पादन पर प्रभाव
गाँव का नाम | गतिविधि से पहले उत्पादन (किलो) | गतिविधि के बाद उत्पादन (किलो) | % बढ़ोतरी |
मोठ्या तलाव अर्जुनी | 120 | 249 | 208 |
घनोद गाँव तलाव | 98 | 630 | 643 |
ज़री तलाव | 30 | 231 | 770 |
नीमबोड़ी छन्ना बकती | 62 | 190.2 | 307 |
सावरटोला गाँव तलाव | 20 | 42 | 210 |
बंध्या तलाव नीमगाँव | 56 | 220 | 393 |
आँकड़े: भनवसम
मछली बाज़ार – फोटो: तान्या मजूमदार
उत्पादन में बढ़ोतरी के अतिरिक्त, बेहतर आवास स्थल होने के कारण मछलियों की गुणवत्ता भी बेहतर हुई। उनका स्वाद बेहतर हुआ। स्थानीय बाज़ार में उनकी मांग बढ़ गई। अब, अगर लोगों को पता चलता कि किसी विशिष्ट झील में पुनर्स्थापन का काम हुआ है, तो उस झील की मछलियों के दाम बढ़ जाते। भारतीय प्रमुख कार्प का दाम रु.100 से 200 प्रति किलो है, जबकि देसी मछली प्रजातियों का दाम रु. 400 से 500 प्रति किलो हो गया। इसके अलावा, यह प्रजातियाँ पूरे वर्ष मिलती हैं, जबकि कार्प साल में केवल एक बार ही मिलती है।
पुनर्स्थापन के काम के बाद अन्य आर्थिक लाभ भी देखने को मिले। जैसे ही आईपोमिया को हटा दिया गया, झीलों में जंगली धान उगने लगा। अब महिलायें जंगली धान की खेती करती हैं। वे करंबु और अन्य कंद जैसी सब्ज़ियाँ भी इकट्ठी करती हैं।
झील में सब्ज़ियों की खेती – फोटो: तान्या मजूमदार
शालू कहती हैं, “हमारे काम से न सिर्फ महिलाओं की ग्राम सभा में भागीदारी और दिहाड़ी मज़दूरी बढ़ी है, बल्कि सामाजिक बदलाव भी आया है। पहले जब मैं आवाज़ उठाती थी तो एक महिला और धीवर होने के नाते मुझे अपमानित किया जाता था। मुझे महिलाओं को इकट्ठा करने के लिए उनके पास जाना पड़ता था। अब वे खुद मेरे पास आती हैं। यहाँ तक कि पुरुष भी गाँव के मुद्दे लेकर मेरे पास आते हैं। मैं खुश हूँ! अब मेरे समुदाय के लोग कुर्सी पर बैठते हैं और स्टेज पर बोलते हैं।”
भविष्य के लिए काम
“पारंपरिक रूप से महिलाएँ मछली नहीं पकड़तीं,” मनीष बताते हैं। “तो वे मत्स्य सहकारी समिति का हिस्सा नहीं हैं। लेकिन, मुझे लगता है कि अगर मछली बेचने से कमाए गए पैसों को घरों तक पहुंचना है तो महिलाओं को इसका हिस्सा होना ज़रूरी है। चाहें वे मछली नहीं पकड़तीं, उन्हें आवास स्थल विकास और अन्य गतिविधियों में जोड़ा जा सकता है। हम कोशिश कर रहे हैं कि सहकारी समितियों में 50% महिलाओं की भागीदारी हो।”
भनवसम झीलों से प्राप्त होने वाले उत्पादों, जैसे कि मछली का आचार, स्मोक्ड फिश, और कमल कंद के चिप्स आदि का व्यापार शुरू करना चाहता है।
12 सहकारी समितियों जिनमें उन्होंने प्रत्येक द्वारा जैवविविधता संरक्षण के लिए एक झील नियुक्त की है, वे अन्य सहकारी समितियों को उनकी अपनी झीलों को पुनर्जीवित करने के लिए मार्गदर्शन दे रहे हैं। वे अन्य झीलों में पौधारोपण के ठेके लेने के लिए और संपर्क भी बना रहे हैं जिससे कि अंततः उनमें भी संरक्षण किया जा सके।
भनवसम यह समझने की कोशिश कर रहा है कि सरकारी योजनाओं से इस क्षेत्र की झीलों पर क्या प्रभाव पड़े हैं। इस विषय पर अभी तक कोई आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। वे कुछ शोध भी करना चाहते हैं जैसे कि देसी मछलियों का पोषक मूल्य क्या है।
वर्तमान में, भारतीय प्रमुख कार्प को अंडे बनाने वाली शालाओं से खरीदा जा रहा है। फ्राइ करने वाले चरण की मछली की कीमत रु.200 से 1000 प्रति मछली है। लेकिन, जब इन्हें झीलों जैसे खुले वातावरण में रखा जाता है, तो इनकी मृत्युदर लगभग 90% हो जाती है। इसलिए लोग मछली के बच्चों को रु.3 प्रति पीस या एक साल की उम्र पर रु.5 से 6 प्रति पीस की दर पर खरीदते हैं, जो काफ़ी महंगा पड़ता है। इसलिए, मनीष भारतीय प्रमुख कार्प और अन्य देसी मछलियों के लिए अंडे बनाने वाली शालाएं स्थापित करने के बारे में सोच रहे हैं।
इस काम के अनुभव के आधार पर, भनवसम अब महाराष्ट्र के सभी पारंपरिक मछुआरा समुदायों के साथ चर्चाएँ आयोजित करने के बारे में सोच रहा है, जिससे कि वे सतत मछलीपालन और उस पर निर्भर समुदायों की आजीविकाओं के लिए मीठे पानी में मत्स्यपालन की सामुदायिक नीति का मसौदा तैयार करके राज्य सरकार को दे सकें।
भनवसम की टीम सात सदस्यों की छोटी टीम है। लेकिन वे सब काम करते हैं। वे पारिस्थितिविज्ञानशास्त्री भी हैं, सामाजिक कार्यकर्ता भी, सामुदायिक संगठन बनाने वाले, वैज्ञानिक शोधकर्ता और बहुत कुछ!
नोट: वर्तमान में, इसमें से कुछ काम एक नई संस्था फाउंडेशन फॉर इकनॉमिक एण्ड ईकोलॉजिकल डेवलपमेंट (फ़ीड) के बैनर तले किये जा रहे हैं, जिसके सह–संस्थापक मनीष हैं और इसे 2019 में स्थापित किया गया। फ़ीड समुदायों के लिए संसाधन आधारित आजीविका विकास का एक नया प्रयास है जिसके माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन और सततता का काम किया जाएगा।
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जुलाई 2022 अपडेट
वर्तमान में, इसमें से कुछ काम एक नई संस्था फाउंडेशन फॉर इकनॉमिक एण्ड ईकोलॉजिकल डेवलपमेंट (फ़ीड) के बैनर तले किये जा रहे हैं, जिसके सह-संस्थापक मनीष हैं और इसे 2019 में स्थापित किया गया। यह काम अब गडचिरोली और चंद्रपुर ज़िलों में भी किया जा रहा है। जलीय आवास स्थल पुनर्स्थापन का काम 14 जलक्षेत्रों में किया जा रहा है।
सृष्टि, गडचिरोली के आर.एन.आर. कार्यक्रम के अंतर्गत मछली के बच्चे पालने के लिए बांस के पिंजड़े और बाड़े बनाने का काम भी शुरू किया गया है जिसमें तैरने वाले बांस के पिंजड़ों की नवीन तकनीक उपयोग की जा रही है। यह मछली के बच्चे मत्स्य समूहों और सहकारी समितियों को उपलब्ध कराए जाते हैं, जिससे उनका खर्च काफ़ी बच जाता है। इसका एक अतिरिक्त लाभ यह भी है कि चूंकि इस काम में महिलाएं शामिल रहती हैं, तो सहकारी समितियां उन्हें सदस्य बनाने के लिए तैयार हो गई हैं। गोंदिया की दो सहकारी समितियों और एक चंद्रपूर की समिति ने मछली के बच्चों के उत्पादन में शामिल महिलाओं को उनकी सहकारी समितियों में शेयरधारक बना लिया है।
महिलाओं के चार अलग-अलग समूहों ने देसी मछली के आचार का उद्यम शुरू किया है, जिसमें वे आठ देसी प्रजाति की मछलियों का उपयोग कर रही हैं। इन महिलाओं का एक सूक्ष्म, लघु एवं मध्य आकार उद्यम (एम.एस.एम.ई.) स्थापित किया गया है और उन्हें एफ.एस.एस.आई. लाइसेन्स भी मिल गया है। महिलाओं की योजना है कि वे इन उत्पादों के पोषण-विश्लेषण के बाद इन्हें ऑनलाइन बाज़ार पर भी उपलब्ध करवायेंगी।
ऐसे आयाम खुलने से, मत्स्य कार्यक्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। गोंदिया के बोरटोला की महिलाओं के एक समूह ने गाँव की झील ग्राम पंचायत से लीज़ पर ली है। वे स्वतंत्र रूप से आवास स्थल पुनर्स्थापन की गतिविधियों से लेकर स्थानीय बाज़ार में मछली बेचने तक का काम कर रही हैं।
महाराष्ट्र राज्य जैवविविधता बोर्ड के माध्यम से महाराष्ट्र जीन बैंक कार्यक्रम भी लागू किया जाएगा। मीठे पानी की जैविविधता के विषय पर फ़ीड को नेतृत्व संस्था के रूप में प्रस्तावित किया गया है। इस कार्यक्रम के माध्यम से, 4 पारंपरिक मछुआरा समुदायों, 10 अनुसूचित जनजातियों और 3 अतिविशिष्ट संवेदनशील आदिवासी समूहों, जिनकी आजीविका मत्स्यपालन पर निर्भर करती है, के साथ काम की शुरुआत की जाएगी।
भविष्य में, फ़ीड की योजना है कि वे महाराष्ट्र के विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों के समुदायों के साथ मिलकर स्थानीय संदर्भ विशिष्ट जैविविधता संरक्षण और आजीविका सुदृढ़ीकरण प्रारूपों पर प्रयोग करेंगे। वे महिलाओं और युवाओं के साथ संरक्षण प्रयासों के आर्थिक तथा अन्य मूर्त लाभ सुनिश्चित करने के लिए काम करेंगे। काम का दायरा बढ़ाते हुए सामुदाय और महिलाओं के नेतृत्व पर प्रमुख ज़ोर रखा जाएगा।
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