न बिजली, न मोटर, न डीजल-ईंजन फिर भी हो रही है खेतों की सिंचाई। यह अनूठा काम सरगुजा जिले के आदिवासी किसान कर रहे हैं। वे पहाड़ी नाले का पानी अपने खेतों तक ले आएं हैं, जिससे खेतों की सिंचाई हो रही है। वे पहले बारिश में सिर्फ एक ही फसल ले पाते थे, अब खरीफ की फसल धान के साथ सब्जियों की फसल भी लेते हैं।
छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के लखनपुर विकासखंड का गांव रेम्हला। और उसका एक मोहल्ला है बुगुलपारा। यहां पहाड़ी कोरवा और उरांव आदिवासी रहते हैं। जंगल ही उनके जीवन का आधार है। जंगल में वे पशु चराते हैं, वनोपज एकत्र करते हैं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अनाज से जीवन चलता है। थोड़ी बहुत जमीन है, जिसपर बारिश की बदौलत धान की फसल ही होती है।
रेम्हला गांव के सेवक लकड़ा व बुगुलपारा के चंद्रिका पहाड़ी कोरवा बताते हैं, “सात साल पुरानी की बात है। गांव के 4-5 आदिवासी जंगल में बकरी चराने गए थे। घूमते-घामते खिरखिरी पहाड़ पहुंचे। वहां खुकरापखना नाला के पास बैठ गए। यह नाला खिरखिरी पहाड़ से बहता है और नीचे चंदनई नदी में मिलता है, जो एक खूबसूरत स्थान है। यह नाला साल भर बहता है। चंदनई नदी, मैनपाट के तराई क्षेत्र से निकलकर घुनघुट्टा नदी में मिलती है।”
उन्होंने आगे बताया. “आदिवासी बैठे-बैठे सोचने लगे कि अगर इस नाले का पानी हमारे खेतों तक पहुंच जाए तो हमारी किस्मत बदल जाएगी।”
लेकिन यह इतना आसान न था। इस नाले से उनके खेत 2 किलोमीटर दूर थे। उनमें से कुछ अनुभवी लोगों ने कहा कि खेतों तक पानी जा सकता है। फिर उन्होंने लकड़ी से ही नाले की रेत में कुरेदकर नक्शा बनाया। कहां से कैसे पानी पहुंचेगा, इसको नक्शे में दर्शाया।
नक्शा बनाते ही उनकी आंखें चमक उठी। गांव आकर सब लोगों को बुलाया। बैठक बुलाई और सबके सामने खुकरापखना नाले से खेतों तक पानी लाने की बात बताई। सबको यह विचार अच्छा लगा। खिरखीरा पहाड़ से बुगुलपारा (रेम्हला) गांव तक कच्ची नाली बनाई जाने लगी। सब लोग कुदाल, फावड़ा, टोकनी लेकर नाली बनाने में जुट गए। नाली को पत्थरों व मुरम डालकर मजबूत बनाया। महिला, पुरूष, बच्चे, बुजुर्ग सबने श्रमदान किया।
सूखे खेतों तक पानी पहुंच गया। प्यासे खेत तर हो गए। वर्तमान में आदिवासियों के करीब 5-6 एकड़ खेत की सिंचाई हो रही है,और आगे 20-22 एकड़ की सिंचाई हो सकती है। यहां पानी को लेकर आपस में समझौता है, जिसको जितने पानी की जरूरत है, वो ले लेता है। इसमें किसी प्रकार की कोई दिक्कत नहीं है। सबको पानी मिलेगा, यह तय है।
चंद्रिका प्रसाद ने बताया, “अब वे दो फसल लेते हैं। धान की फसल के बाद सब्जी की फसल लेते हैं। आलू को लखनपुर व अंबिकापुर सब्जी मंडी में बेचते हैं, जिससे थोड़ी बहुत आमदनी होती है।”
इस साल आदिवासियों के अधिकारों को लेकर काम करने वाली संस्था चौपाल (चौपाल ग्रामीण विकास प्रशिक्षण एवं शोध संस्थान) ने कासा के सहयोग से मदद की है। हर साल कच्ची नाली टूट-फूट जाती है और उसकी मरम्मत करनी पड़ती है। यह सब श्रमदान से होता है। इस बार चौपाल संस्था ने काम के बदले राशन सामग्री देकर इस काम में मदद की है।
इस इलाके की दो भौगोलिक विशिष्टताओं ने इसमें मदद की है। एक तो पहाड़ी ढलान होने के कारण खुकरापखना नाले के पास ऐसी जगह मिल गई जहां पानी को रोका जा सके और वहां से पानी को नालियों में मोड़कर गुरुत्व बल से ही खेतों तक पानी पहुंचाया जा सके। दूसरा इस नाले में साल भर में ज्यादातर समय पानी रहता है। हालांकि यह पानी गरमी में कम हो जाता है, उस समय खेतों तक पानी नहीं पहुंच पाता। जंगलों व पहाड़ के बीच होने के कारण धारा चलती रहती है।
चौपाल संस्था के प्रमुख गंगाराम पैकरा ने बताया, “इस साल कोविड-19 में लोगों की माली हालत अच्छी नहीं थी। इस गांव को इस साल सामुदायिक वन संसाधनों के लिए हक मिला है। इस गांव समेत 10 गांवों को हाल ही में 9 अगस्त को सामुदायिक वन संसाधनों के लिए हक मिला है। जिसमें लखनपुर के ग्राम रेम्हला, लोसगा, सेलरा, जामा, तिरकेला, करई और उदयपुर विकासखंड के ग्राम वनकेसमा और बुले को और बतौली के ग्राम करदना को जंगल का सामुदायिक वन संसाधनों के लिए हक का अधिकार पत्र मिला है। रेम्हला गांव को 802.822 हेक्टेयर का अधिकार पत्र मिला है। इससे आदिवासियों के जीवन में सकारात्मक सुधार आएगा। इस आदिवासियों की बड़ी जीत है, इसकी लड़ाई लंबे समय से लड़ी जा रही थी। पहले भी 38 गांवों को सामुदायिक वन अधिकार मिल चुका है। इस दिशा में आगे काम करने की योजनाएं हैं। इस सामुदायिक वन संसाधन के हक में प्रबंधन का अधिकार भी शामिल है, इसके तहत रेम्हला गांव के आदिवासियों को पानी का प्रबंधन शुरू कर दिया है।”
इसी प्रकार, इसी इलाके में जामा गांव में भी आदिवासियों ने भी खेतों तक चंदनई नदी का पानी से खेतों की प्यास बुझाई है।
गंगाराम पैकरा ने बताया कि पानी को रोकने के गेबियन संरचना बनाने में उनकी संस्था ने मदद की है। गेबियन संरचना में तार की जाली, पत्थर व बोल्डर डाले जाते हैं, जिससे बोल्डर पानी के साथ नहीं बहते तथा ऊपरी भाग में पानी का संग्रह होता है। और इससे मिट्टी का बहाव भी रुकता है और भूजल स्तर भी बढ़ता है। नदी भी सदानीरा बनती है। इस नदी से 60-70 आदिवासी किसान पानी लेते हैं। और वे भी खरीफ फसल के अलावा रबी की फसल लगाते हैं। गेहूं, चना, मटर, सब्जी उगाते हैं। इससे उनकी खाद्य सुरक्षा हुई है और कुछ अतिरिक्त कमाई भी होती है।
कुल मिलाकर, यह तो पूरा काम प्रकृति और पर्यावरण से सामंजस्य बनाकर किया गया है क्योंकि आदिवासियों का प्रकृति से गहरा रिश्ता है। वे जंगल व वन्यजीवों के करीब रहते आए हैं। इस पूरे काम से न तो जंगल को नुकसान पहुंचा है और न ही किसी वन्य जीव को। इसमें सिंचाई के लिए पानी लाने के लिए न तो बिजली की जरूरत पड़ी है न ही डीजल ईंजन की। कोई ध्वनि प्रदूषण भी नहीं हुआ है। इस प्रकार, प्रकृति, वन्य जीव, और जंगल का संरक्षण करते हुए कृषि के लिए पानी की व्यवस्था की है। पानी लिफ्ट में जो किसान का खर्च बिजली या डीजल में लगता, उसकी बचत हुई। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में बढ़ोतरी नहीं हुई। यानी किसान की बचत हुई और पर्यावरण की रक्षा भी हुई।
एक और बात इससे साबित होती है कि अगर मौका मिले तो बिना पढ़े लिखे लोग भी अपने परंपरागत ज्ञान, अनुभव व लगन से जल प्रबंधन जैसे तकनीकी काम को बेहतर तरीके से कर सकते हैं। यह पूरी पहल सामूहिक व सामुदायिक है। इससे आदिवासियों की आमदनी बढ़ी। खाद्य सुरक्षा हुई। साथ ही छत्तीसगढ़ सरकार से सामुदायिक वन संसाधन हक मिलने से आदिवासियों में उम्मीद जाग गई है।
प्रथम प्रकाशन इंक्लूसिव मीडिया फॉर चेंज (im4change.org), २९ अक्तूबर २०२०