पत्थरों में नक्काशी (In Hindi)

By Translated by Arvind Gupta, with inputs from Rohit BansalonDec. 02, 2016in Environment and Ecology

विकल्प संगम की वेबसाइट के लिए विशेष लेख (Carved out of rock – by Vinay Nair) का अनुवाद

(Pattharon mein Nakkashi)

गांडो-बावल (गुजराती) और बावलिया (मारवाड़ी) – स्थानीय नाम हैं प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा (मिस्क़ुइत) नामक एक झाड़ीनुमा पेड़ के, जो मूलरूप से मेक्सिको देश का है। इन दोनों नामों का एक ही अर्थ है – बावला। इन नामों का कारण है कि यह पेड़, किसी भी प्रकार की मिट्टी में – रेतीली, चिकनी, पथरीली, यहाँ तक कि खारीय मिट्टी में भी – उग सकता है। गहरी मूसला जड़, मोम जैसी पत्तियाँ (जिनको पशु नहीं खाते) और स्वंय को प्रसारित करने की अद्भुत क्षमता के कारण यह पेड़ बंजर भूमि में अपना कब्ज़ा करने में सफल हुआ है। अपने प्राकृतिक प्रतिद्वन्दियों को नष्ट करने के लिये यह पेड़ अपनी विशालकाय जड़ों से ज़हरीले रसायन उत्पन्न करता है, जिससे आसपास की मिट्टी बंजर हो जाती है और उसमे अन्य पेड़-पौधे नहीं उग पाते। विदेशी प्रजाति होने के कारण, पश्चिमी भारत के गुजरात एवं राजस्थान प्रदेशों में इस पेड़ के प्राकृतिक प्रतिद्वन्दी भी नहीं हैं।

भारत में इस पेड़ को पहली बार १८७७ में जमैका देश से बीज लाकर आन्ध्रप्रदेश में लगाया गया था। राजस्थान के सूखी जलवायु वाले जोधपुर शहर में – जहाँ राव जोधा उद्यान स्थित है – इस पेड़ को १९१३ में पहली बार (वाल्टर २०११) भूमि-संरक्षण हेतु लगाया गया था। यह भूमि (पशुओं द्वारा) अत्यधिक चराई के कारण बर्बाद हो गयी थी, परन्तु शीघ्र ही इस पेड़ ने – उपजाऊ और बंजर – दोंनों प्रकार की ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया और स्थानीय पेड़-पौधों को नष्ट कर दिया। आज स्थिति यह है कि स्थानीय लोग जलाऊ लकड़ी की ७०% जरूरत पी. जूलीफ्लोरा से पूरी करते हैं (हरीश और तिवारी १९८८)।

The lands outside Rao Jodha park are overrun by P. juliflora. The typical rhyolite rock of the area is visible in the background.
राव जोधा उद्यान के बाहर की सारी ज़मीन पर प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा का कब्ज़ा है। इस चित्र में आप उस इलाके के एक “रहोलाइट” पत्थर को देख सकते हैं।

राव जोधा रेगिस्तानी-पत्थर उद्यान इस बात का प्रमाण है कि परंपरागत ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के मेलजोल से कैसे विदेशी प्रजाति के अतिक्रमण से स्थानीय पेड़-पौधों को  बचाया जा सकता है। ७० हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में फैले इस मेहरानगढ़ म्यूजियम के उद्यान में “रहोलाइट” पत्थरों की चपटी चट्टानों के साथ-साथ कुछ रेतीले और गीले क्षेत्र भी हैं।

२००५ में संस्था ने, पहली बार, श्री प्रदीप कृष्ण को मेहरानगढ़ किले के आसपास के इलाके को “हरा-भरा” करने के लिए आमंत्रित किया। श्री प्रदीप कृष्ण प्रसिद्ध पुस्तक “ट्रीज आफ देहली” के लेखक हैं। उन्हें यह तुरन्त समझ में आया कि जैविक विविधता वाला उद्यान बनाने के लिए उन्हें सबसे पहले उद्यान की ज़मीन को पी. जूलीफ्लोरा के अतिक्रमण से पहले की स्थिति में लाना होगा। परन्तु इस विदेशी पेड़ के अतिक्रमण से पहले वहाँ कौन से पेड़-पौधे थे ऐसी कोई ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध नहीं थी। अतः श्री प्रदीप ने “रेस्टोरेशन इकोलॉजी” नामक तकनीक को चुना और तुलना करने के लिए, उसके जैसी जलवायु और मिट्टी वाले क्षेत्र को ढूँढने का प्रयास किया, जहाँ के पेड़-पौधों को स्थानीय माना जा सकता था। परन्तु उन्हें ऐसा कोई स्थान जोधपुर में नहीं मिला क्योंकि वहाँ सभी जगह विदेशी पौधों का अतिक्रमण था। प्रदीप ने देशी रेगिस्तानी पेड़-पौधों के विशेषज्ञ प्रोफेसर एम. भंडारी का सुझाव लिया और अंततः उन्हें ऐसे देशी पौधे थार रेगिस्तान की पथरीली पहाड़ियों में मिले।

Rao Jodha Park, fenced partly by the walls of Mehrangarh Fort
राव जोधा उद्यान का कुछ भाग मेहरानगढ़ किले की दीवारों से घिरा है।

उद्यान में “लितोफाइट्स” नामक विशेष प्रजाति के पेड़ों को लगाया गया है जिन्होंने पथरीले रेगिस्तान के अनुरूप खुद को ढाला है। इन प्रजातियों ने कम नमी, तेज़ धूप और रात-दिन के चरम तापमान-अंतर जैसी दुश्वार परिस्थितियों में भी खुद को ढाला है। इस प्रजाति के पेड़ मोटी पत्तियाँ (नमी संग्रह के लिए), धूप में कम पानी सूखने के लिए मोम-जैसी पत्तियाँ, सूर्य-प्रकाश को परावर्तित करने के लिए पत्तों पर रेशे, पत्तों के स्थान पर तने द्वारा प्रकाश-संश्लेषण, जैसी तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं। इन पेड़ों के बीज लम्बे समय तक ज़मीन में दबे रह सकते हैं और केवल उसी समय अंकुरित होते हैं जब हवा में पर्याप्त नमी होती है।

देशी प्रजाति के पेड़-पौधों को लगाने से पहले श्री प्रदीप को पी. जूलीफ्लोरा के फैले विशाल अतिक्रमण को भी नष्ट करना था। यह पेड़ तने के काटने से पुनः उग आता है इसलिए पेड़ को नष्ट करने का एकमात्र उपाय है – उसे जड़ से उखाड़ फेंकना। जहाँ सख्त आग्नेय पत्थर हों वहाँ पर पेड़ की जड़ का अनुमान लगाना अत्यन्त मुश्किल कार्य है। कई तरीकों और तकनीकों का प्रयोग करने के बाद स्थानीय खदान मजदूर – “खन्द्वालिये” – इस कार्य के लिये कारगर साबित हुए। “खन्द्वाली” ज़मीन के ऊपर पत्थरों को अपने हथौड़े से ठोंकते और उससे पैदा होने वाली ध्वनि  से जड़ों की दिशा और विस्तार का अनुमान लगाते। यह तकनीक बहुत सफल हुई और संस्था ने दस “खन्द्वालियों” की मदद से ७० हेक्टेयर ज़मीन से पी. जूलीफ्लोरा को उखाड़ फेंका।

संस्था को एक और महत्वपूर्ण बात समझ में आई – जिन स्थानों से पी. जूलीफ्लोरा के पेड़ों को उखाड़ा गया था, वे देशी पौधे लगाने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान थे।

उद्यान में मौसमी पौधों के कारण प्रजातियों की कुल संख्या पता करना मुश्किल है, परन्तु एक अनुमान के अनुसार वहाँ पेड़, पौधों और जड़ी-बूटियों की ३०० से अधिक प्रजातियाँ हैं। “सिविट” बिल्लियाँ, सूअर इत्यादि के साथ-साथ “नाईटजार” यूरोपियन “राईनैक” एवं अन्य पक्षी भी वहाँ पाये गए हैं। ये वहाँ के निवासी हैं या यात्री-घुमंतू हैं यह तय कर पाना मुश्किल है क्योंकि उद्यान अभी दस वर्षों से भी कम पुराना है। उद्यान आत्म-निर्भर होगा या नहीं, यह भी अभी कहना मुश्किल है। वर्ष २०१२ में लेखक की यात्रा के समय वहाँ नियमित रूप से देखभाल और नए पेड़ों को लगाने का कार्य चल रहा था।

राव जोधा उद्यान जैसे संरक्षण कार्यक्रमों के लिए यह अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न है – क्या यह उद्यान संरक्षण का ऐसा उदाहरण है जिसे अन्य स्थानों पर भी दोहराया जा सकता है? पहले तो उद्यान की बहाली इस बात का प्रमाण है कि परंपरागत ज्ञान और विज्ञान के बीच की खाई झूठी है। विज्ञान और स्थानीय परिवेश के साथ-साथ “खन्द्वालियों” के लम्बे अनुभव पर आधारित ज्ञान ही पार्क की बहाली और संरक्षण में काम आया। विज्ञान या परंपरागत ज्ञान स्वयं अकेले पर्याप्त नहीं होता। दूसरी बात जिसका अभी तक ज़िक्र नहीं हुआ है – संरक्षण से पहले पार्क की चाहरदीवारी बनायी गयी थी जिससे कि पशु वहाँ चर न सकें। चाहरदीवारी की सुरक्षा के बिना नयी प्रजातियों को स्थापित करना और उन्हें जिंदा रखना असंभव था। इससे एक अहम प्रश्न उठता है – क्या नाज़ुक देशी प्रजातियों के उद्यानों की स्थापना, पशु-पालन से आजीविका कमाने के तरीकों के साथ असंगत है? विशेषतः जब विदेशी प्रजाति के अतिक्रमण की सम्भावना हो? या फिर यह आधुनिक सभ्यता की अक्षमता है जो “निजी-उद्यानों” से परे, इन दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में असमर्थ है?

Thor, an important plant that creates a micro-habitat for other plant species
“थोर” एक महत्वपूर्ण पौधा है जो अन्य प्रजातियों के लिये परिवेश तैयार करता है।

एक मुद्दा “पर्यटन” का भी है जिसके विषय में श्री प्रदीप कृष्ण ने खुद लिखा है, “यहाँ की ज़मीन और पेड़-पौधों में एक ऐसी अद्भुत सुन्दरता है जिसे हरेक पर्यटक को अवश्य अनुभव करना चाहिए (कृष्ण २०१२)। पत्थरों के बीच उगने वाले छोटे-छोटे पौधे, कंटीले “थोर” कैक्टस जिनके लाल फूल अल्पसमय के लिए ही खिलते हैं, शाम की धूप में हवा के साथ घास का बहना और मौसम के साथ बदलती प्राकृतिक छटा अनुभव करने योग्य है। इस अनुभव के लिए न तो बड़ी गाड़ियों की ज़रुरत है और न ही लम्बे टेलीफ़ोटो लेन्से की। परन्तु, आधुनिक संस्कृति और टीवी, दोनों ही, पर्यटन के नाम पर इन्हीं को विशेष महत्व देती हैं। संभवतः यही कारण है कि यह अनुभव अधिकांश पर्यटकों के लिए इतना लुभावना नहीं है।

अब आता है सबसे कठिन और टेढ़ा प्रश्न – क्या इस अनुभव की अन्य क्षेत्रों में पुनरावृत्ति की जा सकती है? भारत में बंजर और सूखी ज़मीन के बहुत बड़े क्षेत्र पर पी. जूलीफ्लोरा ने कब्ज़ा जमाया हुआ है। इसमें उत्तर से लेकर पश्चिम तक के शहर, राजस्थान और कच्छ के रेगिस्तान के साथ-साथ आंध्रप्रदेश भी शामिल हैं, जहाँ १५० वर्ष पूर्व इस पेड़ को पहली बार लगाया गया था। मेहरानगढ़ उद्यान के अतिरिक्त सभी जगह यह पेड़ लोगों के लिए ईंधन का मुख्य स्रोत है। यदि इस प्रजाति के उखाड़ने और देशी प्रजातियों को लगाने पर सर्व-सम्मति बनती भी है तब भी क्या इतने बड़े क्षेत्र में चाहरदीवारी बनाना और इतने सारे मजदूरों की मदद से इन पेड़ों को उखाड़ना संभव होगा? इतने विशाल स्तर पर यह तभी संभव है जब निजी और सार्वजानिक हित एकसाथ मिलकर काम करें।

फिर भी, राव जोधा उद्यान ज़मीन और लोगों में परिवर्तन की एक सुन्दर सम्भावना को दर्शाता है – जिसे सचमुच पत्थरों को तराश कर बनाया गया है।

सन्दर्भ

वाल्टर, के (२००१) प्रोसोपिस, एन एलियन अमंग द सेक्रेड ट्रीज ऑफ़ साउथ इंडिया, अग्रिकल्चर एंड फॉरेस्ट्री, यूनिवर्सिटी ऑफ़ हेलसिंकी.
हर्ष, एल. एन. एंड तिवारी (१९८८), प्रोसोपिस एन द एरिड रीजन्स ऑफ़ इंडिया. सम इम्पोर्टेन्ट आस्पेक्ट्स ऑफ़ रिसर्च एंड डेवलपमेंट. इन: तिवारी, जे. सी., पसिएज़्निक, एन. एम.,
हर्ष, एल. एन. एंड हैरिस पी. जे. सी. (संपादन) प्रोसोपिस स्पीशीज इन द एरिड एंड सेमी-एरिड जोंस ऑफ़ इंडिया. प्रोसोपिस सोसाइटी ऑफ़ इंडिया एंड द हेनरी डबलडे रिसर्च एसोसिएशन, कोवेन्ट्री, यूके.

कृष्ण, पी. (२०१२) हाउ द “मैड वन” टेम्स द डेज़र्ट.

सभी फोटो : विनय नायर

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