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(Jhole mein Library)
रविवार का दिन है। सुबह का समय है। दरी पर रंगबिरंगी किताबें बिखरी हैं। आसपास बच्चों की भीड़ जमा है। कोई किताब पढ़ रहा है, कोई उसे उलट-पलट रहा है, कोई चित्रों में रंग भर रहा है और किसी को मैडम कविता पढ़ कर सुना रही हैं। यह मध्यप्रदेश के हरदा शहर की दूध डेयरी बस्ती का दृश्य है, जहां पिछले कुछ सालों से रविवार को झोला लायब्रेरी चल रही है।
दूध डेयरी बस्ती में अत्यंत निर्धन लोग रहते हैं। इनमें से कोई हाथ ठेला चलाता है, कोई खुली मजदूरी करता है। कोई हम्माली करता है और कोई मिस्त्री का काम। बंजारा समुदाय के लोग भी मजदूरी करते हैं। इस बस्ती की सीलन भरी संकरी गलियों और टाट व पालीथीन से बने झोपड़ों को देखकर यहां की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।
यहां के बच्चे भी अलग-अलग काम-धंधों में संलग्न हैं। कोई होटल पर काम करता है, कोई पन्नी बीनता है, कोई गटर में से कचरा उठाता है तो कुछ मां-बाप के काम में हाथ बंटाता है। लड़कियां सम्पन्न घरों में साफ-सफाई और झाडू-पोंछा का काम करती हैं। लड़कियां घर के छोटे- भाई बहन को भी संभालती हैं। ऐसे में पढ़ाई पीछे छूट जाती है। इन्हीं बच्चों को पढ़ने-लिखने के लिए यह लायब्रेरी शुरू की गई है। इसी तरह श्रीनगर, इमलीपुरा और ऩई आबादी में भी लायब्रेरी चलती है।
यहां लायब्रेरी के लिए न कोई भवन है और न बड़ी-बड़ी कांच की आलमारियों में किताबें कैद हैं। खुले आसमान के नीचे, पेड़ की छांव में दरी बिछी होती हैं। किताबें होती हैं, रंगीन स्कैच पेन व पेंसिल होती हैं। और खेलकूद का सामान और खिलौने भी।
इस लायब्रेरी का नाम है चहक। लायब्रेरी के इस मिशन में एक छोटी सी टीम है। जिनमें दो शिक्षिकाएं शोभा वाजपेयी और सुनीता जैन। पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष व सामाजिक कार्यकर्ता हेमंत टाले और हरदा डाइट में पदस्थ व्याख्याता मनोज जैन। शोभा वाजपेयी, हरदा के पास उड़ा के पास शिक्षक हैं, वहां वे बच्चों की मदद से बरसों से लायब्रेरी चला रही हैं।
शोभा वाजपेयी ने लायब्रेरी के इस काम में इंजन का काम किया। जब रेलगाड़ी में इंजन लग जाता है, तो डिब्बे जुड़ते जाते हैं। अब उनकी टीम में बस्तियों के महिलाएं और छात्राएं भी जुड़ गई हैं। उर्दू के जानकार ताहिर भाई ने बच्चों को साफ-सफाई से लेकर चप्पल पहनने, कंघी करने की समझाइश दी। उर्दू शब्दों के मायने बताते।
बाद में इस काम में हेमंत टाले की बेटी हर्षा, उसकी सहेली कीर्ति जुड़ी। फेसबुक के माध्यम से नई आबादी बस्ती से अफसाना जी जुड़ी और श्रीनगर बस्ती से कृति शर्मा। ये दोनों अब अपनी अपनी बस्ती में लायब्रेरी चलाती हैं। इस लायब्रेरी के संचालकों को कोई मानदेय नहीं मिलता, क्योंकि ये पूरी तरह जन सहयोग से चलती है।
वर्ष 2013 में चहक की शुरूआत हुई। किताबें एकत्र करना शुरू किया। कुछ एकलव्य संस्था से, कुछ दोस्तों से, कुछ अपने घर से किताबें एकत्र कीं और कुछ किताबें खरीदी भी। किताबों की पहचान के लिए उन पर लगाने के लिए “चहक” की सील बनवाई गई , बच्चों के बैठने के लिए दरी खरीदी गई। सुरभि फाउंडेशन, कुछ समाजसेवियों व दोस्तों ने भी मदद दी है। अब तक यह लायब्रेरी चार बस्तियों में फैल चुकी है।
शोभा वाजपेयी बताती हैं कि बाइक पर किताबों का झोला लिए “ मैं निकलती तो उधर अपनी गाड़ी से हमारी मित्र मंडली इमलीपुरा पहुंचती । कभी दरी पर बैठ कर तो कभी आस – पास से कुर्सी मांग कर तो कभी खड़े – खड़े बाइक से सहारा लेकर ही हम लोग किताबें बाँटते। खड़े रहने की स्थिति तब बनती जब उन घरों में कोई नहीं होता या कुछ खास कार्यक्रमों से गहमा-गहमी रहती।
मनोज जैन ने स्थाई समाधान खोजा, चार स्टूल लेकर अपनी वैन में रख लिए। अब हमारी व्यवस्था बढ़िया हो गई । बहुधा मैं और सुनीता बच्चों को व्यवस्थित कर किताबें बांटते, हेमन्त भाई उनके साथ कुछ खेल कूद या गपशप करते और जैन सर किताबों पर बातचीत, फोटो वगैरह लेने आदि में व्यस्त रहते। एक-दो बार चित्रकला का आयोजन हुआ तो उसके बाद बच्चे हमसे काग़ज़ ले जाते और चित्र बनाकर लाते, इन चित्रों को जमा करना भी साथियों का एक काम हो गया।”
यहां सिर्फ स्कूल की तरह सब कुछ शब्दों से ही नहीं सिखाया जाता बल्कि चित्रकला, हाव-भाव के साथ कविता सुनाना, खेल-कूद करवाना और कहानी-कविता का नाट्य रूपांतरण आदि गतिविधियां भी होती हैं। यह लायब्रेरी के साथ गतिविधि केन्द्र भी है।
यह सही है कि बच्चों में किताबों को पढ़ने की रूचि उनकी स्कूली किताबें पढ़ने तक सीमित हो गई है। किताबें समय मांगती हैं। लेकिन किताबों की दुनिया अलग है। जब बच्चे यहां रंग-बिरंगे चित्रों वाली किताबें पढ़ते हैं। कहानी और कविता पढ़ते हैं, उनके हाव-भाव देखते ही बनते हैं। दिल उछल जाता है। वे कहानी और कविताओं के माध्यम से एक अलग दुनिया की सैर करते दीखते हैं।
इस छोटे कस्बे में जहां बस्तियों में सार्वजनिक स्थान नहीं है, वहां मिलने-जुलने और विचारों के आदान-प्रदान का मंच है। यहां बैठकर विभिन्न विषयों पर बात करते हैं। देश-दुनिया व ज्ञान-विज्ञान की दुनिया से रू ब रू होते हैं। वे अपने सवालों के जवाब खोजते हैं।
दूध डेयरी बस्ती की रानी, सिया और मुस्कान कहती हैं कि हमें स्कूल की किताबें अच्छी नहीं लगती, लायब्रेरी की किताबों में मजा आता है। हम यहां खेलकूद भी करते हैं। इस लायब्रेरी से बड़ी लड़कियां भी जुड़ी हैं, वे भाई बहन जो किताबें घर ले जाते हैं, उन्हें पढ़ती हैं।
इस पहल में एक नया आयाम तब जुड़ा तब एक और शिक्षिका मालती पालीवाल ने इन बच्चों के लिए नए-नए कपड़े सिलकर देना शुरू कर दिया। और यह भी जन सहयोग से ही। अपने और आस-पास के घरों में जो नए कपड़े हैं और जो इस्तेमाल नहीं में आ रहे हैं, उन्हें एकत्र कर बच्चों के लिए खासकर लड़कियों के लिए कपड़े फ्रॉक, स्कर्ट, टॉप आदि बनवाना और बच्चों में बांटना। वे सालों से ऐसा कर रही हैं, लेकिन अब लायब्रेरी के बच्चों के लिए भी कपड़े सिलकर देती हैं।
कुल मिलाकर, इस पूरी पहल से बच्चे एक-दूसरे से सीख रहे हैं, किताबों की दुनिया से परिचित हो रहे हैं, चित्र बनाना सीख रहे हैं, उनमें रंग भर रहे हैं, पढ़ना-लिखना सीख रहे हैं, बच्चों में पढ़ने के प्रति रूचि बढ़ी है। और लायब्रेरी के रूप में ऐसा स्थान उपलब्ध हुआ है जहां वे एक साथ बैठ सकते हैं, खेल सकते हैं, कुछ सृजन कर सकते हैं। कभी-कभी किताबों पर भी चर्चा कर सकते हैं। ऐसा स्थान लायब्रेरी के पहले उपलब्ध नहीं था। यही इस लायब्रेरी की उपयोगिता है। यह सराहनीय होने के साथ साथ अनुकरणीय पहल भी है।
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