कचरे से खिलौने बनाकर विज्ञान पढ़ाना (In Hindi)

By बाबा मायारामonAug. 21, 2024in Learning and Education

(Kachre Se Khilona Banakar Vigyaan Padhana)

बच्चों को हाथ से काम करना चाहिए, तरह-तरह के कौशल सीखने चाहिए

बच्चों को हाथ से काम करना चाहिए, तरह-तरह के कौशल सीखने चाहिए। इससे पढ़ाई मजेदार हो जाएगी। उनका मानना है कि बच्चों को माता-पिता सभी प्रकार की गतिविधियां करने और उन्हें रूचि के स्थानों पर ले जाने में अधिक समय बिताना चाहिए और उन्हें घरेलू कामों खाना बनाना, मरम्मत करना और खरीदारी इत्यादि में शामिल करना चाहिए, जिससे वे जीवन शिक्षा भी सीख सकें। वे कहते हैं कि आप केवल मूर्खतापूर्ण खिलौने ही खरीद सकते हैं, चतुर खिलौने हाथों से बनाएं जाते हैं।

इन दिनों बच्चों की परीक्षाएं चल रही हैं। कुछ परीक्षाओं के नतीजे भी आ गए हैं। परीक्षा में अच्छे परिणाम नहीं आने से बच्चों के तनावग्रस्त होने व परेशान होने की खबरें भी आई हैं। यह हर साल की बात है। लेकिन मैं आज ऐसी हस्ती के बारे में बताने जा रहा हूं, जिसने विज्ञान व गणित को मजे से सिखाने की कोशिश की है। यही वे विषय हैं, जिनमें बच्चे प्राय: पिछड़ जाते हैं।

कुछ समय पहले मैं महाराष्ट्र के पुणे में था। यहां मेरी रूचि अरविंद गुप्ता से मिलने में थी और उनसे मैंने मिलना भी सुनिश्चित कर लिया था। टॉय मेकर के नाम से ख्यात अरविंद गुप्ता ने विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्हें भारत सरकार ने साल 2018 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया है। 
जब मैं उनके पुणे स्थित निवास पर पहुंचा तो उस समय बारिश हो रही थी। वे सड़क तक छाता लेकर मुझे लेने के लिए आए थे। यह पहली बार नहीं था, जब मैं उनसे मिलने जा रहा था। हम पहले भी कई बार मिल चुके हैं, लेकिन इसे सालों गुजर गए।

यह 80 के दशक की बात है, जब वे मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ( अब नर्मदापुरम) जिले में स्थित किशोर भारती संस्था में माध्यमिक स्तर के बच्चों के लिए विज्ञान की नई किताबें तैयार करने में जुटे थे। किशोर भारती ने होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम चलाया था, जिसके तहत् शासकीय माध्यमिक स्कूलों के लिए विज्ञान की किताबें बनाई जा रही थीं। कक्षा 6 वीं से लेकर 8 वीं तक पाठ्यक्रम तैयार किया जा रहा है। इन किताबों के पिछले पृष्ठ पर लिखा रहता था- मैंने सुना, भूल गया, मैंने देखा, याद रहा, मैंने करके देखा, समझ गया। यह विज्ञान शिक्षण की सीख थी।

लेकिन इस बीच मेरा उनसे संपर्क बना रहा। पहले पत्राचार के माध्यम से कभी-कभार और जब ईमेल आया तो नियमित संपर्क होने लगा। उन्होंने मुझे बहुत सारी किताबें पढ़ने दीं और नए व प्रेरणादायक साहित्य से परिचय करवाया। उनका एक काम, हर महीने देश-विदेश के अच्छे बाल साहित्य का अनुवाद करना भी है।

अरविन्द गुप्ता ने कानपुर आईआईटी से इंजीनियरिंग से बी टेक किया है। शुरू में उन्होंने पुणे में टाटा मोटर्स में काम किया, लेकिन वहां उनका मन नहीं लगा। कुछ समय उन्होंने ब्रिटिश मूल के वास्तुकार लॉरी बेकर के साथ भी काम किया। लॉरी बेकर महात्मा गांधी से प्रभावित होकर भारत में बस गए थे और उन्होंने घर बनाने के लिए सस्ती स्थानीय सामग्री को बढ़ावा दिया और टिकाऊ घर बनाए।

साल 1978 में अरविंद गुप्ता होशंगाबाद जिले के एक गांव में आए, जहां किशोर भारती संस्था के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़कर उन्होंने काम किया। इस दौरान उन्होंने विज्ञान के कई प्रयोग किए। किशोर भारती से पास से 7 किलोमीटर दूर एक छोटा कस्बा बनखेड़ी है। वहां शुक्रवार को साप्ताहिक हाट लगता है। सड़क के किनारे फुटपाथ पर दुकानें लगती हैं। वहां से वे छोटी-मोटी सस्ती चीजें खरीदकर लाते थे और उनसे खिलौने बनाते थे और उसके पीछे के विज्ञान को बच्चों को समझाते थे। 
साइकिल के पहिए में लगने वाली वाल्व ट्यूब, माचिस की तीली, कचरे में पड़ा वायर या बोतल, झाडू की सींक जैसे सामानों से वे खिलौने बनाते थे। उन्हें इस काम में टेल्को में ट्रक डिजाइन करने से ज्यादा मजा आया।

हमारे देश में खिलौने बनाने की पुरानी परंपरा रही है। परंपरागत खिलौने फेंकी हुई वस्तुओं को दुबारा इस्तेमाल करके बनते हैं, इसलिए वे सस्ते व पर्यावरण मित्र भी होते हैं। इसके साथ, खिलौनों में विज्ञान के कई सिद्धांत छिपे होते हैं और जिन्हें बच्चे खेल-खेल में बहुत सहजता से सीख सकते हैं। और इससे कई गरीब बच्चों का बचपन खिलौनों से महरूम होने से भी बच जाता है।

अरविंद बच्चों के लिए सीखने को मनोरंजक बनाने पर जोर देते हैं। इसका उद्देश्य सिर्फ खेल ही नहीं है, कु छ सीखना भी है, समझ बनाना भी है। समझ जब बनती है तब बच्चे अपनी सीख को जीवन के व्यापक सामाजिक संदर्भ से जोड़ने में सक्षम होते हैं। तब सीखना जादुई हो जाता है।

वे मानते हैं कि बच्चों को हाथ से काम करना चाहिए, तरह-तरह के कौशल सीखने चाहिए। इससे पढ़ाई मजेदार हो जाएगी। उनका मानना है कि बच्चों को माता-पिता सभी प्रकार की गतिविधियां करने और उन्हें रूचि के स्थानों पर ले जाने में अधिक समय बिताना चाहिए और उन्हें घरेलू कामों खाना बनाना, मरम्मत करना और खरीदारी इत्यादि में शामिल करना चाहिए, जिससे वे जीवन शिक्षा भी सीख सकें।

वे कहते हैं कि आप केवल मूर्खतापूर्ण खिलौने ही खरीद सकते हैं, चतुर खिलौने हाथों से बनाएं जाते हैं। यानी बच्चे खुद अच्छे खिलौने बना सकते हैं। वे कहते हैं जब बच्चे विज्ञान के प्रयोग करते हैं तो उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती हैं।

उनका पसंदीदा एक खिलौना इलेक्ट्रिक मोटर है, जिसे उन्होंने कई साल पहले बनाया था। वे याद करते हैं कि जब उन्होंने इसे पहली बार बनाया था, तो बहुत रोमांच था। लगभग एक पखवाड़े तक वे आधी रात को उठते थे और सोने से पहले कुछ मिनटों के लिए मोटर चलाते थे।

अरविंद गुप्ता कहते हैं कि किसी बात को समझने के लिए पहले बच्चों को अनुभव की जरूरत होती है। अनुभव में चीजों को देखना, सुनना, छूना, चखना, सूंघना आदि कुशलताएं शामिल हैं। वे हमेशा ठोका-पीटी कर-करके कुछ बनाते रहते हैं। जबकि हमारी शिक्षा व्यवस्था को रटना सिखाती है, उसमें सोचने और समझने की गुंजाइश कम है।

वे बताते हैं कि कुछ समय के लिए वे छत्तीसगढ़ में लोहे की खदानों के बीच काम करने वाले मजदूरों के बीच गए थे। वहां लोहा पत्थर ढोने के लिए डम्पर ट्रक चलते थे। वहां के बच्चे दो माचिस की डिब्बियों की मदद से वह डम्पर ट्रक बनाकर खेल रहे थे। उसमें लीवर का काम करने के लिए तीली का इस्तेमाल किया गया था। इसे देखकर अरविन्द जी आश्चर्यचकित हुए और उन्होंने इसे अपनी खिलौनों की सूची में ‘माचिस का ‘डम्पर ट्रकÓ शामिल कर लिए।

इन सब प्रयोगों पर आधारित उन्होंने वर्ष 1984 में मैचिस्टिक माडल एंड अदर साइंस एक्सपेरीमेंटस बुक लिखी। अब यह किताब 12 भाषाओं में है। इसके बाद उन्होंने 25 किताबें और लिखीं। इसके बाद वे पुणे में आयुका (द इंटर- यूनिवर्सिटी सेंटर फार एस्ट्रोनामी एंज एस्ट्रोफिजिक्स, पुणे) में बाल-विज्ञान केंद्र के को-आर्डिनेटर बने। वहां हर दिन वे नए-नए खिलौने बनाते थे, फिर उनकी वीडियो बनाते थे।

साल 1990 में दूरदर्शन पर तरंग कार्यक्रम शुरू हुआ था। यह रोज आधा घंटे का कार्यक्रम होता था। उस समय केवल दूरदर्शन ही हुआ करता था। अन्य कोई टीवी चैनल नहीं था। इस कार्यक्रम को काफी पसंद किया जाता था। उन्होंने मुझे बताया कि आज ही उन्हें उन लोगों के पत्र मिलते हैं, जो तरंग देखकर बड़े हुए हैं। उन्होंने तरंग के लिए 125 प्रोग्राम बनाए। इस कार्यक्रम में वाल्व ट्यूब और माचिस की तीलियों वाला कार्यक्रम सौ बार दिखाया गया, जिससे दूरदराज के गांवों तक यह बात पहुंची।
अरविन्द गुप्ता कहते हैं कि मेरी जिंदगी का एक ही मकसद है कि मैं न केवल देश बल्कि पूरी दुनिया के बच्चों को किताबें, वीडियो, मेरे बनाए खिलौनों को बनाना सीखने के तरीके मुफ्त में उपलब्ध कर सकू्ं, ताकि ज्ञान पाने के रास्ते में गरीबी या संसाधनों की कमी आड़े न आए।

उनकी वेबसाइट ड्डह्म्1द्बठ्ठस्रद्दह्वश्चह्लड्डह्लश4ह्य.ष्शद्व कई भाषाओं पर कई भाषाओं में हजारों ईबुक हैं। वीडियो फिल्में हैं, जिन्हें अब तक 10 करोड़ लोग देख चुके हैं, रोजाना 7000 हजार किताबें डाउनलोड होती हैं। इस वेबसाइट पर उनके द्वारा अनुवादित किताबें हैं। देश-दुनिया का उत्कृष्ट व प्रेरणादायी साहित्य हैं। विशेषकर बाल साहित्य उपलब्ध है। देश में जहां सार्वजनिक पुस्तकालय न के बराबर हैं, वहां इस प्रकार की वेबसाइट लोगों के बहुत काम आती हैं।

अरविंद गुप्ता ने देश के विख्यात वैज्ञानिक प्रो.यशपाल व जयंत नार्लीकर के साथ भी काम किया है। वे बताते हैं कि जब प्रो. यशपाल जब विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग के सचिव थे, तब उन्होंने अरविंद गुप्ता को किताब लिखने के लिए फैलोशिप दी थी। जयंत नार्लीकर तो उन्हें पुणे स्थित आयुका (द इंटर- यूनिवर्सिटी सेंटर फार एस्ट्रोनामी एंज एस्ट्रोफिजिक्स, पुणे) में बाल-विज्ञान केंद्र में लेकर आए थे।

कुल मिलाकर, अरविंद गुप्ता, एक खिलौना अन्वेषक है, शिक्षक हैं, इंजीनियर हैं, वैज्ञानिक हैं, और पुस्तकप्रेमी हैं। अच्छे अनुवादक हैं और धुन के पक्के निष्काम कर्मयोगी हैं। उन्होंने प्रचलित शिक्षा व्यवस्था से अलहदा पढ़ने-लिखने व हाथ से प्रयोग करने का नजरिया दिया है। क्या हम बच्चों को ऐसी शिक्षा देने के लिए तैयार हैं, जिसमें बस्ते का बोझ भी न हो और बच्चों की अच्छी समझ बने। खेल-खेल में विज्ञान व गणित के सिद्धांत भी समझ सकें?

सबसे पहले देशबन्धु द्वारा प्रकाशित, 04 मई 2024.

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