विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)
(Jungle aur Nadi Kaise Bachate Hai Bhariya)
फोटो क्रेडिट – नरेश विश्वास और बाबा मायाराम
भारिया आदिवासियों का जंगल व नदी बचाने का अपना तरीका है, वे जंगल की कटाई-छंटाई और नदी की साफ करते हैं, बल्कि उन्होंने पीढ़ियों से देसी पौष्टिक अनाज भी बचाए हैं
“जंगल हमारा माई-बाप है, उसे हम बचाकर रखते आए हैं और आगे भी रखेंगे। यह हमारे आजा-पुरखा की पहचान है, विरासत है। अगर जंगल रहेगा तो पेड़-पौधे रहेंगे व शुद्ध खाना, शुद्ध पानी और शुद्ध हवा मिलेगी। आदिवासी को काम की तलाश में बाहर भटकना नहीं पड़ेगा। जंगल और नदियों को गांव के लोग सामूहिक रूप से बचाते आए हैं, इनमें हमारे देवी-देवता हैं, यह जीवन का आधार हैं।” – पातालकोट के गैलडुब्बा गांव के भगलू चलथिया उत्साह से यह बाते बताते हैं।
मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले की तामिया तहसील में आने वाला पातालकोट, सतपुड़ा की पहाड़ियों के बीच स्थित है। पाताल की तरह गहराई वाली जगह और कोट यानी दुर्ग, दीवारों से घिरा हुआ है पातालकोट। यहाँ दीवार का अर्थ पहाड़ों से घिरा हुआ है और इसी गहराई में बसे हुए हैं 12 गांव और उनके ढाने यानी मोहल्ले।
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मुख्यतः गोंड और भारिया आदिवासी यहाँ रहते हैं, जो पीढ़ियों से परंपरागत देसी बीजों के साथ खेती करते आ रहे हैं। लेकिन अब धीरे-धीरे परंपरागत बीज लुप्त होने के कगार पर हैं। तकरीबन, तीन साल पहले निर्माण संस्था ने देसी बीज बचाने की कोशिश शुरू की थी और अब उनकी मेहनत रंग लाने लगी है। इन प्रयासों से आदिवासियों के परंपरागत स्वशासन व्यवस्था भी मजबूत हुई है।
हाल ही में निर्माण संस्था द्वारा 26 मार्च को पातालकोट के चिमटीपुर गांव में जैव विविधता प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। मुझे इस प्रदर्शनी में जाने का मौका मिला। पिपरिया से करीब 125 किलोमीटर दूर स्थित है सतपुड़ा की घाटी और उन्हीं घाटियों के बीच है पातालकोट। महादेव की पहाड़ियां दक्षिण में हैं, जबकि दूसरी तरफ पातालकोट नीचे की ओर स्थित है।
उस रोज़ सुबह के समय, मौसम बहुत ही सुहाना था। पेड़ों में नए पत्ते दिख रहे थे और हवा में महुआ के फूलों की खुशबू थी। यह महुआ फूल के गिरने का मौसम था। जब हम पातालकोट के गाँवों से गुज़र रहे थे तो लोगों के आंगन में महुआ फूल सूख रहे थे। महुआ आदिवासियों के भोजन का हिस्सा रहा है। ऊंचे-नीचे पहाड़. आड़ी-तिरछी घाटियां थीं और हरा-भरा जंगल था।
इस जैव विविधता प्रदर्शनी में आदिवासियों ने उनके पारंपरिक अनाजों, उनसे बने व्यंजनों व जंगल से मिलनेवाले कंद-मूल और जड़ी-बूटियों को सजाया था। इस मौके पर दूर-दूर गांवों से आदिवासी पैदल चलकर यहां पहुंचे थे, जिनके भोजन की व्यवस्था भी की गई थी। प्रदर्शनी में आदिवासियों ने नृत्य व गीतों की प्रस्तुति की।
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इस जैव-विविधता प्रदर्शनी में कई तरह के अनाज जैसे तुअर दाल, डोंगरा सावां, भदेली, बेउरी, कोदो, मडिया, करिया कंगनी, कुसमुसी,जगनी, ज्वार, सिकिया, रजगिरा, बाजरा, काली कुरथी, दूधिया मक्का थे। इसके अलावा, बल्लर, बरबटी, लौकी, गिलकी, लाल सेमी इत्यादि के बीज शामिल थे। इन अनाजों से कई तरह के व्यंजन बनाकर भी टेबल पर सजाए गए थे। जैसे कुटकी पापड़, सावां चटली, कोदो पापड़ी, मड़िया पापड़ी, मड़िया सेव, कोदो चाटला, बाजरा के बड़े, महुआ हलवा, सावां के लड्डू, कोदो के लड्डू, ज्वार के लड्डू, महुआ का भुरका, कोदो पुलाव, कुटकी खीर, सावां की खिचड़ी, ज्वार का भात, मड़िया का हलवा इत्यादि।
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इसके अलावा, केवकंद, जटाशंकर, जंगली अदरक, हतपन, वन सिंगाड़ा, गुडमेल, गटेरन, चिरायता, विदारी कंद, गट्टालू, सतावरी, मूसली, भूतकेसर, लक्ष्मण कंद, सुआरू, बीजासार, सफेद मूसली,बिरल मूल,ब्रम्हनी, बड़ी क्योच, पाटल, रेला, बराईकंद, हर्रा, बहेड़ा, आंवला जैसे कई तरह के कंद-मूल भी रखे गए थे।
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गैलडुब्बा गांव की लक्ष्मी बाई और हर्राकछार गांव की प्रेमवती और समिता ने बतलाया कि, “यहां की ज़मीन पथरीली है, इसलिए इसमें कुटकी, सांवा, मक्का, बाजरा और कांग की फसल होती हैं। हम मक्का और ज्वारी का भात पकाकर खाते हैं। कम-ज्यादा बारिश होने पर भी फसलें पक जाती हैं। हम पीढ़ियों से ऐसी पारंपरिक खेती करते आ रही हैं।” वे आगे कहती हैं कि इस जमीन में हमारे पुरखों के बीज ही काम आते हैं। यह अनाज कम पानी में भी पक जाते हैं। महिलाएं इस खेती में अपनी भागीदारी निभाती हैं, बीज बोने से लेकर, निंदाई-गुड़ाई-कटाई तक और बाद में बीजों को संभालने का काम करती हैं। परिवार के सदस्यों को भोजन पकाकर भी देती हैं।
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रातेड़ गांव के मुन्नालाल डाडोलिया पारंपरिक खेती के बारे में विस्तार से बताते हैं, “पीढ़ियों से हम इन्हीं बीजों को बोते आ रहे हैं और फसल काटते हैं। इन बीजों को सुरक्षित रखने का तरीका भी परंपरागत है। हम पत्तल पुटकी बनाकर उसमें अनाज रखते हैं, इसमें कीड़ा या घुन नहीं लगता है। पुटकी, माहुल के पत्तों से बनती है।” वे बताते हैं कि मक्का जितना बौना होता है, उतना ज्यादा पकता है, दाना भरा होता है, फसल अच्छी होती है। खेत में एक साथ मिलवां (मिश्रित) फसलें बोते हैं। मक्का, बल्लर, कुटकी, कोदो, तुअर, ज्वार, बाजरा, कुसमुसी और उड़द बोते हैं और इन फसलों में किसी भी तरह का रासायनिक खाद व कीटनाशक का इस्तेमाल नहीं होता है।
गैलडुब्बा गांव के भगलू चलथिया बताते हैं कि आदिवासियों का जीवन जंगल और खेती पर निर्भर है। होली के आसपास महुआ की बिनाई 15 दिन तक चलती है। इसके बाद, चिरौंजी भी एक पखवाड़े तक बीनते हैं। जब 15 जून के आसपास बारिश आ जाती है तो खेती-किसानी शुरू हो जाती है। खेतों की जुताई, बौनी-बखरनी होती है। दिवाली के समय फसलों की निंदाई-गुड़ाई करनी पड़ती है।
“आदिवासी जंगल को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाते। जिस तरह बच्चों की परवरिश जतन से करनी पड़ती है, उसी तरह पेड़ों की और जंगल की परवरिश करनी पड़ती है। हम समय-समय पर पेड़ों की कटाई-छंटाई करते रहते हैं। उनकी आड़ी-टेढ़ी टहनियां काटनी पड़ती हैं। पेड़ों के नीचे बीजों से जो पौधे बनते हैं, उनकी देखरेख करनी पड़ती हैं। जिनके बीज से पौधे उगते हैं, उनके बीज जंगल में फेंकते हैं, जिससे वे बारिश में अंकुरित हों, और फले-फूले।”
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वे आगे बतलाते हैं कि इसी प्रकार, पानी के स्रोतों व नदियों की भी साफ-सफाई चलती रहती हैं। यहां पनिया झरना है, उसकी नियमित सामूहिक रूप से साफ-सफाई करनी होती है। इनके किनारे के पेड़-पौधों व झाड़ियों की देखरेख करनी होती है। यह पेड़-पौधे व झाड़ियां पानीदार होते हैं, जिससे नदी में पानी बहता रहता है, वह सदानीरा बनी रहती है। डोंगर (पहाड़) से दुधी और गायनी नदी निकली हैं। दुधी, नर्मदा की सहायक नदियों में से एक है। हालांकि कई कारणों से अब यह बारहमासी नदियां सूखने लगी है, और बरसाती नदी बन गई है।
भगलू चलथिया के अनुसार, “अगर जंगल रहेगा तो आदिवासी भी रहेगा, अगर जंगल कट जाएगा तो आदिवासी भी जंगल के आसपास नहीं रह पाएगा, वह कैसे जियेगा?” इसलिए उनके बुजुर्ग कहते हैं कि जंगल को कभी काटना नहीं है। उन्होंने बताया कि जंगल को आग से बचाने के लिए कोशिश की जाती है। गर्मी के दिनों में आग की घटनाएं ज्यादा होने लगती हैं इसलिए महुआ फूल बीनने के लिए उसके नीचे के पत्तों को एक जगह एकत्र करके जलाते हैं, जिससे जंगल में आग न लगे, न फैले। अगर आग लग भी जाती है तो वे भी आग बुझाने में मदद करते हैं।
उन्होंने बताया कि “जंगल से हमारा मां-बेटे का रिश्ता है.. जितनी जरूरत है उतना ही जंगल से लेते हैं। नई पीढ़ी को भी जंगल बचाकर रखना है।” हमें पेड़ों की छांव चाहिए, अच्छी हवा चाहिए, पानी चाहिए, पेड़ रहेंगे तो पानी भी मिलेगा। जंगल से खाने के लिए पौष्टिक कंद-मूल, हरी भाजियां व फल-फूल मिलते हैं। पातालकोट में तो अब भी वन कलेवा (जंगल के कांदा व फल का नाश्ता) करने का चलन है।
निर्माण संस्था के कार्यकर्ता व पातालकोट के निवासी ज्ञान शाह व लक्ष्मण अहके ने बताया कि गांव में किसी भी तरह का विवाद या झगड़ा होने पर गांव में ही सुलझा लिया जाता है। इसके लिए गांव के बड़े-बुज़ुर्ग पारंपरिक पंचायती बैठक करते हैं, और उसमें दोनों पक्षों की बात सुनकर मामले का समाधान करते हैं। कई बार ऐसी पंचायती में बहस व गरमा-गरम बातचीत होती है। लेकिन आखिर में यहां कोशिश होती है कि कोई सुलह, समझौता और एक सलाह बन जाए, और मामले का समाधान निकल जाए। और अगर किसी एक पक्ष की गलती दिखती है, तो उस पर दंड स्वरूप जुर्माना लिया जाता है। और वह भी बहुत ही मामूली होता है। अगर कोई बार-बार गलती करता है तो उस पर ज्यादा भी जुर्माना लगाया जाता है। इसी प्रकार, जंगल से गीली लकड़ी काटने पर भी जुर्माना लगाया जाता है। इस तरह, गांव-समाज में ही विवाद या झगड़े का निपटाने तरीका है। यानी यह तरीका काफी लोकतांत्रिक भी है, जिसमें सभी संबंधित पक्षों की बात को सुनकर आपस में गांव-समाज में विवादों को सुलझाकर गांव-समाज में भाईचारा कायम रखा जाता है। इन परंपरागत पंचायती में महिलाएं भी बैठती हैं, और उनकी राय-सलाह भी ली जाती है।
उन्होंने इसका एक उदाहरण बताया कि जंगल में गांववालों ने आंवला व चिरौंजी के पेड़ों का आपस में मोटा-मोटी बंटवारा कर लिया है, जिससे झगड़े की स्थिति ही न आए। वे अधिकांश काम आपस में मिल-जुलकर करते हैं। यह पारंपरिक पंचायती व्यवस्था के कारण ही संभव हो पाता है।
निर्माण संस्था के नरेश विश्वास ने बताया कि पहले पातालकोट में बहुत गिद्ध हुआ करते थे। यह गिद्धों का घर माना जाता था। कोई मवेशी मर जाता था, तो गिद्ध खा जाते थे। स्वच्छ व साफ-सुथरा वातावरण करने का यह प्राकृतिक तरीका था। अगर पातालकोट के आदिवासियों को वन अधिकार कानून के तहत् पर्यावास अधिकार मिलेगा तो वे गिद्धों की संख्या बढ़ाने की कोशिश करेंगे। पर्यावास अधिकार के लिए आदिवासी मांग करते आ रहे हैं।
उन्होंने बताया कि जलवायु बदलाव के दौर में परंपरागत पौष्टिक अनाजों की खेती बहुत उपयोगी हो गई है। इनमें कम पानी व प्रतिकूल मौसम में पकने की क्षमता होती है। देसी बीजों की खेती स्वावलंबी होती है और इसमें कम मेहनत भी लगती है। किसी भी तरह के रासायनिक खाद व कीटनाशक की जरूरत नहीं पड़ती है। इसमें किसी भी तरह की मशीन जैसे ट्रेक्टर आदि का इस्तेमाल भी नहीं होता, किसी तरह का प्रदूषण नहीं होता। यानी इसमें पर्यावरण की सुरक्षा भी होती है, यह खेती टिकाऊ है, यह पूरी तरह जैविक व पौष्टिक अनाजों की खेती है। लागत खर्च नहीं के बराबर है। अगर इसमें उत्पादन कम भी हो जाए तो भी किसान को घाटा नहीं होता। इस खेती से जमीन का उर्वरता बनी रहती है।
कुल मिलाकर, यह कहना उचित होगा कि पारंपरिक स्वावलंबी खेती के साथ आदिवासियों ने परंपरागत ज्ञान को भी बचाया है। अपनी पारंपरिक व्यवस्था को कायम रखकर प्रकृति की पूजा और प्रकृति के संरक्षण व संवर्धन का उनका अपना तरीका है, इससे पर्यावरण की रक्षा भी होती है। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन के दौर में परंपरागत बीजों की खेती महत्वपूर्ण है। नई पीढ़ी के लिए विरासत है, जिसे सहेजा जा रहा है। और यह सब वे आपस में एकजुटता, सामूहिकता और एक-दूसरे की मदद से कर पाने में सक्षम हैं। आपस में अपने विवाद व झगड़े सुलझाने की पारंपरिक पंचायती जैसी व्यवस्थाएं अब भी मौजूद हैं, जिससे सीखा जा सकता है। ऐसे समय में जब बाजार व्यवस्था चहुँओर हावी है, भारिया आदिवासियों की जीवनशैली, पारंपरिक व्यवस्था व स्वावलंबिता काफी सराहनीय और अनुकरणीय है।