(Jansadharan ke ubharte vikalp aur uska sapna)
विकल्प संगम के लिए विशेष रूप से लिखा गया

“हमारे यहां चरखे से कताई, हथकरघे से बुनाई और कपड़े की रंगाई से लेकर डिजाइन और बिक्री तक सभी काम होते हैं। गांधी की नई तालीम से प्रेरणा लेकर बच्चों को हाथ के काम के साथ शिक्षा देते हैं। इसमें पारंपरिक हस्तशिल्प सिखाने के साथ सांस्कृतिक विरासत से उन्हें जोड़ना, प्रकृति के साथ सहअस्तित्व रखना और जीवन मूल्यों को अपनाना सिखाया जाता है।” यह गुजरात के कच्छ जिले की खमीर संस्था के घटित लेहरू थे।
कच्छ जिले के भुज में 21 से 24 नवंबर को विकल्प संगम की 10 वीं वर्षगांठ पर राष्ट्रीय स्तर की सभा आयोजित की गई थी। इस सभा में देश के अलग- अलग कोनों से आए करीब 130 लोगों ने हिस्सा लिया। विकल्प संगम, एक राष्ट्रीय स्तर का मंच है, जिसमें पर्यावरण, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और स्वशासन संबंधी मुद्दों पर काम करने वाले स्थानीय समुदायों, सामाजिक आंदोलनों और कई गैर सरकारी संगठन जुड़े हैं।
राष्ट्रीय विकल्प संगम की सभा का आयोजन स्थानीय खमीर संस्था के परिसर में हुआ। यहां का वातावरण खुला था, आसपास पेड़-पौधे और पक्षी थे। परिसर में चरखे की कताई और हथकरघे की बुनाई हो रही थी। तरह-तरह के मिट्टी के बर्तन बनाए जा रहे थे। खादी के कपड़ों की खरीद-बिक्री हो रही थी। यहां का बहुत ही मनमोहक दृश्य था।
ऐसे माहौल के बीच रंग-बिरंगे टेंट में संगम की बैठक चल रही थी। कार्यक्रम की शुरूआत में प्रतिभागी उनके इलाकों से लाई गई विशेष चीजों का परिचय दे रहे थे। यह भारत की विविधता की झलक थी। यहां बातचीत मूल रूप से हिन्दी व अंग्रेजी में चल रही थी। पर साथ ही स्थानीय भाषाओं में भी लोग उनकी बातें रख रहे थे। यहां बोलने की जल्दी नहीं थी, बल्कि सुनने का धीरज दिखाई दे रहा था।

संगम में अधिकांश प्रतिभागी जमीनी स्तर के समाधानों में शामिल समूहों से आए थे। आमतौर पर ऐसी अनसुनी आवाजें निर्णय लेने वाले स्थानों में प्रवेश नहीं करती हैं। उन्होंने उन आर्थिक नीतियों और सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं पर चर्चा की, जो इन समाधानों को और अधिक व्यापक बना सकती हैं। उन्होंने विकल्प संगम प्रक्रिया के लिए भविष्य की रणनीतियों और कार्रवाइयों पर भी चर्चा की, जिसमें जमीनी स्तर की पहलों का अधिक दस्तावेजीकरण करना शामिल है। इसके साथ एक दूसरे से अनुभव साझा करने के कार्यक्रम करना, और समुदायों को अपने निर्णय लेने की क्षमता बनाने में मदद करना शामिल है।
आगे बढ़ने से पहले संक्षिप्त रूप में इस इलाके का परिचय देना उचित होगा। कच्छ ,गुजरात का सबसे बड़ा जिला है। इसका मुख्यालय भुज में है। यहां नमक का खारा रेगिस्तान है, जिसे कच्छ का रण कहा जाता है, इसे देखने लोगों की भीड़ उमड़ती है। लवणीय दलदली भूमि और लम्बे घास के मैदान भी हैं। बारिश में जब पानी भर जाता है तो यह द्वीप की तरह बन जाता है। ऐसा माना जाता है कि भौगोलिक रूप में यह क्षेत्र कछुआ के आकार का है, इसलिए इसे कच्छ कहते हैं।
यहां यह बताना उचित होगा कि विकल्प संगम ने अब तक विषयगत और क्षेत्रीय दोनों तरह से लगभग तीस संगम आयोजित किए हैं। ये सभाएं उन विकल्पों की विविधता पर चर्चा करने के लिए मंच उपलब्ध करवा रही हैं। संगम प्रक्रिया ने सहयोगी घटकों के बीच मंथन, सहयोग, अंतर-क्षेत्रीय शिक्षा और दीर्घकालिक कार्य को सक्षम बनाया है। विकल्प संगम के सदस्यों का मानना है कि इस प्रक्रिया में, इसके उद्देश्यों और इसकी भविष्य की योजनाओं का गंभीर मूल्यांकन करना महत्वपूर्ण है। साथ ही एक-दूसरे के काम का जश्न भी मनाना महत्वपूर्ण है। एक दशक पूरे होने पर यह जश्न मनाने का मौका था, और इस प्रक्रिया की समीक्षा करने का भी।

विकल्प संगम की सृष्टि वाजपेयी ने बताया कि विकल्प संगम की शुरूआत साल 2014 में हुई थी। उन्होंने कहा संघर्ष तो हमारी जिंदगी की सच्चाई बन चुके हैं, यह बहुत जरूरी हैं, लेकिन संगम में हम विकल्पों पर जोर देते हैं। विशेषकर, इसमें निर्माण और संघर्ष के साथ विकल्प गढ़ने में लगे लोगों, समुदायों, संगठनों व संस्थाओं को साथ लाने की कोशिश है।
वे आगे बताती हैं कि यह ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें क्षेत्रीय और मुद्दों पर भारत के अलग-अलग कोनों में गोष्ठियां होती हैं। इनमें विकल्पों पर समुदाय, व्यक्ति, समूह और संस्थाएं का काम कर रही हैं, उनके अनुभव सुने-समझे जाते हैं और एक दूसरे से सीखा जाता है। इसके माध्यम से आपस में विचारों का आदान-प्रदान करने, गठजोड़ मजबूत करने और मिल-जुलकर बेहतर भविष्य बनाने की कोशिश की जाती है। इसमें जमीनी स्तर पर, जो वैकल्पिक पहल खड़ी हो रही है, उन्हें लोग प्रत्यक्ष रूप से देखें, उनसे प्रेरणा लें, सीखकर अपनाएं, यह भी सोच है।
कल्पवृक्ष के अशीष कोठारी ने बताया कि विकल्प संगम के 5 उद्देश्य हैं। एक दस्तावेजीकरण करना, दो, लेख व फिल्में बनाना और इन्हें लोगों तक पहुंचाना, तीन, संगम में आपस में मिलना और अपने अनुभव साझा करना चार, मिलकर, बड़ा सामूहिक सपना देखना और हमारा भविष्य कैसा होना चाहिए, इसे सोचना, और पांचवा पैरवी ( एडवोकेसी) करना यानी पंचायत से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता लाना, जो बेहतरी के लिए जरूरी है।
उत्तराखंड से बीज बचाओ आंदोलन के विजय जड़धारी ने कहा कि हमें जीने की राह बदलनी है। छोटी-छोटी पहल ही एक दिन उम्मीद की किरण बनेंगी। जन- साधारण लोग ही इसे कर सकते हैं, खुद से शुरूआत करनी पड़ेगी। जीवनशैली में बदलाव जरूरी है।
उन्होंने उनके जड़धार गांव का उदाहरण देते हुए बताया कि दशकों पहले वहां का जंगल उजड़ चुका था, हमने सिर्फ वहां प्रकृति को आराम करने दिया। यानी उसकी रखवाली की। ऐसे नियम बनाए जिससे जंगल को नुकसान न हो। ऐसा करने से कुछ ही सालों में जंगल हरा-भरा हो गया। सूख चुके जलस्रोत फूट निकले, कई तरह की जड़ी—बूटियां आ गईं, पक्षियों की कई प्रजातियां दिखने लगीं। उन्होंने कहा कि समाज के सबसे गरीब व्यक्ति के बारे में सोचकर काम करना चाहिए।
गढ़चिरौली से आए सियाराम ने बताया कि उन्होंने 90 ग्राम सभाओं के माध्यम से वन प्रबंधन का अच्छा काम किया है। पहले वन अधिकार कानून के तहत् अधिकार हासिल किया और बाद में सभी ग्रामसभा के लोगों ने महासंघ बनाकर उसके प्रबंधन का काम किया, जिससे जंगल बचाने के साथ लोगों को आजीविका भी हासिल हुई।
संगम में सहजीवन के संदीप विरमानी ने मालधारी ( पशुपालक) समुदायों के साथ काम करने के दौरान हुए कुछ अनुभव साझा किए। उन्होंने बताया कि यहां का पानी खारा है, लेकिन मालधारी विरदा पद्धति से झीलों में कुएं बनाते हैं, जिसमें उन्हें मीठा पानी मिलता है। लेकिन यह कुएं कोई एक आदमी नहीं खोद सकता, इसमें पूरे गांव का सहयोग चाहिए होता है। अगर गांव में झगड़े होते हैं, तो ऐसे परिवार इसमें श्रमदान करने में आना-कानी करते हैं।

ऐसे परिवार को मनाने के समुदाय के अपने तरीके होते हैं, जिससे वे इन समुदायों में एकता व भाईचारा कायम कर लेते हैं। और सामूहिक रूप से काम करते हैं। ऐसी अच्छी परंपराओं को पुनर्जीवित करना जरूरी है।
जाने-माने राजनैतिक कार्यकर्ता व चुनाव विश्लेषक रहे योगेंद्र यादव ने विकल्प संगम की प्रक्रिया को महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने कहा “ हमें शिखर राजनीति, जन नीति और अदृश्य राजनीति तीनों को आपस में जोड़ना चाहिए। यानी मुख्यधारा की राजनीति, जनांदोलनों की राजनीति और अदृश्य राजनीति को जोड़कर बड़ी तस्वीर बनानी होगी।” अदृश्य राजनीति से उनका मतलब रचनात्मक व वैकल्पिक कामों लगे लोगों, संगठनों व संस्थाओं से था, जिन्हें विकल्प संगम की प्रक्रिया ने आपस में जोड़ा है।
इस बैठक के दौरान पानी, भोजन और कृषि (पशुचारण, मत्स्य पालन, भूमि-आधारित आजीविका), ऊर्जा (ईंधन, बिजली), स्वशासन इत्यादि मुद्दों पर चर्चा हुई। जैव विविधता, स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक और सांप्रदायिक सद्भाव, और वर्ग, लिंग, जाति, विकलांगता, समावेशी विकास पर भी चर्चा हुई।
संगम के दौरान प्रदर्शनी भी लगाई गई, जिसमें देसी बीज, वैकल्पिक साहित्य, मिट्टी के बर्तन, सामूहिक चित्रकला भी शामिल थी। एक दर्जन से अधिक संगठनों द्वारा संभव किए गए बदलावों को प्रत्यक्ष रूप से देखने के लिए प्रतिभागियों ने कच्छ में कई क्षेत्रीय स्थलों का भी दौरा किया। उन्होंने एलएलडीसी शिल्प संग्रहालय का दौरा किया, जहां विकल्पों पर एक फिल्म ‘चर्निंग द अर्थ’‘Churning the Earth’ भी दिखाई गई।
संगम में प्रतिभागियों ने सरकारों या निजी निगमों द्वारा प्रचारित नीतियों और कार्यक्रमों को चुनौती देने का संकल्प लिया, जिसके कारण लाखों लोग अपनी जमीन और आजीविका खो देते हैं। इसके बजाय, वे ऐसी नीतियों और कार्यक्रमों को बढ़ावा देंगे, जो रचनात्मक आजीविका पैदा कर सकते हैं (शिल्प, कृषि, वानिकी, मत्स्य पालन, पशुचारण, छोटे विनिर्माण और सेवाओं सहित) और हमारे प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा भी कर सकते हैं। उन्होंने लिंग, जाति, वर्ग, क्षमता आदि से संबंधित पारंपरिक या नई असमानताओं से निपटने का भी संकल्प लिया गया।
संगम के आखिरी दिन हम क्षेत्रीय दौरे पर गांवों में गए। जहां हम कई मालधारी समुदायों के लोगों से मिले। मालधारी दो शब्दों से मिलकर बना है। माल यानी पशुधन, धारी यानी धारण करने वाले, संभालने वाले। वे घुमंतू पशुपालक हैं। गाय, भैंस, ऊंट, घोड़े,बकरी और गधे पालते हैं।
जिस समूह के साथ मैं गया था, वह समूह सहजीवन संस्था के कार्यक्षेत्र गया था। हम दद्दर और डेरिया गांव गए और वहां के पंचायत व गांव के प्रमुख लोगों से मिले।
इस इलाके को बन्नी कहा जाता है। यहां सहजीवन का काम पशुपालक मालधारियों के बीच है। बातचीत के दौरान पशुपालकों ने बताया कि उनकी चिंता है कि उनके चरागाह कम हो रहे हैं। इसका एक कारण बिलायती/ गांडो बबूल ( अंग्रेजी में इसे प्रोसोपीस जूलीफ्लोरा कहते हैं) का फैल जाना है। इसकी पत्तियां खाकर गाय व बकरियों बीमार हो जाती हैं या मर जाती हैं।
यहां की बन्नी भैंस और काकरेज गाय बहुत प्रसिद्ध हैं। इन देसी नस्लों को मालधारियों ने विकसित, संरक्षित और संवर्धित किया है। बन्नी भैंस में अधिक दूध उत्पादन क्षमता है। हालांकि मालधारियों के चारागाह कम होते जा रहे हैं।
डेरिया गांव के सरपंच याकूब भाई ने बताया कि यहां के चरागाहों में काफी विविधता है। यहां 64 प्रकार की घास है। हमने गांडो बबूल की खत्म कर देसी बबूल उगाया है, जो कई प्रकार से उपयोगी है।
सहजीवन से जुड़ी भारती ने बताया कि हमने वन अधिकार कानून के तहत् मालधारी समुदाय के लिए चरागाह का दावा किया है। हमारी कोशिश है कि यह अधिकार उन्हें मिले, जिससे पशुपालन में मदद मिले। मालधारियों का पशुओं की नस्ल सुधार में काफी योगदान है। बन्नी भैंस को भी मान्यता मिली है।
कार्यक्रम के अंत में 13 कच्छी सह-संगठित समूहों ने क्षेत्र के सामने आने वाले प्रमुख मुद्दों पर काम करने का भी संकल्प लिया: उद्योगों के लिए भूमि के नुकसान को रोकना, समुदायों को देहाती और कृषि आजीविका पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में मदद करना, निर्णय लेने में अधिक समान आवाज के लिए महिला सशक्तीकरण करना इत्यादि।
कुल मिलाकर, विकल्प संगम की प्रक्रिया से कई विकल्प उभर रहे हैं और इसके साथ एक वैकल्पिक समझ की परिकल्पना भी बन रही है, जो संगम में आए प्रतिभागियों के कामों व सोच से दिखाई देती है। विकल्प बनते भी जल्दी नहीं है, इसकी प्रक्रिया धीमी है, समाज में बदलाव भी धीरे-धीरे ही होता है।
मैं इस प्रक्रिया से एक दशक से जुड़ा हुआ हूं, देश के कई कोनों में विकल्प संगम की बैठकों में शामिल हुआ हूं और उभरते विकल्पों की रिपोर्टिंग की है। इनमें से कुछ रिपोर्टिंग तो ऐसे गांवों की है, जो बहुत ही दूरदराज के हैं, जिनके बारे में पहले नहीं लिखा गया था। यह सिर्फ मुद्दा आधारित पहलें ही नहीं हैं, बल्कि इसमें समग्रता की सोच भी शामिल है। जैसे उत्तराखंड के बीज बचाओ आंदोलन ने न सिर्फ देसी बोज बचाने का काम किया है, बल्कि उजड़ते जंगल को हरा-भरा कर दिया है। यानी खेती, गांव समाज, पर्यावरण और जीवन पद्धति से जुड़ी सोच है।
बच्चों को भविष्य माना जाता है, मैंने ऐसे स्कूल देखें हैं, जो सिर्फ किताबी नहीं, उनके जीवन से जुड़े अनुभवों पर आधारित शिक्षा के लिए प्रयासरत हैं। सेवाग्राम में नई तालीम, नर्मदा बचाओ आंदोलन की जीवनशालाएं, ककराना अलीराजपुर में रानी काजल जीवनशाला ऐसे ही स्कूल हैं। विकल्प बनाने में इस तरह की शिक्षा का काफी महत्व है।
खेती किसानी के नई पहलें देखीं हैं, जिसमें उत्पादन के साथ पर्यावरण का ख्याल रखा जाता है, वह जीवन पद्धति है। देशभर में खेती के कई प्रयोग चल रहे हैं। इसी तरह, ऐसे युवाओं की पहल से रूबरू हुआ हूं, जो अलग अलग विकल्पों को गढ़ने में उनकी ऊर्जा लगा रहे हैं। ऐसे बौद्धिक प्रतिभा के लोग इस प्रक्रिया से जुड़े हैं, जो वैकल्पिक साहित्य लेखन को आगे बढ़ा रहे हैं। विकल्प संगम की प्रक्रिया पर ही कुछ पुस्तिकाएं आ चुकी हैं, किताबें भी आई हैं। मेरी समझ का भी विस्तार हुआ है। इसी तरह की कई कहानियां को विकल्प संगम की वेबसाइट पर देखा जा सकता है। यह सब बहुत ही आशाजनक है।
कुल मिलाकर, मुझे लगता है कि विकल्प के कुछ सूत्र व सिद्धांत तो बनाए जा सकते हैं, लेकिन सभी विवरण तैयार करने की जरूरत नहीं है, इसे संघर्ष और निर्माण के दौरान निर्णय लेने के लिए लोगों पर छोड़ देना चाहिए। विकेन्द्रीकरण, विविधता( संस्कृतियों, भाषाओं, परंपराओं, जैव विविधता), आत्मनिर्भरता, सादा जीवन और अहिंसा के साथ नैतिकता व अन्य सिद्धांतों को भी इनमें जोड़ना होगा। असीमित विकास, अंतहीन इच्छाएं, उच्च स्तर का उपभोग और तामझाम व दिखावे पर लगाम लगानी होगी। इसकी बजाए हमें छोटी इकाईयां, श्रम आधारित तकनीकें, वैकल्पिक ऊर्जा, स्वशासन, प्रकृति के साथ सामंजस्य करने की ओर बढ़ना होगा। यह सभी काम विकल्प संगम के सहयोगी कर रहे हैं। फिलहाल, यह पूरी पहल उम्मीद तो जगाती है, इस दिशा में आगे करने के लिए प्रेरणा भी देती है, जिसे आगे बढ़ाया जा सकता है।
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