Written specially for Vikalp Sangam
(Dastkaron ki Ummeed Hai Khamir)
फोटो क्रेडिट – खमीर संस्था
खमीर ने पारंपरिक हस्तकलाओं के संरक्षण व संवर्धन के साथ आजीविका भी प्रदान की है, जिसमें निरंतर नवाचार भी किया जा रहा है
गुजरात के कच्छ जिले के मध्य में बसे कुकमा गांव में खमीर संस्था का प्रशिक्षण केन्द्र है, जहां लोग, न केवल कताई, बुनाई, सिलाई, मिट्टी के बर्तन और हस्तशिल्प के हुनर पर काम कर रहे हैं, बल्कि सम्मानजनक आजीविका भी हासिल कर रहे हैं। यहां के कुछ कारीगरों में से कुछ युवा ऐसे भी हैं, जो पहले शहरों में रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे व्यवसायों में चले गए थे, वे फिर से वापस आकर गांवों में ही इस पारंपरिक हस्तकौशल को न केवल बचा रहे हैं, बल्कि दूसरों को भी सिखा रहे हैं।
आगे बढ़ने से पहले यह बताना उचित होगा कि यह इलाका घास के लम्बे मैदानों और नमक के रेगिस्तान के लिए जाना जाता है। यहां के अधिकांश स्थानीय समुदायों की आजीविका का मुख्य स्रोत खेती और पशुपालन है। यहां कच्छ का रण भी है, जिसे देखने पर्यटकों का तांता लगा रहता है।
मैं यहां पिछले वर्ष नवंबर (21 से 24 नवंबर,2024) को विकल्प संगम की 10 वीं वर्षगांठ पर आयोजित राष्ट्रीय स्तर की वार्षिक सभा में हिस्सा लेने गया था। यह सभा खमीर संस्था के परिसर में आयोजित की गई थी।
खमीर संस्था, भुज से 15 किलोमीटर दूर कुकमा गांव में स्थित है। यह परिसर कारीगर, संस्थान और शिल्प प्रेमियों को सीखने-सिखाने व सहयोग करने का एक मंच है।
यहां का वातावरण खुला व हवादार था। इस परिसर में हरे-भरे पेड़ों की हरियाली थी। चिड़ियों की चहचहाहट थी। चरखे व हथकरघे की खटपट थी। यहां चरखे पर कताई, हथकरघे पर बुनाई, रंगाई इत्यादि सभी काम हो रहे थे। कई तरह के मिट्टी के बर्तन बनाए जा रहे थे। खादी एवं हाथ से बने कपड़ों की खरीद-बिक्री हो रही थी।

खमीर संस्था के पूर्व निदेशक घतित लेहरू बताते हैं कि यह साल 2001 के भूकंप के बाद की पहल है। भूकंप के दौरान, जिसने कच्छ में कई लोगों की जान ले ली थी और भुज शहर को तबाह कर दिया था। परंपरागत कारीगरों को बहुत नुकसान हुआ था। इसके बाद कच्छ में बुनकरों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आई थी। छोटे पैमाने के बुनकर थोक में कच्चा माल नहीं खरीद सकते थे और बदलते बाज़ारों के साथ तालमेल बिठाने में उन्हें बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था।
इस सबके मद्देनजर पुनर्वास के लिए काम करने वाले कई संगठनों ने एक साझा मंच बनाने की ज़रूरत महसूस की, जो हस्तशिल्प से जुड़े लोगों का समर्थन और प्रचार कर सके। इसके बाद खमीर संस्था के गठन की सोच बनी। इसका उद्देशय कच्छ के शिल्प कारीगरों के साथ काम करना है। हम कारीगरों को स्थानीय आजीविका से जोड़ना चाहते हैं। उन्होंने बताया कि खमीर का मतलब कच्छ की स्थानीय भाषा में ‘आंतरिक गौरव’ होता है।
खमीर के कार्यकर्ता परेश मांगलिया बताते हैं कि औपचारिक रूप से साल 2005 से खमीर संस्था की स्थापना हुई, जिसका उद्देश्य कच्छ की हस्तकलाओं को सशक्त बनाना और उनके विकास के लिए आवश्यक संसाधनों को बनाए रखना था।
वे आगे बताते हैं कि यहां के कपड़ों की काफी मांग है। हमने कारीगरों को बाजार उपलब्ध कराने और कपड़ों में अच्छी डिजाइन व नवाचार पर जोर दिया। कारीगरों को प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध करवाए। कई समूहों को एक साथ लाने के लिए प्रयास किए।
इसके बाद देसी कपास की स्थानीय किस्म काला कपास को बढ़ावा दिया। किसानों को इसे उगाने के लिए प्रोत्साहित किया। साल 2012 में, खमीर ने एक पहल शुरू की, जिसने कच्छ की स्थानीय फसल काला कपास के उत्पादन को बढ़ावा दिया, जो कि पूरी तरह से जैविक है और इसकी उत्पादन प्रक्रिया पूरी तरह से स्थानिक और जैविक है।

वे आगे बताते हैं कि इसका लक्ष्य हाशिए के समुदायों के साथ काम करके और स्थानीय रूप से उगाई जाने वाली प्रजातियों को बढ़ावा देना है, ताकि कच्चे कपास को हाथ से बुने उत्पादों में बदला जा सके। खमीर ने इसके साथ हाथ की कताई को भी बढ़ावा दिया और कताई करने वालों को भी इसमें शामिल किया। इससे किसान, कताई करने वाले और बुनकर, और अंततः बाजार सभी जुड़े। इस सबके जरिए देसी कपास भी फिर से चलन में आ रहा है। इससे टिकाऊ कपड़े और हाथ से बुने और प्राकृतिक रूप से रंगे फैशन व अच्छे डिजाइन वाले उत्पाद बनाए।

परेश भाई आगे बताते हैं कि इसी तरह खमीर ने कच्छ की छपाई और रंगाई पर भी काम किया। इसने कारीगरों के बराबर योगदान से अजरखपुर में एक अनूठा अपशिष्ट जल उपचार संयंत्र विकसित किया है। इस उपचार संयंत्र ने विभिन्न रंगाई और छपाई इकाइयों द्वारा उपयोग किए जाने वाले डाई जल अपशिष्ट को पुनर्चक्रित किया है।

इसके अलावा, खमीर गुजरात के कच्छ क्षेत्र में शिल्प रूपों के साथ काम करते हैं। वे जिन शिल्प रूपों के साथ काम करते हैं उनमें चाकू का काम, लाख की लकड़ी, लकड़ी की नक्काशी, ब्लॉक प्रिंटिंग, बांधनी और बाटिक मिट्टी के बर्तन, तांबे की परत वाली घंटियाँ और अन्य शिल्प शामिल हैं।
कार्यकर्ताओं से बातचीत में यह भी जानने को मिला कि यहां बेकार प्लास्टिक की कई चीजें बनाई जाती हैं। यहां आसपास जो कंपनियों हैं, वह प्लास्टिक का उपयोग करती हैं, जब वह प्लास्टिक बेकार हो जाता है, तो उसे यहां लाया जाता है। उस बेकार प्लास्टिक से हथकरघे से कपड़े की तरह नई चीजें बनाई जाती हैं।
इसके अलावा, खमीर कारीगरों को वित्तीय साक्षरता, प्रबंधन प्रशिक्षण और शिल्प-निर्माण की उपयुक्त तकनीक प्रदान करता है और उन्हें बाजार के रुझानों के बारे में जागरूक करता है। खमीर कलाकार निवासों की व्यवस्था करता है जहाँ कारीगरों को कार्यशालाओं के माध्यम से अपनी रचनात्मकता को विकसित करने और साझा करने के लिए खमीर परिसर में आमंत्रित किया जाता है।

इसके साथ ही, खमीर शिल्प को एक उत्पाद के रूप में नहीं बल्कि जीवन के एक तरीके के रूप में बढ़ावा देने के लिए प्रदर्शनियों, स्कूलों में शिल्प कार्यशालाओं, शिल्प उत्सवों का आयोजन करता है। या जहां भी ऐसे कार्यक्रम होते हैं, उनमें शामिल होता है। ऐसी ही एक प्रदर्शनी में जो, कुछ साल पहले आंध्रप्रदेश के चिराला शहर में इन पंक्तियों का लेखक खमीर की कारीगरों की टीम से मिला था, और पहली बार उनके अनूठे शिल्प व कौशल से परिचित हुआ था। वे वहां उनके हथकरघे व उत्पाद लेकर पहुंचे थे। इस अनूठे प्रदर्शनी को देखने बड़ी संख्या में लोग आए थे।
खमीर के साथ जुड़े बुनकर प्रकाश नारायण भाई सीजू ने बताया कि उनके दादा और पिता भी बुनाई का काम करते थे, लेकिन शुरूआत में उन्हें लगा कि इसमें अच्छा भविष्य नहीं है, किसी कंपनी में काम करेंगे तो अच्छा भविष्य होगा। जब 10 वीं कक्षी में थे, उनके पिता के साथ हथकरघे पर काम करने लगे, सीखने लगे तो इसमें दिलचस्पी हुई। और बाद में इसमें मजा आने लगा। उन्होंने कला रक्षा विद्यालय से डिजाइन सीखा है। इसके बाद खमीर के साथ जुड़कर नए-नए डिजाइन में इस काम को आगे बढ़ाया। अब वह स्वतंत्र उद्यमी की तरह इसी काम में लगे हैं। उनके भाई प्रशांत भी उनका साथ दे रहे हैं और इससे अच्छी कमाई भी कर रहे हैं। इसी तरह अन्य कारीगर भी इससे आजीविका चला रहे हैं।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि खमीर की पहल कई मायनों में महत्वपूर्ण है। एक, भूकंप से तबाह इलाके का स्थायी व रचनात्मक पुनर्वास कैसे किया जा सकता है, इस पूरी पहल से समझा जा सकता है। दो, यह आज गांवों को आत्मनिर्भर बनाने की पहल भी कही जा सकती है, जब गांव के युवा शहरों की ओर रोजी-रोटी की तलाश में भाग रहे हैं, ऐसे समय खमीर की पहल यह बताती है कि गांव में ही हस्तकला आधारित रचनात्मक आजीविकाओं को खड़ा किया जा सकता है, जिसमें न केवल लोग उनके परिवार, गांव समाज के साथ रह सकते हैं, स्वायत्त व स्वतंत्र रहते हुए सम्मानजनक आजीविका कमा सकते हैं, बल्कि इसमें नवाचार भी कर सकते हैं।
तीन, खमीर ने न केवल कच्छ की बुनकरी की पारंपरिक कलाओं को पुनर्जीवित किया है, बल्कि इसमें डिजाइन व मार्केटिंग जैसे आधुनिक ज्ञान को भी जोड़ा है, जिससे हम सीख सकते हैं कि कच्छी पारंपरिक ज्ञान के साथ आधुनिक ज्ञान भी जोड़कर हम कुशलता हासिल कर गुणवत्तापूर्ण उत्पाद भी बना सकते हैं। इसके साथ ही खमीर के साथ किसान, दस्तकार, हस्तशिल्पी, प्रशिक्षक, डिजाइनर, व्यापार के जानकार एवं प्रबंधक की अच्छी खासी टीम है। खमीर की युवा महिला निदेशक काव्या सक्सेना अब इस टीम का नेतृत्व कर रही है। और खमीर के काम को नई दिशा दे रही हैं।

एक और बात जलवायु बदलाव के दौर में यह देखना महत्वपूर्ण हो जाता है कि नए उत्पाद व तकनीक का स्वास्थ्य और पर्यावरण पर क्या असर पड़ रहा है, इस लिहाज से खमीर का काफी महत्वपूर्ण है। मशीनों के उपयोग से पर्यावरण व स्वास्थ्य दोनों पर प्रतिकूल असर होता है, जिसका खमीर ने बखूबी ख्याल रखा है। फिलहाल, स्थानीय हस्तकलाओं के संवर्धन का खमीर का मॉडल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।
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