(सारे फ़ोटो हर्षित चार्ल्स के बनाए हुए हैं )
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मध्य प्रदेश के बडवानी ज़िले में ठंड के मौसम में सुबह-सुबह आदिवासी बच्चे धूप का आनंद ले रहे थे. इसी दौरान वे अपने मोबाइल फ़ोन से भी कुछ कर रहे थे.
वे इतने व्यस्त थे कि उन्हें बगल में मेरी मौजूदगी का पता तक नहीं चला. मैं वहां जन पत्रकारिता की एक ट्रेनिंग के लिए पहुंचा था.
जब मैंने पूछा, आप लोग क्या कर रहे हो? उन्होंने जवाब दिया ‘बूल्टू’ कर रहे हैं सर.
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मुझे यह समझने में थोड़ा समय लगा बच्चे ब्लूटूथ की मदद से एक दूसरे के मोबाइल पर ऑडियो और वीडियो फ़ाइल ट्रांसफ़र कर रहे थे.
मैंने ब्लूटूथ के बारे में सुना तो ज़रूर था पर किसी भी आम शहरी की तरह मुझे ब्लूटूथ के उपयोग से फ़ाइल ट्रांसफ़र की कभी ज़रूरत महसूस नहीं हुई थी. हमारे पास वाई-फ़ाई जो होती है.
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बाद में मुझे क्लास में पता चला कि उस अविकसित आदिवासी इलाके में भी लगभग 80% लोगों के फ़ोन में न सिर्फ ब्लूटूथ की सुविधा उपलब्ध है, बल्कि लोग गाने और फ़िल्में ट्रांसफ़र करने में उसका नियमित उपयोग भी करते हैं.
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जिस तरह शहरी लोगों को शार्टवेव रेडियो की अहमियत नहीं पता, उसी तरह बहुत से लोग ब्लूटूथ की अहमियत को कम करके आंकते हैं. ये ब्लूटूथ एक गेम चेंजर हो सकता है.
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धीरे-धीरे देश के कुछ ज़िलों में ग्राम पंचायत स्तर तक ऑप्टिकल फ़ाइबर केबल की पहुँच होने लगी है. झारखंड और छत्तीसगढ़ के बॉर्डर पर नक्सल प्रभावित बलरामपुर एक ऐसा ही ज़िला है जहां अब 80% ग्राम पंचायत तक ब्रॉडबैंड पहुँच गया है.
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पर उस ब्रॉडबैंड से गांव के लोग क्या करेंगे जिससे उनकी ज़ुबान में उनके काम का बहुत कुछ नहीं हो पाता है. असल में बलरामपुर ‘उरांव’ आदिवासियों का ज़िला है जो ‘कुडुक’ भाषा में बात करते हैं.
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छत्तीसगढ़ शासन के सहयोग से प्रयोग के तौर पर शुरू हुए इस ‘बुल्टू’ रेडियो में ग्रामीण अपने सामान्य मोबाइल फ़ोन से अपनी भाषा में अपनी बात करते हैं, अपने गीत इंटरनेट पर रिकॉर्ड करते हैं. फिर उन्हें इंटरनेट रेडियो का रूप देकर हर उस ग्राम पंचायत में भेज दिया जाता है जहां आज ब्रॉडबैंड की सुविधा उपलब्ध है.
हर गाँव से एक व्यक्ति हर सुबह अपने ग्राम पंचायत के दफ़्तर में आकर अपने ब्लूटूथ वाले मोबाइल फ़ोन में उस रेडियो कार्यक्रम को डाउनलोड कर लेता है. फिर अपने गाँव वापस जाकर उसी कार्यक्रम को वे एक दूसरे से ब्लूटूथ की मदद से अपने-अपने मोबाइल में बग़ैर किसी ख़र्च के साझा कर लेते हैं.
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इस तरह दिन भर में पूरे ज़िले से ‘कुडुक’ जैसी भाषाओं में गांव के लोग जो भी सन्देश और गीत रिकॉर्ड करते हैं, वह ब्लूटूथ की मदद से बग़ैर किसी ख़र्च के लगभग हर ग्रामीण तक पहुँच जाता है.
बलरामपुर ज़िला मुख्यालय से 15 किलोमीटर दूर झल्पी गाँव के अमरदीप कहते हैं, “ब्लूटूथ का उपयोग तो हम लोग बहुत दिनों से करते रहे हैं, पर पता नहीं था कि इसका उपयोग कर हम अपने ही ज़िले के आसपास के साथियों की बात और उनके गीत अपनी ही भाषाओं में सुन पाएंगे”.
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जाहिर है अभी ये एक प्रयोग के तौर पर चल रहा है. लेकिन बलरामपुर के कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन का मानना है कि अगर लोग अपनी बात अपनी भाषाओं में रख सकें और वह इंटरनेट की मदद से हम जैसे अधिकारियों के पास आ सके, तो इससे हम प्रशासन के काम में सुधार ला सकेंगे.
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First published by BBC Hindi