भील बच्चों की जीवनशाला (in Hindi)

By बाबा मायारामonOct. 01, 2019in Learning and Education

विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)

“जब हमारे घर, गांव और जमीन सरदार सरोवर बांध की डूब में आ रहे थे, तब बार-बार जमीन खाली करने के लिए सरकारी नोटिस आते थे, लेकिन हम उन्हें पढ़ नहीं पाते थे, क्योंकि हमसे से कोई भी पढ़ा लिखा नहीं था, उसी समय हमें अपने बच्चों को पढ़ाने की जरूरत महसूस हुई। हमने सोचा हमारी तो जिंदगी कट गई लेकिन बच्चों को पढ़ाना जरूरी है। इसलिए हमने स्कूल शुरू किया।” यह भगतसिंह डाबर थे जो मुझे आदिवासी बच्चों के स्कूल के बारे में बता रहे थे। वे स्कूल के शिक्षक हैं।

मैं इस स्कूल को देखने पिछले माह 4 अगस्त को पहुंचा था। उस समय बारिश हो रही थी। इन्दौर से कुक्षी और वहां से डही बस से यात्रा की। डही से ककराना टैक्सी से गया। रास्ते में सोयाबीन, कपास, मक्के, बाजरा की हरी-भरी फसलें थीं। ताड़ के ऊंचे ऊंचे छतरीनुमा पेड़ थे। छोटी-छोटी पहाड़ियां जो उल्टे कटोरे के आकार की थीं। नीले आकाश में बादलों के गाले थे, कहीं सफेद, कहीं काले। बहुत खुशनुमा मौसम था।

डही से ककराना तक छोटे छोटे नाले पड़े जो पूरे उफान पर थे। टैक्सी ड्राइवर ने एक नाले को दिखाते हुए कहा कि इस नाले में जाते समय ऊपर से पानी बह रहा था, एक घंटे तक खड़े रहना पड़ा था। इस तरह के यहां कई नाले हैं, जो बारिश में बहते हैं। संपर्क टूट जाता है।

रानी काजल जीवनशाला ककराना

पश्चिमी मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले में ककराना गांव में यह स्कूल स्थित है। यह गांव सरदार सरोवर परियोजना के जलभराव से डूब प्रभावित गांव है। इस स्कूल की कहानी यह है कि जब यहां के आदिवासियों के घर जमीन डूब में चली गई थीं। रोजगार के मौके कम हो रहे थे। गांव के कुछ लोग यहां से उजड़ कर गुजरात जा रहे थे, लेकिन जो गांव पूरी तरह नहीं उजड़े थे, वे रोजी-रोटी के लिए मजदूरी करने मौसमी पलायन कर रहे थे। उस समय यहां के एक दलित युवक कैमत गवले और कुछ गांववालों ने मिलकर तय किया कि वे कहीं नहीं जाएंगे और यहीं रहकर बच्चों का जीवन बेहतर बनाएंगे। उन्हें पढाएंगे, इसके लिए स्कूल खोलेंगे।

यह निर्णय 5 गांव के लोगों एक बैठक में लिया, जिसमें ककराना गांव के कैमत गवले ने प्रमुख पहल की थी। कैमत गवले, पूर्व में इस इलाके में आदिवासियों के लिए काम करने वाले खेड़ुत मजदूर चेतना संगठन से जुड़े थे। जो पांच गांव पहली बैठक में शामिल थे, वे थे- भादल, भिताड़ा, ककराना, झंडाना और सुगट के लोग।

पश्चिमी मध्यप्रदेश का यह अलीराजपुर जिला वर्ष 2008 में स्वतंत्र जिला बना है, पूर्व में यह झाबुआ का हिस्सा था। इसकी सीमा गुजरात और महाराष्ट्र से लगी है। ककराना गांव के पास से नर्मदा नदी होकर गुजरती है और यहां हथनी नदी और नर्मदा का संगम भी है।

यहां के अधिकांश बाशिन्दे आदिवासी हैं  जिनमें भील, भिलाला, धाणक, नायक, मानकर और कोटवाल शामिल हैं। यह सबसे कम साक्षरता वाला जिले में से एक है।   

पहले अलीराजपुर- झाबुआ का यह इलाका जंगल से आच्छादित था। लेकिन धीरे-धीरे जंगल साफ हो गए, पहाड़ पूरी उजड़ गए हैं, जबकि इन्हीं जंगलों पर आदिवासियों का जीवन निर्भर था। उनके सामने आजीविका का संकट खड़ा हो गया। सरदार सरोवर बांध ने उनके घर जमीन भी छीन ली। इस कारण अधिकांश आदिवासी पेट पालने के लिए बाहर मजदूरी करने जाने लगे।  

लेकिन ककराना गांव के लोगों अपने गांव का जंगल फिर से पुनर्जीवित कर लिया। जिसकी रखवाली व देखभाल का जिम्मा स्वयं गांववालों ने संभाल लिया है। गांव के दो व्यक्तियों को चौकीदार नियुक्त किया है जो प्रतिदिन जंगल की देखभाल करते हैं। 

सवाल है कि जब सरकारी स्कूल सभी जगह हैं तो इस स्कूल की जरूरत क्यों पड़ी? इसके जवाब में प्राचार्य निंगा सोलंकी और शिक्षक भगतसिंह डाबर बताते हैं कि “सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम में भील संस्कृति को कोई जगह नहीं है। उनकी भीली और भिलाली भाषा को पाठ्यक्रमों में कोई स्थान नहीं हैं। न उनमें बच्चों की दादी-नानी की कहानियां हैं और न ही उनकी बोली भाषा में मुहावरे और कहावतें। इसलिए बच्चे सीधे स्कूली पाठ्यक्रम से जुड़ नहीं पाते।”

वे आगे कहते हैं कि “ज्यादातर सरकारी स्कूलों में एक दो शिक्षक हैं और वे भी शहर से आते जाते हैं। यहां पहुंचमार्ग नहीं है, खासतौर से बारिश में आने जाने में काफी दिक्कत होती है, कई बार शिक्षक आते भी नहीं हैं। इस कारण बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। इसलिए ऐसे स्कूल की जरूरत थी, जिसमें शिक्षक-छात्र साथ साथ रहें और उनकी बोली भाषा में पढ़ाई हो। इसलिए यह स्कूल शुरू हुआ।” 

स्कूल का नाम रानी काजल जीवनशाला है। स्कूल की शुरूआत 20 अगस्त, 2000 में हुई थी, जो सबसे पहले गांव के स्वास्थ्य केन्द्र में शुरू हुआ था। कुछ समय पंचायत भवन में भी लगा। पर बाद में डेढ़ एकड़ जमीन खरीदकर खुद का स्कूल बना लिया। स्कूल बनाने के लिए गांव गांव से चंदा किया गया। लकड़ी, खपरैल, ईंटें सभी अभिभावकों ने दीं और श्रमदान से स्कूल तैयार हुआ। स्कूल कल्पांतर शिक्षण एवं अनुसंधान केन्द्र समिति के नाम से पंजीकृत है।

अब यह स्कूल 8 वीं तक हो गया है। इसमें 212 बच्चे हैं जिनमें लड़कियां भी शामिल है। यह एक आवासीय स्कूल है। लड़कों का हास्टल, लड़कियों का हास्टल, 10 शिक्षकों के आवास के लिए कमरे, अतिथि कक्ष, कार्यालय, रसोईघर, पुस्तकालय समेत हरा-भरा परिसर है। यहां वर्ष 2005 में बिजली भी आ गई है और सौर ऊर्जा का विकल्प भी है।


पु्स्तकालय

रानी काजल, जो स्कूल का नाम है, आदिवासियों की प्रमुख देवी है। ऐसी मान्यता है कि यह देवी संकट व महामारी से लोगों की रक्षा करती है। यह देवी समुद्र से वर्षा लानेवाली देवी कहलाती है। सितंबर और अक्टूबर माह में रानी काजल के देवस्थल पर उनकी पूजा की जाती है। यह एक प्रतीक है जो आदिवासियों को संकट से बचाती है। यह बच्चों को उनकी परंपरागत भील संस्कृति का बोध कराती है, उससे जोड़ती है और उनकी पहचान को कायम रखती है।

रानी काजल जीवनशाला में पढ़ाई की ऐसी नवाचारी संयुक्त तकनीक विकसित की गई है जिसमें भिलाली शब्दों को हिन्दी लिपि में लिखा जाता है। जिसे बच्चे आसानी से समझते भी हैं और उससे हिन्दी पढ़ना-लिखना भी सीखते हैं। तीसरी कक्षा तक भीली, बारेली और भिलाली भाषा में बच्चों को पढ़ाया जाता है।

यहां शिक्षा के मानदंड ऐसे हैं कि जिसमें बच्चों को आदिवासी इतिहास, गांव व कृषि संस्कृति की समझ होती है। आधुनिक शिक्षा के साथ यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि वे समाज में और परिवार के काम-धंधों में भी अपनी भूमिका निभाएं। उनमें ऐसी क्षमताएं विकसित हों जो उनकी समृद्ध संस्कृति, पारंपरिक ज्ञान से जोड़े और जंगल, जैव विविधता और पर्यावरण की विरासत को सहेज सकें।

यहां स्कूली पढ़ाई के अलावा कई तरह की गतिविधियों के माध्यम से भी शिक्षा दी जाती है। यहां परिसर में प्रत्येक बच्चे का एक पौधा होता है, जिसे वह रोपता है और उसकी देखभाल करता है। यहां शीशम, नीम, आम, नींबू, बरगद, बांस, सागौन, नीलगिरी, अमरूद, बेर, बादाम, शहतूत आदि के पेड़ हैं।


पौधारोपण करते बच्चे

परिसर में तरकारियों ( सब्जी) की खेती की जाती है। भिंडी, ग्वारफली, करेला, लौकी, मिर्ची आदि की खेती की जाती है। देसी बीजों की पारंपरिक खेती के बारे में बताया जाता है। पुराने देसी अनाजों की पहचान कराई जाती है। इसके अलावा, ऊन के पर्स, थैले, मालाएं, कलाई सूत्र, घरों की साज-सज्जा के लिए झालर आदि बच्चे बनाते हैं। मिट्टी के खिलौने, दीवारों पर चित्रकला, कलाकृतियां आदि बनाते हैं। प्रति शनिवार बालसभा होती है। नाटक, नृत्य और गीत भी होते हैं।

सांस्कृतिक कार्यक्रम

स्कूल की व्यवस्था को चलाने के लिए कई तरह की जिम्मेदारियां बच्चों को दी गई हैं। जिसमें स्वास्थ्य मंत्री,खेल मंत्री, पर्यावरण मंत्री सफाई मंत्री बनाए गए हैं। स्वास्थ्य मंत्री का काम होता है किसी बच्चे की तबीयत खराब होने पर उसके इलाज के लिए पहल करना, खेल मंत्री बच्चों के खेल की व्यवस्था करता है, पर्यावरण मंत्री पौधों की देखरेख और सफाई मंत्री परिसर की साफ-सफाई की व्यवस्था संभालता है। पुस्तकालय में पढ़ाई पाठ्यक्रम का हिस्सा है। शारीरिक व्यायाम भी होता है।

एक बार बच्चों ने यहां ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत पर पवन चक्की का माडल भी बनाया था जिसे उन्होंने ज्वार के पौधे के डंठल व ताड़ के सूखे पत्तों से तैयार किया था। पवन चक्की में न विस्थापन होता है और न ही जंगल डूबते हैं। जबकि सरदार सरोवर में उनके गांव घर के आसपास का जंगल व जमीनें डूब गई थीं।  

यहां स्कूल की वार्षिक शुल्क 8000 रूपए है, जिसे दो किस्तों में लिया जाता है। इसके साथ 50 किलो अनाज ( गेहूं, मक्का, बाजरा, जो भी घर में हो), 5 किलो दाल भी देना होता है। स्कूल के प्राचार्य निंगा सोलंकी ने बताया कि करीब 25 प्रतिशत बच्चों के अभिभावक गरीबी के कारण फीस नहीं दे पाते। वे मजदूरी करने पलायन कर जाते हैं। लड़कियों के लिए शिक्षा मुफ्त है ताकि वे अधिक संख्या में पढ़ सकें।

स्कूल की व्यवस्था के लिए व्यक्तिगत और संस्थागत चंदा भी मिलता है। कुछ संस्थाएं मदद करती हैं। यह सब स्कूल के संचालक कैमत गवले करते थे, जिनका इसी वर्ष 6 जुलाई को ब्रेन हेमरेज से निधन हो गया, जो स्कूल के लिए एक बड़ी क्षति है। उनके जाने के बाद स्कूल के मौजूदा शिक्षकों पर यह सामूहिक जिम्मेदारी आ गई है।

इस स्कूल की उपलब्धियों में ऐसे बच्चे शामिल हैं जो अच्छे पदों व उत्कृष्ट विद्यालयों में गए हैं। नास्तर बण्डेडिया ( ककराना) तो मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास कर चयनित हुए। फिलहाल वे जल संसाधन विभाग में पदस्थ हैं। दो छात्र अब इसी स्कूल में शिक्षक हैं- मांगसिंह सोलंकी, और कांतिलाल सस्तिया। कुछ छात्र स्नातकोत्तर कक्षाओं में पहुंचकर शोध कर रहे हैं।

लेकिन यह छोटी उपलब्धि है, इससे बड़ी उपलब्धि यह है आजाद भारत में आदिवासियों की यहां पहली पीढ़ी साक्षर हो रही है। उनमें देश-दुनिया को जानने- समझने का नजरिया विकसित हो रहा है।

यह स्कूल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें पलायन करने वाले पालकों के बच्चों को पढ़ने का मौका दिया जाता है। अन्यथा यह बच्चे मां-बाप के साथ पलायन कर जाते और शिक्षा से वंचित रह जाते। शायद इसलिए हर वर्ष यहां पालकों में बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलवाने की होड़ लगी रहती है।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि यह एक ऐसा स्कूल है जिसे स्थानीय लोगों द्वारा, स्थानीय लोगों के लिए, स्थानीय संसाधनों और स्थानीय ज्ञान और संस्कृति से जोड़कर चलाया जा रहा है। जहां सरकारी स्कूल आदिवासी भाषाओं को तरजीह नहीं देते, वहीं यहां भीली, भिलाली और बारेली भाषा में पढ़ाया जाता है जो बच्चों को उनकी संस्कृति व परंपराओं से जोड़ता है। यहां सिर्फ स्कूली पाठ्यक्रम को ही प्रमुखता नहीं दी जाती बल्कि आसपास के वातावरण, हाथ के काम से प्राप्त अनुभव, पीढ़ियों से चले आ रहे पारंपरिक ज्ञान से भी सीखा जाता है। हाथ के काम को हेय दृष्टि से नहीं, बल्कि जीवन के लिए जरूरी व सम्मान के दृष्टि से देखने की समझदारी विकसित की जाती है। इसका असर यह है कि बच्चे आधुनिक शिक्षा पाकर भी पारंपरिक खेती किसानी के काम धंधों में हाथ बंटाते हैं। वे समाज भी अपनी भूमिका तलाशते हैं। उनमें ऐसी क्षमताएं विकसित करने पर जोर दिया जाता है कि उनकी संस्कृति व विरासत को सहेज सकें। यह स्कूल एक स्तंभ है जो शिक्षा के माध्यम से एक उम्मीद जगा रहा है।


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शोभा बाजपेई December 15, 2019 at 9:11 am

बेहतरीन !
स्कूल ऐसे ही होने चाहिए जो न केवल अपनी भाषा में शिक्षा की बुनियाद रखें वरन अपनी भाषा , संस्कृति को सहेजने वाले हों। आज बच्चों को ज़िम्मेदारी देंगे तो कल वे बड़ी जिम्मेदारी उठाने में समर्थ होंगे । अच्छा लगा यह जानकर कि बच्चे हाथ से काम करते हैं, पर्यावरण की देखभाल करते हैं । यहाँ से निकलने वाले छात्रों ने यह सिद्ध कर दिया है कि उनक स्कूल किसी से कम नहीं है।
हमारे नीति निर्धारकों को इससे प्रेरणा लेना चाहिए।
शुक्रिया बाबा इस रपट के माध्यम से शिक्षा के एक तीर्थ का परिचय कराने के लिए !