साठ साल पहले लंदन की आबोहवा में भयानक धुंधलापन छा गया था, जिसे दुनिया ‘ग्रेट स्मॉग’ के नाम से जानती है। इसकी वजह से शहर में चल रही तमाम गतिविधियां रोक देनी पड़ीं, क्योंकि कुछ भी दिखना संभव नहीं हो पा रहा था। इसमें बारह हजार लोगों की मौत हो गई और और एक लाख लोग बीमार हो गए। जब शोर-शराबा हुआ तो सरकार ने पहले इस आरोप को खारिज कर दिया और कहा कि किसी बीमारी की वजह से यह हुआ है। लेकिन बढ़ते राजनैतिक दबाव के कारण सरकार ने एक आयोग का गठन किया। आयोग ने बताया कि यह दुर्घटना वायु प्रदूषण के कारण हुई थी। सरकार ने कुछ कानून बनाए, जिससे सुधार तो हुआ लेकिन विकास की दिशा पहले की तरह ही रही। लिहाजा, बुनियादी तौर पर इस समस्या से छुटकारा नहीं मिल सका।

फिर एक समय आया कि शहर के सभी ‘सार्वजनिक स्थानों’ पर मोटर वाहनों ने कब्जा कर लिया। मिलने-जुलने की कोई जगह नहीं बची, सड़कों पर चलना मुश्किल हो गया। सड़क दुर्घटना में बेतहाशा वृद्धि हुई। लोग फिर से सड़कों पर उतर आए और उन्होंने ‘रिक्लेम द पब्लिक स्पेस’ का नारा दिया। परिणामस्वरूप सरकार ने मोटर वाहनों के खिलाफ कड़े कानून बनाए। सार्वजनिक परिवहन का पुख्ता इंतजाम किया और पैदल-पथिकों तथा साइकिल चालकों को शहर के ढांचागत विकास में प्राथमिकता दी। आज विकसित देशों में ‘कार फ्री सिटी’ आंदोलन मुखर है और लोग ‘फ्री पब्लिक ट्रांसपोर्ट’ की लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसे कई देशों की सरकारों ने स्वीकार भी किया है।
दिल्ली में यह प्रक्रिया दो दशक पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद शुरू हुई। लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं दिख पा रहा है। न्यायालयों की सक्रियता के कारण दिल्ली में कारों की बाबत सम और विषम का प्रयोग बगैर ज्यादा राजनीतिक गतिरोध के समाप्त हो गया। इसकी मुख्य वजह न्यायालयों द्वारा वायु प्रदूषण के खिलाफ अपनाया गया कठोर रवैया है। वायु प्रदूषण का मामला कई सालों से उच्चतम न्यायालय में तो है ही, कई वर्षों से एनजीटी यानी राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण भी दिल्ली के प्रदूषण से जुड़े मुकदमों की सुनवाई कर रहा है। एनजीटी ने कुछ दिशा-निर्देश भी दिए हैं। दिल्ली सरकार ने उन्हीं अदालती आदेशों का इस्तेमाल करके आॅड और इवन यानी सम और विषम के प्रयोग को एक निश्चित अवधि के लिए लागू किया। इस अभियान का न्यायालयों ने न सिर्फ समर्थन किया बल्कि कई जजों ने इसमें खुलकर शिरकत भी की। कुछ न्यायाधीशों और संसद सदस्यों ने सांकेतिक तौर पर साइकिल का इस्तेमाल भी किया। सर्वोच्च न्यायलय के परिसर और संसद भवन परिसर में साइकिल स्टैंड की सुविधा पुन: शुरू की गई।
दिल्ली सरकार की रणनीति की सराहना की जानी चाहिए। लेकिन अभी इस कार्यक्रम का मुख्य फोकस कारों समेत मोटर वाहनों से पैदा हुई समस्या का समाधान उसी के इर्दगिर्द खोजने का है। सरकार की ओर से आए बयानों और घोषणाओं से भविष्य में किसी बड़ी पहल का संकेत नहीं मिल रहा है। दिल्ली सरकार के लोक निर्माण मंत्री सत्येंद्र जैन ने बताया कि कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में बनाए गए बीआरटी कॉरिडोर को तोड़ने का काम फरवरी के अंत तक पूरा हो जाएगा और विकासपुरी से वजीराबाद तक बनाए जा रहे ‘सिग्नल फ्री’ फ्लाईओवर का कुछ दिनों में उद््घाटन हो जाएगा। इन दोनों बातों से सरकार की प्राथमिकता और मंशा की झलक मिलती है।
बीआरटी कॉरिडोर शुरू से विरोधियों के निशाने पर है। इसे तोड़ने के लिए अदालत में केस भी चला, जहां फैसला आया कि यह एक बेहतर, जनपक्षीय ढांचा है। यदि इसमें थोड़ी खामियां हैं तो सरकार इन्हें दूर करे, क्योंकि इस कॉरिडोर से बसों की गति बढ़ी है, साइकिल चालकों, पैदल-पथिकों और स्ट्रीट वेंडरों के लिए सुरक्षित जगह मिली है। लेकिन सरकार इसे नहीं मान रही है। दूसरी ओर, सिग्नल फ्री फ्लाईओवर किसकी सेवा करेगा? यह कारों को हतोत्साहित करेगा या बढ़ावा देगा? यह किस ओर जाने का संकेत है? कारों के साथ या कारों के खिलाफ?
यह कब आकलन होगा कि शहर और समाज में किस तरह के वाहनों की जरूरत है? सरल, सस्ते और टिकाऊ ढांचे की जरूरत है, या बड़े-बड़े फ्लाईओवरों की? कुछ तथ्यों को जानने के लिए अध्ययन की नहीं, खुली दृष्टि की जरूरत होती है। समाज का हर कोई पग-पथिक है। कौन कब और कितनी दूरी चलता है यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण यह है कि हर कोई दो पैरों से चलता है, चाहे वह अमीर हो या गरीब, स्त्री हो या पुरुष, जवान हो या वृद्ध, स्वस्थ हो या अस्वस्थ। सब लोगों को कुछ न कुछ पैदल चलना होता है। हमारा संविधान कहता है कि ‘कोई भी सार्वजानिक ढांचा ऐसा नहीं हो सकता जो किसी की गतिशीलता को बाधित करता हो।’ क्या इस पर सहमति बनाना इतना मुश्किल है? क्या कोई सार्वजनिक रूप से कह सकता है कि हम पैदल राहगीरों के खिलाफ हैं? क्या पैदल चलने वालों की सहूलियत, समग्र समाज का मुद्दा नहीं है?
परिवहन का दूसरा साधन साइकिल है। सरकार और आंकड़ों के जानकार कहते हैं कि साइकिल का इस्तेमाल बहुत कम होता जा रहा है। लेकिन आंकड़े, जो सरकार के पास हैं, उन्हें सार्वजनिक क्यों नहीं किया जाता है? हर दस साल के अंतराल पर सरकार जनगणना करवाती है। शायद यह दुनिया में अपनी तरह का अनूठा अभिक्रम है जिसमें इतनी जानकारी एक साथ इकट्ठा की जाती है। जनगणना के आंकड़े यह भी बताते हैं कि कितने लोग किस वाहन का उपयोग करते हैं। 2001 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में कुल साइकिलों की तादाद यहां की आबादी के अनुपात में 36.6 प्रतिशत थी। वर्ष 2011 में, 30.5 प्रतिशत हो गई। यानी तमाम परेशानियों के बावजूद आज भी दिल्ली में काफी लोग साइकिल इस्तेमाल कर रहे हैं। दिल्ली परिवहन निगम की हालत बहुत खस्ता है, लेकिन हर दिन औसतन पैंतालीस से पचास लाख लोग डीटीसी की बसों से सफर करते हैं। इसके अलावा दिल्ली में ग्रामीण सेवा, आॅटो, टैक्सी, चार्टर्ड बस के साथ मेट्रो भी सार्वजनिक परिवहन की श्रेणी में है। ये सब अपनी बहुमूल्य सेवाएं देते हैं।
साइकिल लेन, रेंट ए साइकिल और साइकिल नेटवर्क की बात करना हर सरकार के लिए फैशन जैसा है। इस पर बहुत अध्ययन हुए और कई बार कई योजनाओं की शुरुआत भी हुई। लेकिन कोई भी योजना विज्ञापनों से आगे नहीं चल पाई। दिल्ली में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिनके पास इतना भी पैसा नहीं कि वे बस से सफर कर सकें। इसलिए वे मजबूरी में और जान के जोखिम पर साइकिल चला रहे हैं। साइकिल चालकों का दूसरा वर्ग वह है जो अपनी पसंद से साइकिल चलाता है। इन दोनों वर्गों के लिए शहर की हर सड़क पर सुरक्षित लेन चाहिए, जिससे पर्यावरण तो साफ रहेगा ही, मोटरवाहनों पर दबाव भी कम होगा, उस तरफ जाने की प्रवृत्ति धीमी होगी।
दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन के साधनों में मेट्रो को छोड़ कर सभी सेवाएं सड़कमार्गीय ढांचों पर निर्भर हैं। इनमें सबसे ज्यादा सेवा दिल्ली परिवहन निगम देता है, लेकिन उसे जितनी बसों की जरूरत है उतनी हैं ही नहीं। फिर भी निगम हमेशा इस बात की शिकायत करता रहता है कि उसके पास बसों को खड़ा करने की जगह नहीं है। जहां तक बसों की संख्या बढ़ाने का सवाल है, यह मांग उस समय से चली आ रही है जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से डीजल वाली बसें सड़कों से हटाई गई थीं। उसके बाद बहुत मुश्किल से आॅटोमोबाइल कंपनियों ने कई किस्तों में छह हजार बसें दीं और बाकी के लिए उन्होंने हाथ खड़े करते हुए कहा कि इतनी संख्या में बसों की आपूर्ति करना हमारे लिए मुश्किल काम है।
यही कंपनियां कारें भी बनाती हैं। वे जब चाहे जितनी कारें बना कर बाजार में उतार देती हैं, पर बसों के मामले में क्यों हाथ खड़े कर देती हैं, और हर सरकार चुप क्यों रह जाती है? जहां तक बसों को रखने के लिए डिपो का प्रश्न है, इस पर भी सरकारों का रवैया टालमटोल का ही रहा है। दिल्ली में डीटीसी के पास अथाह जमीन है। इन जमीनों पर बहुमंजिला डिपो क्यों नहीं बनाए जा सकते?
सार्वजनिक परिवहन के साधनों को सड़क जाम से निजात दिलाई जा सकती है, जिससे इन वाहनों की गति बढ़ेगी और लोगों के बीच भरोसा भी। दिल्ली सरकार के पास सुनहरा अवसर है, क्योंकि आज अदालत, समाज और राजनीतिक पार्टियां, सब तैयार हैं। लोग प्रदूषण, जाम और सड़क दुर्घटना से मुक्ति पाने को बेताब हैं। ऐसी मुहिम को न्यायपालिका का भी साथ मिल सकता है, इन दिनों अदालतों ने ऐसे संकेत बार-बार दिए हैं। पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा कि ‘लोग प्रदूषण की वजह से मर रहे हैं, हम भी कार-पूलिंग कर रहे हैं और आप इसे चुनौती दे रहे हैं! यह अपील पब्लिसिटी स्टंट लगती है, इसका मकसद अखबारों में केवल अपना नाम छपवाना है।’
इस मौके का इस्तेमाल करते हुए सरकार समग्र समाज के लिए टिकाऊ शहरी परिवहन की अवधारणा को अपनाने और लागू करने का साहस दिखा सके तो देश को एक रास्ता और हमारे बच्चों को स्वच्छ और सुरक्षित शहर मिल सकता है।
जनसत्ता में पूर्व-प्रकाशित