निराशा के आलम में प्रेरणा का संगम (In Hindi)

By बाबा मायारामonSep. 21, 2024in Politics

विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)

(Nirasha Ke Aalam Mein Prerna Ka Sangam)

पारंपरिक स्वशासन औऱ नई पंचायती राज जैसी व्यवस्थाओं में समानताएं व अंतर को खोजना, और लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करना जरूरी है।  

रात के बारह बजे थे। लड़के, लड़कियां और बुजुर्ग नाच रहे थे। गुजरात के डांडिया की धुन पर धीमे लोकराग पर थिरक रहे थे, और झूमते हुए गा रहे थे। रिमझिम बारिश हो रही थी। लेकिन उस समय मुझे यह मालूम नहीं था कि यह गीत शहरी गीतों जैसा नहीं था, जो सभा स्थल के बाद ही भुला दिया जाता है। उससे भी अधिक था। 

यह विकल्प संगम तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले के सित्तिलिंगी में 3 से 5 अगस्त तक आयोजित हुआ था। संगम ट्राइबल हेल्थ इनिशिएटव संस्था के परिसर में आयोजित हुआ था। इस संस्था और विकल्प संगम ने इसे संयुक्त रूप से आयोजित किया था।

इसमें पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था, पंचायती राज, ग्रामसभा सशक्तीकरण इत्यादि कई मुद्दों पर चर्चा हुई। इस कार्यक्रम में आदिवासी, ग्रामीण, किसान समूहों के सदस्य, साथ ही समुदायों के साथ काम करने वाले कुछ नागरिक समाज समूह भी उपस्थित थे। इस संगम में लद्दाख, सिक्किम, उत्तराखंड, तमिलनाडु, असम, गुजरात, महाराष्ट्र, नागालैंड और मध्य प्रदेश से आए समुदायों द्वारा स्वशासन की प्रक्रिया को साझा किया गया और उनमें समानताएं खोजने की कोशिश की गई। 

इसके साथ ही, इसमें स्थानीय सामुदायिक स्तर पर पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था और पंचायत-संबंधित शासन प्रणालियां पर विस्तार से चर्चा की गई। और इन सबको पितृसत्तात्मकता, सत्तावाद, सांप्रदायिकता और विनाशकारी विकास के हमले का सामना करने के लिए कैसे मजबूत किया जा सकता है, इस पर विस्तार से बात हुई।

आगे बढ़ने से पहले यह विकल्प संगम क्यों, यह बताना उचित होगा। इस पर कल्पवृक्ष की सृष्टि वाजपेयी ने विकल्प संगम का उद्देश्य बताते हुए कहा कि जमीनी स्तर पर इस दिशा में जो काम हो रहा है, उसे एक साथ ला पाएं, यही प्रयास है। आपस में विकल्प की कहानियों को बांटना और एक-दूसरे से सीखना, आपस में मिलना और एक साथ जुड़ना। एक वैचारिक सोच बनाना, जो लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित हो। 

सृष्टि वाजपेयी ने विकल्प संगम प्रक्रिया का संक्षिप्त ब्यौरा भी दिया। उन्होंने बताया कि इसकी शुरूआत 2014-15 में हुई थी। इसमें सहभागी संस्थाओं ने मिलकर एक वैकल्पिक समाज का सपना देखा है। देश भर में चल रही वैकल्पिक पहलों को एक साथ लाना, एक-दूसरे से सीखना, आपस में मिलना और आपसी समझ को बनाना है। इन पहलों का दस्तावेजीकरण करना भी एक काम है, जिसे विकल्प संगम की वेबसाइट पर देखा जा सकता है। इस प्रक्रिया में देश भर के 90 संगठन व संस्थाएं जुड़ी हैं।

इस समूह ने न केवल एक टिकाऊ और समतापूर्ण देश के लिए एक सामूहिक दृष्टिकोण तैयार किया है, बल्कि इस दृष्टिकोण को साकार करने के लिए नीतिगत परिवर्तनों की सक्रिय रूप से वकालत भी की है, जिसका उद्देश्य विभिन्न स्तरों पर निर्णय लेने को प्रभावित करना है। 

तमिलनाडु का यह इलाका हरी- भरी पहाड़ियों से घिरा हुआ था। दूर-दूर तक ऊंचे-ऊंचे नारियल और सुपारी के पेड़ थे। साबूदाने (कसावा) की खेती के लिए भी जाना जाता है। नजदीक ही सलेम नामक कस्बा साबूदाने के लिए बहुत प्रसिद्ध है। यह पूरा इलाका आदिवासी बहुल है। यहां के बाशिन्दे मालवासी, लम्बाड़ी और दलित हैं।

तमिलनाडु के इस गांव की सरपंच मादेश्वरी मंजूनाथन ने बताया कि उन्होंने साल 2019 में चुनाव लड़ा और जीता। चुनाव जीतने के लिए उन्होंने न तो लुभावने वादे किए और न ही मतदाताओं को किसी भी प्रकार का अनुचित लाभ पहुंचाया। मतदाताओं के सामने गांव के विकास की सोच रखी।

जब चुनाव जीत गए तो लोगों की समस्याएं हल करने के लिए प्रतिदिन खुला रखने का निर्णय लिया गया। पंचायत कार्यालय सुबह से शाम तक खुला रहता है। कार्यालय में ग्रामीण आते हैं और उनकी समस्याएं बताते हैं, जिनका हर संभव निराकरण किया जाता है। 

संगम में सिक्किम से आई मयल मित ने बताया कि वहां 30 पनबिजली योजनाएं प्रस्तावित हैं। इन योजनाओं का स्थानीय लेपचा आदिवासी विरोध कर रहे हैं। वे खुद भी लेपचा आदिवासी समुदाय से आती हैं। उन्होंने लेपचा आदिवासियों की उत्पत्ति, उनकी मान्यताओं, परंपराओं आदि का अध्ययन किया है। वे बताती हैं कि तथाकथित विकास परियोजनाओं में आदिवासियों की आजीविका, मान्यताओं का कोई स्थान नहीं है।

उन्होंने बताया कि लेपचा आदिवासियों के लिए एक नदी, सिर्फ एक नदी नहीं है, उससे भी अधिक है। उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया उनके गांव की नदी, जिस पर बांध प्रस्तावित है, को वहां के लोग बहुत पवित्र मानते हैं। ऐसा माना जाता है कि बुजुर्गौं की मृत्यु के बाद इस नदी के प्रवाह से होते हुए मृतात्माएं कंचनजंगा में पहुंचती हैं, और वहां शांति से विश्राम करती हैं। अगर बांध बन जाता है तो लोगों के विश्वास को ठेस पहुंचेगी।

गुजरात के पशुपालक बात रखते हुए | फोटो क्रेडिट: सलमान जावेद

गुजरात से आई भावना ने बताया कि पशुपालक मालधारियों के पशुओं के लिए चरागाह व जंगल कम हो रहे हैं। भेड़ व ऊंटों को लेकर उन्हें बाहर पलायन करना पड़ता है। वे 8 माह बाहर रहते हैं और 4 माह घर पर। उनका रास्ता तय है, लेकिन अब उन्हें कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। चरागाह भी अलग-अलग प्रोजेक्टों के लिए दिए जा रहे हैं। किसान भी अब उनके खेतों में पशु चराने नहीं देते। मालधारियों का उनके साथ संघर्ष होता है। यह समय कठिनाईयों से भरा हुआ है।

उन्होंने बताया कि मालधारी महिलाओं को इस पेशे से जुड़ा काफी परंपरागत ज्ञान था। वे पशुओं की देखभाल, बीमार होने पर उनका उपचार जैसे सभी काम करती थीं। पशुओं के लिए दिक्कत न हो, इसलिए इस दिशा में पहल की जा रही है। उन्होंने बताया कि 10 गांवों में चरागाह को विकसित व संरक्षित करने का काम किया जा रहा है।

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली से आए सीताराम हलामी ने कोरची प्रखंड में महा-ग्रामसभा का अनुभव साझा किया। उन्होंने बताया कि यह 85 ग्रामसभा का संघ है, जिसमें 133 गांव जुड़े हैं। इन ग्रामसभाओं का संघ तैयार किया गया है। वन अधिकार कानून के तहत् सामुदायिक वन अधिकार हासिल किया है। इसके लिए लम्बे अरसे तक संघर्ष करना पड़ा। 

अब सामुदायिक वन अधिकार मिलने के बाद यह काम ग्रामसभा के माध्यम से सुचारू रूप से चल रहा है। तेंदू और बांस यहां की प्रमुख वनोपज है। इस काम से लोगों को रोजगार भी मिला है, जंगल व पर्यावरण का संरक्षण भी हुआ। यह स्वशासन का भी अच्छा उदाहरण है।

गहन चर्चा जारी है | फोटो क्रेडिट: अर्जुन स्वामीनाथन

चन्द्रपुर जिले के विजय देथे ने बताया कि पांचगांव में भी साल 2012 में सामुदायिक वन अधिकार मिला और वहां सामूहिक प्रयास से बहुत ही अच्छा रोजगार के साथ पर्यावरण संरक्षण का काम हो रहा है।

महाराष्ट्र के भीमाशंकर से आई महिलाओं ने बताया कि वहां खड़पुर गांव में साल 2012 को सामुदायिक वन अधिकार प्राप्त हुआ है। इसके पहले वे संगठित हुए। वनविभाग भी अब रोजगार देता है। जंगल से कई तरह के कंद व हरी पत्तीदार भाजियां मिलती हैं। वनखाद्यों की प्रदर्शनी भी लगाई जाती है। महिलाओं ने भी स्वयं सहायता समूह बनाए हैं। इन समूहों के माध्यम से अचार, पापड़, लड्डू बनाकर बेचते हैं और कुछ कमाई करते हैं। 

लद्दाख से आए प्रतिभागियों ने वहां की पारंपरिक गोवा स्वशासन व्यवस्था के बारे में बताया। साथ ही लद्दाख में चल रहे 6 वीं अनुसूची में शामिल करने के आंदोलन की भी जानकारी दी। उन्होंने बताया कि यह आंदोलन जारी है। 

संगम के आखिरी दिन कल्पवृक्ष के अशीष कोठारी ने कहा कि लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ चुनाव नहीं है, इसमें समुदायों के अपने जिंदगी के निर्णय लेने की आजादी भी है। उन्होंने कहा कि आज भी अनौपचारिक तरीके से लोग अपने जिंदगी के अधिकांश निर्णय, विवाद और झगड़े निपटाते हैं। गांधीजी भी कहते थे कि हर गांव आजाद होना चाहिए। इस लिहाज से पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था औऱ नई पंचायती राज जैसी व्यवस्थाओं दोनों को समझना जरूरी है। और इनमें समानताएं व अंतर को खोजना, और लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करना जरूरी है।  

सत्र में मधुलिका बनर्जी

संगम की शुरूआत में ट्राइबल हेल्थ इनीशिएटिव के डॉ. रेगी जॉर्ज ने बताया कि साल 1993 में उन्होंने आदिवासियों के साथ मिलकर स्वास्थ्य का काम शुरू किया था। उस समय प्रसव के दौरान मातृ व शिशु मृत्यु होती थी। लेकिन हमने छोटे स्तर पर स्वास्थ्य का काम शुरू किया, जिसने अब सर्वसुविधायुक्त अस्पताल का रूप ले लिया है। इसमें स्थानीय आदिवासी लड़कियां ही स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं, साथ ही आदिवासी महिलाओं को स्वास्थ्य सहायिकाएं बनाया गया है, इन सबका काफी योगदान है। 

उन्होंने बताया कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छा पोषण जरूरी है, इसके लिए जैविक खेती को बढ़ावा दिया गया है। आर्गनिक फार्मर एसोसिएशन के माध्यम से किसान प्रसंस्कृत कर उनके जैव उत्पादों की बिक्री भी करते हैं, जिससे उनको अच्छी आमदनी भी होती है। 

इस दौरान जमीनी प्रयासों के बारे में जानने के लिए प्रतिभागियों ने सित्तिलिंगी ऑर्गेनिक फार्मर्स एसोसिएशन के परिसर का दौरा किया। वहां पौष्टिक अनाजों की प्रसंस्कृत इकाईयों का अवलोकन किया। वहां मिर्ची, हल्दी, उड़द, तुअर आदि को प्रसंस्कृत कर बिक्री के लिए तैयार किया जा रहा था। इन अनाजों व मसालों का उत्पादन किसान गांवों में करते हैं। इससे करीब 700 किसान जुड़े हैं। 

इसके अलावा, संगम के प्रतिभागियों ने जनजातीय स्वास्थ्य पहल अस्पताल का भी दौरा किया गया। यह अस्पताल सर्वसुविधायुक्त है। वर्तमान में 35 बिस्तरों वाला अस्पताल है, जहां सर्जिकल, मेडिकल और प्रसूति संबंधी मरीजों को भर्ती किया जाता है। यहां करीब 5 जिलों से मरीज़ आते हैं, क्योंकि यहां न्यूनतम खर्च पर विशेषज्ञ सेवाएं प्रदान की जाती हैं। वर्तमान में हमारी टीम में 8 पूर्णकालिक डॉक्टर हैं, जिनमें 2 स्त्री रोग विशेषज्ञ भी शामिल हैं।

संगम का समूह फोटो | फोटो क्रेडिट: अर्जुन स्वामीनाथन

तीनों दिन बहुत सारी चर्चाओं से भरे हुए थे और नृत्य, गायन, अच्छा भोजन साझा करना, फिल्में, हंसी और सामूहिक जश्न मनाना भी शामिल था। इस विकल्प संगम की सोच आंध्रप्रदेश में हुए आदिवासी व अन्य सामुदायिक दृष्टिकोण विकल्प संगम’ में बनी थी। यह साल 2022 में टिंबकटू कलेक्टिव संस्था के परिसर में हुआ था। 

कुल मिलाकर, यह विकल्प संगम संगम पारंपरिक व मौजूदा शासन प्रणालियों को समझने में मददगार था। समकालीन समाजों के अनुरूप उनकी विकसित प्रकृति, आधुनिक शासन संस्थानों के साथ उनका जुड़ाव देखना और न्याय और स्थिरता के उद्देश्यों के लिए समग्र शासन को कैसे मजबूत किया जा सकता है, इस पर समझ बनाने की कोशिश करना था। जिसमें काफी हद सफल माना जा सकता है।

लेकिन इसके अलावा, ऐसे संगम के और भी मायने हैं, आज जब ऐसे जनसाधारण से जुड़े मुख्यधारा से गायब हैं, इस पर बात करना और भी जरूरी हो गया है। तीन दिनों तक आपस में मिलना, आपस में बात करना, और विकल्प खोजना, यह वैकल्पिक समाज के सपने देखना, सुखद है। विशेषकर, जब दुनिया में हिंसा-प्रतिहिंसा का दौर चल रहा है। ऐसे निराशा के आलम में आशा व उम्मीद का संगम था।

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