विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)
(Him Tendua Ko Kaise Bachate Hai Ladakhi?)
सभी फोटो -जिगमेत दादुल व सेरिंग आंगमो
“पहले हिम तेंदुआ गांव में आकर भेड़ बकरियों को खा जाता था, आर्थिक नुकसान करता था, लेकिन अब हिम तेंदुआ को लोग बचाते हैं और उसे गांव की पहचान व शान समझते हैं। यह बदलाव स्कूली बच्चों से लेकर युवा, वयस्क, चरवाहे, महिला और बौद्ध धर्मगुरु इत्यादि सबकी भागीदारी से संभव हुआ है।” यह लेह के डा. सेवांग नामग्याल थे, जो इससे पहल से जुड़े हैं।
आगे बढ़ने से पहले लद्दाख के बारे में जान लेना उचित होगा। लद्दाख का अर्थ पहाड़ी दर्रो की भूमि होता है। यह एक सर्द इलाका है। यहां साल में करीब 6 महीने सर्द मौसम होता है, बर्फ जम जाती है। विशाल पर्वत श्रृंखलाएं फैली हुई हैं, और एक दूसरे को आड़े-टेढ़े काटती हैं। यहां विरल आबादी है। छोटे-छोटे गांव हैं, जहां मुख्य धंधा कृषि व पशुपालन है। यहां की मुख्य फसल जौ है, और फल व सब्जियों की खेती भी होती है। सब्जियों के बगीचों में बर्फीली नालों से पानी आता है, जिसके लिए सालों से पारंपरिक नालियां बनी हुई हैं। पहले लद्दाख, जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा था, पर हाल ही में अब केन्द्र शासित प्रदेश बन गया है।
हिम तेंदुआ को बचाने की शुरूआत दो दशक पहले हुई थी। सबसे पहले हिम तेंदुआ व वन्य जीवों के संरक्षण के लिए एक ट्रस्ट बनाया गया था। इसका नाम स्नो लेपर्ड कंजरवेंसी इंडिया ट्रस्ट (एसएलसी-आईटी) है, जो वर्ष 2003 में बना था। इसके सहसंस्थापक रिनचेन वांगचुक थे, जो एक लद्दाखी प्रकृतिवादी और पर्वतारोही थे। यह ट्रस्ट प्रकृति व हिम तेंदुआ के संरक्षण में जुटा हुआ है। यह ट्रस्ट स्थानीय लोगों के साथ मिलकर लुप्त होती प्रजाति हिम तेंदुआ को बचाने में लगा है।
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यह हिमालय की उन पहली संस्थाओं में से एक है, जिसने वन्य जीवों के साथ समुदायों की आजीविका संरक्षण का काम किया है। यह संस्था प्रकृति संरक्षण, वन्य जीवों के संरक्षण और समुदाय की आजीविका की रक्षा के कार्यक्रम संचालित कर रही है, जो आर्थिक रूप से व्यावहारिक और टिकाऊ हैं, और सामाजिक रूप से जिम्मेदार भी हैं। हिम तेंदुआ, बिल्ली प्रजाति की एक शिकारी प्रजाति है। पर्वतों की चोटी पर पाई जानेवाली इस प्रजाति के संरक्षण को संस्था ने प्राथमिकता दी है, जिसे संस्था समग्रता में देखती है।
संस्था यह मानती है कि यह संरक्षण कार्यक्रम, स्थानीय समुदायों की भागीदारी के बिना सफल नहीं हो सकता है। इसलिए युवाओं को इसमें जोड़ा है, उन्हें निर्णय लेने से लेकर योजना बनाने और उसे क्रियान्वयन करने की प्रक्रिया में शामिल किया है। इसी कड़ी में स्थानीय समुदाय के साथ मिलकर,उनके संसाधनों के सहयोग से हिम तेंदुआ और अन्य वन्य जीवों का संरक्षण किया जा रहा है। इस पहल में बहुत कम समय में सफलता मिली है और लोगों का हिम तेंदुआ व वन्य जीवों के प्रति व्यवहार में बदलाव आया है।
डा. सेवांग नामग्याल बताते हैं कि हिम तेंदुआ एक मनोहारी प्रजाति है, पर इसका पशुपालक किसानों के साथ संघर्ष होता रहा है। उन्हें पशुओं को बाड़े में सुरक्षित रखना और उनकी परवरिश करने में चुनौती आती रही है। इस कारण इसमें कई स्तरों पर काम करने की जरूरत थी। जैसे पहले हिम तेंदुआ को शिकार से बचाना, उसके पर्यावास को बचाना, यानी उन पर्वत चोटियों की भी रक्षा करना, जहां वह विचरण करता और रहता है, फिर हिम तेंदुआ से लोगों के पशुओं की भी रक्षा करना, यानी लोगों की आजीविका की भी रक्षा करना। संस्था ने इन सभी स्तरों पर काम किया। सबसे पहले लोगों को जागरूक किया। कई पशुपालक किसानों को तार-जाल देकर उनके बाड़े की सुरक्षा की, जिससे हिम तेंदुओं से उनके पशुओं की रक्षा की सके। इसके अलावा, संस्था ने समुदाय के द्वारा संचालित पशु बीमा योजना में उनका सहयोग किया। यह पशु बीमा योजना उल्ले, ससपोटसे और यांगत्सांग गांव में चल रही है।
वे आगे बताते हैं कि हिम तेंदुआ और मनुष्य के सहअस्तित्व को प्रोत्साहित करना हमारा प्रमुख उद्देश्य है। यह प्रकृति व मनुष्य के अस्तित्व के लिए भी जरूरी है। अगर हिम तेंदुआ नहीं रहेंगे, तो ज्यादा वन्य-जीव बढ़ जाएंगे, अगर ज्यादा वन्य जीव बढ़ जाएंगे तो घास-फूस की कमी हो जाएगी, और जब घास-फूस की कमी हो जाएगी तो पालतू जानवरों को चारा नहीं मिल पाएगा, मिट्टी का क्षरण हो जाएगा और गांव में बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा, इससे पूरा इलाका रेगिस्तान बन जाएगा, जिससे खेती नहीं हो पाएगी, इससे लोगों की खाद्य सुरक्षा में कमी आएगी। इसलिए हिम तेंदुआ का रहना सबके लिए और उसके खुद के लिए भी जरूरी है। मनुष्य के लिए भी और प्रकृति के लिए भी और पर्यटन के लिए भी। हर प्रजाति की प्रकृति में अपनी भूमिका है, इसे समझने की जरूरत है।
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वे बताते हैं कि इसके लिए संस्था ने कई स्तरों पर कार्यक्रम शुरू किए हैं। एक तो किसानों के साथ मिलकर पशुओं की रक्षा करने के लिए बाड़े बनवाए हैं। इसके लिए तार-जाल दिए हैं, जिससे बाड़े की छत को ढक सकें, और पालतू पशु सुरक्षित रह सकें। दूसरी तरफ होमस्टे जैसे कार्यक्रमों से लोगों की आमदनी बढ़ाने में मदद की है।
वे आगे बताते हैं कि होमस्टे यानी उनके घर के अतिरिक्त कमरे को सैलानियों को किराये पर देना। उन्हें ठहरने व भोजन की सुविधा उपलब्ध कराना। इसके लिए महिलाओं ने उनके घर में अतिरिक्त कमरे व शौचालय का निर्माण कराया। यह पर्यटकों को स्थानीय संस्कृति से सीखने व जुड़ने का मौका देता है। इससे स्थानीय लोगों को अतिरिक्त आमदनी होती है। इससे हिम तेंदुआ व वन्य जीवों से जो आर्थिक नुकसान होता है, उसकी कुछ हद तक क्षतिपूर्ति भी हो जाती है। फिलहाल, संस्था पूरे लद्दाख में करीब 40 गांवों में होमस्टे कार्यक्रम चला रही है। इस कार्यक्रम को वन्य जीव संरक्षण के लिए अन्य संस्थाओं के साथ सरकार ने भी अपनाया है।
पिछले साल सितंबर माह में मुझे भी ससपोटसे गांव में एक होमस्टे में ठहरने का मौका मिला था, जहां लोगों का आत्मीय स्नेह मिला था और वहां मैंने लद्दाखी भोजन का लुत्फ उठाय़ा था। लद्दाखी रोटी खाम्बीर और नमकीन चाय पी थी। मैं रिगजेन आंगमो नामक महिला के घर ठहरा था, जिनके पति का निधन कुछ साल पहले हो गया था। उनकी अधिकांश आजीविका होमस्टे से ही चलती है। होमस्टे से मिलनेवाली 10 प्रतिशत राशि गांव के विकास के लिए ग्रामकोष में जमा होती है, जबकि शेष राशि वे खुद रखती हैं।
ससपोटसे गांव में पहाड़ी नाले से छोटी नहर के द्वारा पानी लाया जा रहा था, जिससे खेतों में फसलें व बाड़े में किचन गार्डन में सब्जियों की खेती होती है। इशेय लामो नामक महिला के किचन गार्डन में गोभी, मटर, गाजर, मूली, शलजम इत्यादि सब्जियां थीं। उन्होंने मुझे ताज़ी सब्जियों की सब्जी पकाकर खिलाई थी। उनके घर के आसपास खोबानी और चांगमा इत्यादि के फलदार पेड़ भी थे। यहां पानी से चलनेवाली पनचक्की भी मैंने देखी थी। इसमें गेंहू का आटा पिसाने के लिए बारी-बारी से लोग आते हैं, और खुद पनचक्की चलाकर आटा पिसाकर ले जाते हैं। यहां लोगों के घरों में भेड़, बकरी, भैंस भी थीं, जिसे वे पहाड़ों पर चराने ले जाते थे।
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ससपोटसे में होमस्टे के साथ स्थानीय खाद्य उत्पाद और हस्तशिल्प कार्यक्रम भी चलाया जा रहा है। लेह और कारगिल जिले के 40 गांवों मे यह कार्यक्रम चल रहा है। इसके लिए ग्रामीण महिलाओं को प्रशिक्षित किया गया है, जो ऊनी कपड़े- जैसे मोज़े, दस्ताने, झोले, टोपी बनाती और बेचती हैं। इसके अलावा, हाथ से बने वन्य-जीवों के खिलौने जैसे हिम तेंदुआ भी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र हैं। इससे भी उन्हें वैकल्पिक कमाई का मौका मिल रहा है।
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पिछले कुछ सालों में लद्दाख में पर्यटन काफी बढा है। और यहां की अधिकांश आबादी पर्यटन आधारित आजीविका पर आश्रित है। गर्मी में ये लोग पर्यटन की गतिविधियों में सक्रिय रहते हैं। इसलिए जरूरी है कि स्थानीय युवा और वयस्क यहां की समृद्ध जैव विविधता से अवगत हों और इसमें पर्यटकों का मार्गदर्शन कर सकें।
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डा. नामग्याल बताते हैं कि संस्था का मानना है कि युवाओं को संवेदनशील बनाकर ही हिम तेंदुआ जैसे वन्य जीवों को बचाया जा सकता है। संस्था ने 3200 स्कूल व कॉलेज के विद्यार्थियों को जैव विविधता के बारे में जागरूक करने का प्रयास किया है। लेह व कारगिल जिले के 475 शिक्षकों को भी इससे जोड़ा है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि 373 शालात्यागी बेरोजगार युवाओं को प्रकृति मार्गदर्शक (नेचर गाइड) का प्रशिक्षण दिया है, जिससे गांव में ही कुछ कमाई कर सकें और पर्यटकों को ग्रामीण लद्दाख के प्राकृतिक सौंदर्य व संस्कृति से अवगत करा सकें। और शहरों की ओर जो पलायन हो रहा है, उसे रोका जा सके। यह पहल जांस्कार, नुब्रा, चांगथंग, शाम घाटी में चल रही है, जहां संस्था कार्यरत है।
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संस्था की कार्यकर्ता सेरिंग आंगमो बतलाती हैं कि शुरूआत में एसएलसी-आईटी और कल्पवृक्ष ने मिलकर संयुक्त रूप से कुछ स्कूलों में पर्यावरण शिक्षा कार्यक्रम चलाया था। एसएलसी-आईटी ने इस काम को जारी रखा है। अब इस कार्यक्रम का विस्तार काफी सारे स्कूलों में हो गया है। इसके तहत् प्रतिभागियों को हिम तेंदुआ, वन्य-जीव, पेड़-पौधों और स्थानीय पशु-पक्षियों के बारे में जानकारी दी जाती है। इसके लिए कई स्कूलों में प्रतिवर्ष 6 कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं। हर कार्यशाला एक या दो दिन की होती है। कार्यशाला गर्मी की छुट्टी में होती हैं। इस कार्यशाला में शैक्षणिक सामग्री के रूप में पोस्टर, पर्चे, पुस्तिकाओं का इस्तेमाल किया जाता है जिसे कल्पवृक्ष और उनकी संस्था ने मिलकर तैयार किया है। बच्चों को फील्ड विजिट पर भी ले जाया जाता है, जिससे वे सीधे प्रकृति से जुड़कर सीख सकें।
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कुल मिलाकर, इस पूरी पहल के बारे में कुछ बातें कही जा सकती हैं। इससे हिम तेंदुआ. वन्य जीव व प्रकृति के संरक्षण के साथ समुदायों की आजीविका की भी रक्षा हो रही है। बड़े पैमाने पर हिम तेंदुआ को मारने की समस्या पर रोक लगी है और मनुष्य व जानवर में संघर्ष में भी कमी आई है। हिम तेंदुआ के प्रति व्यवहार में परिवर्तन आया है, अब वह विनाशकारी जानवर से पर्यटन के लिए आकर्षण का केन्द्र बन गया है। इससे निष्कर्ष रूप में यह कहा सकता है कि वन्य जीवों की सुरक्षा व संरक्षण स्थानीय समुदायों की भागीदारी से की जा सकती है, जो लद्दाख की इस पहल ने कर दिखाया है। विशेषकर, पहाड़ी इलाकों के संदर्भ में यह पहल और भी महत्वपूर्ण व जरूरी हो जाती है, क्योंकि पहाड़ों में सीधे निगरानी करना संभव नहीं होता, यहां तो स्थानीय समुदाय ही निगरानी व संरक्षण कर सकते हैं।
होमस्टे से महिलाओं की वैकल्पिक आय बढ़ रही है। और यह जवाबदेह व समावेशी पर्यटन का भी अच्छा उदाहरण है। पर्यटन की दृष्टि से भी यह पहल महत्वपूर्ण है। आज जब लद्दाख में पर्यटन बड़े पैमाने पर शुरू हो रहा है, बड़ी संख्या में पर्यटक आ रहे हैं, तब यह भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि इससे वन्य जीव, जैव विविधता व स्थानीय पर्यावरण का नुकसान न हो, स्थानीय समुदायों की आजीविका की रक्षा हो। होमस्टे की पहल में इसका विशेष ख्याल रखा जाता है। इससे सैलानियों का मेल-मिलाप होता है, संस्कृति का आदान-प्रदान होता है। पर्यटक ग्रामीणों की जिंदगी को करीब से देख पाते हैं। उनके दुख-दर्द से जुड़ पाते हैं। इसके साथ ही स्थानीय खाद्य उत्पादों को प्रोत्साहित करना, स्थानीय खान-पान की संस्कृति को बढ़ावा देना और उससे आय बढ़ाने जैसे काम भी हो रहें हैं। स्थानीय ऊनी उत्पादों को बनाने व बेचने जैसी हस्तशिल्प की पहल से महिलाओं की आमदनी बढ़ी है। युवाओं को नेचर गाइड का प्रशिक्षण दिया गया है, जिससे उन्हें रोज़गार से जोड़ा जा सके और वे पलायन न करें। कुल मिलाकर, यह पहल महिला, युवा और स्थानीय समुदायों के सशक्तीकरण का भी अच्छा उदाहरण है। इस पहल ने एक नई राह दिखाई है, जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।
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यह कहानी 21 जनवरी 2023 को अमर उजाला में भी प्रकाशित हुई है (The story has also been published in Amar Ujala on 21 Jan. 2023)