(Hariyali Se Swavlambi Banta Gaav)
विकल्प संगम के लिए लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)
पेड़ लगाने, जल संरक्षण, जैविक खेती इत्यादि काम करने से यह विस्थापित गांव आत्मनिर्भर बन रहा है
फोटो क्रेडिट: शिवलाल बारस्कर
काकड़ी गांव वैसे तो एक साधारण विस्थापित गांव है पर यहां के आदिवासियों ने इसे हरा-भरा करने और इसे पर्यावरण से जोड़ने की राह अपनाई है, वह असाधारण है। इससे इस गांव को टिकाऊ व आत्मनिर्भर गांव बनाने की बहुत संभावनाएं बढ़ गई हैं।
होशंगाबाद (अब जिले का नाम नर्मदापुरम हो गया है) जिले में वन्य प्राणियों के लिए तीन सुरक्षित क्षेत्र बनाए गए हैं- सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान, बोरी अभयारण्य और पचमढ़ी अभयारण्य, तीनों को मिलाकर सतपुड़ा टाईगर रिजर्व बनाया गया है। पचमढ़ी नामक हिल स्टेशन इनके बीच स्थित है। इसके लिए गांव विस्थापित हुए हैं।
काकड़ी गांव, सतपुड़ा अंचल का एक विस्थापित गांव है, जो सतपुड़ा टाईगर रिजर्व से विस्थापित है। इसमें 34 घर हैं, सभी कोरकू आदिवासी हैं। नर्मदापुरम ( पूर्व में होशंगाबाद जिला था) जिले का यह गांव नया धांई पंचायत के अंतर्गत आता है। यहां के अधिकांश आदिवासियों को पुनर्वास के लिए 5 एकड़ जमीन और ढाई लाख रूपए दिए गए हैं।
गांव के जयसिंह ने बताया कि ऐसे 30 आदिवासी परिवार हैं, जिन्हें ज़मीन मिली है। बाकी लोगों को पुनर्वास के लिए प्रति वयस्क व्यक्ति 10 लाख रूपए दिए गए हैं। इस गांव के आदिवासियों में शुरू से एकता थी और वे मिलकर सामूहिक रूप से काम करते थे।
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उन्होंने बताया कि हरा-भरा बनाने की पहल इसलिए भी की गई क्योंकि हमारा पुराना गांव बोरी अभयारण्य के अंदर था। वहां भी वह एक हरा-भरा स्वावलंबी गांव था। हम एक ज़माने में बाज़ार से नमक और कपड़ा खरीदते थे, बाकी जरूरत की चीजें अपने खेत से ही पैदा करते थे। कुछ चीजें हमें जंगल से मिल जाती थीं। जंगल व पेड़ों के बिना आदिवासी नहीं रह सकते हैं। दातौन से लेकर शादी-विवाह व पूजा पद्धतियों में पेड़ों की जरूरत होती है, उनकी कमी महसूस न हो इसलिए बड़े पैमाने पर पेड़ लगाए गए। नए गांव को स्वावलंबी व हरा-भरा व स्वच्छ बनाने की सोच बनी।
वे आगे बताते हैं कि इस बदलाव की कहानी वर्ष 2015-16 से शुरू हुई, जब यह गांव सतपुड़ा टाईगर रिजर्व से विस्थापित होकर यहां नए गांव के रूप में बसने के लिए आया। सबसे पहले गांव के लोगों ने बैठक कर तय किया कि किस तरह गांव बसेगा, कहां से सड़क निकलेगी, कितनी चौड़ी होगी, घर कहां बनेगा, घर के लिए कितनी जमीन छोड़ेगे और आंगन के लिए कितनी जगह छोड़ी जाएगी। पेड़ लगाने के लिए कितनी जगह लगेगी और किस प्रजाति के पेड़ लगाए जाएंगे।
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जयसिंह बताते हैं कि आपसी विचार विमर्श के बाद गांव की पूरी योजना तैयार की गई। गांव की पुनर्वास समिति के अध्यक्ष, सचिव व सदस्य सभी इस बैठकों में शामिल होते थे। योजना के अनुसार जब लोगों ने उनके घर बनाना शुरू किए, पंक्तिबद्ध मकान बनाए गए और उनके आगे 50 फुट जमीन खाली छोड़ी गई। इनमें दो पंक्तियों में फलदार व छायादार पेड़ लगाए गए। इसके पहले पिपरिया, मटकुली, पचमढ़ी की नर्सरी से भी फलदार व छायादार पौधे लाए गए और रोपे गए।
गांव के मनोहर लवसकर, शिवलाल बारस्कर और प्रयाग सेलूकर ने बताया कि इनमें आम, अमरूद, नींबू, कटहल, जामुन, छीताफल, आंवला, पपीता, मुनगा, महुआ इत्यादि पेड़ शामिल हैं। बांस, सागौन और केवलार भी हैं। सभी लोग पौधों की देखरेख करते हैं। उनमें पानी व गोबर खाद देते हैं और जरूरत पड़ने पर गुड़ाई करते हैं।
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वे आगे बतलाते हैं कि गांव के प्राथमिक शाला परिसर में ही 79 पेड़ रोपे गए हैं। शाला भवन हरा-भरा है, इससे बच्चे भी पर्यावरण के बारे में सीख सकेंगे। पौधों की प्रजातियाँ, बीज, पत्ती, फूल व फल और फिर बीज के चक्र को समझ सकेंगे। यहां हरियाली बढ़ने से पक्षियों की कई प्रजातियों देखी गई हैं, जैसे गौरेया, तोता, उल्लू, कोयल,कौआ, बगुला, टिटहरी, नीलकंठ इत्यादि।
उन्होंने बतलाया गांव के लोगों ने तय किया है कि यहां अगर किसी बेटी की शादी होती है तो उसके ससुराल में दो फलदार पेड़ रोप जाएंगे, जिससे उसे इस गांव की याद बनी रहेगी। क्योंकि इस गांव में तो उसे पेड़ों से खूब फल खाने मिलते हैं, ससुराल में भी मिलें। और उसे मायके की कमी न खले।
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पुनर्वास समिति के अध्यक्ष लखनलाल कलमे ने बताया कि हमने वर्षा के पानी की बूंद-बूंद को भूजल बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया है। यहां के हर घर की छत का पानी सोख्ता गड्ढा से जमीन के अंदर वर्षा जल संचयन पद्धति से जमीन में डाला जा रहा है, जिससे भूजल बढ़ रहा है। यहां की जमीन हल्की पथरीली है, उसकी जलधारण क्षमता कम है, भूजल स्तर हर साल नीचे जा रहा है। इसके मद्देनजर पानी की कमी को दूर करने के लिए यह पहल बहुत महत्वपूर्ण है। वर्षा जल को भूमि के अंदर डालकर मौजूद पानी के स्तर को बढ़ाया जा सकता है।
जयसिंह ने बताया कि उन्होंने जैविक खेती शुरू की है, जिससे जैविक अनाज के साथ पर्यावरण का भी नुकसान नहीं होता है। रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं को छोड़कर गोमूत्र और गोबर से तैयार खाद और फसल रक्षा के छिड़काव को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसी प्रकार, सब्जियों की खेती की जा रही है। उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य व स्वाद की दृष्टि से जैविक खेती बहुत अच्छी है। प्राकृतिक खेती करने से जमीन भी सुधर रही है। वह भुरभुरी, पोली व हवादार हो रही है और उसमें नमी देर तक बनी रहती है।
गांव की जमुना बाई श्यामवती, और अनुसुइया ने बताया कि हर घर में सब्जी-बाड़ी है। पानी भी अलग से नहीं देना पड़ता है। घरेलू उपयोग होने के बाद जो बेकार पानी बचता है, वह सब्जियों में देते हैं। भटा ( बैंगन), टमाटर, लौकी, गिलकी, बरबटी, गाजर, प्याज लहसुन इत्यादि लगाते हैं। फल के साथ सब्जियां भी बाज़ार से लाना लगभग बंद कर दिया है। कभी-कभार ही सब्जियां बाज़ार से लाते हैं। उन्होंने बताया कि पहले फल बेचनेवाले आते थे, तो बच्चे दौड़ते थे खरीदने के लिए,अब हर घर में खूब फल मिलते हैं। पेड़ों की परवरिश एक बच्चे की परवरिश की तरह करते है। और उन्हें बड़े होते देखना, बच्चो की तरह ही संतोष देता है।
किसान आदिवासी संगठन के कार्यकर्ता फागराम कहते हैं उनका संगठन हमेशा से ही जंगल बचाने व हरियाली का पक्षधर रहा है। काकड़ी के लोग भी संगठन से जुड़े रहे हैं। यह पहल दूसरे गांव में भी होनी चाहिए, ऐसा प्रयास करेंगे। वैसे इस तरह की एक पहल बैतूल जिले में श्रमिक आदिवासी संगठन चला रहा है, जो बारिश के पहले गांव-गांव में हरियाली यात्रा निकालकर पौधे रोपने का संदेश देता है। और इससे क्षेत्र में हरियाली बढ़ी है।
कुल मिलाकर, पेड़ों से साफ हवा मिलती है, फल, फूल और पत्ते मिलते हैं और हरियाली हो रही है। ऐसी हरियाली जंगल में खूब थी, अब यहीं छोटा हरा-भरा जंगल बन गया है। आगे इन्हीं पेड़ों से फल मिलेंगे, उनके भोजन में पौष्टिक फल शामिल होंगे, और अतिरिक्त होने पर उनकी बिक्री से आमदनी भी होगी, जिससे लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा। सब्जी बाड़ी करने से लोगों के खान-पान बेहतर होगा। स्वास्थ्य अच्छा होगा।
जलवायु बदलाव के दौर में पेड़ों व हरियाली से वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैस सोखने की क्षमता बढ़ती है। यह जलवायु बदलाव कम करने का तरीका है। जैविक खेती में ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन है ही नहीं, दूसरी ओर मिट्टी बेहतर होती है। दूसरा अनुकूलन का पक्ष भी है। जलवायु बदलाव के दौर में अधिक विकट व अचानक बदलाव वाले मौसम का सामना करने की क्षमता इसमें होती है। यानी पेड़ लगाना, जल संरक्षण, हरियाली बढ़ाने और नए फलदार पेड़ लगाने का काम बहुत महत्वपूर्ण व उपयोगी है। यह सराहनीय पहल होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।