झारखण्ड के एक आदिवासी गाँव द्वारा एथ्नोमेडिसिन ज्ञान को बचाए रखने का प्रयास (in Hindi)

By भावना बिष्ट (हिंदी अनुवाद)onNov. 13, 2021in Health and Hygiene

विकल्प संगम के लिये विशेष अनुवादित किया गया लेख  (SPECIALLY TRANSLATED FOR VIKALP SANGAM)

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भारत के आदिवासी इलाकों में ‘सभ्यता’ और ‘आधुनिकता’ के कदम पड़ने के बाद से प्राकृतिक-परम्परागत चिकित्सा की हमारी वर्षों पुरानी विरासत के ऊपर खतरा मंडरा रहा है।

जना गाँव के बच्चे औषधी पौधों के साथ

जना, झारखण्ड के गुमला जिले में स्थित एक गाँव है। यहाँ की 90% से ज़्यादा जनसंख्या आदिवासी है जिस कारण यहाँ के जीवन के ज़्यादातर पहलू आदिवासी संस्कृति को दर्शाते हैं।

गाँव में सालों से रह रहे लोग याद करते हुए बताते हैं कि सदियों पहले उनके पूर्वज यहाँ आ कर बस गए थे। पहले, अपना जीवन यापन करने के लिए वे ज़्यादातर स्थानीय संसाधनों पर निर्भर रहा करते थे।

हालाँकि समय के साथ आधुनिक सुख-सुविधाएं भी जना तक पहुँचने लगीं। अब जना भी वैज्ञानिक और औद्योगिक विकास से वंचित नहीं रहा, फिर चाहे वो विकास कृषि संबंधित हो, या स्वास्थ्य और जीवन-शैली संबंधित।

भले ही गाँववालों को अब भी अपनी पारंपरिक कृषि पद्धति कुछ हद तक याद है, लेकिन उनके पूर्वजों का एथ्नोमेडिसिन (कीड़े-मकौड़ों, पेड़-पौधों और जानवरों के अलग-अलग भागों/शारीरिक अंगों से दवाइयाँ बनाने का पारंपरिक ज्ञान) संबंधित ज्ञान बस कुछ मुट्ठी भर लोगों तक ही सीमित रह गया है।

एथ्नोमेडिसिन क्या है?

जॉर्ज फोस्टर (George Foster) और बारबरा एंडरसन (Barbara Anderson) द्वारा साल 1978 के अपने एक निबंध “मेडिकल एंथ्रोपोलॉजी” (Medical Anthropology) में ‘एथ्नोमेडिसिन’ को किसी समाज के लोगों के स्वास्थ्य, ज्ञान, मूल्यों, विश्वास, कुशलताओं और कार्यप्रणाली/ परंपराओं के मेल के रूप में समझाया है, जिसमें उनके स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी सभी रोग विषयक और गैर-रोग विषयक कार्यकलाप भी सम्मिलित हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार विकासशील देशों की लगभग 88% जनसंख्या मुख्य तौर पर परंपरागत दवाइयों पर ही निर्भर है और इनमें से भी प्रारंभिक उपचार के लिए ज़्यादातर पेड़-पौधों के भागों (जड़ें, फूल-पत्तियाँ इत्यादि) पर ही भरोसा किया जाता है। जना की तरह ही एथ्नोमेडिसिन और प्राकृतिक चीज़ों, पेड़-पौधे और जानवरों का ज्ञान पूरे विश्व से विलुप्त होता जा रहा है।

एथ्नोमेडिसिन पद्धति की शुरुआत मुख्यतः शिकारी समाज से हुई। इस समाज में बीमारियों को लोगों को होने वाली समस्या के रूप में देखा जाता है।

होराचियो फाबरेगा (Horacio Fabrega) ने अपने लेख “द नीड फ़ॉर ऐन एथ्नोमेडिकल साइंस” (The need for an Ethnomedical Science) में तर्क दिया है कि एथ्नोमेडिसिन एक सिद्धांत पर आधारित है। उस तर्क के अनुसार, मनुष्य का अस्तित्व उसके शरीर और उसकी संस्कृति से है।

एथ्नोमेडिसिन और आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सा में सबसे बड़ी भिन्नता यही है कि एलोपैथिक चिकित्सा में मनुष्य के अस्तित्व को केवल उसके शरीर से देखा जाता है (मानसिक रोगों को छोड़ कर) और एथ्नोमेडिसिन चिकित्सा में मनुष्य का अस्तित्व उसका शरीर और संस्कृति दोनों होते हैं। जिसकी वजह से, इन दोनों पद्धतियों में बीमारियों की पहचान अलग तरह से की जाती है|

एथ्नोमेडिसिन चिकित्सा में किसी व्यक्ति के व्यवहारिक बदलावों के ज़रिये ही उसकी बीमारी का पता लगाया जाता है। ज़्यादातर मामलों में बीमारी के उपचार के लिए पूरे गाँव को या कुछ लोगों के एक समूह को शामिल किया जाता है। हालाँकि, एलोपैथिक उपचार के प्रभाव से अब एथ्नोमेडिसिन उपचार में भी बीमारियों को आधुनिक नामों से पहचाने जाने लगा है|

लातेहार की ओराँव जनजाति की एथ्नोमेडिसिन पद्धति को राफेल रंजीत मरांडी (Raphael Ranjit Marandi) और एस. जॉन ब्रिटो (S. John Britto) के लेख “एथ्नो-मेडिसिनल प्लांट्स यूज़्ड बाय द ओराँव ट्राइबल्स ऑफ़ लातेहार डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ झारखंड, इंडिया” (“Ethnomedicinal Plants used by the Oraon Tribals of Latehar district of Jharkhand, India”) में टाइफाइड, डायबिटीज, आदि जैसी बीमारियों के नाम लिखे गए हैं। जिससे पता चलता है कि यह बीमारियों की समझ बनाने की उनकी एक कोशिश थी।

एथ्नोमेडिसिन चिकित्सा का एक पहलू यह है कि यह एक सामूहिक कार्य है, जिसमें रोग की पहचान करने से लेकर उसके उपचार करने तक सब सम्मिलित है| इसमें किसी व्यक्ति की बीमारी को उसके व्यावहारिक बदलावों द्वारा समझा जाता है|

एक समूह के लोग उपचार में इस्तेमाल होने वाली चीज़ों को इकट्ठा करते हैं और उनसे एक मिश्रण या काढ़ा तैयार करते हैं। यह उपचार काफ़ी विस्तृत तरीके से होता है, जहाँ पूरा गाँव या किसी एक समूह के लोग भाग लेते हैं और बीमार व्यक्ति ठीक होने में उन लोगों की मदद लेता है।

मुड़ झटनी और करम के पत्ते साधारण बीमारियों की रोक-थाम के लिए कैसे इस्तेमाल किये जाते हैं

इसका दूसरा पहलू यह है कि एथ्नोमेडिसिन चिकित्सा का यह कार्य स्थानीय धर्म पर आधारित है, जिसमें प्रकृति की पूजा की जाती है। प्रकृति के प्रति इस भक्ति-भाव और निष्ठा को जॉन राइट (John Wright) ने अपने किताब “ह्यूमन नेचर इन जियोग्राफी” (Human Nature in Geography) में ‘जियोपीएटी’ (Geopiety) नाम की संज्ञा दी है। एक विशेष स्थान या पेड़ को धार्मिक मना जाता है। जैसे ओराँव जनजाति के लोग ‘साल’ और ‘करम’ के पेड़ की पूजा करते हैं।

एथ्नोमेडिसिन पर संकट

जंगल हमेशा से एथ्नोमेडिसिन का प्रमुख स्रोत रहे हैं। हालाँकि, जंगलों के वन विभाग के अधीन होने के बाद से प्राचीन एथ्नोमेडिसिन चिकित्सा पद्धति बुरी तरह से प्रभावित हुई है।

लकड़ी, राज्य के राजस्व का एक बहुत महत्वपूर्ण स्रोत बन गया। लकड़ी के अलावा जंगल में पाई जाने वाली हर चीज़ को सिर्फ़ घास-फूस समझा जाने लगा, जिसके परिणामस्वरूप बहुत से औषधीय पेड़-पौधों को भी घास-फूस की नज़रों से ही देखा जाने लगा। साथ-साथ कई दशकों तक खनन, खेती-बाड़ी, उद्योग और निर्माण कार्यों के लिए इन जंगलों की कटाई और खुदाई होती रही।

लेकिन जैसे पेड़-पौधे और जानवरों की प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही थीं, ठीक वैसे ही एथ्नोमेडिसिन के चिकित्सक या एथ्नोमेडिसिन के जानकार, जंगल और जंगलों में पाई जाने वाली प्रजातियों से भी तेज़ी से विलुप्त होने के कगार पर थे। पौधों और अन्य औषधीय प्रजातियों का ज्ञान, उन प्रजातियों के विलुप्त होने से पहले ही कहीं खोता जा रहा था।

देसी ज्ञान की हानि के कारण आधुनिक औषधियों पर काफ़ी गहरा असर पड़ा है। चार्ल्स अन्यिनम (Charles Anyinam) ने अपने लेख “इकोलॉजी एंड एथ्नोमेडिसिन” (Ecology and Ethnomedicine) में वर्षों पुराने लोकगीतों का ज़िक्र करते हुए उनका महत्व बताया है, कि कैसे उन लोकगीतों की वजह से आज लोग सरलता से औषधियों की पहचान कर लेते हैं। लोकगीतों के मार्गदर्शन से डीजीटॉक्सिन (digitoxin), रेसेर्पिन (reserpine), ट्यूबोक्युररिन (tubocurarine), एफेड्रिन (ephedrine) इत्यादि जैसी कई आधुनिक औषधियों के बारे में पता चला है।

जैसा कि एनआर फ्रैंसवर्थ (NR Fransworth) ने अपने लेख, “द रोल ऑफ़ एथ्नोफार्माकोलॉजी इन ड्रग डेवलपमेंट” (The Role of Ethnopharmacology in Drug Development) में बताया है, कि विश्वभर में इस्तेमाल होने वाली 121 जैविक औषधियाँ, जो कि पौधों से बनाई गई हैं, उनमें से 74% औषधियों का उपयोग एथ्नोमेडिकल चिकित्सा के लिए किया जाता है। इस बात की सत्यता की जांच के लिए कई शोध भी कराए जा चुके हैं।

सदियों से स्थानीय चिकित्सक और अन्य लोग स्थानीय पौधों और जानवरों से अपनी दवा का जुगाड़ करते आ रहे हैं और ऐसा करते हुए उन्होंने कभी इनकी आबादी को नुकसान नहीं पहुँचाया। उन्होंने हमेशा इस बात का विशेष ध्यान रखा कि उनकी जरूरतों का पड़े-पौधों और जानवरों की प्रजातियों या उनकी आबादी पर कोई बुरा प्रभाव ना पड़े।

औषधीय पौधों और जानवरों के शारीरिक अंगों की बिक्री न करना एथ्नोमेडिसिन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू था। हालाँकि, पिछले कुछ दशकों में आयुर्वेदिक दवाइयों की बिक्री बढ़ गई है।

आयुर्वेदिक दवाइयों की बढ़ती मांग की वजह से विकासशील देशों के कई भागों में औषधीय पौधों की बड़े पैमाने पर खेती, फैक्टरियों में आयुर्वेदिक दवाइयों का बनना और औषधियों के लिए जानवरों का अवैध शिकार जैसे कई कार्य किए जा रहे हैं। हमारे देश में पतंजलि आयुर्वेद ने अपनी शुरुआ ती एक दशक के अंदर ही साल 2016–2017 में, अपनी सालाना आय 10,216 करोड़ रुपये दर्ज की। यह सब औषधीय पौधों और जानवर प्रजाति की आबादी पर बहुत बुरा असर डाल रहा है।

जना का संघर्ष

जना जंगल के किनारे बसा हुआ एक गाँव है और यहाँ के निवासी जंगल को अपने जीवन का एक अभिन्न अंग मानते हैं। पहले वे लोग जैविक-पदार्थों के लिए जंगलों पर निर्भर थे, जिससे वे ठीक से खेती कर सकें और उनकी भोजन, जानवरों के लिए चारे और ईंधन की ज़रूरतें आराम से पूरी हो सकें।

हालाँकि, धीरे–धीरे आधुनिक सुविधाओं के आने से जंगलों पर इनकी निर्भरता कम हो रही है। लगभग 65-70 वर्षीय एक बुज़ुर्ग ग्रामवासी, महादेव ओराँव बताते हैं कि जना के लोगों को पहले जंगलों के बारे में काफ़ी ज्ञान था। जंगल उनकी दवाइयों का स्रोत भी थे। उन्होंने आगे बताया कि गाँव में कई लोग ऐसे भी थे जिनके पास चिकित्सा संबंधी ज्ञान था, वे उपचार के लिए जंगल के पौधों और जानवरों के शरीर के कुछ अंगों का इस्तेमाल करते थे।

जना की एथ्नोमेडिसिन पद्धति में काफ़ी बदलाव आए हैं। आजकल लगभग सभी स्थानीय लोगों में एलोपैथिक दवाइयों की मांग ज़्यादा होने लगी है। वे अब बीमारियों के एलोपैथिक नामों का इस्तेमाल भी करने लगे हैं। इस वजह से एथ्नोमेडिसिन चिकित्सा, गाँव के लोगों तक न पहुँच कर अब केवल चिकित्सक तक ही सीमित रह गई है।

आदिवासी समुदाय, मुख्यतः स्थानीय महिलाओं ने एथ्नोमेडिसिन चिकित्सा के ज्ञान को आने वाली पीढ़ियों के लिए संग्रहित करने की इच्छा जताई। उन्हें डर है कि उनके पूर्वजों का ज्ञान वर्तमान पीढ़ी तक ही सीमित रह कर कहीं हमेशा के लिए खो न जाए।

गाँववालों ने लगभग 50 औषधीय पौधों का इस्तेमाल करके 29 अलग-अलग तरह के काढ़े और मिश्रण बनाने की विधियाँ लिख कर रखी हैं। जना के निवासी आज भी अपने जानवरों के उपचार के लिए एथ्नोमेडिसिन चिकित्सा पद्धति पर निर्भर हैं।

झारखण्ड के गुमला जिले में स्थित, जना गाँव की ओराँव जनजाति द्वारा एथ्नोमेडिसिन चिकित्सा में इस्तेमाल किए गए पौधे :

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क्रमांकस्थानीय नामअंग्रेज़ी और वैज्ञानिक नामइस्तेमाल
1.मुड़ झटनी
(Mur jhatni)
Nyctanthes arbortristisमुड़ झटनी और करम के पेड़ों की छाल और पत्तों को एक लीटर पानी में तब तक उबालना है, जब तक वो एक लीटर पानी सूख कर आधा लीटर न हो जाए। मलेरिया के इलाज के लिए इस काढ़े को (50 मिलीलीटर) रोज़ सुबह-शाम खाली पेट पीना चाहिए।
2.करम (Karam)Nauclea parvifolia
3.रक्तफर/रक्तफल (Raktfar/Raktfar)Ardisia solanacea250 ग्राम रक्तफल की छाल का पतला पाउडर बना लें और उसे एक गिलास पानी के साथ घोल कर एक मिश्रण तैयार कर लें। इस मिश्रण को शरीर में दर्द वाली जगह लगाएं। यह 3 दिनों के भीतर आपको दर्द से राहत दे देगा। बवासीर के इलाज के लिए, इसकी आधा किलोग्राम छाल लें और उसे 2 लीटर पानी में तब तक उबालें जब तक वह पानी उबल कर एक लीटर न हो जाए। उसके बाद इस पानी को छान लें और रोज़ दिन में दो बार लगभग 100 ग्राम लेकर खाली पेट इसका सेवन करें।
4.कुज्री (Kujri)Celastrus paniculatusइस पेड़ से निकाले गए तेल का दर्द से राहत पाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। टीबी के रोग वाले व्यक्ति के लिए भी यह लाभदायक है। रोज़ खाली पेट एक चम्मच इसका सेवन करने से यह बीमारी ठीक हो सकती है।
5.बबूल (Babool)Vachellia niloticaइन चारों पौधों की जड़ें (कुल एक किलोग्राम) अच्छे से धो कर उन्हें पतला-पतला पीस कर 2 लीटर पानी में उबाल लें। इस मिश्रण को ठंडा होने दें और फिर छान कर रख दें। रोज़ खाली पेट इस मिश्रण का सेवन करने से सफ़ेद धात नमक बीमारी दूर होती है।
6.जहान जुली (Jahan Juhi)
7.महादेव जटा          (Mahadev Jata)Asparagus racemosus
8.कुत्तागांठ (Kutta Gaanth)
9.पुतरी (Putri)Croton oblongifoliusइन दोनों पौधों की जड़ों को साथ में पीस कर इसमें पानी मिलाकर एक घोल तैयार किया जाता है। किसी ज़हरीले जानवर द्वारा काटी गयी जगह पर इस घोल को लगाया जाता है। या ज़हर के असर को रोकने या खत्म करने के लिए इस घोल को छान कर पिया जाता है।
10.मुहकाल जरी  (Muhkal Jari)
11.जुर बुला (Jur Bula)इसका इस्तेमाल ‘रानु’ के साथ ‘हंडिया’ बनाने के लिए किया जाता है। यह पेट का दर्द और बवासीर ठीक करने के लिए काम आता है।
12.पिअर (Piar)Buchanania cochinchinensisपिअर के पत्तों को पीस कर उसे खरगोश के मलमूत्र के साथ अच्छे से मिलाया जाता है। उसके बाद इस मिश्रण से इमली के बीजों के बराबर छोटी-छोटी गोलियां बनाई जाति हैं। पेट ख़राब होने पर इन गोलियों का सेवन किया जाता है।
13.आंवला (Amla)Gooseberry Phyllanthus emblicaआंवले को सुखा कर इसका पाउडर बनाया जाता है। इस पाउडर को रोज़ खली पेट पानी के साथ खाने से गैस की दिक्कत दूर होती है, साथ ही आँखों की रौशनी भी बढती है।
14.कनवत (करोंदा) Kanwat (Karonda)Carissa carandasयह सांपों को घर से दूर रखने में मदद करता है।
15.सुदर्शन (Sudarshan)Crinum latifoliumइसके पत्तों का रस कान के दर्द को कम करने में मदद करता है। इसकी 4-5 बूँदें डालने से कान के दर्द में आराम मिलता है।
16.कटहल (Katahal)Jackfruit Artocarpus integrifoliaपके हुए कटहल के छिलकों को जला कर उसे करंज के तेल के साथ मिला लें। इस मिश्रण को लगाना चेचक ठीक करने में मदद करता है।
17.धतूरा (Dhatura)Jimson weed Datura stramoniumधतूरे की जड़ों को सरसों के तेल में पकाया जाता है। दिन में दो बार इसकी 4 बूँदें इस्तेमाल करने से कान से संबंधित सारे रोग दूर होते हैं।
18.सिंधवर (Sindhwar)Diospyros melanoxylonइसका इस्तेमाल आलू के बीजों का संरक्षण करने के लिए किया जाता है। यह इन बीजों को कीड़ों से बचाता है।
19.जामुन (Jamun)Indian Blackberry Syzygium cuminiपके हुए जामुन का रस निकालें और उसे आधे घंटे तक धूप में रखें। इस रस को एक बोतल में रख लें और खाली पेट 2-3 चम्मच इसका सेवन करें। यह गैस को दूर करता है। जामुन के बीजों का मधुमेह की बीमारी ठीक करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।
20.घाटो (Ghato)Clerodendrum infortunatum L.इसके पत्तों को पीस कर इसका दालों के संरक्षण के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह दाल से कीड़ों को दूर रखता है।
21.अरहर (Arhar)Pigeon Pea Cajanus cajanइसके पत्तों को पीसने के बाद पानी में घोलकर पीने से गांजे और भांग का नशा उतर जाता है। अरहर की दाल को उबाल कर उसका पानी पीने से भी भंग और गंजे का नशा उतरता है।
22.पीपल (Pipal)Ficus religiosaपीपल के पेड़ की छाल को पीस कर सादे पानी में मिला कर उसे छान लें। इस पानी को बकरियों और गायों के ख़राब पेट को ठीक करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।  पीपल इंसानों के भी पेट दर्द में आराम पहुंचाता है। पीपल की ताज़ी पत्तियों के साथ पुराने गुड़ को मिला कर नाखून के बराबर की गोलियां बनाई जाती हैं। पेट दर्द ठीक करने के लिए यह गोलियाँ खाली पेट दिन में दो बार खाई जाती हैं।
23.करंज (Karanj)Pongamia pinnataखाज-खुजली, चेचक और छाले इत्यादि जैसी बीमारियाँ ठीक करने के लिए करने के लिए करंज के तेल का इस्तेमाल किया जाता है। यह कीड़ों को दूर करने के काम भी आता है।
24.महाकाल (Mahakaal)Trichosanthes tricuspidataइस पौधे की जड़ों को पानी में मिला कर तेल में पकाया जाता है। इस मिश्रण से शरीर के दर्द वाली जगह पर मालिश की जाती है, यह खासकर जोड़ों के दर्द में राहत देता है।
25.गुलगुला (Gulgula)Portulaca quadrifidaइन चारों पौधों के पत्तों को साथ में पीस कर एक गिलास पानी में मिश्री के साथ मिलाया जाता है। बवासीर ठीक करने के लिए यह मिश्रण रोज़ सुबह खली पेट पीना चाहिए।
26.पुस्कांजीलता (Puskanjilata)
27.बरयारी (Baryari)Sida acuta
28.अमरूद (Amrud)Guava Psidium guajava
29.गेंदा (Genda)Marigold Calendula officinalisइन दोनों पौधों की पत्तियों को अच्छे से पीसा जाता है। बुखार होने पर इस मिश्रण को (50 ग्राम) शरीर में लगाया जाता है, फिर कुछ समय बाद इसे शरीर से हटा दिया जाता है। इससे बुखार में राहत मिलती है।
30.चिन्तिसाग (ChintiSaag)Polygonum plebeium
31.खपरैलसाग (KhaprailSaag)Trienthema monogynaइस साग को सखुआ (साल) के पत्ते में बांध कर पकाया जाता है। बुखार में यह साग खाने से सर दर्द और चक्कर आना कम होता है।
32.दालसाग (DaalSaag)दालसाग और मिश्री को एक साथ पीस कर पानी में मिलाया जाता है। इससे ‘सफ़ेद धात’ नामक बीमारी ठीक होती है।
33.दूधघास (DoodhGhaas)Euphorbia hirtaदूधघास की जड़ों को पीस कर जानवरों के घावों पर लगाया जाता है। यह वह घाव होते हैं जिनपर कीड़े लग जाते हैं। इसे घावों पर लगा कर धूप में सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। इससे घाव जल्दी भरता है।
34.केला (Kela)Banana Musa paradisiacaकेले के पत्तों को जला कर उसकी राख को शहद में मिलाया जाता है। यह मिश्रण छोटे बच्चों को खांसी से राहत देने के लिए खिलाया जाता है।
35.बिजलीकंद (BijliKand)बिजलीकंद के पत्तों को पानी से साथ पीस कर उसे शरीर में किसी दर्द वाली जगह लगाने से, दर्द में आराम मिलता है।
36.निम्बू (Nimbu)Lemon Citrus limonरोज़ एक गिलास पानी में नीम्बू मिला कर पीना मोटापा कम करने में मदद करता है।
37.अदरक (Adrak)Ginger Zingiber officinaleअदरक, तुलसी, मदार, काली मिर्च और हर्रा की जड़ों को एक साथ मिला कर घी में तब तक तला जाता है, जब तक वह मिश्रण पीले रंग का न हो जाए। दिन में तीन बार पीने से यह खांसी में आराम देता है।
38.तुलसी (Tulsi)Holi Basil Ocimum tenuiflorum
39.मदार (Madar)Calotropis gigantea
40.सहजन (Sahjan)Drumsticks Moringa oleiferaसहजन की पत्तियों को पानी में उबाल कर खाली पेट पीना, उच्च रक्तचाप (high blood-pressure) ठीक करने में मदद करता है।
41.बंदर्लौरी (सोनार्खी) Bandarlauri (Sonarkhi)Cassia fistulaइस पौधे के पत्तों का उपयोग कच्चे फलों को पकाने के लिए किया जाता है।
42.बन कपास (Ban Kapas)Thespesia lampasबन कपास के बीज खांसी और गले के दर्द में आराम देते हैं। काली मिर्च और बन कपास को अच्छे से पीस कर उनके मिश्रण को घी में पकाया जाता है।
43.आंवला (Amla)Gooseberry Phyllanthus emblicaआंवले के फल का चूर्ण बनाया जाता है। यह चूर्ण खाने से पेट साफ़ होता है और आँखों की रौशनी बढती है।
44.हर्रा (Harra)Terminalia chebulaइन तीन पौधों की छालों को मिला कर पानी में उबाला जाता है। इस मिश्रण को खाली पेट दिन में दो बार पीने से मधुमेह की बीमारी ठीक होती है। इन तीनों का इस्तेमाल त्रिफलचूर्ण बनाने के लिए भी किया जाता है।
45.धौथा (Dhautha)Datura stramonium
46.बहेरा (Bahera)Terminalia bellirica
47.बीढ़ी पत्ता (Biri Leaf)Bauhinia racemosaबीढ़ी के पौधे के फल और रुचमूचिया (RuchMuchia) की जड़ को एक साथ पीस कर पानी में मिलाया जाता है। यह मछली के चारे के लिए इस्तेमाल किया जाता है। साथ ही, यह जानवरों की खुजली और चेचक की बीमारी ठीक करने के काम भी आता है।
48.रुच मूचिया
(Ruch Muchia)
Caesaria graveolens
49.सलिया (Saliya)Boswellia serrata

सलिया का तना कीट निरोधक की तरह काम करता है और इसका इस्तेमाल मुख्य रूप से धान की खेती में किया जाता है।
50.गाइकापुरानी (GaiKaapurani)इस पौधे की जड़ों को घी में पकाया जाता है। इससे रक्त/खून संबंधी बीमारियाँ ठीक होती हैं।
51.पुटुस (Putus)Lantana camaraपुटुस के पत्तों का रस चोट पर लगाया जाता है। यह टेटनस की बीमारी से बचाता है।
52.सखुआ (Sakhua)Sal
Shorea robusta
सखुआ के तने से रोज़ दांत साफ़ करने से, दांतों के साथ-साथ पाचन क्रिया भी अच्छी रहती है।
53.तेवाद (Tevad)दोनों पौधों की जड़ों को एक साथ पीस कर पानी में मिलाया जाता है। फिर इस मिश्रण को छाना जाता है। खाली पेट इसका सेवन करने से गैस संबंधित परेशानी दूर हो जाती है।
54.कोइनार (Koinaar)Bauhinia purpurea
55.आम (Aam)Mangifera indicaआम के पेड़ की छाल को पीस कर पानी के साथ मिलाया जाता है। इस मिश्रण को शरीर पर लगाने से यह आपको लू से बचाता है।
56.रंगोनी (भिजरी) Rangoni (Bhijri)Solanum indicumरंगोनी के बीज दांत के दर्द को ठीक करने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।
57.चकोंदी (Chakondi)Senna toraपानी में चकोंदी के पत्ते या बीज उबाल कर पीना मधुमेह की बीमारी ठीक करने के लिए लाभदायक होता है।
58.कुंदरू (Kundru)Coccinia grandisकुंदरू के रस की 4-5 बूंदे कान में डालने से कान के दर्द में राहत मिलती है।
59.भुसार (Bhusar)भुसार के पत्तों का रस कोई भी घाव भरने में मदद करता है। साथ ही यह टेटनस से भी बचाता है।
60.सरीफा (Sarifa)Custard Apple Annona squamosaशरीफ़ा के बीज बालों से जूँ हटाने में मदद करते हैं। शरीफ़ा के बीज और नीम के पत्ते एक साथ इस्तेमाल करने से जल्दी राहत मिलती है।
61.दूबघास (DoobGhas)Cynodon dactylonदूबघास सरदर्द (half-headache) ठीक करने में मदद करता है। इससे सरदर्द में राहत मिलना, आध्यात्मिक विश्वास वाली बात भी है।
62.इमली (Imli)Tamarind Tamarindus indicaइमली के पेड़ की छाल या फल को पानी के साथ मिला कर शरीर पर लगाया जाता है। यह लू से बचाने या उसके प्रभाव को कम करने में मदद करता है।
63.घोराकांटा (GhoraKanta)Tribulus terrestrisअगर किसी व्यक्ति ने ज़हर खा लिया हो, तो घोराकांटा और पानी के मिश्रण को छान कर पीने के बाद उल्टी करने से, उल्टी के साथ-साथ ज़हर भी तुरंत बाहर निकल जाता है। इसका साग शरीर में खून की कमी को दूर करता है।
64.चरई-गोडवा पत्ती (Charai-Godwa Patti)अगर सांप ने काटा हो, तो चरई-गोडवा पत्तियां पीसकर पानी में मिलाकर पीने से सुकून मिलता है. चाय के साथ इस चूर्ण का सेवन सेहत के लिये अच्छा होता है.

*हमें कुछ प्रजातियों के वैज्ञानिक नाम नहीं मिल पाए।

अंग्रेज़ी लेख के लेखक – दिब्येंदु चौधुरी, पारिजात घोष, तेम्बा ओराँव और विवेक सिन्हा

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