विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)
(Aadivaasiyon ke Paushtik Anaajon ki Kheti)
छत्तीसगढ़ के एक छोटे कस्बे गनियारी में कांग, कोसरा और मड़िया की फसलें लहलहा रही हैं। कांग के हरे पौधे में सुनहरी लम्बी बालियां मोह रही हैं। कोसरा में मोतियों की तरह दाने हैं। मड़िया की बालियां किसी गुड़िया की चोटियों की तरह खड़ी हैं। लेकिन यह बारिश की फसल नहीं, गर्मी की फसल है।
हाल ही में यहां अप्रैल के तीसरे हफ्ते में गया था। यह जन स्वास्थ्य का खेत था। खेत में लहलहाती फसल को बहुत देर तक देखते ही रहा। हरे भरे खेत थे और बालियां दानों से भरी थीं। कुछ ही देर में कृषि कार्यक्रम के किसान कार्यकर्ता होमप्रकाश साहू मिल गए। उन्होंने मुझे खेत घुमाया और इन फसलों के बारे में विस्तार से बताया।
जन स्वास्थ्य सहयोग (जेएसएस) स्वास्थ्य पर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था है, जो यहां वर्ष 1999 से कार्यरत है। स्वास्थ्य की मौजूदा हालत से चिंतित होकर दिल्ली के कुछ मेधावी डाक्टरों ने इसकी शुरूआत की थी। जन स्वास्थ्य सहयोग केन्द्र, बिलासपुर से 20 किलोमीटर दूर गनियारी में स्थित है। यहां अस्पताल होने के साथ कृषि कार्यक्रम भी संचालित होता है। बीमारी के इलाज के साथ उसके बचाव और रोकथाम पर जोर दिया जाता है।
कांग का खेत
बिलासपुर जिले का यह इलाका जंगल से लगा है। अन्य जातियों के अलावा गोंड और बैगा आदिवासी यहां के बाशिन्दे हैं। बैगाओं की पहचान उनकी बेंवर खेती (झूम खेती और अंग्रेजी में इसे शिफ्टिंग कल्टीवेशन कहते हैं) से होती है, जिसमें वे कई तरह के अनाज एक साथ बोते थे। इसमें अनाज के साथ दालें भी होती थीं। यह खेती संतुलित व पर्याप्त भोजन देने में सक्षम थी। जन स्वास्थ्य सहयोग के खेत के अनाज भी आदिवासियों के पौष्टिक अनाज ही हैं।
जन स्वास्थ्य सहयोग के डा. योगेश जैन का कहना है कि बीमारी का संबंध कुपोषण से है। खाने की कमी से है। एक व्यक्ति के स्वास्थ्य और विकास के लिए संतुलित भोजन बहुत जरूरी है। पोषण का संबंध खेती से है। इसलिए स्वास्थ्य की स्थिति सुधारने के लिए हम कृषि कार्यक्रम चला रहे हैं।
इस कृषि कार्यक्रम के दो हिस्से हैं। एक तो जन स्वास्थ्य सहयोग की जमीन पर विविध देसी बीजों की फसलें उगाना, उनकी जानकारी एकत्र करना, उन्हें संरक्षित करना, देसी बीज और उनकी जानकारी किसानों तक पहुंचाना। और दूसरा, किसानों के साथ मिलकर उनको जैविक खेती से जोड़ना, खेती के वैकल्पिक प्रयोग करना, कार्यशालाओं, बैठकों और कृषि प्रदर्शनी के माध्यम से किसानों तक यह जानकारी पहुंचाना और उन्हें जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित करना। खास बात यह है कि यहां जो भी फसलें उगाई जाती हैं, पूरी तरह बिना रासायनिक खाद के और जैविक तरीके से उगाई जाती हैं। मिट्टी-पानी के संरक्षण के साथ बोई जाती हैं।
होमप्रकाश साहूं धान की कलाकृतियों के साथ
जन स्वास्थ्य सहयोग का समृद्ध देसी बीज बैंक है। उसमें धान के 425, गेहूं 16, मड़िया ( रागी) की 6 और सेमी की 9 किस्में हैं। इसके अलावा, बैंगन, भिंडी, दलहन, तिलहन, अलसी, तिली, सेमी की देसी किस्में हैं। विविध धान किस्मों में महीन, सुगंधित, भूरी, हरी, काली और लाल चावल शामिल हैं। इनमें जल्दी पकने वाली और देर से पकने वाली किस्में शामिल हैं।
मड़िया का खेत
किसान कार्यकर्ता होमप्रकाश साहू ने बताया कि कोसरा, कुटकी की एक किस्म है, जो लगभग लुप्त हो गई है। कांग को कई नामों से जानते हैं। कांग, कंगनी, काकुन और अंग्रेजी में फाक्सटेल मिलेट कहते हैं। इसी प्रकार, मड़िया को रागी भी कहते हैं। इसे अंग्रेजी में फिंगर मिलेट कहा जाता है।
होमप्रकाश साहू कहते हैं इस साल खेत में प्रयोग किया और श्री पद्धति से बुआई की गई। इसमें बीज की मात्रा कम लगती है और खेत में पानी भरकर भी नहीं रखा जाता, जिससे पौधे को अच्छी हवा, प्रकाश और भरपूर ऊर्जा मिलती है और पैदावार अच्छी होती है। इस पद्धति को मेडागास्कर पद्धति के नाम से भी जाना जाता है। यह प्रयोग गर्मी में इसलिए किया गया क्योंकि बारिश में ज्यादा पानी में ये फसलें सड़ जाती हैं, इन्हें कम पानी की जरूरत है। कांग और कोसरा 90 दिन की फसल है, जबकि मड़िया को पकने में 120-125 दिन लग जाते हैं। यह इसलिए भी उपयोगी है क्योंकि छत्तीसगढ़ में अब गर्मी में धान की फसल लेने का प्रचलन शुरू हुआ है,जो ज्यादा पानी मांगती है। यह फसलें कम पानी वाली हैं और गर्मी के धान का अच्छा विकल्प है।
होमप्रकाश साहू आगे कहते हैं कि हमारे ये पौष्टिक अनाज लोगों को पोषणयुक्त भोजन देंगे, जो गर्मी में कम पानी में पक जाते हैं। इनमें सब्जी की तरह ही पानी चाहिए। धान की तरह खेतों में पानी भरकर रखने की जरूरत नहीं हैं। जंगल और ग्रामीण इलाकों में पोषण की बहुत कमी है। यह बहुत ही पौष्टिक फसलें हैं, इनमें लौह तत्व, कैल्शियम,रेशे सभी पोषक तत्व होते हैं। कई बीमारियों से बचाव करते हैं।
देसी बीजों की दुकान
छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है। धान ही यहां की प्रमुख फसल है, जो बारिश की फसल है। लेकिन कम पानी में विविध पौष्टिक अनाज भी हो सकते हैं, यह जन स्वास्थ्य सहयोग के प्रयोग ने दिखाया है। जन स्वास्थ्य सहयोग की जैविक खेती का प्रयोग किसानों में आकर्षण का केन्द्र है। यहां किसान, सामाजिक कार्यकर्ता और ग्रामीण खेतों की फसलें देखने, देसी बीज लेने और कृषि विधियों की जानकारी लेने के लिए आते रहते हैं। कृषि प्रदर्शनी, अस्पताल के मुख्य द्वार पर प्रायः लगी रहती है, जहां बीज और उनकी जानकारी उपलब्ध होती है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ऐसे ही प्रयोगों से मिट्टी पानी के संरक्षण वाली देसी खेती बचेगी, लुप्त हो रहे देसी बीज बचेंगे, छत्तीसगढ़ की कृषि संस्कृति बचेगी, खाद्य सुरक्षा होगी, जैव विविधता भी बचेगी और लोगों को भी पोषणयुक्त भोजन मिलेगा।
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