पहाड़ी महिलाओं की आत्मनिर्भर खेती (in Hindi)

By बाबा मायारामonJan. 12, 2022in Environment and Ecology

विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)

सभी फोटो- श्रमयोग 

“जब पहाड़ के गांव के गांव खाली हो रहे थे। युवा और पुरुष रोजगार की तलाश में शहरों की ओर भाग रहे थे। अधिकांश गांवों में महिलाएं और बुजुर्ग ही बचे थे। खेती-किसानी उजड़ रही थी। तब हम महिला किसानों ने परिवार की जिम्मेदारी संभाली। पारंपरिक खेती को पुनर्जीवित किया। इस खेती से न केवल परिवार का भरण-पोषण किया बल्कि उसके उत्पाद को बेचकर आर्थिक स्थिति भी मजबूत की। इस पूरी पहल में श्रमयोग संस्था ने हमारी मदद की।” यह निर्मला देवी थीं, जो उत्तराखंड के गांव की महिला किसान हैं और रचनात्मक महिला मंच की अध्यक्ष भी हैं।

उत्तराखंड, हिमालय में स्थित है। इस राज्य की अन्तरराष्ट्रीय सीमाएं उत्तर में तिब्बत और पूर्व में नेपाल से लगी हैं। पश्चिम में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण में उत्तरप्रदेश की सीमा लगी हैं। इस क्षेत्र में वनस्पति और जीव-जंतुओं की काफी विविधता है। यह क्षेत्र बड़े हिस्से को न केवल पानी उपलब्ध कराता है बल्कि यहां की ऊंची चोटियां, विशाल भूदृश्य और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत यहां की पहचान है। पिछले कुछ समय से घटते हिमनद ( ग्लेशियर) नदियों के प्रवाह बदल रहे हैं। इसके साथ जैव विविधता और लोगों की आजीविका प्रभावित हो रही है। जलवायु बदलाव, बारिश का अनियमित होना, भूमि का खराब होना, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, और लगातार प्राकृतिक आपदाओं ने लोगों की जिंदगी प्रभावित की है।

इस राज्य की अधिकांश खेती पहाड़ी है। सीढ़ीदार खेत हैं, कुछ तराईवाले समतल खेत भी हैं। यहां की पूरी खेती बारिश पर निर्भर होती है, जो अधिकांश जैविक ही होती है। इसमें दलहन, तिलहन, अनाज, मसाले, रेशा और हरी सब्जियां और विविध तरह के फल-फूल शामिल हैं। इससे मनुष्यों को पौष्टिक अनाज, मवेशियों को फसलों के ठंडल और भूसे से चारा मिलता है। धरती को जैव खाद से पोषक तत्व प्राप्त हो जाते हैं। इससे मिट्टी बचाने का भी जतन होता है। मिश्रित फसलों की पारंपरिक पद्धति को बारहनाजा कहा जाता है। लेकिन पलायन कर बड़ी संख्या में लोग बाहर जाने लगे हैं, जिससे खेती उजड़ने लगी है।

इस सबके मद्देनजर यहां के कुछ युवाओं ने श्रमयोग संस्था का गठन किया है। इसके माध्यम से ग्रामीणों के साथ मिलकर पर्यावरण और जैव विविधता को सहेजने की कोशिश की है। महिलाओं के साथ मिलकर पारंपरिक खेती को फिर से बहाल किया है। रोजगार और आमदनी बढ़ाने का काम किया है।

श्रमयोग संस्था के अजय कुमार बतलाते हैं कि वे और शंकरदत्त, लोक विज्ञान संस्थान, देहरादून में काम करते थे। वर्ष 2011 में हमने श्रमयोग संस्था की शुरूआत की। और अल्मोड़ा जिले के सल्ट विकासखंड के गांवों में काम करने का तय किया। गांव-गांव में बैठकें की और यह पाया कि बड़ी संख्या में पलायन से गांव खाली हो गए हैं। रोजगार की तलाश में लोग दिल्ली, लुधियाना और मुंबई चले गए हैं। अधिकांश गांवों में महिलाएं ही रहती हैं। हमने उनके साथ मिलकर खेती को फिर से खड़ा करने का फैसला किया। संस्था का मुख्य कार्यालय सल्ट विकासखंड के हिनौला में स्थित है। यही से संस्था की गतिविधियां संचालित होती हैं।

वे बताते हैं कि वर्ष 2013 में फिर 15 गांव में अध्ययन यात्रा की गई। यह यात्रा पंचायत राज व्यवस्था के अध्ययन के लिए की गई थी। हमने इस दौरान पाया कि पंचायत राज व्यवस्था की स्थिति बहुत खराब है। इसलिए हमने गांवों के लोगों के साथ मिलकर तय किया है कि हम श्रम जन स्वराज अभियान चलाएंगे। जिसके तहत् पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत करेंगे। इसकी खामियों को सरकार तक पहुंचाएंगे। गांवों में संगठन बनाएंगे। आपसी समझ बनाने के लिए विचारों का आदान-प्रदान करेंगे। इस यात्रा में यह समझ आया कि प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा मिलकर की जा सकती है।

वे आगे बताते हैं कि शुरूआती बैठकों में महिलाएं ज्यादा आईं। युवा और स्कूली बच्चे भी आए। हमने सल्ट विकासखंड के 12 गांव से काम शुरू किया, जो आज 100 गांवों में फैल गया। इससे करीब 125 स्व-सहायता समूहों की 1500 महिलाएं जुड़ी हैं। इन समूहों ने मिलकर वर्ष 2014 में रचनात्मक महिला मंच बनाया है। यह संगठन पंचायती राज को मजबूत बनाने, शराबबंदी, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा), पशुपालन, खेती-किसानी, सामुदायिक कामों से आजीविका की रक्षा करने में जुटा हुआ है। इसके अलावा, खेती में जंगली जानवर व आवारा पशुओं की समस्या जैसे मुद्दे भी उठाए हैं।

उन्होंने बताया कि सल्ट का क्षेत्र हल्दी और पीली मिर्ची के लिए मशहूर रहा है। लेकिन अन्य फसलें घाटे की रही हैं। इसलिए हमने सबसे पहले हल्दी, पीली मिर्च और अदरक की खेती पर जोर दिया। इसके अलावा, दालें, मसूर, उड़द, गहथ, भंगजीर, जख्या, काला भट्ठ, धनजीरा की खेती भी की जाती है। सब्जियों में ओगल, मूली, राई, धनिया, पालक, बैंगन, भिंडी, छिमी, कद्दू, चिचिंडा, बिन इत्यादि। श्रमयोग संस्था ने महिला किसानों के उत्पाद को उचित दाम मिले, यह सुनिश्चित किया है। हल्दी के अलावा, मंडुवा, दालें, जख्या, इत्यादि को वैकल्पिक बाजार से जोड़ा है। स्थानीय बाजार के अलावा दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू, देहरादून जैसे महानगरों में श्रम उत्पाद बेचे जाते हैं। लगभग प्रतिवर्ष लगभग 10 लाख की खरीद-बिक्री होती है।

सब्जी पौध के लिए पॉली-टनल

अजय कुमार बताते हैं कि श्रम उत्पाद को एकत्र करने के लिए 8 संकुल बनाए गए हैं, जो गिंगड़े, चॉच, घटकोट, जसपुर, रतखाल, थला, जमरिया और नैनीडांडा में हैं। इन संकुलों में महिलाएं उनका उत्पाद देती हैं, जहां उनके उत्पाद की तुलाई होती है। उन्हें एक पर्ची दी जाती है, जिसमें किसान, गांव, समूह का नाम, उत्पाद की मात्रा का विवरण होता है। बाद में इस पर्ची के मुताबिक मासिक बैठकों में श्रम उत्पाद का भुगतान किया जाता है, जिससे अन्य महिलाओं को भी प्रेरणा मिले।

वे बताते हैं कि पहले वर्ष 2015 में हल्दी का भाव प्रति किलोग्राम 40 रू. था। क्योंकि पहले बिचौलिए होते थे, जो सस्ते दामों में हल्दी खरीदते थे और महंगे में बेचते थे। लेकिन जबसे संस्था ने इसमें हस्तक्षेप किया है। महिलाओं को उनके उत्पाद का उचित दाम मिलने लगा है। अब प्रति किलोग्राम 300 रू. का दाम है, जिसमें से 110 रू. प्रति किलोग्राम तक के दाम के हिसाब से महिलाओं को मिले हैं, शेष राशि ढुलाई और अन्य खर्च हो जाती है। जब भाव बढ़ा तो उत्पादन भी बढ़ा और परिवारों की स्थिति बेहतर भी हुई।

कोट जसपुर गांव की निर्मला देवी बताती हैं कि हल्दी की खेती से आमदनी बढ़ी है, जिससे हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा की व्यवस्था कर पा रहे हैं। इसके साथ ही जो महिलाएं घरों की चारदीवारी में कैद थी, वे सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हो रही हैं। शासकीय विभागों से संपर्क करती हैं, बैंक खातों का रखरखाव करती हैं, अपने हक और अधिकार के लिए आवाज उठाती हैं। यह सब संगठन के कारण ही संभव हुआ है।

वे बताती हैं कि इस क्षेत्र में खेती के लिए बड़ी समस्या जंगली जानवरों और आवारा पशुओं की है, जो फसलों को चौपट करते हैं। इस समस्या को लेकर उनके संगठन की महिलाएं मुख्यमंत्री से भी मिली थी, लेकिन इसका अब तक कोई ठोस हल नहीं निकला है। वे कहती हैं इस बार फसल अच्छी हुई, पर जंगली सुअरों ने चौपट कर दी।

चॉच गांव की सुनीता देवी कहती हैं कि उनकी खेती जो पूरी तरह से घाटे में चल रही थी, अब उससे आमदनी बढ़ गई है। हल्दी के अच्छे दाम मिल रहे हैं। खेती अच्छी हो रही है, उत्पादन के साथ रकबा भी बढ़ा है, पशुओं की देखभाल भी अच्छे हो रही है। जो प्रवासी मजदूर शहरों में गए थे, उनमें से कुछ खेती के काम में वापस जुड़ गए हैं। अगर खेती अच्छी होगी, गांवों में अच्छी शिक्षा मिलेगी तो पलायन भी नहीं होगा और गांव भी खुशहाल होंगे।

गिगड़े गांव में बीजों की पैकिंग

गिगड़े गांव की देवकी बताती हैं कि हम सब्जियों की खेती भी कर रहे हैं। पहले बीजों की समस्या थी, लेकिन अब हमने बीज कोष बनाया है, जिससे सभी को बीज उपलब्ध हो जाते हैं। औलेथ गांव ( नैनीडांडा विकासखंड) की उषा देवी बताती हैं कि हमने अब सामूहिक खेती शुरू की है। हल्दी, अदरक और मिर्च की खेती करते हैं। इसी प्रकार, सतखोलू गांव में रामी बोराणी समूह की महिलाएं सामूहिक खेती कर रही हैं। वे यहां अदरक की खेती करती हैं।

सतखोलू गांव में अदरक की सामूहिक खेती

श्रमयोग संस्था से जुड़ी आसना बताती हैं कि तालाबंदी के दौरान जब प्रवासी मजदूर गांव लौटे तो महिला मंच ने उनके रहने और खाने-पीने का इंतजाम किया। उन्हें गांव में खेती करने में मदद की। कृषि विभाग से मिलकर मौसमी सब्जियों के बीज दिलवाए, जिससे वे सब्जियों की खेती कर सकें। उन्हें बाजार से सब्जियां न खरीदने पड़े और उन्हें बेचकर कुछ आय अर्जित कर सकें। बीज कोष भी बनाया है, जिसमें मंच की सदस्यों ने 20-20 रूपए जमा किए हैं। उससे बीज खरीदकर जरूरतमंद किसानों को बीज देने की व्यवस्था की है। इसके परिणामस्वरूप, कोविड के दौरान अच्छी खेती करने के लिए रचनात्मक महिला मंच को अल्मोड़ा जिले के मुख्य कृषि अधिकारी ने किसान श्री सम्मान दिया।

उन्होंने बताया कि जब राशन कार्ड ऑनलाइन होने से राशन मिलने में समस्या आ रही थी। कई परिवार इस योजना के लाभ से वंचित हो रहे थे। तब महिला मंच ने यह मुद्दा उठाया तब जाकर समस्या का समाधान हुआ। कोविड-19 के मद्देनजर मंच की ओर से श्रमसखियां बनाई गईं। 8 संकुलों में श्रमसखियां हैं, जिन्हें थर्मामीटर, ऑक्सो मीटर, बी.पी नापने की मशीन आदि को इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण दिया गया। वे इनकी मदद से बीमारी के लक्षणों का पता लगाएं और आगे के उपचार के लिए मरीज को भेज सकें। इसके साथ ही मंच की महिलाओं ने मास्क बनाए और वितरित किए।

मासिक बैठक में स्वास्थ्य जांच

वे आगे बताती हैं कि इसके साथ हर साल महिला महोत्सव मनाया जाता है। इस साल यह नवंबर के महीने में मनाया गया। इस कार्यक्रम में पिछले वर्ष की रपट प्रस्तुत की जाती है और नए साल की कार्ययोजना प्रस्तुत की जाती है। स्थानीय व्यंजन विशेष आकर्षण होते हैं। सामूहिक नृत्य होते हैं। पारंपरिक बीजों का आदान- प्रदान होता है। मंच में हर दो साल में पदाधिकारियों का चुनाव होता है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से इसका संचालन होता है।

महिला महोत्सव में बीजों का आदान-प्रदान

इसके अलावा, प्राकृतिक धरोहर बचाओ अभियान का गठन भी किया गया है, जो जल, जंगल, जमीन का संरक्षण व संवर्धन करता है। इसके तहत् चॉच गांव में धारा विकास कार्यक्रम चल रहा है, जिसमें प्राकृतिक नौले और धारे को पुनर्जीवित किया जा रहा है। यहां श्रमदान से पेड़ लगाए जा रहे हैं। बारिश आने से पूर्व खंतियां खोदी जा रही हैं, जिससे उनमें पानी एकत्र हो सके। बाल मंच के माध्यम से भी अपना जंगल पहचानो कार्यक्रम चलाया जाता है, जिसमें बच्चों में जैव विविधता व पर्यावरण के प्रति जागरूकता आए। यह कार्यक्रम स्कूलों में बच्चों के साथ भी किया जाता है।

प्राकृतिक धरोहर संरक्षण की योजना बैठक

कुल मिलाकर, श्रमयोग संस्था और रचनात्मक महिला मंच की पहल से उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों में खेती फिर से बहाल हुई है, महिला किसानों ने खेती से आमदनी बढ़ाई है, सामाजिक और पर्यावरणीय मुद्दों पर भी जागरूकता आई है। महिलाओं ने गांव से लेकर मुख्यमंत्री के सामने तक अपनी आवाज उठाई, तालाबंदी में भी प्रवासी मजदूरों की मदद की। महिलाओं की एकता व संगठन ने उन्हें नई पहचान दी। उन्होंने अपने दुख-सुख आपस में बांटे और एक दूसरे को हिम्मत दी। नई पीढ़ी को भी पर्यावरण से जोड़ा। इस तरह की पहल से हिमालय में आनेवाली प्राकृतिक आपदाओं से भी कुछ हद बचा जा सकता है। यह महिला सशक्तीकरण का भी अच्छा उदाहरण है।

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