चिराला के हथकरघे (in Hindi)

By बाबा मायारामonJan. 16, 2019in Economics and Technologies

विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)

आंध्रप्रदेश का चिराला कस्बा हथकरघा क्षेत्र में प्रसिद्ध है। चिराला नाम का अर्थ है चीरा यानी साड़ी। इसे दक्षिण भारत का ‘मिनी बाम्बे’ या छोटा बाम्बे भी कहते हैं। यहां बरसों से चल रहे हथकरघे न केवल यहां चल रहे हैं बल्कि बाजार में भी अपना दबदबा बनाए हुए हैं।

चिराला प्रकासम जिले में है। यहां नबंवर (11 से 18 नवंबर 2018 तक) में एक हफ्ते से ज्यादा लम्बी बुनकरों की कार्यशाला हुई जिसमें देश भर के करीब 15 राज्यों के बुनकर शामिल हुए। मार्केटिंग, डिजाइनिंग से जुड़े जानकार, बुद्धिजीवी और कई संगठनों के लोगों ने हिस्सा लिया। जिसमें बड़ी संख्या महिलाओं की थी। पूर्वोतर से, और विशेषकर नागालैंड, मेघालय और असम से करीब 70 महिलाएं यहां पहुंची थीं।

कार्यशाला में हिस्सा लेने के लिए 13 नवंबर की शाम मैं भी पहुंचा।  दुर्गालक्ष्मी, जो इस सेमिनार की आयोजकों में से एक थीं, से मिला। उन्होंने कहा कल बुनकर बस्ती में चलना है, तैयार रहिए। दूसरे दिन हम चिराला की जेन्द्रापेटा बस्ती में गए। इस समूह में कच्छ (गुजरात) के बुनकर भी साथ थे, जो खमीर नामक संस्था से जुड़े थे। खमीर, कच्छ में हस्तकला को बढ़ावा देने के लिए कार्यरत है।  

सुबह का समय था। जेन्द्रापेटा में घुसते ही हरे-भरे पेड़ दिखाई दिए। घरों के सामने रंगोली, तुलसी पौधा व उसमें दीपक जलते मिले। व्यवस्थित व सुघड़ता से घर लिपे- पुते थे। घरों में कलात्मक चित्र भी बने थे।

मुराली कृष्णाकुमारी हथकरघे पर काम करती हुई

लगभग हर घर में हथकरघों की खटर-पटर हो रही थी। रंग-बिरंगे तानों को तैयार करते स्त्री-पुरुष मिले। रंगाई करते रंगरेज मिले। धागों को मशीनों से तानों को रंगाई के लिए तैयार करती महिलाएं दिखी। मेरे लिए हर चीज नई थी। नए लोग, उनकी तेलगू भाषा, वेश-भूषा, परिवेश सब कुछ नया। दुर्गालक्ष्मी जी ने मेरी बुनकरों से हिंदी में बात करवाई।

सबसे पहले हम वेंकट सुब्बाराव और ब्रम्हारम्मा के घर गए। ब्रम्हरम्मा हथकरघे में साड़ी बना रही थी। वेंकट उनकी मदद कर रहे थे। रंग-बिरंगी रेशम साड़ी चमक रही थी। ब्रम्हारम्मा के हाथ तानों के बीच से बाने को तेज गति से एक छोर से दूसरे छोर निकाल रहे थे। नीचे पैरों से हथकरघे को चलाया जा रहा था। देर तक  हम इस क्रिया को बस देखते रहे। एक खेल की तरह। यह कलाईयों और अंगुलियों का कमाल।

इस दंपति ने बताया कि एक साड़ी करीब 7 से 10 हजार रूपये में बिकती है। लेकिन उन्हें इसके 300-400 रूपए ही मिलते हैं और कभी तो इससे भी कम राशि मिलती है। थोड़ा आगे चले तो रंगाई की इकाई में पहुंचे। यहां रंगाई इकाई के किशोर ने बताया कि वे 17 वर्षों से यह काम कर रहे हैं। हर माह करीब 12 हजार से 15 हजार कमा लेते हैं। उनकी इस इकाई में 17 लोग हैं, जो इस काम में लगे हैं।

एक घर के हथकरघे पर पठान अमीना ताने पर धागों को जोड़ने का काम कर रही है। वे अंशकालिक है,जो कुछ समय यह काम करने के लिए आती है। इसके बदले उन्हें मजदूरी मिलती है।  इसी प्रकार, विजयलक्ष्मी के घर ताना बनाने के काम में लगी गंगाम्मा भी अंशकालिक है जिसे 150 रूपये रोज मिलते हैं।

धागे की साइजिग

बुनकरों के मुताबिक चिराला में 16,500 हथकरघा हैं। 40 रंगाई इकाईयां हैं। इसके अलावा डिजाइनर, अलग-अलग कामों में लगे मजदूर हैं। तानों की तैयारी इकाई हैं। कुल मिलाकर,  इस कस्बे के 20 किलोमीटर के आसपास करीब 50000 बुनकर हैं। हथकरघा व इसके सहयोगी कामों में पदमशैली, देवांगा और पट्टूशैली समुदाय के लोग लगे हुए हैं।

कृषि के बाद हथकरघा क्षेत्र दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है जिसमें मजदूरों की बड़ी संख्या है। लेकिन वास्तविकता यह है कि अब इस पर भी संकट मंडरा रहा है। कई जगह से समाचार आ रहे हैं कि बुनकर कर्ज में डूबे हुए हैं। आत्महत्या कर रहे हैं। और मजबूर होकर इस रोजगार को छोड़ रहे हैं।  

राष्ट्र चेतना जन समाख्या के एम. मोहनराव बताते हैं कि यहां सिल्क और काटन का बहुत अच्छा काम होता है। यह चिराला हथकरघा की हस्तकला और कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है। यहां की रेशम, जरी वाली साड़ी, विशेषकर पट्टूबादी साड़ी की ख्याति है।  लेकिन इसके बावजूद उपेक्षा का शिकार हो रहा है। इसके सामने कई चुनौतियां भी हैं। यह पूरा क्षेत्र संकट के दौर से गुजर रहा है। जीएसटी के आने के बाद यह संकट और बढ़ गया है। कच्चा  माल खरीदने के लिए बुनकरों के पास पैसे नहीं हैं।

उन्होंने बताया कि बुनकरों को 12 से 14 घंटे काम करना पड़ता है। ज्यादा काम और बहुत कम मजदूरी मिलती है, जो न्यूनतम मजदूरी से भी कम है। इस कारण उनकी हालत आर्थिक दृष्टि से अच्छी नहीं है।

एम. मोहनराव बताते हैं कि स्वास्थ्य बीमा जैसी योजनाएं भी बुनकरों तक नहीं पहुंच पाती। राज्य सरकार ने बीमा योजना बंद कर दी है। गर्भवती व जंचकी वाली महिलाओं को अवकाश नहीं मिलता है। शिक्षा की स्थिति बेहतर नहीं है।

लेकिन दुनिया भर में हाथ से बने उत्पादों, विशेषकर हाथ से बने कपड़ों की मांग बढ़ रही है। जो हुनर हाथ के काम में है, वह बिजली से चलने वाले पावरलूम से नहीं प्राप्त किया जा सकता। इस तरह देश-दुनिया व स्थानीय बाजारों में हथकरघे से तैयार उत्पादों का बाजार तलाश किया जाना चाहिए। यानी हथकरघा क्षेत्र को बचाया जा सकता है।

विकास की जो मौजूदा सोच है, वह है उसमें बड़े-बड़े भारी उद्योग, चमचमाते शहर, हाइवे, प्लाईओवर, महंगी और भारी पूंजी वाली आधुनिक व रासायनिक खेती और उद्योगों को बढ़ावा दिया जा रहा है। एक ही मंत्र है- बस, आमदनी व मुनाफा बढ़ना चाहिए, जीडीपी बढ़नी चाहिए। लेकिन हमें दूसरी तरफ लोगों के खान-पान, रहन-सहन, पोषण, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति सुधारनी है तो हमें समग्रता से सोचना पड़ेगा।

हमें आज ऐसी सोच की जरूरत है जिसमें गरीब, पिछड़े व सबसे कमजोर तबके के लोगों की स्थिति में सुधार हो। खेती-किसानी का संकट दूर हो और परंपरागत रोजगारों को फिर से खड़ा किया जा सके।

इस परिप्रेक्ष्य में गांधी जी सोच बारे में प्रासंगिक है। वे गांवों को स्वावलंबी बनाना चाहते थे। लेकिन अंग्रेजी राज के दिनों में भी हथकरघा बुनकरों के कार्य को बहुत क्षति पहुंचाई गई क्योंकि विदेशी सरकार ने अपने कारखानों में बने सामानों की बिक्री करवाने की और स्थानीय दस्तकारों व बुनकरों की तबाही की नीतियां अपनाईं।

इसके पहले भारतीय कारीगरों और दस्तकारों की दुनिया में ख्याति थी। आजादी के बाद भी स्वतंत्र भारत में इनकी अनदेखी की गई। जबकि देश में बुनकरी व दस्तकारी में बहुत बड़ा रोजगार था।  

ग्लोबल वार्मिंग और मौसम बदलाव के दौर में यह देखना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि किसी भी नए उत्पाद व तकनीक का स्वास्थ्य व पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों की खबरें आती रहती हैं।

शेख दरिया साब व उनके बेटे धागे की साइजिंग करते हुए

इन सबके मद्देनजर हमें अपने दस्तकार, हस्तशिल्प और बुनकरों को बचाना और उनके काम को बचाना बहुत जरूरी है। देश में हाथ का काम, हुनर बचा रहे तभी गरीबी और बेरोजगारी दूर होगी। गांव में लोगों को रोजगार उपलब्ध होगा, पलायन रूकेगा। शिक्षा, स्वास्थ्य और लोगों का जीवन स्तर बेहतर होगा।

और यह संभव है। हथकरघा क्षेत्र को बचाया जा सकता है। कई स्थानों पर लोगों ने इसे फिर से खड़ा कर दिया है। ऐसी कई सफलता की कहानियां हैं। राजस्थान के फलौदी क्षेत्र में उरमुल संस्था ने कशीदाकारी के हुनर को ख्याति दिलाई है। मध्यप्रदेश के महेश्वर में भी जहां बहुत कम हथकरघे बचे थे, इसे बचाने में सफलता पाई है। झारखंड में झारक्राफ्ट का काम की बहुत सराहना हुई है। झारखंड का क्राफ्ट बहुत ही कम समय में देश-दुनिया तक पहुंच गया था और बहुत बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ था। गुजरात के कच्छ में खमीर संस्था ने हस्तकला को फिर से खड़ा करने में अच्छा काम किया है। इस कार्यशाला में कच्छ के बुनकर खुद हथकरघों के साथ शामिल हुए थे।

जरूरत इस बात है कि ऐसी असरदार नीतियां बनाएं जिससे हुनरमंद व हथकरघे के काम की तरह लौट सकें और उनकी आजीविका को सुरक्षित किया जा सके। नए डिजाइन, प्रदर्शनियों और बुनकरों को सुविधाएं मिली तो हथकरघे बच सकते हैं। चिराला जैसे कस्बों की पहचान हथकरघे  व उनकी हस्तकला से है, और उसे बचाये रखने में ही समझदारी है।

सभी फोटो –  अशीष कोठारी

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