संथाली बच्चों के घर पहुंचा स्कूल (in Hindi)

By बाबा मायारामonMar. 30, 2021in Environment and Ecology

विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख  (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)

सभी फोटो : अरूणपोल सील व अंकिता सान्याल

अभिजीत हेम्बरूम कक्षा पहली में पढ़ता है और शुभम मुरूमू कक्षा तीन में। कोविड-19 के पहले जब स्कूल चलता था तब दोनों अलग-अलग कक्षा में बैठते थे, पर जब अगस्त महीने में उनकी बस्ती में अध्ययन केन्द्र शुरू हुआ, उसमें पढ़ाई होने लगी तो दोनों एक साथ पढ़ने लगे। वे इससे खुश हैं। शायद इन अध्ययन केन्द्रों में यह संभावना है कि बच्चे भविष्य में अपना खुद एक समुदाय बना लें, यह अरूणपोल सील थे, जो इस स्कूल के बारे में बता रहे थे।

पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले के छाचनपुर गांव में स्थित है यह स्कूल। इस स्कूल का नाम लक्ष्मी मुरमू स्मृति शिशु विद्यालय है। यह एक संथाली आदिवासियों का गांव है। गांव दारकेश्वर नदी के किनारे बसा है। अरूणपोल सील, इस स्कूल की स्थापना से जुड़े हैं, जो इस इलाके में एक्शन एड संस्था की फैलोशिप पर कुछ साल पहले तक कार्यरत थे, तभी से वे स्कूल की सोच व उसे साकार करने के काम में मदद कर रहे हैं।

इस स्कूल का सपना दो आदिवासी युवतियों ने देखा था। ये थीं लक्ष्मी मुरमू और रेवा मुरमू। दोनों ही संथाली आदिवासी युवतियां थीं, इसलिए सहज ही उन्होंने अपने समुदाय के बच्चों को पढ़ाने की सोची। और अपने सपने को उसे साकार किया। लेकिन बच्चों को पढ़ाने के इस काम को झटका तब लगा जब एक बीमारी से लक्ष्मी मुरमू का निधन हो गया। पर रेवा मुरमू ने हिम्मत नहीं हारी। कुछ साथियों की मदद से इस काम को आगे बढ़ाया। लक्ष्मी मुरमू की याद में ही स्कूल शुरू किया। इसमें अरूणपोल सील और आंबेडकर विश्वविद्यालय की एम.फिल. की छात्रा अंकिता सान्याल का साथ मिला। यह दोनों ही इस स्कूल के पाठ्यक्रम से लेकर प्रबंधन के कामों में मदद करते हैं। रेवा मुरमू का तो घर ही स्कूल के पास है। वे एक तरह से स्कूल की अभिभावक हैं। उन्होंने उन बच्चों के लिए अपना घर खुला रखा है, जिन अभिभावकों के पास बच्चों के पढ़ने के लिए अच्छी जगह नहीं है। यह बच्चों के लिए दूसरे स्कूल की तरह है।

कोविड बचाव के साथ पढ़ाई

अरूणपोल सील ने बताया कि कोविड-19 की महामारी आने के बाद स्कूल बंद करना पड़ा। अचानक तालाबंदी से कोई विकल्प भी नहीं था। लेकिन दो महीने बाद शिक्षकों ने गांव में बच्चों के अभिभावकों से मिलना, और बात करना शुरू किया। पहले अभिभावक बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तैयार नहीं थे। शिक्षकों ने लगातार संपर्क बनाए रखा। अभिभावकों को समझाया कि कोविड-19 से बचने के सभी उपाय करेंगे।  बच्चों को उनके घर या मोहल्ले में ही पढाएंगे, आखिर अभिभावक मान गए। बस्ती की अलग-अलग बसाहटों में अध्ययन केन्द्र शुरू हुए।

लक्ष्मी मुरूमू स्मृति शिशु विद्यालय के 6 शिक्षक 12 अलग-अलग बस्ती की बसाहटों में अध्ययन केन्द्र चल रहे हैं। जहां पूरे पश्चिम बंगाल राज्य में प्राथमिक शालाएं बंद हैं, वहीं बांकुड़ा जिले के इस छातना प्रखंड के 6 शिक्षक मीलों चलकर यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि स्कूली बच्चों की पढ़ाई का नुकसान न हो, वे पढ़ते रहें, कुछ न कुछ सीखते रहें।

कोविड-19 से बचाव के सभी उपाय किए जा रहे हैं। दो गज दूरी,  मास्क पहनना और नियमित रूप से बार-बार हाथ धोना इत्यादि उपाय किए जा रहे हैं। इसके लिए नुक्कड़ नाटक के माध्यम से जागरूकता अभियान चलाया गया। शिक्षक 5-6 के समूह में, हवादार व खुली जगह में बच्चों को पढ़ा रहे हैं। घर के आगे-पीछे के स्थान अब अध्ययन समूह में बदल गए हैं। जगह- जगह ऐसे समूहों में बच्चों को पढ़ते हुए देखना भी नया है, अच्छा है, पढ़ाई की मुहिम जैसा लगता है।

यह अध्ययन समूह, बस्तियों की बसाहट में अलग-अलग संचालित हो रहे हैं, जिसमें आसपास से बच्चे पढ़ने आ सकते हैं। पढ़नेवाले बच्चे एक किलोमीटर से कम की दूरी पैदल चलकर इन अध्ययन केन्द्रों में पहुंचते हैं। एक अध्ययन केन्द्र में दो समूह होते हैं जिसमें एक समूह में 5-6 बच्चे होते हैं। पढ़ाई का एक सत्र ढाई से तीन घंटे का होता है, जिसमें बीच में छुट्टी भी होती है। यह अध्ययन समूह हफ्ते में दो दिन लग रहा है।

स्कूल के पाठ्यक्रम को बच्चों के लिए मजेदार व अनुकूल बनाने में जुटी अंकिता सान्याल यहां कई महीने रहती हैं। जनजीवन व परिवेश का अवलोकन करती हैं। गांव के लोगों व विशेषकर महिलाओं से बात करती हैं। यह सोचती हैं कि किस तरह से बच्चों को आसानी से कुछ सिखाया जा सके। उनकी समझ बनाई जा सके।

रंगीन पत्थरों से सीखते बच्चे

अंकिता कहती हैं कि हम कोविड-19 के समय में पाठ्यक्रम को कुछ बदल रहे हैं। किताबी ज्ञान की जगह मजेदार गतिविधियां करवा रहे हैं। वैसे उन्होंने पहले भी पीपल की पत्तियों और पत्थर को रंगने की गतिविधियां करवाई हैं। ये न सिर्फ रंग-बिरंगी व आकर्षक लगती हैं बल्कि इससे विज्ञान व गणित विषयों को समझने में मदद भी मिलती है।

वे बताती हैं कि हमने कुछ समय पहले पत्तियों को रंगने की गतिविधि की। बच्चों ने पीपल के गिरे पत्तों को एकत्र किया, फिर उन पत्तियों को 5 दिनों तक सुखाया। जब हरी पत्तियों के रेशे सूख कर झड़ गए, वे पारदर्शी हो गए तो उसे रंग दिया। इस गतिविधि को बच्चों ने समूह में किया। इससे वे पत्तियों के भोजन बनाने की प्रक्रिया को भी समझ पाए। पेड़ में लगी हरी पत्ती, पेड़ से गिरी पत्ती व सूखी पारदर्शी पत्ती में अंतर को समझ पाए। इसी तरह छोटे- छोटे पत्थरों को रंगा, इन पत्थरों में वे त्रिभुज,वर्गाकार व आयताकार का अंतर भी समझ सके। यानी यह खेल-खेल में शिक्षा का अनूठी गतिविधियां हैं।

इस गतिविधि में समूह में काम करना सीखते हैं। प्रतिस्पर्धा की जगह परस्पर सहयोग का मूल्य विकसित होता है। सहशिक्षा होती है। इस तरह की गतिविधि महामारी के समय बढ़ाई जा रही हैं। कहानी, नाटक, नेचर स्टडी ( प्रकृति से सीखना) आदि के माध्यम से बच्चों को पढ़ाया जा रहा है।

अंकिता कहती हैं कि बच्चों को जितना आता है, वहां से आगे बताने की कोशिश की जाती है। वे खाली स्लेट नहीं है, वे घरेलू व खेत में काम से काफी कुछ सीखते रहते हैं, पर उसे शिक्षा व सीख नहीं माना जाता। क्योंकि शासकीय स्कूली पाठ्यक्रम में हाथ से काम करके सीखने को तरजीह नहीं दी जाती। वे इसके कुछ उदाहरण देती हैं कि जैसे बच्चे मशरूम एकत्र करते हैं, उन्हें पता है कि कौन सा मशरूम खाया जाता है, कौन सा नहीं। कुछ मशरूम जहरीले भी होते हैं, उन्हें संग्रहित नहीं करते। इसी तरह चूल्हे में कौन सी लकड़ी अच्छी जलती है, वह वे जानते हैं, गीली लकड़ी चूल्हे में नहीं जलती, इसलिए उसे नहीं लाते। यानी बच्चे रोजाना की जिंदगी से सीखते हैं और जो अनुभव होता है उसे आत्मसात करते हैं। इससे गांधी की नई तालीम की सोच भी जुड़ती है जो काम के साथ शिक्षा पर जोर देते थे। इस स्कूल की शिक्षण पद्धति में गांधी व टैगोर की साझा सोच शामिल है। इस स्कूल की दीवारें आधी खुली हैं, जिससे बच्चे पेड़ व चिड़ियां भी देख सकें। शायद यह टैगोर का प्रभाव है, जिन्होंने पेड़ों के नीचे बच्चों की कक्षाएं लगाने की शुरूआत की थी। शांतिनिकेतन में आज भी पेड़ों के नीचे बच्चों को पढ़ाया जाता है।

रंगीन पत्तियों से विज्ञान शिक्षा  

अध्ययन केंद्रो में बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाया जा रहा है। प्राथमिक गणित में गिनती, जोड़ना, घटाना, गुणा और भाग सिखाया जाता है। वे अंग्रेजी व बांग्ला में पढ़ना, लिखना व बोलना सीखते हैं। संथाली पढ़ानेवाले शिक्षक संथाली (ओलचिकी) में पढ़ाते हैं, इसे पढ़ाने के लिए 2 शिक्षक हैं। संथाली भाषा की लिपि ओलचिकी है, इसे जाननेवाले शिक्षक भी हैं।  बच्चे यहां पर्यावरणीय शिक्षा भी सीखते हैं जिससे ग्रामीण परिवेश व पर्यावरण को अच्छे से समझ सकें।

अरूणपोल कहते हैं कि हमारे सामने कई चुनौतियां भी हैं। जब नियमित स्कूल चलता है, अंकिता कक्षा में पढ़ाती हैं तो वे आयु व बच्चों के स्तर पर गतिविधियां चुनती हैं। ऐसी शिक्षण पद्धति अपनाती हैं जिससे बच्चे उन्हें ग्राह्य कर सकें। ऐसी गतिविधियों के माध्यम से सिखाती हैं जो बच्चों की ज्ञानार्जन क्षमता की पहुंच में हो। लेकिन कोरोना काल में सभी बसाहट में चार कक्षाएं चल रही हैं। शिक्षक प्रायः तीसरी और चौथी कक्षा को प्राथमिकता देते हैं। उन पर पाठ्यक्रम को पूरा करने का भी दबाव है। ऐसी स्थिति में हमारे निर्धारित मानदंडों को पूरा करने की चुनौती है।

इसके अलावा, कोरोना काल में शिक्षकों पर यात्रा का तनाव होता है। और कोरोना से बचाव के लिए भी सावधानी बरतनी होती है। इसलिए शिक्षक प्रयोगात्मक ढंग से पढ़ाई के बारे में चाहते हुए भी पूरी तरह ध्यान नहीं दे पाते। कई बार वे हमारी मौजूदगी में प्रयोगात्मक शिक्षण पद्धति से पढ़ाते हैं, पर जल्द ही पारंपरिक तरीकों पर लौट आते हैं। इसमें सुधार की जरूरत है। संवेदनशीलता व निगरानी की जरूरत सदैव बनी रहती है। लेकिन इस सबके बावजूद स्कूल चल रहा है, यह आशाजनक है।  

कुल मिलाकर, जो बच्चे महामारी के दौरान स्कूल और सहपाठियों व स्कूल में खेल की कमी महसूस करते थे, अध्ययन समूहों में नए-नए बच्चों से दोस्ती कर रहे हैं। स्कूल जाने की बजाय स्कूल ही उनके घर के पास आ गया है। यहां वे ज्यादा आजाद महसूस कर रहे हैं। गतिविधि आधारित शिक्षा से बच्चों को मजा आ रहा है। वे सीख भी रहे हैं। महामारी ने शिक्षकों, बच्चों व अभिभावकों तीनों को मिलकर काम करने व सीखने का मौका दिया है, शिक्षकों के साथ अभिभावकों की भी इस प्रक्रिया में भागीदारी बढ़ी है।

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